मक्सिम गोर्की की कहानी - सेमागा कैसे पकड़ा गया Maxim Gorky's Story - How Semaga was caught
मक्सिम गोर्की की कहानी - सेमागा कैसे पकड़ा गया
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सेमागा एकदम एकाकी क़हवाख़ाने में एक मेज़ पर
बैठा था। वोदका का एक पौवा और पन्द्रह कोपेक मूल्य का साग वाला मांस उसके सामने
रखा था।
निचले तल्ले का कमरा था। उसकी मेहराबदार छत
धुएँ से काली पड़ी थी। तीन लैम्प उसमें टिमटिमा रहे थे। एक उस जगह, जहाँ
कलवार बैठा था, और दो कमरे के बीच में। हवा धुएँ से अँटी थी।
धुएँ के भँवरों में धुँधली काली शक्लें तैर रही थीं - बोलती और गाती,
और
उन्मत्त होकर गालियाँ उछालती। वे जानती थीं कि यहाँ क़ानून उनका कुछ नहीं बिगाड़
सकता, यहाँ वे ख़ुद अपनी बादशाह हैं।
बाहर उन भयानक तूफ़ानों में से एक - जो
शरद के आखि़र में मनमाना सिर उठाते हैं - सनसना रहा था और बड़े-बड़े चिपचिपे हिमकण
मरमराकर गिर रहे थे। लेकिन भीतर गरमाई, चहल-पहल और चिरपरिचित सुहावनी महक ने
समा बाँध रखा था।
सेमागा, वहाँ बैठा,
धुएँ
के बीच से एकटक दरवाज़े की ओर देख रहा था। हर बार, जब भी किसी को
भीतर आने देने के लिए दरवाज़ा खुलता, उसकी आँखें पैनी हो उठतीं। वह आगे की
ओर थोड़ा-सा झुक जाता - यहाँ तक कि अपने चेहरे को ओट में करने के लिए
अपना एक हाथ तक उठा लेता - और भीतर आनेवाले की आकृति को बारीक़ी
से परखता। और एक बहुत ही वाजिब कारण से वह ऐसा करता था।
जब वह नये आनेवाले का बारीक़ी से - विस्तार
के साथ - अध्ययन कर चुकता और उस बात की दिलजमई कर लेता, जिसकी दिलजमई वह
करना चाहता था, तब वह अपने गिलास में वोदका उँडेलता, उसे
गले के नीचे उतारता, मांस और आलू के आधा एक दरजन टुकड़ों को मुँह में
भर लेता और बैठकर धीरे-धीरे उन्हें चबाता रहता, होंठों से
चटखारे लेते और अपनी बाँकी सैनिकशाही मूँछों को जीभ से चाटते हुए।
सीली हुई भूरी दीवार पर एक अजीब ऐंड़ी-बैंड़ी
परछाईं पड़ रही थी। यह उसके बाल-बिखरे बड़े सिर की परछाईं थी और जब वह मुँह चलाता था
तो ऊपर-नीचे होती रहती थी, मानो वह सिर हिला-हिलाकर बराबर किसी को
बुला रही थी और जिसे बुलाया जा रहा था वह कोई ध्यान नहीं दे रहा था।
सेमागा का चेहरा चौड़ा, गालों की
हड्डियाँ उभरी हुई और दाढ़ी से मुक्त थीं। उसकी आँखें बड़ी और भूरी थीं और उन्हें
सिकोड़े रखने की उसे एक आदत-सी पड़ गयी थी। काली घनी भौंहें उसकी आँखों पर छाया किये
थीं और घुँघराले बालों की एक लट - जिसका रंग कोई रंग नहीं था - उसकी
बायीं भौंह के ऊपर, क़रीब-क़रीब उसे छूती हुई, झूल
रही थी।
कुल मिलाकर, सेमागा का चेहरा
उन चेहरों में से नहीं था जिन्हें देखकर उनका विश्वास करने को जी चाहता है। उसके
चेहरे पर कसाव का वह भाव, जैसेकि किसी समय भी उठकर भाग जाने के
लिए वह तैयार बैठा हो, एक ऐसा भाव, जो इन लोगों के
बीच और इस जगह तक में बे-मौजूँ मालूम होता था, हृदय में उसके
प्रति किसी भी विश्वास को जमने नहीं देता था।
वह एक खुरदरा ऊनी कोट पहने था जो कमर में एक
डोरी से बँधा था। बग़ल में उसकी टोपी और दस्ताने पड़े थे और कुर्सी की पीठ के सहारे
रोबदार आकार-प्रकार का एक डण्डा टिका था जिसके एक छोर पर मूठ-सी उभरी थी। यह
जड़वाला सिरा था।
हाँ तो वह इस प्रकार बैठा खाने-पीने में मगन था
और कुछ और वोदका के लिए ऑर्डर देने ही जा रहा था कि तभी फटाक-से दरवाज़ा खुला और
क़हवाख़ाने में एक गोल-मटोल और खुरदरी-सी चीज़ लुढ़क आयी जो, दुनिया साक्षी
है, नाव खींचने के रस्से का एक बड़ा गोला मालूम होती थी जिसे खोलने के लिए
लुढ़का दिया गया हो। ठीक इस खुलते हुए गोले की भाँति लुढ़कते हुए उसने क़हवाख़ाने
में प्रवेश किया।
“ऐ, चौकस हो जाओ, लोगो! पुलिस
धावा कर रही है!” ऊँची विचलित बचकाना आवाज़ में वह चिल्ला उठी।
लोग तुरत कमर सीधी करके बैठ गये, शोर
बन्द हो गया और वे, चिन्तित मुद्रा में, सलाह करने लगे।
उनके बीच से, मरमरायी-सी बेचैन आवाज़ों में, कुछ
सवाल प्रकट हुए -
“क्या
सच कहते हो?”
