कहानी - आखिरी पत्ता / ओ हेनरी Story - The Last Leaf / O. Henry
कहानी - आखिरी पत्ता
ओ हेनरी
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वाशिंगटन चौक के पश्चिम की ओर एक
छोटा-सा मुहल्ला है जिसमें टेढ़ी-मेढ़ी गलियों के जाल में कई बस्तियां बसी हुई
हैं। ये बस्तियां बिना किसी तरतीब के बिखरी हुई है। कहीं-कहीं सड़क अपना ही रस्ता
दो-तीन बार काट जाती है। इस सड़क के सम्बन्ध में एक कलाकार के मन में अमूल्य
सम्भावना पैदा हुई कि कागज, रंग और
कैनवास का कोई व्यापारी यदि तकादा करने यहां आये तो रास्ते में उसकी अपने आपसे
मुठभेड़ हो हो जायेगी और उसे एक पैसा भी वसूल कियेबिना वापिस लौटना पड़ेगा।
इस टूटे-फ़ूटे और विचित्र,'ग्रीनविच ग्राम' नामक मुह्ल्ले में दुनिया भर के कलाकार आकर एकत्रित होने लगे। वे सब
के सब उत्तर दिशा में खिड़कियां, अठारहवीं
सदी के महराबें, छत के कमरे और सस्ते किरायों की तलाश
में थे। बस छठी सड़क से कुछ कांसे के लोटे और टिन की तश्तरियां खरीद लाये और
ग्रहस्थी बसा ली।
एक नीचे से मकान के तीसरी मंजिल पर,
सू जौर जान्सी का स्टूडियो था। जान्सी, जोना का अपभ्रंश था। एक 'मेईन' से आयी थी और दूसरी 'कैलाफ़ोर्निया' से। दोनों की मुलाकात, आठवीं
सड़क के एक अत्यन्त सस्ते होटल में हुई थी। दोनों की कलारूचि और खाने-पीने की
पसन्द में इतनी समानता थी कि दोनों के मिले-जुले स्टूडियो का जन्म हो गया।
यह बात मई के महीने की थी। नवम्बर की
सर्दियों में एक अज्ञात अजनबी ने, जिसे
डाक्टर लोग 'निमोनिया' कहते हैं। मुहल्ले में डेरा डाल कर, अपनी बर्फ़ीली उंगलियों से लोगों को छेड़ना शुरू किया। पूर्वी इलाके
में तो इस सत्यनाशी ने बीसियों लोगों की बलि लेकर तहलका मचा दिया था, परन्तु पश्चिम की तंग गलियों वाले जाल में उसकी
चाल कुछ धीमी पड़ गयी।
मिस्टर 'निमोनिया' स्त्रियों के साथ भी कोई रिआयत नहीं
करते थे। कैलीफ़ोर्निया की आंधियों से जिसका खून फ़ीका पड़ गया हो, ऎसे किसी दुबली-पतली लड़की का इस भीमकाय
फ़ुंकारते दैत्य से कोई मुकाबला तो नही था, फ़िर भी उसने जान्सी पर हमला बोल दिया। वह बेचारी चुपचाप अपनी लोहे की
खाट पर पड़ी रहती और शीशे की खिड़की में से सामने के ईटों के मकान की कोरी दीवार
को देखा करती।
एक दिन उसका इलाज करने वाले बूढ़े
डाक्टर ने, थर्मामीटर झटकते हुये, सू को बाहर के बरामदे में बुलाकर कहा,"उसके जीने की संभावना रूपये में दो आना है और,
वह भी तब, यदि उसकी इच्छा-शक्ति बनी रहे। जब लोगों के मन में जीने की इच्छा ही
नही रहती और वे मौत का स्वागत करने को तैयार हो जाते हैं तो उनका इलाज धन्वंतरि भी
नहीं कर सकते। इस लड़की के दिमाग पर भूत सवार हो गया है कि वह अब अच्छी नहीं होगी।
क्या उसके मन पर कोई बोझ है?"
सू बोली,"और तो कुछ नहीं, पर
किसी रोज नेपल्स की खाड़ी का चित्र बनाने की उसकी प्रबल आकांक्षा है।"
"चित्र? हूं! मैं पूछ रहा था, कि
उसके जीवन में कोई ऎसा आकर्षण भी है कि जिससे जीने की इच्छा तीव्र हो? जैसे कोई नौजवान!"
