जैक लंडन की कहानी -ज़िन्दगी से प्यार Jack London's Story - Love of Life
जैक लंडन की कहानी -ज़िन्दगी से प्यार
“सब
कुछ में से बस यह बचा रह जाएगा-
उन्होंने जिन्दगी जी है और अपना पासा फ़ेंका है
खेल में बहुत कुछ जीता जाएगा
पर पासे का सोना तो हारा जा चुका है।”
वे दर्द से लँगड़ाते हुए कगार से उतरे, और आगे चल रहा
आदमी रुखड़े पत्थरों के बीच एक बार लड़खड़ा गया। वे थके ओर कमजोर थे, और
उनके चेहरों पर धीरज का वह भाव था जो लम्बे समय तक कठिनाई का सामना करने से आ जाता
है। उनके कन्धों पर भारी पिट्ठू और लपेटे हुए कम्बल लदे थे। उनके माथे से गुजरता
पिट्ठू का चौड़ा पट्टा उसे सहारा दे रहा था। दोनों के पास एक-एक राइफ़ल थी। वे झुके
हुए चल रहे थे; कन्धे
आगे को निकले और सिर और भी आगे बढ़ा हुआ, आँखें जमीन पर गड़ी हुई।
“काश हमारे पास उनमें बस दो ही कारतूस होते जो हमारे उस भण्डार में
पड़े हुए हैं,” दूसरे आदमी ने कहा।
उसकी आवाज एकदम भावहीन और नीरस थी। उसकी बात में कोई उत्साह नहीं था; और चट्टानों के ऊपर से बहती फ़ेनिल
दूधिया धारा में लँगड़ाते हुए चलते पहले आदमी ने कोई जवाब नहीं दिया।
दूसरा आदमी उसके पीछे-पीछे चलता रहा। उन्होंने अपने जूते उतारे नहीं
थे, हालाँकि पानी बर्फ़-सा ठण्डा था-इतना ठण्डा कि
उनके टखने दुखने लगे और उनके पाँव सुन्न हो गये। कहीं-कहीं पानी उनके घुटनों से
टकराता था और दोनों को डगमगाते हुए अपने पैर ठीक से टिकाने पड़ते थे।
पीछे चल रहा आदमी एक चिकने पत्थर पर फि़सलकर करीब-करीब गिर पड़ा; उसने पूरा जोर लगाकर खुद को सँभाला,
लेकिन
उसके मुँह से दर्द की तेज चीख निकल पड़ी। उसे चक्कर-सा आ गया और घूमते हुए उसने
अपना खाली हाथ आगे बढ़ाया, मानो हवा को थामना चाह रहा हो। सँभलने
के बाद उसने आगे कदम बढ़ाया, लेकिन एक बार फि़र लड़खड़ाकर लगभग गिर
पड़ा। फि़र वह स्थिर खड़ा होकर आगेवाले को देखने लगा, जिसने एक बार भी
सिर नहीं घुमाया था।
आदमी पूरे एक मिनट तक चुपचाप खड़ा रहा, जैसे दुविधा में
हो। फि़र उसने पुकारा।
“सुनो, बिल, मेरे टखने में मोच आ गयी है।”
बिल दूधिया पानी से होकर डगमगाता हुआ बढ़ता गया। उसने मुड़कर देखा
नहीं। पहला आदमी उसे जाते हुए देखता रहा, और हालाँकि उसका चेहरा अब भी पहले की
तरह भावहीन था, पर उसकी आँखें घायल हिरन-सी हो गयी थीं।
दूसरा आदमी लँगड़ाते हुए उस पार के तट पर चढ़ा और पीछे देखे बिना सीधे
चलता गया। धारा के बीच खड़ा आदमी उसे देख रहा था। उसके होंठ हल्के-से काँपे,
जिससे
उन्हें ढँके हुए भूरे बालों के गुच्छे में हलचल साफ़ दिखाई दी। उसने मूँछों पर जुबान
फि़राई।
“बिल!” उसने फि़र आवाज लगाई। यह एक मुसीबतजदा इनसान की मदद की गुहार
थी, लेकिन बिल की गर्दन नहीं घूमी। आदमी उसे जाता देखता रहा। वह भयानक
ढंग से लँगड़ाते और आगे की ओर झुके हुए नीची पहाड़ी के हल्के उभार पर चला जा रहा था।
वह उसे जाते हुए देखता रहा जब तक कि वह उभार के दूसरी ओर पहुँचकर आँख से ओझल नहीं
हो गया। फि़र उसने नजर घुमाई और धीरे-धीरे अपने चारों ओर की उस दुनिया को देखा
जिसमें बिल उसे अकेला छोड़ गया था।
क्षितिज के पास सूरज का सुलगता गोला कुहासे और भाप के बीच से
धुँधला-सा दिख रहा था। आदमी ने एक टाँग पर वजन देकर खड़े होते हुए जेब से घड़ी
निकाली। चार बज रहे थे, और चूँकि जुलाई का आखिरी या अगस्त का पहला दिन था-उसे
तारीख ठीक-ठीक नहीं मालूम थी-इससे उसने अनुमान लगाया कि सूरज लगभग
उत्तर-पश्चिम में था। उसने दक्षिण की ओर देखा। उसे मालूम था कि उन धुँधली पहाड़ियों
के पार कहीं ग्रेट बियर लेक है। उसे यह भी पता था कि उस दिशा में कनाडियन बैरन के
उजाड़ विस्तार को बीच से काटता हुआ आर्कटिक घेरा गुजरता है। जिस धारा में वह खड़ा था,
वह
कॉपरमाइन नदी में जाकर मिलती थी जो उत्तर की ओर बहकर कोरोनेशन खाड़ी और आर्कटिक
सागर में गिरती थी। वह कभी वहाँ गया नहीं था, पर उसने एक बार
हडसन बे कम्पनी के चार्ट पर इसे देखा था।
एक बार फि़र उसने अपने इर्द-गिर्द नजर दौड़ाई। यह कोई उत्साहजनक दृश्य
नहीं था। हर ओर क्षितिज धुँधुला-सा था। सारी पहाड़ियाँ नीची थीं। कहीं कोई पेड़ नहीं
था, न कोई झाड़ी, न घास-कुछ नहीं,
बस
एक जबर्दस्त और भयंकर वीरानी जो उसकी आँखों में डर भरती जा रही थी।
“बिल!” वह फ़ुसफ़ुसाया, पहले एक बार, फि़र दोबारा,
“बिल!“
वह दूधिया पानी के बीच खड़ा ऐसे दुबक रहा था जैसे दृश्य की विराटता
उसे बेपनाह ताकत से दबा रही हो, अपनी भीषणता से उसे बुरी तरह कुचले डाल
रही हो। वह जूड़ी के दौरे की तरह काँपने लगा और छपाक की आवाज के साथ बन्दूक उसके
हाथ से गिर पड़ी। इससे वह चौंक गया। उसने अपने दिल से डर दूर किया और खुद को
सँभालकर पानी में टटोलते हुए हथियार बाहर निकाल लिया। उसने अपना पिट्ठू बाएँ कन्धे
पर और ऊपर चढ़ा लिया ताकि चोटिल टखने पर उसका वजन कुछ कम हो सके। फि़र वह धीरे-धीरे
और सावधानी के साथ तट की ओर चल दिया। हर कदम पर दर्द की लहर उसके पैर से होते हुए
बदन में दौड़ जाती थी।
वह रुका नहीं। पागलपन की हद तक पहुँची बदहवासी के साथ दर्द पर ध्यान
दिये बिना, वह हड़बड़ाते हुए उस पहाड़ी के ऊपर चढ़ गया जिसके दूसरी ओर उसका साथी गुम
हो गया था। वह लँगड़ाते और भचकते अपने साथी से भी ज्यादा भद्दा और विद्रूप लग रहा
था। ऊपर पहुँचकर उसने एक छिछली, वीरान घाटी देखी। उसने एक बार फि़र
अपने डर पर काबू पाया, पिट्ठू को बाएँ कन्धे पर और ऊपर चढ़ाया और एक ओर को झुके हुए ढलान से
नीचे उतरने लगा।
घाटी की तलहटी एकदम गीली थी। घनी, मोटी काई पानी
को स्पंज की तरह सतह के करीब रखती थी। हर कदम पर उसके पैरों के नीचे से पानी
छलछलाकर निकलता था और हर बार जब वह पैर उठाता था तो काई से ‘सक्क’ की आवाज होती
थी। वह काई के समुद्र में छोटे-छोटे टापुओं की तरह उभरी चट्टानों पर पैर रखते हुए
पहले आदमी के पदचिद्दों पर चल रहा था।
वह अकेला था, पर खोया नहीं था। उसे मालूम था कि और
आगे, वह एक ऐसी जगह पहुँचेगा जहाँ छोटे-छोटे सूखे फ़र वृक्षों से घिरी एक
छोटी-सी झील तित्चिन निचिली थी, उस इलाके की जुबान में जिसका अर्थ था “नन्ही
छड़ियों की भूमि।” और उस झील में एक छोटी धारा बहकर आती थी, जिसका पानी
दूधिया नहीं था। उस धारा के किनारे ऊँची घास थी-यह उसे अच्छी
तरह याद था-लेकिन पेड़ नहीं थे। वह इस धारा के साथ-साथ वहाँ तक जायेगा जहाँ यह
खड़ी चट्टान तक पहुँचकर खत्म हो जाती है। वह इस चट्टान को पार करेगा और पश्चिम की
ओर बहनेवाली दूसरी धारा के साथ-साथ वहाँ तक जायेगा जहाँ यह डीज नदी में गिरती है।
और वहाँ उसे कई चट्टानों से ढँकी एक उल्टी डोंगी के नीचे छिपा अपना गुप्त भण्डार
मिलेगा। इस भण्डार में हैं उसकी खाली बन्दूक के लिए गोलियाँ, मछली
पकड़ने के काँटे और डोरी और छोटा-सा जाल-खाना जुटाने के लिए पर्याप्त
साजो-सामान। साथ ही, उसे थोड़ा-सा आटा, नमक लगे सुअर के मांस का एक टुकड़ा और
कुछ बीन्स भी मिल जायेंगी।
बिल वहाँ उसका इन्तजार कर रहा होगा, और वे दोनों
डोंगी में साथ-साथ डीज की धारा के साथ दक्षिण की ओर ग्रेट बियर लेक तक निकल
जायेंगे। और फि़र वे विशाल झील के पार, और दक्षिण की ओर चलते जायेंगे, जब
तक कि वे मैकेंजी नहीं पहुँच जाते। जाड़ा उनका पीछा करेगा पर वे दक्षिण, और
दक्षिण चलते जायेंगे। नदियाँ-धाराएँ सब जम जायेंगी और दिन ठण्डे और शुष्क होते
जायेंगे, पर वे आर्कटिक के जाड़े की पकड़ से दूर, हडसन बे कम्पनी
की किसी गर्म चौकी पर पहुँच जायेंगे, जहाँ पेड़ ऊँचे और घने होंगे और खाने को
भरपूर होगा।
आगे बढ़ते हुए वह आदमी यही सब सोच रहा था। लेकिन वह अपने शरीर से
जितना जोर लगा रहा था, उतना ही जोर उसका दिमाग भी लगा रहा था, यह सोचने में कि
बिल उससे दगा नहीं कर गया था, कि बिल उस भण्डार के पास उसका इन्तजार
जरूर करेगा। उसे ऐसा सोचना ही था, वरना कोशिश करने का कोई मतलब नहीं रह
जाता, और वह वहीं पड़े-पड़े मर जाता। और जब सूरज का धुँधला गोला उत्तर-पश्चिम
में धीरे-धीरे डूब रहा था, तब तक वह आनेवाले जाड़े के पहले अपने और
बिल के दक्षिण की ओर पलायन का पूरा रास्ता, एक-एक इंच,
कई
बार मन में तय कर चुका था। और वह अपने गुप्त भण्डार का खाना तथा हडसन बे कम्पनी की
चौकी का खाना कई-कई बार हड़प कर चुका था। पिछले दो दिन से उसने कुछ नहीं खाया था।
उसके पहले भी काफ़ी समय से उसे जीभर के खाने को नहीं मिला था। बीच-बीच में वह
रुककर बेरंग मस्केग बेरियाँ उठाकर मुँह में रखता और उन्हें चबाकर निगल लेता था।
मस्केग बेरी के पनीले गूदे के भीतर एक छोटा-सा बीज होता है। मुँह में रखते ही गूदा
पानी हो जाता है और बीज चबाने पर तीखा लगता है। वह आदमी जानता था कि बेरियों में
जरा भी पोषण नहीं है, लेकिन वह उस उम्मीद के साथ उन्हें चबाये जा रहा था जो ज्ञान से बड़ी
होती है और अनुभव को झुठलाती है।
नौ बजे उसे एक बाहर निकली हुई चट्टान से ठोकर लगी, और
थकान और कमजोरी से लड़खड़ाकर वह गिर पड़ा। कुछ देर तक वह बिना हिले-डुले बाईं करवट
पड़ा रहा। फि़र वह पिट्ठू के पट्टों से सरककर निकल आया और किसी तरह घिसटकर बैठने की
मुद्रा में आ गया। अभी अँधेरा नहीं हुआ था, और ढलती रात के
झुटपुटे में वह चट्टानों के बीच सूखी काई टटोलने लगा। जब एक ढेरभर जुट गया तो उसने
आग जलाई-सुलगती, धुआँ देती आग-और टीन के एक बर्तन में पानी उबलने को
रख दिया।
उसने अपना पिट्ठू खोला और सबसे पहले माचिस की तीलियाँ गिनीं। कुल
सड़सठ थीं। उसने पक्का करने के लिए उन्हें तीन बार गिना। फि़र उसने उनके कई हिस्से
किये और उन्हें मोमिया कागज में लपेट दिया। एक पुड़िया उसने तम्बाकू की खाली थैली
में रखी, एक अपने मुड़े-तुड़े टोप के अन्दरवाले फ़ीते में फ़ँसाई और तीसरी को
कमीज के अन्दर डाल लिया। यह कर चुकने के बाद वह एकदम से घबरा उठा और उसने सबको
खोलकर फि़र से गिना। वे अब भी सड़सठ थीं।