“मुझे
मार डालना अगर ग़लत निकले तो! वे दोनों ओर से आ रहे हैं। घोड़ों पर भी और पैदल भी।
दो अप़फ़सर और ढेर सारे पुलिसमैन!”
“वे
किसकी खोज में हैं? कुछ मालूम हुआ?”
“सेमागा
की, मेरा अन्दाज़ है। निकिप़फ़ोरिच से वे उसके बारे में पूछताछ कर रहे थे,”
बचकाना आवाज़ ने सुर में जवाब दिया और वह गुदड़ीनुमा आकृति, जिसकी कि यह
आवाज़ थी, कलवार की दिशा में लुढ़क गयी।
“क्यों,
क्या
निकिप़फ़ोरिच पकड़ा गया?” टोपी को अपने उलझे हुए बालों पर जमाते और
बिना किसी उतावली के उठते हुए सेमागा ने पूछा।
“हाँ,
उन्होंने
उसे अभी-अभी पकड़ा है।”
“यहाँ?”
“चची मारिया के घर पर, ‘स्टेन्का’
शराब-घर।”
“क्या
तुम सीधे वहीं से आ रहे हो?”
“ओ-हो-हो! बाग़ के बाड़ों को फाँदता-लाँघता भागा
हुआ मैं यहाँ आया और अब मैं सीधे ‘बरजा’ शराब-घर जा रहा
हूँ। उन्हें सूचित करना भी ज़रूरी है, मेरी समझ में।”
“लपक जाओ!”
लड़का पलक झपकते क़हवाख़ाने से बाहर हो गया।
लेकिन उसके निकलने पर दरवाज़ा अभी बन्द हुआ ही था कि क़हवाख़ाने का पक्के बालों
वाला वृद्ध मालिक ईओना पेत्रेविच, जो कि एक धर्मभीरू आदमी था, आँखों
पर बड़ा-सा चश्मा चढ़ाये और खोपड़ी पर गोल टोपी चिपकाये, उसके पीछे लपका -
“ऐ छछून्दर, शैतान के बच्चे!
यह तूने क्या किया, सुअर की नापाक औलाद! पूरी रकाबी डकार गया!”
“किस चीज़ की?” सेमागा ने,
जो
अब दरवाज़े की ओर बढ़ रहा था, पूछा।
“कलेजी की। एकदम चट कर गया। मेरी तो यही समझ
में नहीं आता कि इतनी-सी देर में उसने यह किया कैसे? क्या एक ही बार
में पूरी रकाबी गले में उँडेल ली? हरामी कहीं का!”
“तो यह कहो कि तुम्हें वह भिखारी बना गया,
क्यों?”
