कविता - मज़दूरों की आँखों ने / सनी सिंह

कविता - मज़दूरों की आँखों ने / सनी सिंह 

सनी सिंह एक मजदूर कार्यकर्ता हैं और दिल्‍ली के स्‍टील मजदूरों के बीच काम करते हैं।

कल तक जो धधक रहा था,

वह बारिश के पानी में बुझ गया है,

राख और अँगारे फैक्टरियों के नालों में बह गए,

हर ओर धुआँ है बस

इस धुएँ में दम घुटता है,

आँखें जलती हैं,

नज़र आती हैं अभी भी सभी ओर दैत्याकार फैक्टरियां,

रास्तों में सन्नाटा भरा है,

उस तरह ही जैसे स्टील की पट्टी से हाथ लगे चीरे के घाव में भरा हो मवाद,

बस बारिश के पानी की आवाज़, नालों में बहते पानी की आवाज़ आती है,

फैक्टरियों का शोर आदत बन चुका है,

रास्तों के कुछ कोनों पर लोग दीवारों की ओर मुहँ किये खड़े हैं,

शांत, भीगते हुए,

पर आँखों में गुस्सा है, भीषण गुस्सा।

जैसे नाटक के पात्र फ्रीज़ हुए खड़े हों,

ताप जो भीषण धधकती आग में पैदा हुआ वह ज़िंदा है अभी

पर अभिव्यक्त नहीं होता उन शांत मुद्राओं में,

खड़े रहना महज वक़्त काटना नहीं है,

यह इंतज़ार है

बारिश के थमने का, अपने सीनों के रिस्ते ज़ख्मों के भरने का,

उमस हर ओर है, बारिश तपिश को बूझा नहीं पा रही है,

अभी और बरसेगा पानी, घाव सड़ेगा और, नाटक का फ्रीज़ अभी नहीं टूटेगा,

उन चौकों पर जहाँ मज़दूर गुजरते थे,

जहाँ नारे गूंजते थे, सभाएं जमती थीं,

बंजर है रेगिस्तान की तरह, बस कुछ लोग खड़े हैं ढफली बजाते हुए,

बारिश का शोर ढफली पर भारी पड़ता है पर ढफली अपनी ताल पर

बजती है लगातार, पतझड़ में बसंत का आह्वान करते हुए,

पानी भरे गड्ढों ने चौकों को छैक लिया है,

मज़दूरों को कोनों में धकेल दिया है,

इन पानी भरे गड्ढों में बीमारियां पलेंगी,

पानी के कारण बनती बिगड़ती तस्वीर में लाल लाल रंग इन गड्ढों में बने डिबरों

में दीखता है,

लाल लाल अक्षरों वाले पोस्टर जिसके रंग बारिश में घुल रहे हैं,

वे स्मृतियाँ जिनमें संघर्ष की आग बाकी है वही पोस्टरों में झलकती है,

धधक बुझ गयी है पर उसके ताप को

मज़दूरों की आँखों ने सोख लिया है,

लाल लाल खून से फड़कती आँखों ने.





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