उसने आग के पास बैठकर अपने भीगे-जूते और जुराबें सुखाईं। हिरन की खाल
के जूते भीगकर फ़ूले और तार-तार हो रहे थे। मोटी ऊनी जुराबें जगह-जगह घिस गयी थीं
और उसके जख्मी पैरों से खून बह रहा था। उसका टखना दर्द से थरथरा रहा था। उसने गौर
से उसका मुआइना किया। वह सूजकर उसके घुटने के बराबर हो गया था। उसने अपने दो
कम्बलों में से एक से एक लम्बी पट्टी फ़ाड़ी और टखने को कसकर बाँध दिया। उसने कुछ
और पट्टियाँ फ़ाड़ीं और उन्हें अपने पैरों पर लपेट लिया ताकि वे जूते-मोजे दोनों का
काम करें। फि़र उसने भाप छोड़ता उबला पानी पिया, घड़ी में चाभी दी
और कम्बल में घुस गया।
वह मुर्दे की तरह सोया। आधी रात के करीब कुछ देर के लिए अँधेरा छाया
और छँट गया। उत्तर-पूर्व में सूरज उगा-या यूँ कहें कि उस तरफ़ से पौ फ़टी
क्योंकि सूरज तो भूरे बादलों से ढँका हुआ था।
छह बजे वह जागा, पर चुपचाप पीठ के बल लेटा रहा। भूरे
आसमान को निहारते हुए उसे भूख महसूस हुई। कोहनी के बल करवट बदलते ही जोर से
घुरघुराने की आवाज से वह चौंका और देखा कि एक नर रेण्डियर चौकन्ने कुतूहल से उसे
देख रहा है। जानवर उससे पचास फ़ीट से ज्यादा दूरी पर नहीं था और आदमी के मन में
फ़ौरन ही आग पर भुनते रेण्डियर के मांस का दृश्य और स्वाद कौंध गया। यंत्रवत उसने
खाली बन्दूक उठाई, घोड़ा चढ़ाया और ट्रिगर दबा दिया। हिरन ने फ़ुफ़कार मारी और पत्थरों पर
खुरों की तेज आवाज के साथ उछलकर भागा।
आदमी ने गाली देकर खाली बन्दूक दूर फ़ेंक दी। खड़े होने की कोशिश करते
हुए उसने जोर से कराह भरी। यह धीमा और मुश्किल काम था। उसके जोड़ जंग खाये कब्जों
की तरह हो गये थे। हर हरकत पर उसका जोड़-जोड़ कड़कड़ कर उठता था और पूरा जोर लगाकर ही
वह हाथ-पैर मोड़ या खोल पा रहा था। आखिरकार, जब वह अपने
पैरों पर खड़ा हो गया, उसके बाद भी इनसान की तरह सीधा खड़ा होने में उसे एक मिनट और लग गया।
वह एक छोटे-से टीले पर चढ़ गया और चारों ओर देखा। कहीं न कोई पेड़ था,
न
झाड़ी, बस काई का धूसर समुद्र था जिसके बीच-बीच में कहीं-कहीं धूसर चट्टानें,
धूसर
जलकुण्ड और धूसर जलधाराएँ कुछ विविधता पैदा कर रही थीं। आसमान भी धूसर था। सूरज या
धूप का नामो-निशान नहीं था। उसे उत्तर दिशा का कोई बोध नहीं था और वह भूल चुका था
कि पिछली रात किस रास्ते से यहाँ पहुँचा था। लेकिन वह भटका नहीं था। उसे यह यकीन
था। जल्दी ही वह नन्ही छड़ियों की भूमि तक पहुँच जायेगा। उसे लगा कि वह बाईं ओर
कहीं थी, ज्यादा दूर नहीं-शायद उस नीची पहाड़ी के पार ही।
वह लौटकर अपना पिट्ठू यात्रा के लिए तैयार करने लगा। उसने माचिस की
तीनों पुड़ियों को टटोलकर देखा, हालाँकि उसने फि़र से उन्हें गिना
नहीं। लेकिन वह बारहसिंगे के चमड़े की एक मोटी-सी थैली को लेकर कुछ देर असमंजस में
रहा। वह ज्यादा बड़ी नहीं थी। वह अपनी दोनों हथेलियों से उसे ढँक सकता था। लेकिन
उसका वजन पन्द्रह पौण्ड था-बाकी के सारे बोझ के बराबर-और
इस बात से उसे चिन्ता हो रही थी। आखिर, उसने थैली एक किनारे रख दी और कम्बलों
को लपेटने लगा। वह रुका और बारहसिंगे के चमड़े की मोटी-सी थैली पर नजर डाली। फि़र
उसने अपने इर्द-गिर्द एक उद्धत निगाह के साथ उसे उठा लिया, मानो यह वीराना
इसे उससे छीनने की कोशिश कर रहा हो;
और जब वह डगमगाते कदमों से सफ़र जारी रखने के लिए उठा, तो
यह उसके पिट्ठू में शामिल थी।
वह बाईं ओर चलता रहा, बस बीच-बीच में रुककर मस्केग बेरियाँ
खाते हुए। उसका टखना अकड़ गया था और वह पहले से ज्यादा लँगड़ा रहा था, लेकिन
उसका दर्द पेट के दर्द के आगे कुछ नहीं था। भूख से आँतें कुलबुला रही थीं। उनकी
कुलबुलाहट इतनी बढ़ गयी कि उसके लिए नन्ही छड़ियों की भूमि तक पहुँचने के रास्ते पर
ध्यान टिकाये रहना मुश्किल हो गया। मस्केग बेरियों से आँतों की जलन कम नहीं हो रही
थी पर उनके कड़वे रस से उसकी जुबान और तालू में छाले पड़ गये थे।
वह एक घाटी में पहुँचा जहाँ भटतीतरों का एक झुण्ड पंख फ़ड़फ़ड़ाते हुए
चट्टानों और मस्केग के पौधों से अचानक उड़ा। वे केर्-केर्-केर् की आवाज निकाल रहे
थे। उसने उन पर पत्थर फ़ेंके लेकिन कोई निशाना सही नहीं बैठा। उसने अपना पिट्ठू
जमीन पर रख दिया और गौरैया के पीछे लगी बिल्ली की तरह उनके पीछे लग लिया। नुकीले
पत्थरों से उसकी पतलून कट गयी और उसके घुटनों से खून बहने लगा; लेकिन इसकी पीड़ा को भूख की पीड़ा ने दबा
दिया। गीली काई पर रेंगते हुए उसके कपड़े तर-बतर हो गये और बदन ठण्डा होने लगा; पर भूख का ज्वर इतना तेज था कि उसे
इसका भान भी नहीं था। हर बार भटतीतर उसके सामने से पंख फ़ड़फ़ड़ाते हुए उड़ जाते थे।
उनकी केर्-केर्-केर् से उसे चिढ़ होने लगी और वह गालियाँ बकते हुए उन्हीं की आवाज
में उन पर चिल्लाने लगा।
एक बार वह रेंगकर एक के पास तक पहुँच गया जो शायद सोया हुआ था। आदमी
ने भी उसे तब तक नहीं देखा था जब तक वह चट्टान के गड्ढे से उछलकर एकदम उसके चेहरे
के सामने नहीं आ गया। उसने हड़बड़ाकर पकड़ने की कोशिश की पर उसके हाथ में पूँछ के तीन
पंख ही आये। उसे उड़ता देख वह नफ़रत से भर उठा, मानो चिड़िया ने
उसके खिलाफ़ कोई जुर्म कर दिया हो। फि़र वह लौट आया और पिट्ठू कन्धे पर लाद लिया।
जैसे-जैसे दिन बीतता गया वह ऐसी घाटियों से होकर गुजरा जहाँ
पशु-पक्षी और भी ज्यादा थे। रेण्डियर का एक झुण्ड कुछ दूरी से गुजरा। उसमें बीसेक
जानवर थे और एकदम राइफ़ल की रेंज में थे। उसने अपने भीतर उनके पीछे दौड़ पड़ने की एक
उन्मत्त इच्छा महसूस की, उसे एकदम पक्का लग रहा था कि वह दौड़कर
उन्हें पकड़ सकता है। फि़र एक काली लोमड़ी उसे अपनी ओर आती दिखाई दी जिसके मुँह में
एक भटतीतर था। आदमी चिल्लाया। यह एक डरावनी चीख थी लेकिन डरकर भागी लोमड़ी ने
भटतीतर को छोड़ा नहीं। दोपहर बाद वह एक धारा के साथ-साथ चलने लगा जो यहाँ-वहाँ उगी
नरकट के झुरमुटों से होकर बह रही थी। चूने की वजह से इसका पानी दूधिया था। नरकट को
जड़ों के पास मजबूती से पकड़कर उसने खींचा और एक छोटे प्याज जैसी गाँठ निकाली। वह
नर्म थी और उसमें दाँत धँसाते ही हुई कच्च की आवाज स्वादिष्ट भोजन का वादा कर रही
थी। लेकिन इसके रेशे सख्त थे। उसमें बेरियों की तरह बस पानी से भरे ताँत जैसे रेशे
थे जिनमें कोई पोषक तत्व नहीं था। उसने अपना पिट्ठू पटक दिया और घुटनों के बल नरकट
के झुरमुट में घुसकर चरनेवाले जानवर की तरह गाँठें निकाल-निकालकर चबाने लगा।
वह बहुत थका हुआ था और आराम करने की इच्छा अकसर उसके मन में आती थी; वह कहीं भी लेटकर सो जाना चाहता था,
लेकिन
वह लगातार चलता जा रहा था। अब उसे नन्ही छड़ियों की भूमि तक पहुँचने की इच्छा नहीं
बल्कि पेट में जलती आग हाँक रही थी। वह छोटे जलकुण्डों में मेढ़क ढूँढ़ता था और
केंचुओं की तलाश में नाखूनों से मिट्टी खोद डालता था, हालाँकि वह
जानता था कि इस सुदूर उत्तर में न तो मेढ़क होते हैं और न ही केंचुए।
वह हर जलकुण्ड में झुक-झुककर झाँकता था और आखिरकार जब लम्बी शाम ढलनी
शुरू हो गयी तो उसे ऐसे ही एक कुण्ड में एक अकेली छोटी-सी मछली दिखायी दी। वह
पकड़ने के लिए लपका और कन्धे तक उसका हाथ पानी में डूब गया, पर मछली पकड़ में
नहीं आयी। उसने दोनों हाथों से पकड़ने की कोशिश की जिससे तली की दूधिया मिट्टी हिल
गयी। उत्तेजना में वह पानी में गिर पड़ा और कमर तक भीग गया। अब पानी इतना गँदला हो
गया था कि वह मछली को देख नहीं सकता था और उसे पानी थिरा जाने और मिट्टी नीचे बैठ
जाने तक इन्तजार करना पड़ा।
कोशिश फि़र शुरू हुई और एक बार फि़र पानी गँदला हो गया। लेकिन वह
इन्तजार नहीं कर सकता था। उसने टीन की बाल्टी निकाली और कुण्ड को खाली करने लगा।
शुरू में वह पागलों की तरह पानी फ़ेंकने लगा जिससे वह खुद भी भीग रहा था और पानी
इतना नजदीक गिर रहा था कि बहकर वापस चला जाता था। फि़र वह ज्यादा सावधानी से काम
करने लगा। वह शान्त रहने की पूरी कोशिश कर रहा था हालाँकि उसका दिल जोरों से धड़क
रहा था और उसके हाथ काँप रहे थे। आधे घण्टे बाद कुण्ड करीब-करीब सूख चुका था।
उसमें एक कप भी पानी नहीं था। लेकिन मछली का अता-पता नहीं था। उसे पत्थरों के बीच
एक दरार दिखायी दी जिससे होकर वह बगल के एक बड़े कुण्ड में भाग गयी थी जिसे वह सारा
दिन और सारी रात काम करके भी खाली नहीं कर सकता था। अगर उसे दरार का पता होता तो
वह शुरू में ही एक पत्थर से उसे बन्द कर सकता था और तब मछली उसकी हो चुकी होती।
यह सोचते हुए वह भहराकर भीगी जमीन पर धम्म से बैठ गया। पहले तो
वह अपने आप से धीमे-धीमे सुबकता रहा,
फि़र
वह चारों ओर फ़ैले निर्मम वीराने में ऊँची आवाज में रो पड़ा और काफ़ी देर तक उसका
शरीर सिसकियों और हिचकियों से काँपता रहा।
उसने आग जलाई और गरम पानी पी-पीकर अपने भीतर गर्मी पैदा की और पिछली
रात की तरह एक चट्टान पर लेट गया। सोने से पहले उसने अपनी माचिस की तीलियों को
टटोला और घड़ी में चाभी दी। कम्बल भीगकर लिसलिसे हो गये थे। उसका टखना दर्द से
थरथरा रहा था। लेकिन उसे सिर्फ़ भूख का अहसास हो रहा था और अपनी बेचैनीभरी नींद के
दौरान वह दावतों और भोजों और तरह-तरह से सजी खाने की चीजों के सपने देखता रहा।
वह जागा तो ठण्ड उसकी हड्डियों में समा चुकी थी और वह बीमार महसूस कर
रहा था। सूरज का कहीं पता नहीं था। धरती और आसमान का धूसर रंग और गहरा, और
गाढ़ा हो गया था। ठण्डी, खुश्क हवा बह रही थी और पहाड़ियों की चोटियाँ मौसम की पहली बर्फ़ से
सफ़ेद दिखने लगी थीं। जितनी देर में उसने आग जलायी और पानी उबाला उतने में ही उसके
इर्द-गिर्द की हवा गाढ़ी और सफ़ेद होने लगी। यह भीगी बर्फ़ थी; बर्फ़ के फ़ाहे बड़े और गीले थे। शुरू
में वे धरती को छूते ही पिघल जाते थे, लेकिन फि़र उनकी तादाद बढ़ती गयी।
उन्होंने जमीन को ढँक लिया, आग बुझा दी और सूखी काई का उसका ईंधन
बरबाद कर दिया।
उसके लिए यह संकेत था कि अपना पिट्ठू लादे और गिरते-पड़ते आगे चल पड़े।