दरवाज़े से बाहर होते हुए सेमागा ने रूखी आवाज़ में कहा।
नम और थपेड़े मारती हवा के बगूले - छोटी-मोटी
आवाज़ें करते - इस-उसको खड़खड़ाते - ऊपर और सड़क की
सीधा में सपाटे भर रहे थे और वायु उबलता हुआ दलिया की भाँति मालूम होती थी -
इतनी
घनता के साथ भीगे हुए हिम-कण गिर रहे थे।
सेमागा ने, एक क्षण के लिए
रुककर, कानों से टोह ली। लेकिन हवा के सनसनाने और हिम-कणों की सरसराहट के
सिवा, जो घरों की दीवारों-छतों पर गिर रहे थे, और कोई आवाज़
नहीं सुनायी दी।
वह चल दिया और दसेक डग भरने के बाद ही एक बाड़े
को उसने लाँघा और किसी घर के पिछले बाग़ में पहुँच गया।
तभी एक कुत्ता भौंका और उसके जवाब में घोड़े ने
हिनहिनाकर ज़मीन पर अपना पाँव पटका। सेमागा जल्दी से बाड़ा लाँघकर फिर सड़क पर आ गया
और नगर के मध्य भाग की ओर चल दिया। अब उसके डग, पहले की निस्बत,
अधिक
तेज़ी से उठ रहे थे।
कुछ मिनट बाद उसे अपने सामने एक आवाज़ सुनायी दी
जिसने उसे एक अन्य बाड़ा लाँघने के लिए बाध्य कर दिया। इस बार, बिना
किसी दुर्घटना के, वह आगे का सहन पार कर गया, खुले
दरवाज़े में से होकर बाग़ में दाखि़ल हुआ, अन्य बाड़ों को लाँघा और अन्य बाग़ों को
पार किया और अन्त में एक सड़क पर पहुँच गया जो उसी सड़क के समानान्तर चली गयी थी
जिसपर कि ईओना पेत्रेविच का क़हवाख़ाना था।
चलते-चलते उसने छिपने के लिए किसी सुरक्षित
स्थान के बारे में सोचने की कोशिश की, लेकिन ऐसा कोई स्थान दिमाग़ में नहीं
आया।
जितने भी सुरक्षित स्थान थे वे सब अब अरक्षित
हो गये थे, क्योंकि पुलिस धावा मारने पर उतर आयी थी। और
धावा करनेवालों या रात के चौकीदार द्वारा पकड़े जाने के ख़तरे के रहते ऐसी आँधी में
बाहर रात बिताने की कल्पना भी कोई ख़ास आह्लादपूर्ण नहीं थी।
वह अब धीरे-धीरे चल रहा था, सामने
तूफ़ान के सफ़ेद अँधेरे पर आँखें जमाये जिसमें से नर्म बर्फ़ के गालों से ढँके घर,
घोड़े
बाँधने के अड्डे, सड़क की रोशनी के खम्बे और पेड़ एकाएक बिना आवाज़
किये निकल आते थे।
तूफ़ान की आवाज़ से अलग एक विचित्र आवाज़ सुनकर
उसके कान खड़े हो गये। यह आवाज़ उसके सामने किसी जगह से आ रही थी। यह किसी बच्चे के
रोने की नर्म आवाज़ से मिलती थी। वह रुक गया और ख़तरे की गन्ध से आशंकित वन्य जीव
की भाँति उसकी गरदन आगे की ओर तन गयी।
आवाज़ आनी बन्द हो गयी।
सेमागा ने अपनी गरदन हिलायी और फिर आगे बढ़ चला।
टोपी को और भी अधिक नीचे खींचकर उसने अपनी आँखों को ढँक लिया और हिम-कणों से अपनी
गरदन को बचाने के लिए कन्धों को उचकाकर एक कूब-सा निकाल लिया।
उसे फिर रोने की आवाज़ सुनायी दी और इस बार यह
ठीक उसके पाँव के नीचे से आ रही थी। वह चौंका, रुका, नीचे
झुका अपने हाथों से ज़मीन को टटोला, सीधा खड़ा हो गया और उस बण्डल से बर्फ़
अलग करने लगा जो कि उसे मिला था।
“वाह, क्या साथी मिला है राह चलते! एक बच्चा!
बोलो, क्या कहते हो अब तुम?” शिशु को देखते हुए वह अपनेआप
बुदबुदाया।
उसमें गरमाई थी। वह किलबिला रहा था। पिघली हुई
बर्फ़ से वह एकदम गीला हो गया था। उसका चेहरा, जो सेमागा की
मुट्ठी जितना भी बड़ा नहीं था, लाल और झुर्रियाँ-पड़ा था, उसकी
आँखें बन्द थीं और उसका छोटा-सा मुँह रह-रहकर खुल और छोटी-छोटी चुसकियाँ-सी भर रहा
था। उसके चेहरे के इर्द- गिर्द लिपटे चिथड़े में से पानी चूकर उसके नन्हे दाँतविहिन
मुँह में पहुँच रहा था।
स्तब्ध हो जाने पर भी सेमागा में इस बात का चेत
था कि इन चिथड़ों से चुआ पानी बच्चे के पेट में नहीं जाना चाहिए, सो
उसने बण्डल को उलटकर उसे हिलाया।
लेकिन बच्चे को शायद यह रुचा नहीं और इसके
विरोध में वह ज़ोरों से चीख़ उठा।
“तक-तक!”
सेमागा ने कड़ी आवाज़ में कहा, “तक-तक!
मुँह से ज़रा भी आवाज़ न निकले, समझे! नहीं तो कान खींच दूँगा। बोलो,
मुझे
ऐसी क्या पड़ी थी जो मैं तुमसे उलझ गया? गोया मुझे बस तुम्हारी ही ज़रूरत थी।
लेकिन तुम हो कि रोना शुरू कर दिया। बोलो, नन्हें बुद्धू और कैसे होते हैं?”