बिच्छू के डंक की-सी चुभती आवाज में
सू बोली," नौजवान? पुरूष और प्रेम-छोड़ो भी-नहीं डाक्टर साहब, ऎसी कोई बात नहीं है।"
डाक्टर बोला,"सारी बुराई की जड़ यही है। डाक्टरी विद्या के
अनुसार जो कुछ मुझसे मुमकिन है, उसे
किये बिना नहीं छोडूंगा। पर जब कोई मरीज अपनी अर्थी के साथ चलने वालों की संख्या
गिनने लगा जाता है तब दवाइयों की शाक्ति आधी रह जाती है। अगर तुम उसके जीवन में
कोई आकर्षण पैदा कर सको, जिससे
वहअगली सर्दियों में प्रचलित होने वाले कपड़ो के फ़ैशन के बारे में चर्चा करने लगे,
तो उसके जीने की संभावना कम से कम दूनी हो
जायेगी।"
डाक्टर के जाने के बाद सू अपने कमरे
में गयी और उसने रो-रो कर कई रूमाल निचोड़ने काबिल कर दिये। कुछ देर बाद, चित्रकारी का सामान लेकर, वह सीटी बजाती हुई जान्सी के कमरे में पहुंची। जान्सी, चद्दर ओढ़े, चुपचाप, बिना हिले-डुले, खिड़की की ओर देखती पड़ी थी। उसे सोई हुई जान कर
उसने सीटी बजाना बन्द कर दिया।
तख्ते पर कागज लगाकर वह किसी पत्रिका
की कहानी के लिए, कलम स्याही से एक तस्वीर बनाने बैठी।
नवोदित कलाकारों को 'कला' की मंजिल तक पहुंचने केलिए, पत्रिकाओं
के लिए तस्वीरें बनानी ही पड़ती है। जैसे साहित्य की मंजिल तक पहुंचने के लिए,
नवोदित लेखकों को पत्रिकाओं की कहानियां लिखनी
पड़तीहै।
ज्यों ही सू, एक घुड़सवार जैसा ब्रीजस पहने, एक आंख का चश्मा लगाये, किसी
इडाहो के गडरिये के चित्र की रेखाएं बनाने लगी कि उसे एक धीमी आवाज अनेक बार
दुहराती-सी सुनाई दी। वह शीघ्र ही बीमार के बिस्तरे के पास गयी।
जान्सी की आंखे खुली थीं। वह खिड़की
से बाहर देख रही थी और कुछ गिनती बोल रही थी। लेकिन वह उल्टा जप कर रही थी। वह
बोली,"बारह" फ़िर कुछ देर बाद
"ग्यारह" फ़िर "दस" और "नौ" और तब एक साथ
"आठ" और "सात"।
सू ने उत्कण्ठा से, खिड़की के बाहर नजर डाली। वहां गिनने लायक क्या
था। एक खुला, बंजर चौक या बीस फ़ीट दूर ईंटों के
मकान की कोरी दीवार!
एक पुरानी, ऎंठी हुई, जड़े निकली हुए,. सदाबहार की बेल दीवार की आधी ऊंचाई तक चढ़ी हुई
थी। शिशिर की ठंडी सांसो ने उसके शरीर की पत्तियां तोड़ ली थीं और उसकी कंकाल
शाखाएं, एकदम उघाड़ी, उन टूटी-फ़ूटी ईटों से लटक रही थीं।
सू ने पूछा,"क्या है जानी?"
अत्यन्त धीमे स्वरों में जान्सी बोली,"छ:! अब वे जल्दी-जल्दी गिर रही हैं। तीन दिन पहले
वहां करीब एक सौ था। उन्हें गिनते-गिनते सिर दुखने लगाता था। वह, एक और गिरी। अब बची सिर्फ़ पांच।"
"पांच क्या? जानी, पांच क्या? अपनी सू को तो बता!"
"पत्तियां। उस बेल की पत्तियां। जिस
वक्त आखिरी पत्ती गिरेगी, मैं भी
चली जाऊंगी। मुझे तीन दिन से इसका पता है। क्या डाक्टर ने तुम्हें नहीं बताया?"