कहाँ जाना है अब यह उसे पता नहीं था। अब उसे न तो नन्ही छड़ियों की भूमि की फि़क्र
थी, न बिल की और न डीज नदी के किनारे उल्टी डोंगी के नीचे छुपे भण्डार
की। उस पर बस एक विचार हावी था, “कुछ खाना है।” वह भूख से पागल हो रहा
था। उसे इस बात का जरा भी ध्यान नहीं था कि वह किधर जा रहा था। बस वह रास्ता
घाटियों की तली से गुजरना चाहिए था ताकि वह भीगी बर्फ़ में टटोलकर मस्केग बेरियाँ
और गाँठोंवाली घास खींचकर निकाल सके। लेकिन ये सब एकदम बेस्वाद थे और उनसे तसल्ली
नहीं मिलती थी। उसे एक सेवार मिली जिसका स्वाद खट्टा-सा था और वह जितनी भी ढूँढ़
पाया सब खा गया। हालाँकि यह ज्यादा नहीं थी क्योंकि उसकी लता कई इंच बर्फ़ के नीचे
छुप गयी थी।
उस रात उसे आग और गर्म पानी के बिना ही काम चलाना पड़ा, और
वह भीगे कम्बलों में लिपटा भूख के सपने देखता हुआ सो गया। बर्फ़ ठण्डी बारिश में
बदल गयी। वह कई बार जागा और अपने चेहरे पर इसे महसूस किया। दिन निकला-एक
और धूसर, बिना सूरजवाला दिन। बारिश बन्द हो गयी थी। उसकी भूख अब पैनी नहीं रह
गयी थी। जहाँ तक खाने की लालसा का सवाल था, उसकी इन्द्रियाँ
मर चुकी थीं। उसे अपने पेट में एक धीमा, भारी-सा दर्द महसूस हो रहा था, लेकिन
इससे ज्यादा परेशानी नहीं हो रही थी। अब वह पहले से ज्यादा तार्किक ढंग से सोच पा
रहा था और एक बार फि़र उसका ध्यान नन्ही छड़ियों की भूमि और डीज नदी के पास के
गुप्त भण्डार पर था।
उसने एक कम्बल के बचे हुए हिस्से से और पट्टियाँ फ़ाड़ीं और अपने
लहूलुहान पैरों पर लपेट लीं। उसने घायल टखने को भी फि़र से कसा और सफ़र के लिए
तैयार हो गया। पिट्ठू के पास आकर वह देर तक बारहसिंगे के चमड़े की मोटी थैली को
देखता रहा लेकिन आखिरकार उसे साथ ले लिया।
बारिश से बर्फ़ पिघल गयी थी और सिर्फ़ पहाड़ियों की चोटियों पर सफ़ेदी
दिख रही थी। सूरज निकल आया और उसे दिशाओं का पता चल गया पर वह यह भी जान गया कि वह
भटक गया है। शायद, पिछले दो दिनों में वह भटकते हुए कुछ ज्यादा ही बाईं ओर चला गया था।
अब वह नाक की सीध में दाईं ओर चल पड़ा ताकि इस विचलन की भरपायी हो सके।
हालाँकि भूख अब उस तरह कचोट नहीं रही थी पर वह बहुत कमजोर महसूस कर
रहा था। उसे अकसर सुस्ताने के लिए रुकना पड़ता था और रुकते ही वह मस्केग बेरियों और
घास की गाँठों पर टूट पड़ता था। उसकी जुबान सूखी और बढ़ी हुई महसूस हो रही थी,
मानो
उस पर रोएँ उग आये हों, और उसका मुँह कड़वाहट से भरा था। उसका दिल भी उसे काफ़ी परेशान कर रहा
था। जैसे ही वह कुछ मिनट तक चलता था वह जोर से धकधक करने लगता और फि़र इस तरह
उछलकर उसके मुँह को आ जाता कि उसे घुटन-सी होने लगती और उसका सिर चकराने लगता था।
दोपहर के समय उसे पानी से भरे एक गड्ढे में दो नन्ही मछलियाँ दिखाई दीं। उसे खाली
करना तो नामुमकिन था लेकिन अब वह पहले से ज्यादा शान्त था और अपनी टीन की बाल्टी
में उन्हें पकड़ने में कामयाब रहा। वे उसकी छोटी उँगली से बड़ी नहीं थीं लेकिन वह
ज्यादा भूखा नहीं था। उसके पेट का हल्का दर्द और भी हल्का और मन्द पड़ता जा रहा था।
ऐसा लगता था मानो उसका पेट ऊँघ रहा हो। वह दोनों मछलियाँ कच्ची ही खा गया। वह बड़े
ध्यान से धीरे-धीरे चबा रहा था क्योंकि इस समय खाना उसके लिए एक विशुद्ध बौद्धिक
क्रिया थी। उसे खाने की कोई इच्छा नहीं थी, पर वह जानता था
कि जिन्दा रहने के लिए उसे खाना होगा।
शाम को उसने तीन और मछलियाँ पकड़ीं, दो को खा लिया
और तीसरी को नाश्ते के लिए रख लिया। धूप से काई कहीं-कहीं सूख गयी थी और उसे एक
बार फि़र गर्म पानी मिल गया। उस दिन वह दस मील से ज्यादा नहीं तय कर पाया; और अगले दिन वह पाँच मील ही चल सका। वह
तभी तक चल पाता था जब तक उसका कलेजा मुँह को नहीं आने लगता। लेकिन उसका पेट अब उसे
जरा भी परेशान नहीं कर रहा था। वह सो चुका था। अब वह एक नये इलाके में पहुँच गया
था जहाँ रेण्डियर ज्यादा थे, और साथ ही भेड़िये भी। अकसर उनकी
चिल्लाहट वीराने में तैरती हुई उसके पास तक पहुँचती थी और एक बार उसने अपने रास्ते
में तीन भेड़िये देखे थे जो उसे देखते ही वहाँ से खिसक गये।
एक और रात गुजरी, और सुबह उसका दिमाग पहले से ज्यादा
साफ़ था। उसने बारहसिंगे के चमड़े की मोटी
थैली का चमड़े का फ़ीता खोल दिया। थैली से सोने के मोटे-मोटे कणों और ढेलों की पीली
धारा जमीन पर बिखर गयी। उसने सोने को दो हिस्सों में बाँटा, आधे को कम्बल के
एक टुकड़े में लपेटकर एक अलग-सी दिख रही चट्टान के नीचे छुपाया और बाकी आधे को
पिट्ठू में रख लिया। बचे हुए एक कम्बल से भी पट्टियाँ फ़ाड़कर उसने पैरों पर लपेट
लीं। वह अब भी अपनी बन्दूक लिये हुए था क्योंकि वहाँ डीज नदी के किनारे के भण्डार
में कारतूस भी रखे थे। यह दिन कुहासेभरा था और एक बार फि़र उसकी भूख जाग गयी। वह
बेहद कमजोर था और उसका सिर इस कदर चकरा रहा था कि कभी-कभी उसकी आँखों के आगे
अँधेरा छा जाता था। अब वह अकसर ही ठोकर खाकर गिर पड़ता था; और एक बार वह सीधा भटतीतर के एक घोंसले
पर गिर पड़ा। उसमें चार बच्चे थे-शायद एक दिन पहले ही जन्मे हुए। वह
उन्हें जिन्दा ही चबा गया। उनकी माँ जोर से चीखते और पंख पटकते हुए उसके चारों ओर
नाच रही थी। उसने अपनी बन्दूक के कुन्दे से उसे मार गिराने की कोशिश की, पर
वह बच निकली। उसने उस पर पत्थर फ़ेंके और तुक्के से एक पत्थर उसे लग गया जिससे
उसका एक पंख टूट गया। फि़र वह टूटा पंख घसीटते हुए वहाँ से भागी। आदमी उसके पीछे
था।
चिड़िया के बच्चों से उसकी भूख और भड़क उठी थी। वह घायल टखने पर
फ़ुदकते और घिसटते हुए चिड़िया के पीछे लगा था। कभी वह गला फ़ाड़कर चिल्लाते हुए उस
पर पत्थर फ़ेंकता था, तो कभी चुपचाप धीरज के साथ गिरते-पड़ते पीछा करता था। कई बार उसे कुछ
सुझाई नहीं देता था और तब वह रुककर अपनी आँखों और माथे को मलता रहता था।
पीछा करते हुए वह घाटी के बीच में दलदली जमीन पर चला गया और उसे भीगी
काई पर कदमों के निशान दिखाई दिये। वे उसके नहीं थे-यह तो साफ़ था।
जरूर वे बिल के होंगे। लेकिन वह रुक नहीं सकता था, क्योंकि भटतीतर
भागी जा रही थी। पहले वह उसे पकड़ेगा, फि़र लौटकर जाँच करेगा।
उसने भटतीतर को थका दिया, लेकिन वह खुद भी बेतरह थक गया। वह
हाफ़ँते हुए लुढ़की पड़ी थी, और दस कदम पर वह भी हाफ़ँते हुए लुढ़का
पड़ा था। उसमें इतनी भी ताकत नहीं थी कि रेंगकर चिड़िया के पास चला जाये। जब तक वह
सँभला, तब तक चिड़िया भी सँभल गयी और पंख फ़ड़फ़ड़ाते हुए उसके भूखे हाथ की पकड़
से निकल गयी। शिकार फि़र शुरू हो गया। रात घिर आयी और वह बचकर भाग निकली। आदमी
कमजोरी से लड़खड़ा गया और पीठ पर पिट्ठू लिये-दिये मुँह के बल गिर पड़ा। उसका गाल कट
गया। काफ़ी देर तक वह ऐसे ही पड़ा रहा; फि़र करवट बदली, घड़ी में चाभी दी और सुबह तक वहीं लेटा
रहा।
अगला दिन भी कुहासे से भरा था। उसके आखिरी कम्बल का आधा हिस्सा पैरों
की पट्टियों की भेंट चढ़ चुका था। वह बिल के कदमों के निशान ढूँढ़ने में नाकाम रहा
था। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। उसकी भूख उसे इस कदर हाँक रही थी कि वह सोचने
लगा कि शायद बिल भी रास्ता भटक गया था। दोपहर तक उसकी पीठ का बोझ असह्य हो उठा। एक
बार फि़र उसने सोने को दो हिस्सों में बाँटा, पर इस बार आधा
हिस्सा यूँ ही जमीन पर गिरा दिया। दोपहर बाद उसने बाकी को भी फ़ेंक दिया और अब
उसके पास सिर्फ़ आधा कम्बल, टीन की बाल्टी और राइफ़ल रह गयी थी।
एक मतिभ्रम उसे परेशान करने लगा। उसे यकीन-सा होने लगा कि उसके पास
एक कारतूस बचा हुआ है। उसे लगा कि वह राइफ़ल के चैम्बर में पड़ा था लेकिन उसका
ध्यान इस ओर नहीं गया। दूसरी ओर, वह जानता था कि चैम्बर खाली है। लेकिन
मतिभ्रम बना रहा। वह घण्टों तक इसे दूर करने की कोशिश करता रहा, फि़र
उसने राइफ़ल खोल दी और चैम्बर खाली पाया। वह इस कदर हताश हुआ मानो उसे वाकई वहाँ
कारतूस होने की उम्मीद थी।
वह भारी कदमों से आधे घण्टे तक और चलता रहा, जब वह मतिभ्रम
फि़र से उस पर हावी हो गया। वह फि़र उसे दिमाग से दूर करने की कोशिश करने लगा और
आखिरकार उसने दिमाग को राहत देने के लिए राइफ़ल खोल डाली। कई बार उसका दिमाग कहीं
बहुत दूर चला जाता था और वह यंत्रवत चलता रहता था; अजीबोगरीब सनकभरे ख्याल कीड़ों की तरह उसके दिमाग में कुलबुलाते रहते
थे। लेकिन वास्तविकता से बाहर की ये यात्रएँ संक्षिप्त होती थीं क्योंकि भूख की
कचोट उसे वापस खींच लाती थी। एक बार जब वह ऐसी ही एक यात्रा पर था तो एक ऐसे दृश्य
ने उसे यथार्थ में धक्का दिया कि वह गश खाते-खाते बचा। वह नशे में धुत व्यक्ति की
तरह आगे-पीछे झूलता हुआ गिरने से बचने की कोशिश कर रहा था। उसके सामने एक घोड़ा खड़ा
था। घोड़ा! उसे अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। उनमें घना कुहरा था जिसके बीच-बीच में
रोशनी चुँधिया रही थी। उसने अपनी आँखें जोर से रगड़ीं और देखा कि घोड़ा नहीं,
वह
एक बड़ा-सा भूरा भालू है। जानवर उसे आक्रामक कुतूहल के साथ देख रहा था।
आदमी ने अपनी बन्दूक आधी उठाई, तभी उसे ध्यान
आया कि वह खाली है। उसने बन्दूक नीचे कर ली और कमर पर बँधी म्यान से शिकारी चाकू
निकाला। उसके सामने मांस और जीवन था। उसने चाकू की धार पर अँगूठा फि़राया। वह तेज
थी। नोक भी तेज थी। वह भालू पर झपटकर उसे मार डालेगा। लेकिन उसका दिल धक्-धक्-धक्
की चेतावनी देने लगा; फि़र
सीने में जोरों से उछलने लगा। उसके माथे को जैसे लोहे के पट्टे ने जकड़ लिया और
दिमाग चकराने लगा।
उसकी बदहवासी भरी हिम्मत को डर के उबाल ने बेदखल कर दिया। अगर उस
जानवर ने हमला कर दिया तो क्या होगा? वह जितना तन सकता था, तनकर
खड़ा हो गया, चाकू को कसकर पकड़ लिया और भालू को घूरने लगा। भालू धीरे से दो कदम
आगे बढ़ा, पिछली टाँगों पर खड़ा हो गया और हल्के से गुर्राया। अगर सामनेवाला
भागेगा तो वह उसका पीछा करेगा; लेकिन