लेकिन सेमागा के शब्दों का बच्चे पर ज़रा भी असर
नहीं हुआ, धीमी और रुआँसी आवाज़ में उसने चिचियाना जारी रखा। सेमागा इससे
अत्यधिक विचलित हो उठा -
“भई वाह, तुम भी कैसे
दोस्त हो? देखो, यह अच्छी बात नहीं है। यह मैं जानता हूँ कि तुम
गीले हो गये हो और तुम्हें ठण्ड सता रही है - और यह कि तुम
एकदम छिपकली हो, लेकिन मैं कर भी क्या सकता हूँ? बोलो,
तुम्हीं
बताओ।”
लेकिन बच्चा अभी भी चिचिया रहा था।
“नहीं मानते तो यह लो,” सेमागा ने
निर्णयात्मक स्वर में कहा, चिथड़े को बच्चे के चारों ओर और कसकर
लपेटा और उसे फिर ज़मीन पर रख दिया।
“और कोई चारा नहीं। तुम ख़ुद देख सकते हो कि मैं
तुम्हारा कुछ नहीं कर सकता। मैं ख़ुद भी एक तरह से परित्यक्त ही हूँ। अच्छा तो अब
राम-राम और बस।”
सेमागा ने हवा में हाथ हिलाया और चल दिया,
बुदबुदाता
हुआ -
“अगर पुलिस छापा न मारती तो शायद तुम्हारे लिए
कोई न कोई घोंसला खोज निकालता। लेकिन पुलिस छापा मार रही है। इसके लिए मैं क्या कर
सकता हूँ? नहीं दोस्त, कुछ नहीं कर सकता। मुझे माफ़ करना,
सच,
तुम्हें
माफ़ करना ही पड़ेगा। तुमने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, तुम एकदम
निर्दोष हो और तुम्हारी माँ एक डायन है - पूरी डायन। छिनाल कहीं की! अगर कभी
मेरे पाले पड़ गयी तो, कम्बख़्त एक भी पसली बाक़ी न रहने दूँ, भुरकस
निकाल दूँ। होश ठिकाने आ जाये और फिर कभी ऐसा करने का साहस न हो। मालूम हो जाये कि
बस, यहाँ तक बढ़ना चाहिए, इससे आगे नहीं । ओइयू, स्त्री
के चोले में शैतान, हृदयहीन गाय! दुखों की आग में तू जलेगी,
धरती
में समाना चाहेगी तो वह भी तुझे उगल देगी। तू समझती क्या है? यह
भी कोई खेल है कि जहाँ-तहाँ मुँह मारा, जब बच्चे हुए तो उन्हें इधर-उधर फेंक
दिया? क्यों, यही न? अगर मैं तेरा झोंटा पकड़कर तुझे बाज़ार
में से घसीटता हुआ ले चलूँ तो? तेरा यही इलाज है, कुतिया!
क्या तू इतना भी नहीं जानती कि ऐसी आँधी तूफ़ान में बच्चों को जहाँ-तहाँ नहीं
फेंका जा सकता? वे कमज़ोर और बेबस होते हैं और इस बर्फ़ को
निगलकर मर सकते हैं। बेवकूफ़ कहीं की! बच्चे को फेंकना ही था तो यह आँधी-पानी निकल
जाने देती, कोई बढ़िया सूखी रात इसके लिए चुनती। मेंह-पानी
से मुक्त रात में उनके जीवित रहने की सम्भावना ज़्यादा हो सकती है और उनपर अधिक
लोगों की नज़र पड़ सकती है। लेकिन ऐसी रात में भी क्या कोई घर से निकलता है?”
और यही सब सोचते-सोचते न जाने कब सेमागा फिर उस
बच्चे के पास पहुँच गया और अपनी गोदी में उसने उसे उठा लिया। उसकी माँ को सम्बोधित
करने में वह इतना डूबा था कि उसे ख़ुद पता नहीं चला कि कब और कैसे यह सब हो गया।
लेकिन उसने बच्चे को उठा अपने कोट के भीतर छिपा लिया। और उसकी माँ को आखि़री और
सबसे तेज़ डाँट पिलाने के बाद वह फिर अपने रास्ते पर चल दिया। उसका हृदय भारी था और
उतना ही दयनीय, जितना दयनीय कि वह बच्चा, जिसके
लिए उसका हृदय इतना उमड़-घुमड़ रहा था।
बच्चा क्षीण भाव से किलबिला और चूँ-चूँ की धीमी
आवाज़ कर रहा था जो भारी ऊनी कोट और सेमागा के भारी पंजे से दबी वहीं खो जाती थी।
कोट के नीचे फटी कमीज़ के सिवा सेमागा और कुछ नहीं पहने था, सो उसे बच्चे के
नन्हे बदन की गरमाई अनुभव करने में देर नहीं लगी।
“एइयू, नन्हे बरखुरदार!” बर्फ़ के बीच बढ़ते
हुए वह बुदबुदाया, “राह में मिले मेरे साथी, तेरा
मामला सचमुच में गड़बड़ है। आसार अच्छे नज़र नहीं आते। भला बता तो सही, तेरा
मैं क्या करूँगा? और तेरी वह माँ...बस...बस, चुपचाप
पड़ा रह। कहीं नीचे न गिर पड़ना!”