अत्यन्त तिरस्कार के साथ सू ने
शिकायत की, "ओह! इतनी बेवकूफ़ तो कहीं नही देखी।
तेरे ठीक होने का इन पत्तियों से क्या सम्बन्ध है? तू उस बैल से प्यार किया करती थी-क्यों इसलिए? बदमाश! अपनी बेवकूफ़ी बन्द कर! अभी सुबह ही तो डाक्टर ने बताया था कि
तेरे जल्दी से ठीक होने की संभावना-ठीक किन शब्दो में कहां था-हां, कहा था, संभावना
रूपये में चौदह आना है और न्यूयार्क में, जब हम
किसी टैक्सी में बैठते हैं या किसी नयी इमारत के पास से गुजरते हैं, तब भी जीने की संभावना इससे आधिक नहीं रहती। अब
थोड़ा शोरबा पीने की कोशिश कर और अपनी सू को तस्वीर बनाने दे, ताकि उसे सम्पादक महोदय के हाथों बेच कर वह अपने
बीमार बच्ची के लिए थोड़ी दवा-दारू और अपने खुद के पेट के लिए कुछ रोटी-पानी ला
सके।"
अपनी आंखों को खिड़की के बाहर टिकाये
जान्सी बोली,"तुम्हें अब मेरे लिए शराब लाने की
जरूरत नहीं। वह, एक और गिरी। नहीं मुझे शोरबे की भी
जरूरत नहीं। अब सिर्फ़ चार रह गयीं। अन्धेरा होने से पहिले उस आखिरी पत्ती को
गिरते हुए देख लूं-बस। फ़िर मैं भी चली जाऊंगी।"
सू उस पर झुकती हुई बोली,'प्यारी जान्सी! तुझे प्रतिज्ञा करनी होगी कि तू
आंखे बन्द रखेगी और जब तक मैं काम करती हूं, खिड़की से बाहर नहीं देखेगी। कल तक ये तस्वीर पहुंचा देनी हैं। मुझे
रोशनी की जरूरत है, वर्ना अभी खिड़की बन्द कर
देती।"
जान्सी ने रूखाई से पूछा,"क्या तुम दूसरे कमरे में बैठकर तस्वीरें नहीं बन
सकती?"
सू ने कहा,"मुझे तेरे पास ही रहना चहिये। इसके अलावा,
मैं तुझे उस बेल की तरफ़ देखने देना नहीं
चाहती।"
किसी गिरी हुई मूर्ति की तरह निश्चल
और सफ़ेद, अपनी आखे बन्द करती हुई, जान्सी बोली,"काम खत्म होते ही मुझे बोल देना, क्योकिं मैं उस आखिरी पत्ती को गिरते हुए देखना चाहती हूं। अब अपनी हर
पकड़ को ढीला छोड़ना चाहती हूं और उन बिचारी थकी हुई पत्तियों की तरह तैरती हुई
नीचे-नीचे-नीचे चलीजाना चाहती हूं।"
सू ने कहा," तू सोने की कोशिश कर। मैं खान में मजदूर का माडल
बनने के लिए उस बेहरमैन को बुला लाती हूं। अभी, एक मिनट में आयी। जब तक मैं नहीं लौंटूं, तू हिलना मत!"