आदमी दौड़ा नहीं। अब वह डर से उपजी हिम्मत से काम कर रहा था। वह भी गुर्राया,
वहशियों
की तरह, भयानक आवाज में; इनसान
के भीतर गहराइयों में छिपे हर भय को स्वर देते हुए।
भालू डरावने ढंग से गुर्राते हुए एक ओर हट गया। वह खुद इस रहस्यमय
प्राणी से आतंकित था जो सीधा खड़ा था और डर नहीं रहा था। लेकिन आदमी हिला नहीं। वह
मूरत की तरह खड़ा रहा जब तक कि खतरा टल नहीं गया। फि़र वह बुरी तरह काँपने लगा और
गीली काई में बैठ गया।
उसने खुद को सँभाला और चल पड़ा। अब एक नया डर उस पर तारी हो रहा था।
यह चुपचाप भूख से मर जाने का डर नहीं बल्कि यह डर था कि जीने की हर कोशिश भूख के
आगे नाकाम होने से पहले ही कहीं उसे हिंसक तरीके से खत्म न कर दिया जाये। वहाँ
भेड़िये भी थे। वीराने में सुनाई देती उनकी चीखों से हवा एक ऐसे डरावने कफ़न जैसी
लगने लगती थी कि कई बार वह अनजाने ही दोनों हाथों से उसे पीछे धकेलने लगता था।
कभी-कभी दो-तीन की टोली में भेड़िये उसकी राह में मिलते थे। लेकिन वे
उससे दूर ही रहते थे। एक तो वे पर्याप्त संख्या में नहीं होते थे, दूसरे
वे रेण्डियर की ताक में थे जो लड़ते नहीं थे, जबकि सीधा
चलनेवाला यह अजीब जानवर काट और खरोंच सकता था।
दोपहर बाद उसे बिखरी हुई हड्डियाँ दिखाई दीं। यह भेड़ियों का काम था।
यह मलबा आधा घण्टा पहले रेण्डियर का बच्चा था, उछलता-कूदता,
किकियाता
हुआ। उसने हड्डियों को गौर से देखा। वे चाटकर साफ़ की जा चुकी थीं; अभी वे सूखी नहीं थीं और गुलाबी-सी दिख
रही थीं। उनकी कोशिकाएँ अभी जिन्दा थीं। क्या पता दिन खत्म होने से पहले उसका भी
यही हश्र हो जाये! जिन्दगी ऐसी ही है, प्यारे! कोई भरोसा नहीं! दर्द तो
जिन्दगी ही देती है। मौत में कोई तकलीफ़ नहीं होती। मरना ऐसे ही है जैसे सो जाना।
इसका मतलब था विराम। पूरा आराम। फि़र वह मरना क्यों नहीं चाहता था?
लेकिन वह ज्यादा देर तक नैतिक प्रश्नों में नहीं उलझा। वह काई में
उकडूँ बैठा था और एक हड्डी को मुँह में लिये जीवन के उन रेशों को चूस रहा था जिनसे
उसमें गुलाबी रंगत थी। उसे कुछ मीठा, मांस-जैसा स्वाद मिला; हल्का-सा, बस एक याद जैसा,
और
वह पागल हो उठा। उसने जबड़ों से जोर से चबाने की कोशिश की। कभी हड्डी टूटी, कभी
उसके दाँत। फि़र उसने हड्डियों को पत्थरों से कुचला, पीट-पीटकर उनका
मलीदा-सा बनाया और निगल गया। हड़बड़ी में उसने अपनी उँगलियाँ भी कुचल लीं। बस एक पल
के लिए उसका ध्यान इस ओर गया कि पत्थर के नीचे आने पर भी उसकी उँगलियों में दर्द
नहीं हुआ।
बर्फ़ और बारिश के डरावने दिन आ गये थे। उसे पता नहीं चलता था कि कब
वह रुकता था और कब चल पड़ता था। वह रात में भी उतना ही सफ़र करता था, जितना
दिन में। वह जहाँ भी गिर पड़ता, वहीं सुस्ता लेता था और जब भी उसके
भीतर मर रहे जीवन की लौ फ़ड़फ़ड़ाकर जल उठती, वह रेंगना शुरू
कर देता था। वह इनसान के तौर पर कोशिश नहीं कर रहा था। यह तो उसके भीतर का जीवन था,
जो
मरने को तैयार नहीं था और उसे हाँके लिये जा रहा था। उसे कोई पीड़ा नहीं हो रही थी।
उसके स्नायु भोथरे और सुन्न हो गये थे, और उसका दिमाग अजीबोगरीब मंजरों और
लजीज सपनों से भरा हुआ था।
वह रेण्डियर की हड्डियों का बचा हुआ हिस्सा अपने साथ ले आया था और
बीच-बीच में उन्हें चबाता और चूसता रहता था। अब वह पहाड़ियों या खड़ी चट्टानों को
पार नहीं कर रहा था बल्कि यंत्रवत एक चौड़ी धारा के साथ-साथ चल रहा था जो एक छिछली
और विस्तृत घाटी से होकर बह रही थी। उसे न यह धारा दिख रही थी, और
न ही घाटी। वह विचित्र दिवास्वप्नों के सिवा कुछ नहीं देख रहा था। उसकी आत्मा और
शरीर साथ-साथ चल या रेंग रहे थे, पर वे एक-दूसरे से अलग भी थे। उन्हें
जोड़नेवाला धागा बहुत बारीक रह गया था।
वह उठा तो दिमाग ठिकाने पर था। वह एक सपाट चट्टान पर चित लेटा हुआ
था। सूरज गर्म और चमकदार किरणें बिखरे रहा था। दूर से उसे रेण्डियर के बच्चों के
किकियाने की आवाज सुनाई दे रही थी। उसे बारिश और तेज हवा और बर्फ़ की धुँधली-सी
याद थी, लेकिन उसे यह नहीं मालूम था कि वह दो दिनों तक तूफ़ान के थपेड़े झेलता
रहा है या दो हफ्तों तक।
कुछ देर तक वह बिना हिले-डुले पड़ा रहा। सुखद धूप उसके बेहाल शरीर को
गर्माहट से भर रही थी। उसने सोचा, आज का दिन अच्छा है। शायद वह पता कर
सकेगा कि वह कहाँ है। बड़ी तकलीफ़ के साथ उसने करवट बदली। नीचे एक चौड़ी नदी मन्थर
गति से बह रही थी। वह एकदम अपरिचित थी जिससे वह उलझन में पड़ गया। उसने धीरे-धीरे
इसके बहाव के साथ-साथ नजरें फि़राईं। दूर तक नीची और उजाड़ पहाड़ियाँ थीं। ऐसी नीची
और उजाड़ पहाड़ियाँ उसके रास्ते में अब तक नहीं आयी थीं। धीरे-धीरे, कोशिश
करके, बिना उत्तेजित हुए उसने नजरों को इस विचित्र धारा के साथ-साथ क्षितिज
तक जाने दिया और देखा कि वह एक चमकदार, झिलमिलाते सागर में मिल रही है। वह अब
भी उत्तेजित नहीं हुआ। उसने सोचा, यह एक अजीब सपना है, नजरों
का धोखा है। उसके परेशान दिमाग का छलावाभर है। चमकते समुद्र के बीच में लंगर डाले
एक जहाज को देखकर उसका ख्याल और पुख्ता हो गया। उसने कुछ देर तक आँखें मूँद लीं,
फि़र
खोलीं। अजीब बात थी! वह छलावा अब भी नजरों के सामने था। नहीं, इसमें
कुछ अजीब नहीं था। वह जानता था कि उजाड़ इलाकों के बीच में कोई समुद्र या जहाज नहीं
हो सकता, वैसे ही, जैसे उसे मालूम था कि खाली राइफ़ल के चैम्बर में कोई कारतूस नहीं था।
उसने अपने पीछे एक आवाज सुनी-दबी-दबी सी खाँसी या छींक की आवाज।
बेहद कमजोरी और जकड़न की वजह से उसने बहुत धीरे से दूसरी ओर करवट ली। उसे अपने करीब
कुछ दिखाई नहीं दिया, लेकिन वह धीरज से इन्तजार करता रहा। खाँसी और सूँ-सूँ की आवाज फि़र
आयी, और उसने करीब बीस फ़ीट दूर, दो नुकीले पत्थरों के बीच एक भेड़िये का
सिर देखा। उसके नुकीले कान उस तरह खड़े नहीं थे जैसे उसने दूसरे भेड़ियों के देखे थे; आँखें धुँधलाई और सुर्ख लाल थीं और सिर
उदासी से ढुलका हुआ-सा था। जानवर बार-बार धूप में आँखें मिचमिचा रहा था। वह बीमार
लग रहा था। आदमी को अपनी ओर देखता देखकर वह एक बार खाँसा और उसके नथुनों से
सूँ-सूँ की आवाज आयी।
उसने सोचा, कम से कम यह तो सच है, और
फि़र दूसरी ओर मुड़ा ताकि उस दुनिया की सच्चाई देख सके जिसे उस छलावे ने ढँक दिया
था। लेकिन दूरी पर समुद्र अब भी झिलमिला रहा था और जहाज साफ़ पहचाना जा सकता था।
क्या वाकई यह सच था? वह आँखें मूँदकर देर तक सोचता रहा, और फि़र एकाएक
उसे समझ आ गया। वह उत्तर-पूर्व की ओर चलता रहा था, डीज नदी से दूर
कॉपरमाइन की घाटी में। यह चौड़ी और मन्थर नदी कॉपरमाइन थी। वह झिलमिलाता समुद्र
आर्कटिक सागर था। वह जहाज व्हेल के शिकारियों का था जो मैकेंजी के मुहाने से पूरब,
बहुत
पूरब में चला आया था और कोरोनेशन खाड़ी में लंगर डाले खड़ा था। उसे बहुत पहले देखा
हुआ हडसन बे कम्पनी का चार्ट याद हो आया, और अब उसे सब साफ़-साफ़ समझ आने लगा।
वह उठ बैठा और फ़ौरी मामलों पर ध्यान दिया। कम्बलों की पट्टियाँ पूरी
तरह घिस चुकी थीं और उसके पैर मांस के लोथड़े भर रह गये थे। उसका आखिरी कम्बल भी जा
चुका था। राइफ़ल और चाकू भी गायब थे। उसका टोप कहीं गिर गया था जिसके भीतर के
फ़ीते में माचिस की तीलियाँ थीं, लेकिन उसकी कमीज के अन्दर और तम्बाकू
की थैली में मोमिया कागज में लिपटी तीलियाँ सुरक्षित थीं। उसने घड़ी पर नजर डाली।
उसमें ग्यारह बजे थे, और वह अब भी चल रही थी। जाहिर है, वह इसमें चाभी
भरता रहा था।
वह शान्त और स्थिरचित्त था। वह बेहद कमजोर हो गया था पर उसे दर्द का
जरा भी अहसास नहीं था। वह भूखा भी नहीं था। खाने का ख्याल अब उसे अच्छा भी नहीं
लगता था और वह जो कुछ भी करता था बस दिमाग के निर्देश पर। उसने अपनी पतलून घुटनों
तक फ़ाड़ डाली और उसे पैरों पर लपेट लिया। टीन की बाल्टी किसी तरह अब भी उसके पास
बची रह गयी थी। जहाज तक का सफ़र शुरू करने से पहले वह थोड़ा गर्म पानी पियेगा। वह
जानता था कि यह एक भयानक सफ़र होगा।
उसकी हरकतें बहुत धीमी थीं। वह मिर्गी के दौरे की तरह काँपने लगा। जब
उसने सूखी काई बटोरना शुरू किया तो उसने पाया कि वह अपने पाँवों पर खड़ा नहीं हो पा
रहा है। एक बार वह बीमार भेड़िये के पास तक रेंगकर गया। जानवर घिसटकर उसके रास्ते
से हट गया। उसने अपने जबड़ों पर मुश्किल से जुबान फि़राई। आदमी ने देखा कि जुबान पर
स्वास्थ्य की लाली नहीं थी। वह पीलापन लिये भूरे रंग की थी और उस पर आधे सूखे बलगम
की परत चढ़ी थी।
करीब एक लीटर गर्म पानी पीने के बाद आदमी ने पाया कि वह खड़ा हो सकता
है और उस तरह चल भी सकता है, जैसे किसी मरते आदमी से चलने की उम्मीद
की जा सकती है। हर एकाध मिनट पर उसे सुस्ताने के लिए रुकना पड़ता था। उसके कदम
कमजोर और अस्थिर थे, वैसे ही जैसे उसका पीछा कर रहे भेड़िये के कदम कमजोर और अस्थिर थे; और उस रात, जब झिलमिलाते
समुद्र को अँधेरे ने ढँक लिया, तो उसने हिसाब लगाया कि दिनभर में उसकी
दूरी बस चार मील कम हुई है।
सारी रात वह बीमार भेड़िये की खाँसी और बीच-बीच में रेण्डियर के
बच्चों का किकियाना सुनता रहा। उसके चारों ओर जीवन था, लेकिन वह ताकत
से भरपूर जीवन था, पूरी तरह जीवन्त और सक्रिय, जबकि वह जानता था कि बीमार भेड़िया
बीमार आदमी के पीछे इसी उम्मीद में लगा हुआ था कि आदमी पहले मरेगा। सुबह, आँखें
खोलने पर उसने भेड़िये को अपनी ओर लालसाभरी, भूखी नजर से
घूरते देखा। वह एक भटके हुए बेचारे कुत्ते की तरह अपनी दुम टाँगों के बीच दबाये
दुबका खड़ा था। सुबह की सर्द हवा में वह काँप रहा था और जब भर्राई हुई फ़ुसफ़ुसाहट
की आवाज में आदमी ने उससे कुछ कहा तो उसने बेजान तरीके से खींसें निपोर दीं।
खुली धूप थी और सारी सुबह वह आदमी उठता-गिरता झिलमिलाते समुद्र में
खड़े जहाज की ओर चलता रहा। मौसम एकदम खुशगवार था। यह ‘इण्डियन समर’ (ध्रुवीय प्रदेश का कुछ ही दिन चलनेवाला
गर्मियों का मौसम-अनु.)