लेकिन बच्चा किलबिलाता रहा और अपनी कमीज़ के छेद
में से उसके होंठों के गर्म स्पर्श का उसने अनुभव किया। उसके होंठ उसकी छाती पर
कसमसा रहे थे।
सेमागा सहसा रुककर एकदम निश्चल खड़ा हो गया और
चकित आवाज़ में ज़ोरों से कह उठा -
“अरे, यह स्तन की टोह में है। अपनी माँ के
स्तन की! ओ भगवान! अपनी माँ के स्तन की!”
और, जाने क्यों, सेमागा का समूचा
बदन थरथरा उठा - शायद लज्जा से, शायद भय से -
किसी
ऐसे भाव से, जो विचित्र था, बहुत ही प्रबल,
दुखद
और हृदयविदारक।
“मुझे
अपनी माँ समझता है, जंगली कहीं का, इतनी भी अक़ल
नहीं! आखि़र तेरा इरादा क्या है? और तू मुझसे चाहता क्या है? भाई
मेरे, मैं एक फ़ौजी आदमी हूँ, और एक चोर, अगर तू जानना ही
चाहता है तो!”
हवा की सायँ-सायँ में एक अजब वीरानगी महसूस हो
रही थी।
“तुम्हें अब सो जाना चाहिए। समझे, अब
चुपचाप सो जाओ। ऊँ-हुक, चीं-चीं न करो, सो जाओ। होंठों
को क्या कसमसाते हो, एक बूँद पल्ले नहीं पड़ेगी। बस, सो
जाओ। यह देखो, मैं तुम्हें एक लोरी सुनाता हूँ, हालाँकि
यह काम मेरा नहीं, तुम्हारी माँ का है। हाँ तो, सो
जा रे लल्ला, सो जा रे। बस, बस, अब
सो जा, मैं कोई आया थोड़े ही हूँ!”
और सहसा सेमागा, अपने सिर को
बच्चे की ओर ख़ूब नीचे झुकाये, धीमे और विलम्बित स्वरों में, हृदय
की समूची कोमलता बटोरकर, गाने लगा -
तू
हरजाई ज़रा न माई
करे
क्यों कोई तुझसे प्यार
और इन बोलों को उसने ऐसे गाना शुरू किया जैसे
लोरी गा रहा हो।
सफ़ेद अँधेरा अभी भी चारों ओर उमड़-घुमड़ रहा था
और सेमागा बच्चे को अपने कोट में छिपाये पटरी पर बढ़ता जा रहा था। बच्चे का
चिचियाना जारी था और चोर सेमागा कोमल स्वरों में गा रहा था -
जब
होगी सुहानी रात,
करूँगा
तुझसे दो-दो बात,
फिर
खाकर तगड़ी लात
काँपेगा
थरथर गात!
और उसके गालों पर से बूँदे लुढ़ककर नीचे तिरती आ
रही थीं। हो न हो, यह पिघलती बर्फ़ की बूँदे थीं। रह-रहकर उसके
बदन में एक कँपकँपी-सी उठती, गला रुँध-सा और छाती पर एक बोझ-सा
मालूम होता। इतनी वीरानगी का उसने पहले कभी अनुभव नहीं किया था जितनी की वह अब -
इस
सूनी सड़क पर, तूफ़ान के बीच, कोट के भीतर
चूँ-चूँ करते बच्चे को छिपाये - चलते समय अनुभव कर रहा था।
लेकिन वह, फिर भी, बढ़ता
ही गया।
पीछे से टापों की धुँधली आवाज़ सुनायी दी।
घुड़सवार पुलिसमैनों की छाया-आकृतियाँ अँधेरे में उभरीं और देखते न देखते उसके
बराबर में आ पहुँची।
एक साथ दो आवाज़ों ने पूछा -
“ऐ, कौन जा रहा है?”
“तेरा नाम क्या है?”
“और यह भीतर क्या छिपाये है? इसे
बाहर निकाल, जल्दी!” अपने घोड़े को एकदम पटरी से सटाते हुए
एक पुलिसमैन ने आदेश दिया।
“यह क्या? - अरे, यह
तो बच्चा है!”
“तेरा नाम?”
“सेमागा...आख़्तीर-निवासी।”
“ओ-हो! वही जिसकी हमें टोह थी। सीधे, मेरे
घोड़े के आगे-आगे चले चलो!”
“मैं और बच्चा, घरों की ओट में
ही चलें तो अच्छा हो। यहाँ सड़क पर हवा बहुत तेज़ है। बीच सड़क हमारे लिए ज़रा भी ठीक
जगह नहीं है, हम तो ऐसे ही जाम हो रहे हैं।”
पुलिसमैनों के कुछ पल्ले नहीं पड़ा कि वह क्या
कह रहा है, लेकिन उन्होंने उसे घरों की ओट में ही चलने
दिया जबकि वह ख़ुद, जहाँ तक बन सकता था, निकट रहते हुए
अपने घोड़ों पर उसके साथ-साथ चलने लगे।
इस प्रकार उनकी निगरानी में सेमागा ने पुलिस
स्टेशन तक समूचा रास्ता पार किया।
“सो तुम लोगों ने उसे गिरफ्तार कर लिया,
कर
लिया न? यह बहुत अच्छा हुआ,” दफ्तर प्रवेश करने पर पुलिस-चीफ़ ने
उनसे कहा।
“और यह बच्चा? इसका मैं क्या
करूँ?” अपने सिर को झटकाते हुए सेमागा ने पूछा।
“यह
क्या? कैसा बच्चा?”
