अगर आप बच्चों से प्यार करते हैं तो आपको.........
अगर आप बच्चों से प्यार करते हैं
तो आपको क्रान्ति के बारे में गम्भीरता से सोचना चाहिए
आनन्द सिंह
वैसे तो समाज में बढ़ती अमीर-ग़रीब
के बीच की खाई, भुखमरी, कुपोषण, पर्यावरण विनाश और लोगों की आज़ादी
पर तमाम किस्म की पाबन्दियाँ किसी भी संवेदनशील और न्यायप्रिय व्यक्ति के लिए
मौजूदा सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के क्रान्तिकारी बदलाव के बारे में सोचने की वजह होनी
चाहिए, परन्तु यदि आपने खुद को
क्रान्तिकारी बदलाव के संघर्षों से काटकर अपने परिवार की जिम्मेदारियों का
निर्वहन करने तक इसलिए सीमित कर लिया है क्योंकि आपको क्रान्तिकारी बदलाव
गैर-ज़रूरी या अव्यावहारिक लगता है तो यह नोट ज़रूर पढ़ें क्योंकि मुमकिन है कि
इसे पढ़ने के बाद आप क्रान्ति के बारे में गम्भीरता से सोचने लग जाएँ।
मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि हमारे
समाज में तेज़ी से बह रही नफ़रत, मतलबपरस्ती,
और हृदयहीनता की गरम हवा ने आपके व्यक्तित्व को
इतना रूखा नहीं बना दिया है कि आप बच्चों से प्यार करना भूल चुके हैं। दूसरों के
बच्चों से नहीं तो कम से कम अपने घर के बच्चों से तो प्यार करते ही होंगे। यह
तो सच है कि आजकल मध्य वर्ग के बच्चों को सुख-सुविधाएँ, शिक्षा, खिलौने, गैजेट्स आदि पहले के पीढ़ी के मुकाबले अधिक प्राप्त हो रहे हैं।
लेकिन क्या आपने संज़ीदगी से यह सवाल उठाने का साहस किया है कि इन सब सुविधाओं से
हमारे बच्चे पहले की तुलना में ज़्यादा खुश रहने लगे हैं? आज के दौर में मध्य वर्ग के बच्चों के जीवन को ग़ौर से देखने पर
मुझे तो लगता है कि समाज ने बच्चों को एक हाथ से सुख-सुविधाएँ देकर दूसरे हाथ से
उनकी खुशियाँ छीन ली है। क्या ये सच नहीं है कि आज के बच्चों पर अच्छे नंबर
लाने और अच्छी नौकरी पाने के लिए दबाव बहुत ही कम उम्र से ही पड़ने लगता है?
क्या ये सच नहीं है कि आज के बच्चे कक्षाओं में
बहुत ज़्यादा समय बिताते हैं और उनके खेलने-कूदने का समय बहुत कम होता जा रहा है?
स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई नीरस-उबाऊ और अंधी होड़
पैदा करने वाली तो होती ही है, एक्स्ट्रा
करिकुलर के नाम पर जो गतिविधियाँ होती हैं वो भी बच्चों में अस्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा
पैदा करने वाली होती हैं जो अपने आप में बच्चों के ऊपर दबाव और तनाव को बढ़ाता
है। घर लौटने पर भी स्कूल का जिन्न बच्चों का पीछा नहीं छोड़ता क्योंकि उसके
बाद ट्यूशन-कोचिंग और असाइनमेंट की तलवार उनके सिर पर लटकती रहती है। पहले बच्चों
को अपनी योग्यता साबित करने के लिए साल भर में एक या दो बार परीक्षा देनी होती थी,
लेकिन अब तो हर रोज़, हर हफ़्ते, हर महीने उन्हें अपनी योग्यता
साबित करने के लिए भाँति-भाँति के परीक्षणों से गुजरना होता है जो उनकी सारी
सृजनात्मकता को सोख लेती हैं।
सृजनात्मकता को सोख लेने वाली स्कूल
की दुनिया से अलग जो थोड़ा-बहुत समय उन्हें खेलने-कूदने को मिलता भी है वो भी
उनकी ज़िन्दगी की एकरसता को कम करने की बजाय बढ़ाता ही है। हाल के वर्षों में
अनियोजित और अंधाधुंध शहरीकरण की प्रक्रिया में बच्चों के खेलने-कूदने के लिए
खुली और खाली जगहें बहुत कम होती जा रही हैं। ऐसे में बच्चे आउटडोर से ज़्यादा
समय इनडोर खेलों को खेलने में बिताते हैं। सामूहिक रूप से खेलने की बजाय वे