बूढ़ा बेहरमैन उनके नीचे ही एक कमरे
में रहता था। वह भी चित्रकार था। उसकी उम्र साठ साल से भी अधिक थी। उसकी दाढ़ी,
मायकल एंजेलो की तस्वीर के मोजेस की दाढ़ी की तरह,
किसी बदशक्ल बंदर के सिर से किसी भूत के शरीर तक
लहराती मालूम पड़ती थी। बेरहमैम एक असफ़ल कलाकार था। चालीस वर्षो से वह साधना कर
रहा था, लेकिन अभी तक अपनी कला के चरण भी
नहीं छू सका था। वह हर तस्वीर को बनाते समय यही सोचता कि यह उसकी उत्क्रष्ट क्रति
होगी, पर कभी भी वैसी बना नहीं पाता। इधर
कई वर्षो से उसने व्यावसायिक या विज्ञापन-चित्र बनाने के सिवाय, यह धन्धा ही छोड़ दिया था। उन नवयुवक कलाकारों के
लिए मांडल बनकर, जो किसी पेशेवर मांडल की फ़ीस नहीं
चुका सकते थे, वह आजकल अपना पेट भरता था। वह जरूरत
से ज्यादा शराब पी लेता और अपनी उस उत्क्रष्ट क्रति के विषय में बकवास करता जिसके
सपने वह संजोता था। वैसे वह बड़ा खूंखार बूढ़ा था, जो नम्र आदमियों की जोरदार मजाक उड़ाता और अपने को इन दोनों जवान
कलाकारों का पहरेदार कुत्ता समझा करता।
सू ने बेहरमैन को अपने अंधेरे अड्डे
में पड़ा पाया। उसमें से बेर की गुठलियों-सी गन्ध आ रही थी। एक कोने में वह कोरा
कनवास खड़ा था, जो उसकी उत्क्रष्ट कलाक्रति की पहिली
रेखा का अंकन पाने की, पच्चीस वर्षो से बाट जोह रहा था।
उसने बूढ़े को बताया कि कैसे जान्सी उन पत्तों के साथ अपने पत्ते जैसे कोमल शरीर
का सम्बन्ध जोड़ कर, उनके समान बह जाने की भयभीत कल्पना
करती है और सोचती है कि उसकी पकड़ संसार पर ढीली हो जायेगी।
बूढ़े बेहरमैन ने इन मूर्ख कल्पनाओं
पर गुस्से से आंखे निकाल कर अपना तिरस्कार व्यक्त किया।
वह बोला,"क्या कहा? क्या अभी तक दुनिया में ऎसे मूर्ख भी
हैं, जो सिर्फ़ इसलिए कि एक उखड़ी हुई बेल
से पत्ते झड़ रहे हैं, अपने मरने की कल्पना कर लेते है?
मैंने तो ऎसा कहीं नहीं सुना! मैं तुम्हारे जैसे
बेवकूफ़ पागलों के लिए कभी माडल नहीं बन सकता। तुमने उसके दिमाग में इस बात को
घुसने ही कैसे दिया? अरे, बिचारी जान्सी!"
सू ने कहा,"वह बीमारी से बहुत कमजोर हो गयी है और बुखार के
कारण ही उसके दिमाग में ऎसी अजीब-अजीब कलुषित कल्पनाएं जाग उठी हैं। अच्छा;
बूढ़े बेहरमैन, तुम अगर मेरे लिए माडल नहीं बनना चाहते तो मत बनो। हो तो आखिर उल्लू
के पट्ठे ही!"
बेरहमैन चिल्लाया,"तू तो लड़की की लड़की ही रही! किसने कहा कि मैं
माडल नहीं बनूंगा? चल, मैं तेरे साथ चलता हूं। आधे घण्टे से यही तो झींक रहा हूं कि भई चलता
हूं-चलता हू! लेकिन एक बात कहूं- यह जगह जान्सी जैसी अच्छी लड़की के मरने लायक
नहीं है। किसी दिन जब मै अपनी उत्क्रष्ट कलाक्रति बना लूंगा तब हम सब यहां से चल
चलेंगे। समझी? हां!"
जब वे लोग ऊपर पहुंचे तो जान्सी सो
रही थी। सू ने खिड़कियों के पर्दे गिरा दिये और बेहरमैन को दूसरे कमरे में ले गयी।
वहां से उन्होंने भयभीत द्रष्टि से खिड़की के बाहर उस बेल की ओर देखा। फ़िर
उन्होंने, बिना एक भी शब्द बोले, एक-दूसरे की ओर देखा। अपने साथ बर्फ़ लिये हुये
ठंडी बरसात लगातार गिर रही थी। एक केटली को उल्टा करके उस पर नीली कमीज में
बेहरमैन को बिठाया गया जिससे चट्टान पर बैठे हुये, किसी खान के मजदूर का माडल बन जाये।
एक घण्टे की नींद के बाद जब दूसरे
दिन सुबह, सू की आंख खुली तो उसने देखा कि
जान्सी जड़ होकर, खिड़की के हरे पर्दे की ओर आंखे
फ़ाड़ कर देख रही है। सुरसुराहट के स्वर में उसने आदेश दिया,"पर्दे उठा दे, मै देखना चाहती हूं।"
विवश होकर सू को आज्ञा माननी पड़ी।
लेकिन यह क्या! रात भर वर्षा,
आंधी तूफ़ान और बर्फ़ गिरने पर भी ईंटो की दीवार
से लगी हुई, उस बेल में एक पत्ती थी। अपने डंठल
के पास कुछ गहरी हरी, लेकिन अपने किनारों के आसपास थकावट
और और झड़ने की आशंका लिए पीली-पीली, वह
पत्ती जमीन से कोई बीस फ़ुट ऊंची अभी तक अपनी डाली से लटकरही थी।
जान्सी ने कहा," यही आखिरी है। मैंने सोचा था कि यह रात में जरूर
ही गिर जायगी। मैनें तूफ़ान की आवाज भी सुनी। खैर, कोई बात नहीं यह आज गिर जायेगी और उसी समय मैं भी मर जाऊंगीं।"
तकिये पर अपना थका हुआ चेहरा झुका कर
सू बोली,"क्या कहती है पागल! अपना नहीं तो कम
से कम मेरा ख्याल कर! मैं क्या करूंगी?"