“यह
है। सड़क पर पड़ा था। यह देखिये।”
और सेमागा ने कोट के भीतर से उसे बाहर निकाल
लिया। बच्चा उसके हाथों में लिजबिज पड़ा था।
“लेकिन यह मरा है!” पुलिस-चीफ़ चिल्ला उठा।
“मरा है?” सेमागा ने
दोहराया। झुककर उसने नन्हे बण्डल की ओर देखा और फिर उसे मेज़ पर रख दिया।
“क्या
तमाशा है,” उसाँस भरते हुए उसने कहा, “और मैं भी इसे एकदम सीधे उठा लाया।
कौन जाने, अगर मैं इसे वहीं...लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया। मैंने इसे उठाया और
इसके बाद फिर नीचे रख दिया।”
“यह
क्या बड़बड़ा रहे हो?” पुलिस-चीप़फ़ ने पूछा।
सेमागा ने अपने इधर-उधर खोई हुई नज़र से देखा।
बच्चे के मरने के साथ-साथ वे सब भाव भी
ज़्यादातर मर चुके थे जिनका कि सड़क पर चलते समय उसने अनुभव किया था।
यहाँ वह सर्द अफ़सरशाही से घिरा था, जेल
और अदालत के सिवा उसे और कुछ नज़र नहीं आता था। आहत होने की चेतना ने उसके हृदय को
उमेठा। बच्चे के मृत शरीर की ओर उसने देखा। उसकी नज़र में विक्षोभ था। एक आह भरते
हुए बोला -
“तुम भी एक ही रहे! तुम्हारी ख़ातिर मैं पकड़ा
गया और नतीजा कुछ नहीं। मैं था कि सोच रहा था...लेकिन तुम अपनी करनी से बाज़ न आये
और मेरे शरीर पर ही मर गये। वाह!”
और सेमागा ज़ोरों से अपनी कनपटी खुजलाने लगा।
“इसे ले जाओ!” सेमागा की ओर गरदन से इशारा करते
हुए चीप़फ़ ने कहा।
सो वे उसे ले गये।
और बस।
(1895)
Maxim Gorky's Story - How Semaga was caught
Semaga was sitting all by himself at a table in a tavern
with a pint bottle of vodka and fifteen-kopeks worth of stew in front of him.
The basement room with its smoke-blackened vaulted ceiling
was lighted by one lamp over the bar and two in the middle of the room. The air
was dense with smoke in whose billows floated vague dark forms that talked and
sang and swore boisterously, knowing that here they were beyond the law.
One of those fierce storms of late autumn was raging
outside, with big stickly snowflakes coming down heavily, but inside it was
warm and noisy and had a good familiar smell.
Semaga sat gazing intently through the smoke at the door,
his eyes growing sharper every time it opened to let someone in. When this
happened he would lean forward slightly and might even raise a hand to shield
his face as he scrutinized the features of whoever had entered. And he had good
reason to do this.
When he had studied the newcomer in detail and convinced
himself of whatever it was he wished to be convinced of, he would pour himself
out another glass of vodka, gulp it down, fork half a dozen pieces of meat and
potatoes and sit there munching slowly, smacking his lips and licking his
bristling soldier-moustache.
A curiously shaggy shadow was cast upon the damp grey wall
by his big tousled head, and it bobbed as he chewed, as if it were insistently
nodding to someone who made no response.
Semaga’s face was broad, high-cheekboned, and beardless; his
eyes were big and grey and he had a habit of screwing them up; dark bushy
eyebrows shaded his eyes and a curly lock of no-colour hair hung down over the
left eyebrow, almost touching it.
On the whole, Semaga’s face was not one to inspire trust;
there was something disconcerting about the expression of strained
determination it wore, an expression out of place even among these people and
in this place.
He was wearing a ragged woollen coat tied at the waist with
a piece of cord, beside him lay his cap and mittens, and leaning against the
back of his chair was a club of impressive dimensions with a bulge at one end
formed by the root.
And so he sat on enjoying his meal and was just about to ask
for more vodka when the door was thrown open with a bang, and into the tavern
rolled something round and ragged that looked for all the world like a big ball
of tow coming unwound.
“Beat it, men! A raid!” it cried excitedly in a high
childish voice.
The men instantly sat back, fell silent, began to confer
anxiously, while from their midst came a few questions in hoarse uneasy voices:
“D’ye mean it?”