था। यह एक हफ्ते तक रह सकता था;
या फि़र हो सकता था कि कल, या उसके अगले दिन यह खत्म हो जाये।
दोपहर में आदमी को किसी और के पदचिह्न दिखाई दिये। यह किसी आदमी के
थे जो चलकर नहीं बल्कि घुटनों के बल रेंगकर गया था। उसने सोचा कि ये बिल के पदचिह्न
हो सकते हैं, पर उसे इसमें कोई दिलचस्पी नहीं महसूस हुई। उसे कोई उत्सुकता नहीं
हुई। दरअसल, उसमें भावना और संवेदना मर चुकी थी। उसे अब पीड़ा की अनुभूति नहीं
होती थी। उसका पेट और स्नायु सो चुके थे। पर उसके भीतर शेष जीवन उसे हाँके जा रहा
था। वह थक चुका था पर उसके भीतर प्राण मरने को राजी नहीं था। वह मरने को राजी नहीं
था, इसलिए वह अब भी मस्केग बेरियाँ और नन्ही मछलियाँ खाता था, गर्म
पानी पीता था और बीमार भेड़िये पर सतर्क दृष्टि रखता था।
वह रेंगकर चलनेवाले दूसरे आदमी की लीक के पीछे चलता रहा और जल्दी ही
वहाँ पहुँचा जहाँ यह खत्म हो गयी थी-हाल ही में चबाई गयी हड्डियों का एक
ढेर, जिसके इर्द-गिर्द की गीली काई पर कई भेड़ियों के पंजों के निशान थे।
उसने बारहसिंगे के चमड़े की एक मोटी थैली देखी, अपनीवाली जैसी ही।
नुकीले दाँतों ने उसे फ़ाड़ दिया था। उसने थैली को उठाया, हालाँकि उसका
वजन उसकी कमजोर उँगलियों के लिए बहुत ज्यादा था। तो बिल इसे आखिर तक ले आया था।
हा! हा! अब वह बिल पर हँस सकता था। आखिर जीत उसकी हुई। वह जिन्दा रहेगा और
झिलमिलाते समुद्र में खड़े जहाज तक इसे ले जायेगा। उसकी हँसी भयावह और कर्कश थी,
कौवे
की काँव-काँव जैसी, और बीमार भेड़िया भी उसके साथ कारुणिक स्वर में हुआने लगा। आदमी अचानक
रुक गया। भला वह बिल से बदला कैसे ले सकता था, अगर बिल यह था; अगर ये गुलाबी-सफ़ेद, सफ़ाचट
हड्डियाँ बिल थीं?
उसने मुँह घुमा लिया। ठीक है, बिल उसे मुसीबत
में अकेला छोड़ गया था; पर
वह इस सोने को नहीं लेगा, न ही बिल की हड्डियाँ चूसेगा। हालाँकि,
अगर
उसकी जगह बिल होता तो जरूर ऐसा करता; चलते-चलते उसके मन में यह ख्याल उभरा। वह एक गड्ढे में भरे साफ़ पानी
के पास पहुँचा। मछलियों की तलाश में झुकते ही उसने एकदम से सिर पीछे हटाया,
जैसे
डंक लगा हो। उसने पानी में अपनी परछाईं देख ली थी। वह चेहरा इतना भयानक था कि मरी
हुई संवेदना भी पलभर के लिए चौंककर जाग गयी। कुण्ड में तीन मछलियाँ थीं। उसे खाली
करना नामुमकिन था और बाल्टी से उन्हें पकड़ने की कई नाकाम कोशिशों के बाद उसने हार
मान ली। उसे डर था कि कमजोरी की वजह से वह कहीं गड्ढे में गिरकर डूब न जाये। इसी
डर से वह नदी के किनारे पड़े तमाम लकड़ी के कुन्दों में से किसी पर सवार होकर जाने
की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।
उस दिन उसने अपने और जहाज के बीच की दूरी तीन मील और कम की; और अगले दिन दो मील-क्योंकि
अब वह बिल की तरह रेंग रहा था; और
पाँचवाँ दिन खत्म हुआ तो जहाज अब भी सात मील दूर था और वह दिनभर में एक मील तय
करने लायक भी नहीं रह गया था। लेकिन इण्डियन समर अब भी जारी था और वह रेंगते,
फि़र
गश खाते, फि़र रेंगते, फि़र लुढ़कते हुए आगे बढ़ता रहा, और
बीमार भेड़िया खाँसते और झींकते उसके पीछे लगा रहा। उसके घुटने भी पैरों की तरह
मांस के लोथड़े बन गये थे, और हालाँकि उसने कमीज फ़ाड़कर उन पर
लपेट ली थी लेकिन रेंगते हुए वह पत्थरों और काई पर लाल लकीर छोड़ता जा रहा था। एक
बार, उसने पीछे नजर घुमाई तो देखा कि भेड़िया उसके खून की लकीर को चाट रहा
है, और उसे एकदम से अपना अन्त अपनी आँखों के सामने दिखाई दे गया। इससे
बचने का एक ही तरीका था-कि वह खुद भेड़िये को खत्म कर दे। फि़र जीवन की एक भयावह दुखान्तिकी
शुरू हुई-एक रेंगता हुआ बीमार इनसान, एक लँगड़ाता हुआ बीमार भेड़िया, अपने
मरते शवों को वीराने के पार घसीटकर ले जाते दो प्राणी जो एक-दूसरे की जान के
प्यासे थे।
अगर वह कोई तगड़ा भेड़िया होता तो शायद उस आदमी को ज्यादा फ़र्क नहीं
पड़ता; लेकिन उस घृणित
और लगभग मृत चीज के पेट में समाने का विचार ही वितृष्णा पैदा कर रहा था। उसका मन
फि़र भटकने और विचित्र दिवास्वप्नों में खोने लगा था जबकि ऐसे दौर लगातार छोटे
होते जा रहे थे जब वह साफ़-साफ़ सोच सकता था।
एक बार उसकी बेहोशी कान के पास सिसकारी की आवाज से टूटी। भेड़िया
उछलकर पीछे हटा और कमजोरी की वजह से लड़खड़ाकर गिर गया। यह दृश्य मजाकिया था पर उसे
मजा नहीं आया। उसे डर भी नहीं लगा। वह इस सबसे परे जा चुका था। लेकिन कुछ देर के
लिए उसका दिमाग साफ़ हो गया और वह लेटे-लेटे सोचने लगा। जहाज अब चार मील से ज्यादा
दूर नहीं था। आँखों को रगड़कर कुहासा छाँट देने के बाद वह उसे साफ़ देख सकता था और
झिलमिलाते समुद्र के पानी पर चलती एक छोटी नाव का सफ़ेद पाल भी उसे दिख रहा था।
लेकिन वह चार मील तक कभी रेंग नहीं पायेगा। वह यह बात जानता था कि वह आधा मील भी
नहीं रेंग सकता था। पर फि़र भी वह जीना चाहता था। यह ठीक नहीं था कि इतना सब कुछ
सहने के बाद वह मर जाये। किस्मत उससे बहुत ज्यादा तकाजा कर रही थी। और, मरते
हुए भी, उसने मरने से इनकार कर दिया। शायद यह निरा पागलपन था, लेकिन
मौत के पंजे में जकड़े हुए भी उसने मौत को धता बता दी और मरना नामंजूर कर दिया।
उसने आँखें बन्द कर लीं और भरपूर सावधानी से ध्यान केन्द्रित कर
लिया। उसने जी कड़ा कर लिया और उस दमघोंटू शिथिलता को खुद पर हावी नहीं होने दिया
जो उसके पूरे बदन में ज्वार की तरह उठ रही थी। यह घातक शिथिलता समुद्र जैसी ही थी,
जो
धीरे-धीरे उसकी चेतना को डुबो देना चाहती थी। कभी-कभी वह लगभग डूब ही जाता था; पर विस्मृति के सागर में हाथ-पैर
फ़ेंकते हुए अचानक आत्मा की किसी अजीब कीमियागिरी की बदौलत इच्छाशक्ति का कोई
तिनका उसके हाथ लग जाता था और वह सधे ढंग से हाथ चलाने लगता था।
वह बिना हिले-डुले चित लेटा रहा। वह बीमार भेड़िये की साँसों की
घरघराहट को पास आता सुन सकता था। वह पास आया, और पास; इतना धीरे-धीरे कि उसे लगा समय बीत ही
नहीं रहा है।
आदमी ने कोई हरकत नहीं की। भेड़िये की साँसें अब उसके कान पर थीं।
खुरदुरी, सूखी जुबान ने रेगमाल की तरह उसके गाल को रगड़ा। उसके हाथ गोली की तरह
झपटे-कम से कम उसने चाहा कि वे गोली की तरह झपटें। उसकी उँगलियाँ नुकीले
पंजों की तरह मुड़ी हुई थीं, लेकिन वे हवा पकड़कर रह गयीं। फ़ुर्ती
और सटीकपन के लिए ताकत चाहिए थी, पर आदमी में इतनी ताकत नहीं थी।
भेड़िये में गजब का धीरज था। आदमी का धीरज भी कम नहीं था। आधे दिन तक
वह बेहरकत पड़ा रहा, बेहोशी से लड़ते और उस चीज का इन्तजार करते हुए जो उसका शिकार करना
चाहती थी और वह खुद जिसका शिकार करना चाहता था। कभी-कभी वह शान्त समुद्र उस पर
हावी हो जाता और वह लम्बे सपनों में डूब जाता, लेकिन इस सबके
बीच वह उस घुरघुराती साँस और खुरदुरी जुबान की छुअन का इन्तजार करता रहा।
उसने साँस की आवाज नहीं सुनी और हाथ पर जुबान के स्पर्श से वह एक
स्वप्न से धीरे-धीरे जागा। वह इन्तजार करता रहा। भेड़िये के दाँत उसके हाथ पर धीरे
से गड़े; दबाव बढ़ने लगा; भेड़िया उस भोजन में दाँत गड़ाने के लिए
अपनी सारी ताकत लगा रहा था, जिसके लिए उसने इतना लम्बा इन्तजार
किया था। लेकिन आदमी काफ़ी इन्तजार कर चुका था और छिदे हुए हाथ ने जबड़ा पकड़ लिया।
धीरे से। भेड़िया छुड़ाने की कमजोर कोशिश कर रहा था और आदमी की पकड़ भी कमजोर थी।
फि़र उसके दूसरे हाथ ने भी आकर जबड़े को पकड़ लिया। पाँच मिनट बाद आदमी के शरीर का
पूरा वजन भेड़िये के ऊपर था। हाथों में इतनी ताकत नहीं थी कि भेड़िये का गला घोंट
सकें, लेकिन आदमी का चेहरा भेड़िये की गर्दन के पास था और उसका मुँह बालों
से भरा था। आधे घण्टे बाद आदमी को अपने गले में एक गर्म धार का अहसास हुआ। यह सुखद
नहीं था। यह ऐसा था जैसे उसके पेट में जबर्दस्ती पिघला सीसा धकेला जा रहा हो,
और
सिर्फ़ उसकी इच्छाशक्ति ही थी जो इसे धकेल रही थी। इसके बाद आदमी लुढ़ककर पीठ के बल
लेटा और सो गया।
व्हेल का शिकार करनेवाले जहाज बेडफ़ोर्ड पर एक वैज्ञानिक अभियान दल
के कुछ सदस्य भी थे। जहाज के डेक से उन्होंने तट पर एक अजीब सी चीज देखी। वह
रेतीले तट को पार करती हुई पानी की ओर आ रही थी। वे इसका वर्गीकरण नहीं कर पा रहे
थे, और चूँकि वे वैज्ञानिक लोग थे, इसलिए उसे देखने
के लिए जहाज के साथ लगी व्हेल-बोट में सवार होकर तट पर गये। उन्होंने एक ऐसी चीज
देखी जो जिन्दा थी पर जिसे इनसान कहना मुश्किल था। वह दृष्टिहीन थी, और
चेतनाविहीन भी। वह किसी विशाल कीड़े की तरह जमीन पर रेंगती हुई चल रही थी। उसकी
ज्यादातर कोशिशें निष्प्रभावी थीं, लेकिन वह अनवरत ऐंठते, बल
खाते हुए शायद बीस फ़ीट प्रति घण्टे की रफ्तार से आगे ही बढ़ रही थी।
इसके तीन हफ्ते बाद वह आदमी बेडफ़ोर्ड के एक केबिन में लेटा था। उसके
सूखे गालों पर आँसू ढुलक रहे थे और वह बता रहा था कि वह कौन है और उस पर क्या बीती
है। वह अपनी माँ, धूपभरे दक्षिणी कैलिफ़ोर्निया और सन्तरे के बगीचों और फ़ूलों से घिरे
एक घर के बारे में भी बहकी-बहकी बातें कर रहा था।
इसके कुछ दिन बाद वह वैज्ञानिकों और जहाज के अफ़सरों के साथ खाने की
मेज पर बैठा था। इतने सारे खाने को देखकर उसकी आँखें फ़टी पड़ रही थीं और इसे औरों
के मुँह में जाते देखकर वह बेचैन हो रहा था। हर निवाले के मुँह में जाते ही उसकी
आँखों में गहरे पछतावे का भाव आ जाता था। उसका दिमाग एकदम दुरुस्त था, फि़र
भी खाने के समय वह उन लोगों से नफ़रत करता था। उसे यह डर सताता रहता था कि यह खाना
खत्म हो जायेगा। वह खाने के भण्डार के बारे में केबिन ब्वॉय और रसोइये से लेकर
जहाज के कैप्टन तक से पूछता रहता था। वे अनगिनत बार उसे आश्वस्त कर चुके थे,
पर
वह उन पर यकीन नहीं करता था, और खुद अपनी आँखों से देखने के लिए
भण्डारखाने में चुपचाप जाकर छानबीन करता रहता था।
लोगों ने देखा कि वह आदमी मोटा हो रहा है। हर बीतते दिन के साथ उसका
मोटापा बढ़ता जा रहा था। वैज्ञानिक अचरज से सिर हिलाते और तरह-तरह के सिद्धान्त पेश
करते थे। उन्होंने उसका खाना कम कर दिया, फि़र भी उसका पेट निकलता ही गया।
जहाजी यह सब देखकर हँसते थे। वे इसका राज जानते थे। और जब
वैज्ञानिकों ने आदमी पर नजर रखनी शुरू की तो वे भी जान गये। उन्होंने देखा कि
नाश्ते के बाद वह अपनी बेढंगी चाल से किसी जहाजी के पास जाता था और भिखारी की तरह
उसके सामने हाथ फ़ैला देता था। जहाजी हँसते हुए उसे बिस्कुट का एक टुकड़ा पकड़ा देता
था। वह लालची निगाह से उसे देखता था, जैसे कोई कंजूस सोने को देखता है,
और
फि़र उसे अपनी कमीज के अन्दर डाल लेता था। दूसरे जहाजी भी हँसते हुए ऐसा दान करते
रहते थे।
वैज्ञानिक समझदार थे। उन्होंने उसे अकेला छोड़ दिया। लेकिन उन्होंने
चुपके से उसका बिस्तर देखा। उसके किनारे-किनारे सख्त जहाजी बिस्कुट की ढेरियाँ
थीं। उसके गद्दे में बिस्कुट भरा था; हर कोना-अँतरा बिस्कुट से भरा था। फि़र भी उसका दिमाग एकदम दुरुस्त
था। वह किसी और सम्भावित संकट से बचाव के उपाय कर रहा था-बस इतनी सी बात
थी। वैज्ञानिकों ने कहा कि वह इससे उबर जायेगा; और सैन फ्रांसिस्को की खाड़ी में बेडफ़ोर्ड के लंगर डालने से पहले वह
उबर गया।
Jack London's Story - Love of Life
"This out of all will
remain --
They have lived and have tossed:
So much of the game will be gain,
Though the gold of the dice has been lost."
They
limped painfully down the bank, and once the foremost of the two men staggered
among the rough-strewn rocks. They were tired and weak, and their faces had the
drawn expression of patience which comes of hardship long endured. They were
heavily burdened with blanket packs which were strapped to their shoulders.
Head-straps, passing across the forehead, helped support these packs. Each man
carried a rifle. They walked in a stooped posture, the shoulders well forward,
the head still farther forward, the eyes bent upon the ground.
"I wish we had just about two of them cartridges that's
layin' in that cache of ourn," said the second man.
His voice was utterly and drearily expressionless. He spoke
without enthusiasm; and the first man, limping into the milky stream that