पर जान्सी ने कोई जवाब नहीं दिया। इस
दुनिया की सबसे अकेली वस्तु यह 'आत्मा'
है, जब वह
अपनी रहस्यमयी लम्बी यात्रा पर जाने की तैयारी में होती है। ज्यों-त्यों संसार और
मित्रता से बांधने वाले उसके बन्धन ढ़ीले पड़ते गये त्यों-त्यों उसकी कल्पना ने
उसे अधिक जोर से जकड़ना शुरू कर दिया।
दिन बीत गया और संध्या के क्षीण
प्रकाश में भी, दीवार से लगी हुई बेल से लटका हुआ वह
पत्ता, उन्हें दिखाई देता रहा। पर तभी रात
पड़ने के साथ-साथ, उत्तरी हवाएं फ़िर चलने लगीं और
वर्षा की झड़ियां खिड़की से टकरा कर छज्जे पर बह आयीं।
रोशनी होते ही निर्दयी जान्सी ने
आदेश दिया कि पर्दे उठा दिये जाये।
बेल में पत्ती अब तक मौजूद थी।
जान्सी बहुत देर तक उसी को एकटक
देखती रही। उसने सू को पुकारा, जो
चौके में स्टोव पर मुर्गी का शोरबा बना रही थी। जान्सी बोली,"सूडी, मैं
बहुत ही खराब लड़की हूं। कुदरत की किसी शक्ति ने, उस अन्तिम पत्ती को वहीं रोक कर, मुझे यह बता दिया कि मैं कितनी दुष्ट हूं। इस तरह मरना तो पाप है। ला,
मुझे थोड़ा-सा शोरबा दे और कुछ दूध में जहर
मिलाकर ला दे। पर
नहीं, उससे पहले मुझे जरा शीशा दे और मेरे
सिरहाने कुछ तकिये लगा, ताकि मैं बैठे-बैठे तुझे खाना बनाते
हुए देख सकूं।"
कोई एक घंण्टे बाद वह बोली,"सूडी, मुझे
लगता है कि मैं कभी न कभी नेपल्स की खाड़ी का चित्र जरूर बनाऊंगी।"
शाम को डाक्टर साहब फ़िर आये सू,
कुछ बहाना बनाकर, उनसे बाहर जाकर मिली। सू दे दुर्बल कांपते हाथ को अपने हाथों में लेकर
डाक्टर साहब बोले, "अब
संभावना आठ आना मानी जा सकती है। अगर परिचर्या अच्छी हुई तो तुम जीत जाओगी और अब
मैं, नीचे की मंजिल पर, एक-दूसरे मरीज को देखने जा रहा हूं। क्या नाम है
उसका- बेहरमैन!-शायद कोई कलाकार है-निमोनिया हो गया है। अत्यन्त दुर्बल और बुरा
आदमी है और झपट जोर की लगी है। बचने की कोई संभावना नहीं। आज उसे अस्पताल भिजवां
दूंगा। वहां आराम ज्यादा मिलेगा।"
दूसरे दिन डाक्टर ने सू से कहा,"जान्सी, अब
खतरे से बाहर है। तुम्हारी जीत हुई। अब तो सिर्फ़ पथ्य और देखभाल की जरूरत
है।"
उस दिन शाम को सू, जान्सी के पलंग के पास आकर बैठ गयी। वह नीली ऊन
का एक बेकार-सा गुलबन्द, निश्चिन्त
होकर बुन रही थी। उसने तकिये के उस ओर से, अपनी
बांह, सू के गले में डाल दी।
सू बोली,"मेरी भोली बिल्ली, तुझसे
एक बात कहनी है। आज सुबह अस्पताल में, मिस्टर
बेहरमैन की निमोनिया से म्रत्यु हो गयी। वह सिर्फ़ दो रोज बीमार रहा। परसों सुबह
ही चौकीदार ने उसे अपने कमरे में दर्द से तड़पता पाया था। उसके कपड़े-यहां तक कि
जूते भी पूरी तरह से भीगे हुए और बर्फ के समान ठंडे हो रहे थे। कोई नहीं जानता कि
ऎसी भयानक रात में वह कहां गया था। लेकिन उसके कमरे से एक जलती हुई लालटेन,
एक नसैनी, दो-चार ब्रश और फ़लक पर कुछ हरा और पीला रंग मिलाया हुआ मिला। जरा
खिड़की से बाहर तो देख-दीवार के पास की उस अन्तिम पत्ती को। क्या तुझे कभी आश्चर्य
नहीं हुआ कि इतनी आंधी और तूफ़ान में भी वह पत्ती हिलती क्यों नहीं? प्यारी सखी, यही बेहरमैन की उत्क्रष्ट कलाक्रति थी जिस रात को अन्तिम पत्ती गिरी
उसी रात उसने उसका निर्माण किया था।"
Story - The Last Leaf
O. Henry
In a little district west of Washington Square the streets
have run crazy and broken themselves into small strips called
"places." These "places" make strange angles and curves.
One Street crosses itself a time or two. An artist once discovered a valuable