“So strike me dead! They’re coming from both sides. On
horses and on foot. Two officers and ever so many policemen.”
“Who are they after, have you heard?”
“Semaga, I guess. They questioned Nikiforich about him,”
piped the childish voice while the ball-like figure of its owner rolled in the
direction of the bar.
“Why, have they caught Nikiforich?” asked Semaga, clapping
his cap on to his matted hair and getting up unhurriedly.
“Yes, they just caught him.”
“Where?”
“At Aunt Maria’s, in Stenka Street.”
“You just come from there?”
“Uh-huh. I came rushing here over the garden fences and now
I’m off to ‘The Barge’; they’ll be wanting to know there, too, I guess.”
‘Run along.”
The boy was out of the tavern in a trice. No sooner had the
door closed behind him than skinny old Iona Petrovich, the proprietor, a
God-fearing man in big spectacles and black skull-cap, called after him:
“Hey, you little imp, you son of Satan! What’s this you’ve
done, you accursed offspring of Ham! Gobbled up a whole plateful!”
“Of what?” asked Semaga, who was now making his way to the
door.
“Liver. Licked the plate clean. How he ever did it so quick
is more than I can see, the scamp! All in one go!”
“So now you’ll have to go begging, I suppose,” observed
Semaga dryly as he went out of the door.
A wet, buffeting wind made little sounds as it swirled above
and along the street, and the air was like a mass of boiling porridge, so
thickly fell the wet snowflakes.
Semaga stood there listening a moment, but nothing was to be
heard but the swish of the wind and the rustly of the snow falling on the walls
and roofs of the houses.
He walked off, and when he had taken about ten steps, he
climbed over a fence and found himself in somebody’s back garden.
A dog barked and in reply a horse neighed and stamped on the
floor. Semaga quickly climbed back into the street and set out towards the
centre of town, walking faster now.
A few minutes later he heard a noise in front of him that
sent him over anotehr fence. This time he crossed the front yard without
mishap, went through the open gate into the garden, climbed other fences and
crossed other gardens until he found himself in a street running parallel to
the one on which Iona Petrovich’s tavern stood.
As he walked he tried to think of a safe place to hide in,
but he could not.
All the safe places had become unsafe now that the police
had taken it into their heads to make a raid, and the prospect of spending the
night outside in such a storm and with the danger of being caught by the
raiders or a night watchman was not very cheerful.
He walked on slowly, peering ahead into the white murk of
the storm out of which, soundlessly, rose houses, hitching posts, street lamps,
trees, all of them plastered with soft clumps of snow.
Above the noise of the storm he caught a strange noice
coming from somewhere in front of him. It resembled the soft crying of a baby.
He stopped with his neck thrust out in the attitude of a wild animal sensing
danger.
The sound died away.
Semaga shook his head and went on, pulling his cap further down
over his eyes and hunching up his shoulders to keep the snow out of his neck.
Again he heard a wail, and this time it came from under his
very feet. He started, stopped, bent down, felt the ground with his hands,
stood up and shook the snow off the bundle he had found.
“A fine how-d’ye-do! A baby! What d’ye think of that!” he
muttered to himself as he studied the infant.
It was warm, it wriggled and was all wet with melted snow.
Its face, not quite as big as Semaga’s fist, was red and wrinkled, its eyes
were closed and its tiny mouth kept opening and making little sucking
movements. Water dripped off the rags round its face into its tiny toothless
mouth.
Dumbstruck as he was, Semaga realized that the baby ought
not to swallow the water dripping off these rags, and so he turned the bundle
upside down and shook it.
This, it seems, was not to the baby’s liking, for it let out
a squeal of protest.
“Tut-tut!” said Semaga severely. “Tut-tut! Not a word, or
you’ll get it from me! What am I fussing with you for anyway, eh? As if I had
any need of you! And you go and cry, you little simpleton!”
But Semaga’s words had not the least effect on the baby,
which kept on squealing so softly and plaintively that Semaga was very much put
out.
“Come, matey, that’s not nice. I know you’re cold and wet –
and that you’re just a little shaver, but what the deuce am I to do with you?”
Still the baby squealed.
“There’s just nothing I can do with you,” said Semaga
conclusively, pulling the wrappings tighter round his find and putting it back
on the ground.
“Can’t be helped. You can see for yourself there’s nothing I
can do with you. I’m a sort of a foundling myself. So it’s good-bye to you and
that’s that.”
And with a wave of his hand Semaga walked off, muttering the
while:
“If it wasn’t for the raid, maybe I’d find a place to stick
you in. But there is a raid. What can I do about it? Nothing, matey. You’ll
just have to forgive me. It’s an innocent soul you are, and your mother’s a
fiend. If I ever find out who you are, you hussy, I’ll break your ribs and
knock the stuffings out of you. That’ll teach you how to behave next time! Go
just so far and no further. O-o-o, you she-devil, you heartless cow! May you
die in misery, and may the earth vomit you up. So you think you can go about having
babies and throwing them away, do you? And if I drag you through the street by
the hair? Oh, I’d do it all right, you strubpet! Don’t you know you can’t go
tossing babies around in a storm like this? They’re weak and helpless and they
can die from swallowing this snow. Want to pick a nice dry night to throw your
babies away in, you fool. They’ll live longer on a dry night, and people are
more apt to find ’em. As if anybody was out on a night like this!”