foamed over the rocks, vouchsafed no reply.
The other man followed at his heels. They did not remove their
foot-gear, though the water was icy cold -- so cold that their ankles ached and
their feet went numb. In places the water dashed against their knees, and both
men staggered for footing.
The man who followed slipped on a smooth boulder, nearly fell, but
recovered himself with a violent effort, at the same time uttering a sharp
exclamation of pain. He seemed faint and dizzy and put out his free hand while
he reeled, as though seeking support against the air. When he had steadied
himself he stepped forward, but reeled again and nearly fell. Then he stood
still and looked at the other man, who had never turned his head.
The man stood still for fully a minute, as though debating with
himself. Then he called out:
"I say, Bill, I've sprained my ankle."
Bill staggered on through the milky water. He did not look around.
The man watched him go, and though his face was expressionless as ever, his
eyes were like the eyes of a wounded deer.
The other man limped up the farther bank and continued straight on
without looking back. The man in the stream watched him. His lips trembled a
little, so that the rough thatch of brown hair which covered them was visibly
agitated. His tongue even strayed out to moisten them.
"Bill!" he cried out. It was the pleading cry of a
strong man in distress, but Bill's head did not turn. The man watched him go,
limping grotesquely and lurching forward with stammering gait up the slow slope
toward the soft sky-line of the low-lying hill. He watched him go till he
passed over the crest and disappeared. Then he turned his gaze and slowly took
in the circle of the world that remained to him now that Bill was gone.
Near the horizon the sun was smouldering dimly, almost obscured by
formless mists and vapors, which gave an impression of mass and density without
outline or tangibility. The man pulled out his watch, the while resting his
weight on one leg. It was four o'clock, and as the season was near the last of
July or first of August, -- he did not know the precise date within a week or
two, -- he knew that the sun roughly marked the northwest. He looked to the
south and knew that somewhere beyond those bleak hills lay the Great Bear Lake;
also, he knew that in that direction the Arctic Circle cut its forbidding way
across the Canadian Barrens. This stream in which he stood was a feeder to the
Coppermine River, which in turn flowed north and emptied into Coronation Gulf
and the Arctic Ocean. He had never been there, but he had seen it, once, on a
Hudson Bay Company chart.
Again his gaze completed the circle of the world about him. It was
not a heartening spectacle. Everywhere was soft sky-line. The hills were all
low-lying. There were no trees, no shrubs, no grasses -- naught but a
tremendous and terrible desolation that sent fear swiftly dawning into his
eyes.
"Bill!" he whispered, once and twice; "Bill!"
He cowered in the midst of the milky water, as though the vastness
were pressing in upon him with overwhelming force, brutally crushing him with
its complacent awfulness. He began to shake as with an ague-fit, till the gun
fell from his hand with a splash. This served to rouse him. He fought with his
fear and pulled himself together, groping in the water and recovering the
weapon. He hitched his pack farther over on his left shoulder, so as to take a
portion of its weight from off the injured ankle. Then he proceeded, slowly and
carefully, wincing with pain, to the bank.
He did not stop. With a desperation that was madness, unmindful of
the pain, he hurried up the slope to the crest of the hill over which his
comrade had disappeared -- more grotesque and comical by far than that limping,
jerking comrade. But at the crest he saw a shallow valley, empty of life. He
fought with his fear again, overcame it, hitched the pack still farther over on
his left shoulder, and lurched on down the slope.
The bottom of the valley was soggy with water, which the thick
moss held, spongelike, close to the surface. This water squirted out from under
his feet at every step, and each time he lifted a foot the action culminated in
a sucking sound as the wet moss reluctantly released its grip. He picked his
way from muskeg to muskeg, and followed the other man's footsteps along and
across the rocky ledges which thrust like islets through the sea of moss.
Though alone, he was not lost. Farther on he knew he would come to
where dead spruce and fir, very small and weazened, bordered the shore of a
little lake, the titchin-nichilie, in the tongue of the country,
the "land of little sticks." And into that lake flowed a small
stream, the water of which was not milky. There was rush-grass on that stream
-- this he remembered well -- but no timber, and he would follow it till its
first trickle ceased at a divide. He would cross this divide to the first
trickle of another stream, flowing to the west, which he would follow until it
emptied into the river Dease, and here he would find a cache under an upturned
canoe and piled over with many rocks. And in this cache would be ammunition for
his empty gun, fish-hooks and lines, a small net -- all the utilities for the
killing and snaring of food. Also, he would find flour, -- not much, -- a piece
of bacon, and some beans.
Bill would be waiting for him there, and they would paddle away
south down the Dease to the Great Bear Lake. And south across the lake they
would go, ever south, till they gained the Mackenzie. And south, still south,
they would go, while the winter raced vainly after them, and the ice formed in
the eddies, and the days grew chill and crisp, south to some warm Hudson Bay
Company post, where timber grew tall and generous and there was grub without
end.
These were the thoughts of the man as he strove onward. But hard
as he strove with his body, he strove equally hard with his mind, trying to
think that Bill had not deserted him, that Bill would surely wait for him at
the cache. He was compelled to think this thought, or else there would not be
any use to strive, and he would have lain down and died. And as the dim ball of
the sun sank slowly into the northwest he covered every inch -- and many times
-- of his and Bill's flight south before the downcoming winter. And he conned
the grub of the cache and the grub of the Hudson Bay Company post over and over
again. He had not eaten for two days; for a far longer time he had not had all
he wanted to eat. Often he stooped and picked pale muskeg berries, put them
into his mouth, and chewed and swallowed them. A muskeg berry is a bit of seed
enclosed in a bit of water. In the mouth the water melts away and the seed
chews sharp and bitter. The man knew there was no nourishment in the berries,
but he chewed them patiently with a hope greater than knowledge and defying
experience.
At nine o'clock he stubbed his toe on a rocky ledge, and from
sheer weariness and weakness staggered and fell. He lay for some time, without
movement, on his side. Then he slipped out of the pack-straps and clumsily
dragged himself into a sitting posture. It was not yet dark, and in the
lingering twilight he groped about among the rocks for shreds of dry moss. When
he had gathered a heap he built a fire, -- a smouldering, smudgy fire, -- and
put a tin pot of water on to boil.
He unwrapped his pack and the first thing he did was to count his
matches. There were sixty-seven. He counted them three times to make sure. He
divided them into several portions, wrapping them in oil paper, disposing of
one bunch in his empty tobacco pouch, of another bunch in the inside band of
his battered hat, of a third bunch under his shirt on the chest. This
accomplished, a panic came upon him, and he unwrapped them all and counted them
again. There were still sixty-seven.
He dried his wet foot-gear by the fire. The moccasins were in
soggy shreds. The blanket socks were worn through in places, and his feet were
raw and bleeding. His ankle was throbbing, and he gave it an examination. It
had swollen to the size of his knee. He tore a long strip from one of his two
blankets and bound the ankle tightly. He tore other strips and bound them about
his feet to serve for both moccasins and socks. Then he drank the pot of water,
steaming hot, wound his watch, and crawled between his blankets.
He slept like a dead man. The brief darkness around midnight came
and went. The sun arose in the northeast -- at least the day dawned in that
quarter, for the sun was hidden by gray clouds.
At six o'clock he awoke, quietly lying on his back. He gazed
straight up into the gray sky and knew that he was hungry. As he rolled over on
his elbow he was startled by a loud snort, and saw a bull caribou regarding him
with alert curiosity. The animal was not more than fifty feet away, and
instantly into the man's mind leaped the vision and the savor of a caribou
steak sizzling and frying over a fire. Mechanically he reached for the empty
gun, drew a bead, and pulled the trigger. The bull snorted and leaped away, his
hoofs rattling and clattering as he fled across the ledges.
The man cursed and flung the empty gun from him. He groaned aloud
as he started to drag himself to his feet. It was a slow and arduous task. His
joints were like rusty hinges. They worked harshly in their sockets, with much
friction, and each bending or unbending was accomplished only through a sheer
exertion of will. When he finally gained his feet, another minute or so was
consumed in straightening up, so that he could stand erect as a man should
stand.
He crawled up a small knoll and surveyed the prospect. There were
no trees, no bushes, nothing but a gray sea of moss scarcely diversified by
gray rocks, gray lakelets, and gray streamlets. The sky was gray. There was no
sun nor hint of sun. He had no idea of north, and he had forgotten the way he
had come to this spot the night before. But he was not lost. He knew that. Soon
he would come to the land of the little sticks. He felt that it lay off to the
left somewhere, not far -- possibly just over the next low hill.