possibility in this street. Suppose a collector with a bill for paints, paper
and canvas should, in traversing this route, suddenly meet himself coming
back, without a cent having been paid on account!
So, to quaint old Greenwich
Village the art people soon came prowling, hunting for north windows and
eighteenth-century gables and Dutch attics and low rents. Then they imported
some pewter mugs and a chafing dish or two from Sixth Avenue, and became a
"colony."
At the top of a squatty,
three-story brick Sue and Johnsy had their studio. "Johnsy" was
familiar for Joanna. One was from Maine; the other from California. They had
met at the table d'hôte of an Eighth Street "Delmonico's," and
found their tastes in art, chicory salad and bishop sleeves so congenial that
the joint studio resulted.
That was in May. In November a
cold, unseen stranger, whom the doctors called Pneumonia, stalked about the
colony, touching one here and there with his icy fingers. Over on the east
side this ravager strode boldly, smiting his victims by scores, but his feet
trod slowly through the maze of the narrow and moss-grown "places."
Mr. Pneumonia was not what you
would call a chivalric old gentleman. A mite of a little woman with blood
thinned by California zephyrs was hardly fair game for the red-fisted,
short-breathed old duffer. But Johnsy he smote; and she lay, scarcely moving,
on her painted iron bedstead, looking through the small Dutch window-panes at
the blank side of the next brick house.
One morning the busy doctor
invited Sue into the hallway with a shaggy, grey eyebrow.
"She has one chance in - let
us say, ten," he said, as he shook down the mercury in his clinical
thermometer. " And that chance is for her to want to live. This way
people have of lining-u on the side of the undertaker makes the entire
pharmacopoeia look silly. Your little lady has made up her mind that she's
not going to get well. Has she anything on her mind?"
"She - she wanted to paint the Bay of Naples some
day." said Sue.
"Paint? - bosh! Has she
anything on her mind worth thinking twice - a man for instance?"
"A man?" said Sue, with
a jew's-harp twang in her voice. "Is a man worth - but, no, doctor;
there is nothing of the kind."
"Well, it is the weakness,
then," said the doctor. "I will do all that science, so far as it
may filter through my efforts, can accomplish. But whenever my patient begins
to count the carriages in her funeral procession I subtract 50 per cent from
the curative power of medicines. If you will get her to ask one question
about the new winter styles in cloak sleeves I will promise you a one-in-five
chance for her, instead of one in ten."
After the doctor had gone Sue
went into the workroom and cried a Japanese napkin to a pulp. Then she
swaggered into Johnsy's room with her drawing board, whistling ragtime.
Johnsy lay, scarcely making a
ripple under the bedclothes, with her face toward the window. Sue stopped
whistling, thinking she was asleep.