अकेले-अकेले ज़्यादा खेलते हैं। अन्य बच्चों के साथ खेलने की बजाय वे कम्प्यूटर,
स्मार्टफ़ोन, खिलौनों और गैजेट्स के साथ ज़्यादा खेलते दिखायी देते हैं जिससे
उनमें बचपन से ही हिंसक, उपभोक्तावादी,
अश्लील और विकृत मानसिकता के बीज पड़ जाते हैं।
उनमें सामूहिकता की भावना विकसित नहीं हो पाती और मुश्किलों से जूझने के लिए
ज़रूरी जिजीविषा पैदा ही नहीं हो पाती। शारीरिक श्रम से कटाव के चलते मध्यवर्ग के
बच्चे वैसे ही अपनी सृजनात्मकता के मुख्य स्रोत से महरूम होते हैं, सामूहिकता की भावना की कमी उनके अलगाव को और भी
ज़्यादा बढ़ा देती है।
विकास की ढींगे हाँकते हमारे समाज की
त्रासद सच्चाई यह है कि आज के बच्चों में मित्रविहीनता, अकेलापन, अवसाद और यहाँ तक कि आत्मघातक
मनोवृत्तियाँ बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। यदि आपको यह लग रहा है कि मैं सच्चाई को
बढ़ाचढ़ाकर पेश कर रहा हूँ तो आइये सच्चाई को कुछ आँकड़ों की रोशनी में देखते
हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के
अनुसार भारत में 13-15 वर्ष की आयु के हर चार बच्चों में
एक अवसाद (depression) का शिकार है। मेडिकल जर्नल लान्सेट
की 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार किशोरों और
युवाओं की आत्महत्याओं के मामले में हिन्दुस्तान दुनिया का स्थान अग्रणी
देशों में है। इस देश में हर घंटे एक बच्चा आत्महत्या करता है। हाल के वर्षों
में इस देश के बच्चों में मानसिक व्याधियाँ जैसे डिप्रेशन, एनेग्ज़ाइटी, बाई-पोलर डिसऑर्डर, ऑटिज़्म,
स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर आदि तेज़ी से बढ़ी है। एक
अनुमान के मुताबिक भारत में लगभग 20
प्रतिशत बच्चों में मानसिक रोगों के लक्षण पाए जाते हैं और 12 प्रतिशत बच्चों में मनोवैज्ञानिक रोगों के
लक्षण पाए जाते हैं। रूह में कँपकँपी पैदा करने वाले ये आँकड़े चिल्ला-चिल्ला कर
कह रहे हैं कि तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद आज के भारत में बच्चे अकेले, बीमार और दुखी हैं।
अगर आप बच्चों से प्यार करते हैं
तो आपको एक ऐसे समाज के बारे में संज़ीदगी से सोचना चाहिए जिसमें बच्चों में
एक-दूसरे से आगे निकल जाने की अंधी होड़ न हो, जहाँ बच्चों में किसी भी किस्म की कुंठा पनपने की संभावना न हो,
जहाँ किताबें उनपर बोझ न हों, जहाँ शिक्षा व्यवस्था उनकी सृजनशीलता को बढ़ाती
हो, जहाँ उनमें श्रम संस्कृति और
सामूहिकता की भावना का विकास करने के चहुँओर अवसर हों। याद रखिये क्रान्ति का
संघर्ष केवल रोटी के लिए संघर्ष का नाम नहीं है बल्कि यह आकाश को उसका नीलापन,
वृक्षों को उनका हरापन और बच्चों को उनका बचपन
वापस करने के लिए संघर्ष का नाम भी है। निश्चित रूप से ऐसा समाज बनाने की लड़ाई
बहुत लंबी है, लेकिन अगर हम समस्या की गम्भीरता
को समझ लें तो आज से ही अपने बच्चों की ज़िन्दगी का बोझ एक हद तक कम किया जा
सकता है।
तुर्की के महान कवि नाज़िम हिक़मत
ने वर्षों पहले बच्चों को जो सपने दिखाए थे वो आज भी पूरे नहीं हुए हैं। हमें
संज़ीदगी से इस खूबसूरत सपने का साकार करने के बारे में सोचना चाहिए:
हम खूबसूरत दिन
देखेंगे बच्चो,
हम देखेंगे
धूप के उजले दिन.....
हम दौड़ायेंगे बच्चो
अपनी तेज़ रफ़्तार
नावें खुले समन्दर में
हम दौड़ायेंगे उन्हें
चमकीले-नीले-खुले
समन्दर में।
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