He went back to put his pack into shape for travelling. He assured
himself of the existence of his three separate parcels of matches, though he
did not stop to count them. But he did linger, debating, over a squat moose-hide
sack. It was not large. He could hide it under his two hands. He knew that it
weighed fifteen pounds, -- as much as all the rest of the pack, -- and it
worried him. He finally set it to one side and proceeded to roll the pack. He
paused to gaze at the squat moose-hide sack. He picked it up hastily with a
defiant glance about him, as though the desolation were trying to rob him of
it; and when he rose to his feet to stagger on into the day, it was included in
the pack on his back.
He bore away to the left, stopping now and again to eat muskeg
berries. His ankle had stiffened, his limp was more pronounced, but the pain of
it was as nothing compared with the pain of his stomach. The hunger pangs were
sharp. They gnawed and gnawed until he could not keep his mind steady on the
course he must pursue to gain the land of little sticks. The muskeg berries did
not allay this gnawing, while they made his tongue and the roof of his mouth
sore with their irritating bite.
He came upon a valley where rock ptarmigan rose on whirring wings
from the ledges and muskegs. Ker -- ker -- ker was the cry they made. He threw
stones at them, but could not hit them. He placed his pack on the ground and
stalked them as a cat stalks a sparrow. The sharp rocks cut through his pants'
legs till his knees left a trail of blood; but the hurt was lost in the hurt of
his hunger. He squirmed over the wet moss, saturating his clothes and chilling
his body; but he was not aware of it, so great was his fever for food. And
always the ptarmigan rose, whirring, before him, till their ker -- ker -- ker
became a mock to him, and he cursed them and cried aloud at them with their own
cry.
Once he crawled upon one that must have been asleep. He did not
see it till it shot up in his face from its rocky nook. He made a clutch as
startled as was the rise of the ptarmigan, and there remained in his hand three
tail-feathers. As he watched its flight he hated it, as though it had done him
some terrible wrong. Then he returned and shouldered his pack.
As the day wore along he came into valleys or swales where game
was more plentiful. A band of caribou passed by, twenty and odd animals,
tantalizingly within rifle range. He felt a wild desire to run after them, a
certitude that he could run them down. A black fox came toward him, carrying a
ptarmigan in his mouth. The man shouted. It was a fearful cry, but the fox,
leaping away in fright, did not drop the ptarmigan.
Late in the afternoon he followed a stream, milky with lime, which
ran through sparse patches of rush-grass. Grasping these rushes firmly near the
root, he pulled up what resembled a young onion-sprout no larger than a
shingle-nail. It was tender, and his teeth sank into it with a crunch that
promised deliciously of food. But its fibers were tough. It was composed of
stringy filaments saturated with water, like the berries, and devoid of
nourishment. He threw off his pack and went into the rush-grass on hands and
knees, crunching and munching, like some bovine creature.
He was very weary and often wished to rest -- to lie down and
sleep; but he was continually driven on -- not so much by his desire to gain
the land of little sticks as by his hunger. He searched little ponds for frogs
and dug up the earth with his nails for worms, though he knew in spite that
neither frogs nor worms existed so far north.
He looked into every pool of water vainly, until, as the long
twilight came on, he discovered a solitary fish, the size of a minnow, in such
a pool. He plunged his arm in up to the shoulder, but it eluded him. He reached
for it with both hands and stirred up the milky mud at the bottom. In his
excitement he fell in, wetting himself to the waist. Then the water was too
muddy to admit of his seeing the fish, and he was compelled to wait until the
sediment had settled.
The pursuit was renewed, till the water was again muddied. But he
could not wait. He unstrapped the tin bucket and began to bale the pool. He
baled wildly at first, splashing himself and flinging the water so short a
distance that it ran back into the pool. He worked more carefully, striving to
be cool, though his heart was pounding against his chest and his hands were
trembling. At the end of half an hour the pool was nearly dry. Not a cupful of
water remained. And there was no fish. He found a hidden crevice among the
stones through which it had escaped to the adjoining and larger pool -- a pool
which he could not empty in a night and a day. Had he known of the crevice, he
could have closed it with a rock at the beginning and the fish would have been
his.
Thus he thought, and crumpled up and sank down upon the wet earth.
At first he cried softly to himself, then he cried loudly to the pitiless
desolation that ringed him around; and for a long time after he was shaken by
great dry sobs.
He built a fire and warmed himself by drinking quarts of hot
water, and made camp on a rocky ledge in the same fashion he had the night
before. The last thing he did was to see that his matches were dry and to wind
his watch. The blankets were wet and clammy. His ankle pulsed with pain. But he
knew only that he was hungry, and through his restless sleep he dreamed of
feasts and banquets and of food served and spread in all imaginable ways.
He awoke chilled and sick. There was no sun. The gray of earth and
sky had become deeper, more profound. A raw wind was blowing, and the first
flurries of snow were whitening the hilltops. The air about him thickened and
grew white while he made a fire and boiled more water. It was wet snow, half
rain, and the flakes were large and soggy. At first they melted as soon as they
came in contact with the earth, but ever more fell, covering the ground,
putting out the fire, spoiling his supply of moss-fuel.
This was a signal for him to strap on his pack and stumble onward,
he knew not where. He was not concerned with the land of little sticks, nor
with Bill and the cache under the upturned canoe by the river Dease. He was
mastered by the verb "to eat." He was hunger-mad. He took no heed of
the course he pursued, so long as that course led him through the swale
bottoms. He felt his way through the wet snow to the watery muskeg berries, and
went by feel as he pulled up the rush-grass by the roots. But it was tasteless
stuff and did not satisfy. He found a weed that tasted sour and he ate all he
could find of it, which was not much, for it was a creeping growth, easily
hidden under the several inches of snow.
He had no fire that night, nor hot water, and crawled under his
blanket to sleep the broken hunger-sleep. The snow turned into a cold rain. He
awakened many times to feel it falling on his upturned face. Day came -- a gray
day and no sun. It had ceased raining. The keenness of his hunger had departed.
Sensibility, as far as concerned the yearning for food, had been exhausted.
There was a dull, heavy ache in his stomach, but it did not bother him so much.
He was more rational, and once more he was chiefly interested in the land of
little sticks and the cache by the river Dease.
He ripped the remnant of one of his blankets into strips and bound
his bleeding feet. Also, he recinched the injured ankle and prepared himself
for a day of travel. When he came to his pack, he paused long over the squat
moose-hide sack, but in the end it went with him.
The snow had melted under the rain, and only the hilltops showed
white. The sun came out, and he succeeded in locating the points of the
compass, though he knew now that he was lost. Perhaps, in his previous days'
wanderings, he had edged away too far to the left. He now bore off to the right
to counteract the possible deviation from his true course.
Though the hunger pangs were no longer so exquisite, he realized
that he was weak. He was compelled to pause for frequent rests, when he
attacked the muskeg berries and rush-grass patches. His tongue felt dry and
large, as though covered with a fine hairy growth, and it tasted bitter in his
mouth. His heart gave him a great deal of trouble. When he had travelled a few
minutes it would begin a remorseless thump, thump, thump, and then leap up and
away in a painful flutter of beats that choked him and made him go faint and
dizzy.
In the middle of the day he found two minnows in a large pool. It
was impossible to bale it, but he was calmer now and managed to catch them in
his tin bucket. They were no longer than his little finger, but he was not
particularly hungry. The dull ache in his stomach had been growing duller and
fainter. It seemed almost that his stomach was dozing. He ate the fish raw,
masticating with painstaking care, for the eating was an act of pure reason.
While he had no desire to eat, he knew that he must eat to live.
In the evening he caught three more minnows, eating two and saving
the third for breakfast. The sun had dried stray shreds of moss, and he was
able to warm himself with hot water. He had not covered more than ten miles
that day; and the next day, travelling whenever his heart permitted him, he
covered no more than five miles. But his stomach did not give him the slightest
uneasiness. It had gone to sleep. He was in a strange country, too, and the
caribou were growing more plentiful, also the wolves. Often their yelps drifted
across the desolation, and once he saw three of them slinking away before his
path.
Another night; and in the morning, being more rational, he untied
the leather string that fastened the squat moose-hide sack. From its open mouth
poured a yellow stream of coarse gold-dust and nuggets. He roughly divided the
gold in halves, caching one half on a prominent ledge, wrapped in a piece of
blanket, and returning the other half to the sack. He also began to use strips
of the one remaining blanket for his feet. He still clung to his gun, for there
were cartridges in that cache by the river Dease. This was a day of fog, and
this day hunger awoke in him again. He was very weak and was afflicted with a
giddiness which at times blinded him. It was no uncommon thing now for him to
stumble and fall; and stumbling once, he fell squarely into a ptarmigan nest.
There were four newly hatched chicks, a day old -- little specks of pulsating
life no more than a mouthful; and he ate them ravenously, thrusting them alive
into his mouth and crunching them like egg-shells between his teeth. The mother
ptarmigan beat about him with great outcry. He used his gun as a club with
which to knock her over, but she dodged out of reach. He threw stones at her
and with one chance shot broke a wing. Then she fluttered away, running,
trailing the broken wing, with him in pursuit.
The little chicks had no more than whetted his appetite. He hopped
and bobbed clumsily along on his injured ankle, throwing stones and screaming
hoarsely at times; at other times hopping and bobbing silently along, picking
himself up grimly and patiently when he fell, or rubbing his eyes with his hand
when the giddiness threatened to overpower him.
The chase led him across swampy ground in the bottom of the
valley, and he came upon footprints in the soggy moss. They were not his own --
he could see that. They must be Bill's. But he could not stop, for the mother
ptarmigan was running on. He would catch her first, then he would return and
investigate.
He exhausted the mother ptarmigan; but he exhausted himself. She
lay panting on her side. He lay panting on his side, a dozen feet away, unable
to crawl to her. And as he recovered she recovered, fluttering out of reach as
his hungry hand went out to her. The chase was resumed. Night settled down and
she escaped. He stumbled from weakness and pitched head foremost on his face,
cutting his cheek, his pack upon his back. He did not move for a long while;
then he rolled over on his side, wound his watch, and lay there until morning.
Another day of fog. Half of his last blanket had gone into
foot-wrappings. He failed to pick up Bill's trail. It did not matter. His
hunger was driving him too compellingly -- only -- only he wondered if Bill,
too, were lost. By midday the irk of his pack became too oppressive. Again he
divided the gold, this time merely spilling half of it on the ground. In the
afternoon he threw the rest of it away, there remaining to him only the
half-blanket, the tin bucket, and the rifle.
An hallucination began to trouble him. He felt confident that one
cartridge remained to him. It was in the chamber of the rifle and he had
overlooked it. On the other hand, he knew all the time that the chamber was
empty. But the hallucination persisted. He fought it off for hours, then threw
his rifle open and was confronted with emptiness. The disappointment was as
bitter as though he had really expected to find the cartridge.
He plodded on for half an hour, when the hallucination arose
again. Again he fought it, and still it persisted, till for very relief he
opened his rifle to unconvince himself. At times his mind wandered farther
afield, and he plodded on, a mere automaton, strange conceits and
whimsicalities gnawing at his brain like worms. But these excursions out of the
real were of brief duration, for ever the pangs of the hunger-bite called him
back. He was jerked back abruptly once from such an excursion by a sight that
caused him nearly to faint. He reeled and swayed, doddering like a drunken man
to keep from falling. Before him stood a horse. A horse! He could not believe
his eyes. A thick mist was in them, intershot with sparkling points of light.
He rubbed his eyes savagely to clear his vision, and beheld, not a horse, but a
great brown bear. The animal was studying him with bellicose curiosity.
The man had brought his gun halfway to his shoulder before he
realized. He lowered it and drew his hunting-knife from its beaded sheath at
his hip. Before him was meat and life. He ran his thumb along the edge of his
knife. It was sharp. The point was sharp. He would fling himself upon the bear
and kill it. But his heart began its warning thump, thump, thump. Then followed
the wild upward leap and tattoo of flutters, the pressing as of an iron band
about his forehead, the creeping of the dizziness into his brain.
His desperate courage was evicted by a great surge of fear. In his
weakness, what if the animal attacked him? He drew himself up to his most
imposing stature, gripping the knife and staring hard at the bear. The bear
advanced clumsily a couple of steps, reared up, and gave vent to a tentative growl.
If the man ran, he would run after him; but the man did not run. He was
animated now with the courage of fear. He, too, growled, savagely, terribly,
voicing the fear that is to life germane and that lies twisted about life's
deepest roots.
The bear edged away to one side, growling menacingly, himself
appalled by this mysterious creature that appeared upright and unafraid. But
the man did not move. He stood like a statue till the danger was past, when he
yielded to a fit of trembling and sank down into the wet moss.
He pulled himself together and went on, afraid now in a new way.
It was not the fear that he should die passively from lack of food, but that he
should be destroyed violently before starvation had exhausted the last particle
of the endeavor in him that made toward surviving. There were the wolves. Back
and forth across the desolation drifted their howls, weaving the very air into
a fabric of menace that was so tangible that he found himself, arms in the air,
pressing it back from him as it might be the walls of a wind-blown tent.
Now and again the wolves, in packs of two and three, crossed his
path. But they sheered clear of him. They were not in sufficient numbers, and
besides they were hunting the caribou, which did not battle, while this strange
creature that walked erect might scratch and bite.
In the late afternoon he came upon scattered bones where the
wolves had made a kill. The d bris had been a caribou
calf an hour before, squawking and running and very much alive. He contemplated
the bones, clean-picked and polished, pink with the cell-life in them which had
not yet died. Could it possibly be that he might be that ere the day was done!
Such was life, eh? A vain and fleeting thing. It was only life that pained.
There was no hurt in death. To die was to sleep. It meant cessation, rest. Then
why was he not content to die?