She arranged her board and began
a pen-and-ink drawing to illustrate a magazine story. Young artists must pave
their way to Art by drawing pictures for magazine stories that young authors
write to pave their way to Literature.
As Sue was sketching a pair of
elegant horseshow riding trousers and a monocle of the figure of the hero, an
Idaho cowboy, she heard a low sound, several times repeated. She went quickly
to the bedside.
Johnsy's eyes were open wide. She
was looking out the window and counting - counting backward.
"Twelve," she said, and
little later "eleven"; and then "ten," and
"nine"; and then "eight" and "seven", almost
together.
Sue look solicitously out of the
window. What was there to count? There was only a bare, dreary yard to be
seen, and the blank side of the brick house twenty feet away. An old, old ivy
vine, gnarled and decayed at the roots, climbed half way up the brick wall.
The cold breath of autumn had stricken its leaves from the vine until its
skeleton branches clung, almost bare, to the crumbling bricks.
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"What is it, dear?" asked Sue.
"Six," said Johnsy, in
almost a whisper. "They're falling faster now. Three days ago there were
almost a hundred. It made my head ache to count them. But now it's easy. There
goes another one. There are only five left now."
"Five what, dear? Tell your
Sudie."
"Leaves. On the ivy vine. When
the last one falls I must go, too. I've known that for three days. Didn't the
doctor tell you?"
"Oh, I never heard of such
nonsense," complained Sue, with magnificent scorn. "What have old ivy
leaves to do with your getting well? And you used to love that vine so, you
naughty girl. Don't be a goosey. Why, the doctor told me this morning that your
chances for getting well real soon were - let's see exactly what he said - he
said the chances were ten to one! Why, that's almost as good a chance as we
have in New York when we ride on the street cars or walk past a new building.
Try to take some broth now, and let Sudie go back to her drawing, so she can
sell the editor man with it, and buy port wine for her sick child, and pork
chops for her greedy self."
"You needn't get any more
wine," said Johnsy, keeping her eyes fixed out the window. "There
goes another. No, I don't want any broth. That leaves just four. I want to see
the last one fall before it gets dark. Then I'll go, too."
"Johnsy, dear," said Sue,
bending over her, "will you promise me to keep your eyes closed, and not
look out the window until I am done working? I must hand those drawings in by
to-morrow. I need the light, or I would draw the shade down."
"Couldn't you draw in the
other room?" asked Johnsy, coldly.
"I'd rather be here by
you," said Sue. "Beside, I don't want you to keep looking at those
silly ivy leaves."
"Tell me as soon as you have
finished," said Johnsy, closing her eyes, and lying white and still as
fallen statue, "because I want to see the last one fall. I'm tired of
waiting. I'm tired of thinking. I want to turn loose my hold on everything, and
go sailing down, down, just like one of those poor, tired leaves."
"Try to sleep," said Sue.
"I must call Behrman up to be my model for the old hermit miner. I'll not
be gone a minute. Don't try to move 'til I come back."
Old Behrman was a painter who lived
on the ground floor beneath them. He was past sixty and had a Michael Angelo's
Moses beard curling down from the head of a satyr along with the body of an
imp. Behrman was a failure in art. Forty years he had wielded the brush without
getting near enough to touch the hem of his Mistress's robe. He had been always
about to paint a masterpiece, but had never yet begun it. For several years he
had painted nothing except now and then a daub in the line of commerce or
advertising. He earned a little by serving as a model to those young artists in
the colony who could not pay the price of a professional. He drank gin to
excess, and still talked of his coming masterpiece. For the rest he was a
fierce little old man, who scoffed terribly at softness in any one, and who
regarded himself as especial mastiff-in-waiting to protect the two young
artists in the studio above.
Sue found Behrman smelling strongly
of juniper berries in his dimly lighted den below. In one corner was a blank
canvas on an easel that had been waiting there for twenty-five years to receive
the first line of the masterpiece. She told him of Johnsy's fancy, and how she
feared she would, indeed, light and fragile as a leaf herself, float away, when
her slight hold upon the world grew weaker.
Old Behrman, with his red eyes
plainly streaming, shouted his contempt and derision for such idiotic
imaginings.
"Vass!" he cried.
"Is dere people in de world mit der foolishness to die because leafs dey
drop off from a confounded vine? I haf not heard of such a thing. No, I will
not bose as a model for your fool hermit-dunderhead. Vy do you allow dot silly
pusiness to come in der brain of her? Ach, dot poor leetle Miss Yohnsy."