At just what point in his reflections Semaga returned to his
find and picked it up again he himself did not notice, so engrossed was he in
his conversation with its mother. But he did pick it up and put it inside his
coat, and after one last withering blast at its mother, he went on his way with
a heavy heart, as pitiable as the baby for whom he felt such pity.
His find wriggled feebly and lt out faint peeps that were
smothered by the heavy woolen coat and Semaga’s enormous paw. Semaga had on
nothing but a torn shirt under his coat, and so he soon felt the warmth of the
baby’s tiny body.
“You little brat!” muttered Semaga as he made his way
through the snow. “Your affairs look pretty bad, matey, because what am I
supposed to do with you? Tell me that. As for that mother of yours – come, now,
lie quiet! You’ll fall out.”
But the infant kept on wriggling and Semaga felt its warm
face rubbing against his breast through a hole in his shirt.
Suddenly Semaga stopped dead in his tracks and exclaimed in
a loud voice:
“Why it’s the breast he’s after! His mother’s breast! Good
God! His mother’s breast!”
And for some reason Semaga began to tremble all over,
perhaps from shame, perhaps from fear – from some emotion that was strange,
powerful, painful and heart-breaking.
“It takes me for its mother! Ekh, you poor little beastie!
What d’ye want of me? And what are you doing to me? I’m a soldier, matey, and a
thief, if you must know.”
The wind whistled desolately.
“You’d ought to go to sleep. Go to sleep, now. Hush-a-bye.
Go to sleep. You’ll not get a drop out of me. Sleepy-bye. I’ll sing you a song,
though it’s your ma as ought to be doing that. Come, now, come;
lulla-lulla-lullaby. I’m no nursemaid – go to sleep.”
And suddenly Semaga, his head bent low over the baby, sang
in soft long-drawn tones, as tenderly as he could:
You’re a whore and you’re a bore,
There’s nothing much to love you for.
There’s nothing much to love you for.
These words he sang to the tune of a lullaby.
The milky murk kept seething all around and Semaga walked
down the pavement with the baby inside his coat, and while the baby kept up its
squealing, the thief sang tenderly:
I’ll come and see you one fine night,
And when I leave you’ll look a fright.
And when I leave you’ll look a fright.
And down his cheeks stole drops of what must have been
melting snow. From time to time the thief gave a little shudder, there was a
lump in his throat and a weight on his heart, and never had he felt so desolate
as while walking down that empty street in the storm with the baby squealing
inside his coat.
But he went on just the same.
Behind him he heard dull hoof-beats. The silhouettes of
mounted policemen loomed out of the darkness and soon they were beside him.
Two voices asked simultaneously:
“Who goes there?”
“What’s your name?”
“What’s that you’re carrying? Out with it!” ordered on of
the policemen, leading his horse straight up the pavement.”
“This? A baby.”
“Your name?”
“Semaga – from Akhtyr.”
“Oho! The very man we’re looking for! Get up there in front
of my horse!”
“Me and the baby’d better hug the houses. The wind’s not so
strong there. The middle of the street’s not place for us – we’re froze as it
is.”
The policemen did not grasp what he was saying, but they let
him keep to the shelter of the houses while they rode as close as possible and
did not take their eyes off him.
With such an escort Semaga walked all the way to the
police-station.
“So you’ve caught him, have you? That’s fine,” said the
Chief of Police as they entered his office.
“What about the baby? What am I to do with it?” asked Semaga
with a toss of his head.
“What’s that? What baby?”
“This one. I found it in the street. Here.”
And Semaga pulled his find out of his coat. The baby hung
limp in his hands.
“But it’s dead!” exclaimed the Chief of Police.
“Dead?” echoed Semaga. He stared down at the little bundle
and laid it on the desk.
“Funny,” he observed, adding with a sigh: “I’d ought to have
picked it up straight away. Maybe if I had – But I didn’t. I picked it up and
then put it down again.”
“What’s that you’re muttering?” asked the Chief.
Semaga cast a forlorn look about him.
With the death of the baby had died most of the sentiments
he had felt while walking down the street.
Here he was surrounded by cold officialdom, with nothing to
look forward to but jail and a trial. A sense of injury welled up within him.
He glanced reproachfully at the body of the baby and said with a sigh:
“A fine one you are? I let myself get caught on account of
you, and all for nothing it turns out. And here I was thinking – But you went
and died on me. Humph!”
And Semaga scratched the back of his neck vigorously.
“Lead him away,” said the Chief, nodding towards Semaga.
So they led him away.
And that’s all.
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