But he did not moralize long. He was squatting in the moss, a bone
in his mouth, sucking at the shreds of life that still dyed it faintly pink.
The sweet meaty taste, thin and elusive almost as a memory, maddened him. He
closed his jaws on the bones and crunched. Sometimes it was the bone that
broke, sometimes his teeth. Then he crushed the bones between rocks, pounded
them to a pulp, and swallowed them. He pounded his fingers, too, in his haste,
and yet found a moment in which to feel surprise at the fact that his fingers
did not hurt much when caught under the descending rock.
Came frightful days of snow and rain. He did not know when he made
camp, when he broke camp. He travelled in the night as much as in the day. He
rested wherever he fell, crawled on whenever the dying life in him flickered up
and burned less dimly. He, as a man, no longer strove. It was the life in him,
unwilling to die, that drove him on. He did not suffer. His nerves had become
blunted, numb, while his mind was filled with weird visions and delicious
dreams.
But ever he sucked and chewed on the crushed bones of the caribou
calf, the least remnants of which he had gathered up and carried with him. He
crossed no more hills or divides, but automatically followed a large stream
which flowed through a wide and shallow valley. He did not see this stream nor
this valley. He saw nothing save visions. Soul and body walked or crawled side
by side, yet apart, so slender was the thread that bound them.
He awoke in his right mind, lying on his back on a rocky ledge.
The sun was shining bright and warm. Afar off he heard the squawking of caribou
calves. He was aware of vague memories of rain and wind and snow, but whether
he had been beaten by the storm for two days or two weeks he did not know.
For some time he lay without movement, the genial sunshine pouring
upon him and saturating his miserable body with its warmth. A fine day, he
thought. Perhaps he could manage to locate himself. By a painful effort he
rolled over on his side. Below him flowed a wide and sluggish river. Its
unfamiliarity puzzled him. Slowly he followed it with his eyes, winding in wide
sweeps among the bleak, bare hills, bleaker and barer and lower-lying than any
hills he had yet encountered. Slowly, deliberately, without excitement or more
than the most casual interest, he followed the course of the strange stream
toward the sky-line and saw it emptying into a bright and shining sea. He was
still unexcited. Most unusual, he thought, a vision or a mirage -- more likely
a vision, a trick of his disordered mind. He was confirmed in this by sight of
a ship lying at anchor in the midst of the shining sea. He closed his eyes for
a while, then opened them. Strange how the vision persisted! Yet not strange.
He knew there were no seas or ships in the heart of the barren lands, just as
he had known there was no cartridge in the empty rifle.
He heard a snuffle behind him -- a half-choking gasp or cough.
Very slowly, because of his exceeding weakness and stiffness, he rolled over on
his other side. He could see nothing near at hand, but he waited patiently.
Again came the snuffle and cough, and outlined between two jagged rocks not a
score of feet away he made out the gray head of a wolf. The sharp ears were not
pricked so sharply as he had seen them on other wolves; the eyes were bleared
and bloodshot, the head seemed to droop limply and forlornly. The animal
blinked continually in the sunshine. It seemed sick. As he looked it snuffled
and coughed again.
This, at least, was real, he thought, and turned on the other side
so that he might see the reality of the world which had been veiled from him
before by the vision. But the sea still shone in the distance and the ship was
plainly discernible. Was it reality, after all? He closed his eyes for a long
while and thought, and then it came to him. He had been making north by east,
away from the Dease Divide and into the Coppermine Valley. This wide and
sluggish river was the Coppermine. That shining sea was the Arctic Ocean. That
ship was a whaler, strayed east, far east, from the mouth of the Mackenzie, and
it was lying at anchor in Coronation Gulf. He remembered the Hudson Bay Company
chart he had seen long ago, and it was all clear and reasonable to him.
He sat up and turned his attention to immediate affairs. He had
worn through the blanket-wrappings, and his feet were shapeless lumps of raw
meat. His last blanket was gone. Rifle and knife were both missing. He had lost
his hat somewhere, with the bunch of matches in the band, but the matches
against his chest were safe and dry inside the tobacco pouch and oil paper. He
looked at his watch. It marked eleven o'clock and was still running. Evidently
he had kept it wound.
He was calm and collected. Though extremely weak, he had no
sensation of pain. He was not hungry. The thought of food was not even pleasant
to him, and whatever he did was done by his reason alone. He ripped off his
pants' legs to the knees and bound them about his feet. Somehow he had
succeeded in retaining the tin bucket. He would have some hot water before he
began what he foresaw was to be a terrible journey to the ship.
His movements were slow. He shook as with a palsy. When he started
to collect dry moss, he found he could not rise to his feet. He tried again and
again, then contented himself with crawling about on hands and knees. Once he
crawled near to the sick wolf. The animal dragged itself reluctantly out of his
way, licking its chops with a tongue which seemed hardly to have the strength
to curl. The man noticed that the tongue was not the customary healthy red. It
was a yellowish brown and seemed coated with a rough and half-dry mucus.
After he had drunk a quart of hot water the man found he was able
to stand, and even to walk as well as a dying man might be supposed to walk.
Every minute or so he was compelled to rest. His steps were feeble and
uncertain, just as the wolf's that trailed him were feeble and uncertain; and
that night, when the shining sea was blotted out by blackness, he knew he was
nearer to it by no more than four miles.
Throughout the night he heard the cough of the sick wolf, and now
and then the squawking of the caribou calves. There was life all around him,
but it was strong life, very much alive and well, and he knew the sick wolf
clung to the sick man's trail in the hope that the man would die first. In the
morning, on opening his eyes, he beheld it regarding him with a wistful and
hungry stare. It stood crouched, with tail between its legs, like a miserable
and woe-begone dog. It shivered in the chill morning wind, and grinned dispiritedly
when the man spoke to it in a voice that achieved no more than a hoarse
whisper.
The sun rose brightly, and all morning the man tottered and fell
toward the ship on the shining sea. The weather was perfect. It was the brief
Indian Summer of the high latitudes. It might last a week. To-morrow or next
day it might be gone.
In the afternoon the man came upon a trail. It was of another man,
who did not walk, but who dragged himself on all fours. The man thought it
might be Bill, but he thought in a dull, uninterested way. He had no curiosity.
In fact, sensation and emotion had left him. He was no longer susceptible to
pain. Stomach and nerves had gone to sleep. Yet the life that was in him drove
him on. He was very weary, but it refused to die. It was because it refused to
die that he still ate muskeg berries and minnows, drank his hot water, and kept
a wary eye on the sick wolf.
He followed the trail of the other man who dragged himself along,
and soon came to the end of it -- a few fresh-picked bones where the soggy moss
was marked by the foot-pads of many wolves. He saw a squat moose-hide sack,
mate to his own, which had been torn by sharp teeth. He picked it up, though
its weight was almost too much for his feeble fingers. Bill had carried it to the
last. Ha! ha! He would have the laugh on Bill. He would survive and carry it to
the ship in the shining sea. His mirth was hoarse and ghastly, like a raven's
croak, and the sick wolf joined him, howling lugubriously. The man ceased
suddenly. How could he have the laugh on Bill if that were Bill; if those
bones, so pinky-white and clean, were Bill?
He turned away. Well, Bill had deserted him; but he would not take
the gold, nor would he suck Bill's bones. Bill would have, though, had it been
the other way around, he mused as he staggered on. He came to a pool of water.
Stooping over in quest of minnows, he jerked his head back as though he had
been stung. He had caught sight of his reflected face. So horrible was it that
sensibility awoke long enough to be shocked. There were three minnows in the
pool, which was too large to drain; and after several ineffectual attempts to
catch them in the tin bucket he forbore. He was afraid, because of his great
weakness, that he might fall in and drown. It was for this reason that he did
not trust himself to the river astride one of the many drift-logs which lined
its sand-spits.
That day he decreased the distance between him and the ship by
three miles; the next day by two -- for he was crawling now as Bill had
crawled; and the end of the fifth day found the ship still seven miles away and
him unable to make even a mile a day. Still the Indian Summer held on, and he
continued to crawl and faint, turn and turn about; and ever the sick wolf
coughed and wheezed at his heels. His knees had become raw meat like his feet,
and though he padded them with the shirt from his back it was a red track he
left behind him on the moss and stones. Once, glancing back, he saw the wolf
licking hungrily his bleeding trail, and he saw sharply what his own end might
be -- unless -- unless he could get the wolf. Then began as grim a tragedy of
existence as was ever played -- a sick man that crawled, a sick wolf that
limped, two creatures dragging their dying carcasses across the desolation and
hunting each other's lives.
Had it been a well wolf, it would not have mattered so much to the
man; but the thought of going to feed the maw of that loathsome and all but
dead thing was repugnant to him. He was finicky. His mind had begun to wander
again, and to be perplexed by hallucinations, while his lucid intervals grew
rarer and shorter.
He was awakened once from a faint by a wheeze close in his ear.
The wolf leaped lamely back, losing its footing and falling in its weakness. It
was ludicrous, but he was not amused. Nor was he even afraid. He was too far
gone for that. But his mind was for the moment clear, and he lay and
considered. The ship was no more than four miles away. He could see it quite
distinctly when he rubbed the mists out of his eyes, and he could see the white
sail of a small boat cutting the water of the shining sea. But he could never
crawl those four miles. He knew that, and was very calm in the knowledge. He
knew that he could not crawl half a mile. And yet he wanted to live. It was unreasonable
that he should die after all he had undergone. Fate asked too much of him. And,
dying, he declined to die. It was stark madness, perhaps, but in the very grip
of Death he defied Death and refused to die.
He closed his eyes and composed himself with infinite precaution.
He steeled himself to keep above the suffocating languor that lapped like a
rising tide through all the wells of his being. It was very like a sea, this
deadly languor, that rose and rose and drowned his consciousness bit by bit. Sometimes
he was all but submerged, swimming through oblivion with a faltering stroke;
and again, by some strange alchemy of soul, he would find another shred of will
and strike out more strongly.
Without movement he lay on his back, and he could hear, slowly
drawing near and nearer, the wheezing intake and output of the sick wolf's
breath. It drew closer, ever closer, through an infinitude of time, and he did
not move. It was at his ear. The harsh dry tongue grated like sandpaper against
his cheek. His hands shot out -- or at least he willed them to shoot out. The
fingers were curved like talons, but they closed on empty air. Swiftness and
certitude require strength, and the man had not this strength.
The patience of the wolf was terrible. The man's patience was no
less terrible. For half a day he lay motionless, fighting off unconsciousness
and waiting for the thing that was to feed upon him and upon which he wished to
feed. Sometimes the languid sea rose over him and he dreamed long dreams; but
ever through it all, waking and dreaming, he waited for the wheezing breath and
the harsh caress of the tongue.
He did not hear the breath, and he slipped slowly from some dream
to the feel of the tongue along his hand. He waited. The fangs pressed softly;
the pressure increased; the wolf was exerting its last strength in an effort to
sink teeth in the food for which it had waited so long. But the man had waited
long, and the lacerated hand closed on the jaw. Slowly, while the wolf
struggled feebly and the hand clutched feebly, the other hand crept across to a
grip. Five minutes later the whole weight of the man's body was on top of the
wolf. The hands had not sufficient strength to choke the wolf, but the face of
the man was pressed close to the throat of the wolf and the mouth of the man
was full of hair. At the end of half an hour the man was aware of a warm
trickle in his throat. It was not pleasant. It was like molten lead being
forced into his stomach, and it was forced by his will alone. Later the man
rolled over on his back and slept. * * *
There were some members of a scientific expedition on the
whale-ship Bedford. From the deck they remarked a strange object on
the shore. It was moving down the beach toward the water. They were unable to
classify it, and, being scientific men, they climbed into the whale-boat
alongside and went ashore to see. And they saw something that was alive but
which could hardly be called a man. It was blind, unconscious. It squirmed
along the ground like some monstrous worm. Most of its efforts were
ineffectual, but it was persistent, and it writhed and twisted and went ahead
perhaps a score of feet an hour. * * *
Three weeks afterward the man lay in a bunk on the
whale-ship Bedford, and with tears streaming down his wasted cheeks
told who he was and what he had undergone. He also babbled incoherently of his
mother, of sunny Southern California, and a home among the orange groves and
flowers.
The days were not many after that when he sat at table with the
scientific men and ship's officers. He gloated over the spectacle of so much
food, watching it anxiously as it went into the mouths of others. With the
disappearance of each mouthful an expression of deep regret came into his eyes.
He was quite sane, yet he hated those men at meal-time. He was haunted by a
fear that the food would not last. He inquired of the cook, the cabin-boy, the
captain, concerning the food stores. They reassured him countless times; but he
could not believe them, and pried cunningly about the lazarette to see with his
own eyes.
It was noticed that the man was getting fat. He grew stouter with
each day. The scientific men shook their heads and theorized. They limited the
man at his meals, but still his girth increased and he swelled prodigiously
under his shirt.
The sailors grinned. They knew. And when the scientific men set a
watch on the man, they knew too. They saw him slouch for'ard after breakfast,
and, like a mendicant, with outstretched palm, accost a sailor. The sailor
grinned and passed him a fragment of sea biscuit. He clutched it avariciously,
looked at it as a miser looks at gold, and thrust it into his shirt bosom.
Similar were the donations from other grinning sailors. The scientific men were
discreet. They let him alone. But they privily examined his bunk. It was lined
with hardtack; the mattress was stuffed with hardtack; every nook and cranny
was filled with hardtack. Yet he was sane. He was taking precautions against
another possible famine -- that was all. He would recover from it, the
scientific men said; and he did, ere the Bedford's anchor rumbled
down in San Francisco Bay.
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