"She is very ill and
weak," said Sue, "and the fever has left her mind morbid and full of
strange fancies. Very well, Mr. Behrman, if you do not care to pose for me, you
needn't. But I think you are a horrid old - old flibbertigibbet."
"You are just like a
woman!" yelled Behrman. "Who said I will not bose? Go on. I come mit
you. For half an hour I haf peen trying to say dot I am ready to bose. Gott!
dis is not any blace in which one so goot as Miss Yohnsy shall lie sick. Some
day I vill baint a masterpiece, and ve shall all go away. Gott! yes."
Johnsy was sleeping when they went
upstairs. Sue pulled the shade down to the window-sill, and motioned Behrman
into the other room. In there they peered out the window fearfully at the ivy
vine. Then they looked at each other for a moment without speaking. A persistent,
cold rain was falling, mingled with snow. Behrman, in his old blue shirt, took
his seat as the hermit miner on an upturned kettle for a rock.
When Sue awoke from an hour's sleep
the next morning she found Johnsy with dull, wide-open eyes staring at the
drawn green shade.
"Pull it up; I want to
see," she ordered, in a whisper.
Wearily Sue obeyed.
But, lo! after the beating rain and
fierce gusts of wind that had endured through the livelong night, there yet
stood out against the brick wall one ivy leaf. It was the last one on the vine.
Still dark green near its stem, with its serrated edges tinted with the yellow
of dissolution and decay, it hung bravely from the branch some twenty feet
above the ground.
"It is the last one," said Johnsy. "I thought
it would surely fall during the night. I heard the wind. It will fall to-day,
and I shall die at the same time."
"Dear, dear!" said Sue,
leaning her worn face down to the pillow, "think of me, if you won't think
of yourself. What would I do?"
But Johnsy did not answer. The
lonesomest thing in all the world is a soul when it is making ready to go on
its mysterious, far journey. The fancy seemed to possess her more strongly as
one by one the ties that bound her to friendship and to earth were loosed.
The day wore away, and even through
the twilight they could see the lone ivy leaf clinging to its stem against the
wall. And then, with the coming of the night the north wind was again loosed,
while the rain still beat against the windows and pattered down from the low
Dutch eaves.
When it was light enough Johnsy,
the merciless, commanded that the shade be raised.
The ivy leaf was still there.
Johnsy lay for a long time looking
at it. And then she called to Sue, who was stirring her chicken broth over the
gas stove.
"I've been a bad girl,
Sudie," said Johnsy. "Something has made that last leaf stay there to
show me how wicked I was. It is a sin to want to die. You may bring a me a
little broth now, and some milk with a little port in it, and - no; bring me a
hand-mirror first, and then pack some pillows about me, and I will sit up and
watch you cook."
And hour later she said:
"Sudie, some day I hope to
paint the Bay of Naples."
The doctor came in the afternoon,
and Sue had an excuse to go into the hallway as he left.
"Even chances," said the doctor, taking
Sue's thin, shaking hand in his. "With good nursing you'll win." And
now I must see another case I have downstairs. Behrman, his name is - some kind
of an artist, I believe. Pneumonia, too. He is an old, weak man, and the attack
is acute. There is no hope for him; but he goes to the hospital to-day to be
made more comfortable."
The next day the doctor said to
Sue: "She's out of danger. You won. Nutrition and care now - that's
all."
And that afternoon Sue came to the
bed where Johnsy lay, contentedly knitting a very blue and very useless woollen
shoulder scarf, and put one arm around her, pillows and all.
"I have something to tell you,
white mouse," she said. "Mr. Behrman died of pneumonia to-day in the
hospital. He was ill only two days. The janitor found him the morning of the
first day in his room downstairs helpless with pain. His shoes and clothing
were wet through and icy cold. They couldn't imagine where he had been on such
a dreadful night. And then they found a lantern, still lighted, and a ladder
that had been dragged from its place, and some scattered brushes, and a palette
with green and yellow colours mixed on it, and - look out the window, dear, at
the last ivy leaf on the wall. Didn't you wonder why it never fluttered or
moved when the wind blew? Ah, darling, it's Behrman's masterpiece - he painted
it there the night that the last leaf fell."
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