कविता - मनुष्य / एदुअर्द्स मीज़ेलाइतिस
लिथुआनिया की कविता - मनुष्य
एदुअर्द्स मीज़ेलाइतिस
धरती के गोले पर टिके हैं दो पैर।
मेरे दो हाथ बढ़ते हैं सूर्य के घेरे की ओर।
धरती के गोले
और सूर्य के घेरे के बीच
यूँ खड़ा हूँ
मैं...
तरह --
जिसके भीतर -- कोयले और खनिज की परतों के भांति
--
स्थित है मेरा मस्तिष्क जो कोई कम मूल्यवान
नहीं है।
मैं खोदता हूँ इसे
और ढालता हूँ
लोहे के औजार
और सभी तरह की भीमकाय मशीनें:
रेलें
जोड़ती सुदूर देशों को
एक साथ,
जलयान हर मौसम में जोतते हुए समुद्र,
वायुयान
परिन्दों को
शर्माती जिनकी उड़ान,
राकेट लगभग
द्रुत ज्यों
प्रकाश
और शीघ्रगामी
ज्यों
मेरे विचारों की उड़ान....
गोल है मेरा सिर -- सूर्य के घेरे की
तरह --
जिसके भीतर से फूटती हैं बहती हुई
सभी ओर, चारों
दिशाओं में
अनवरत चमत्कारी किरणें :
वे धरती पर संजोती हैं, पोसती हैं जीवन
वहाँ सतत् जन्म को बढ़ावा देती है ...
यह धरती क्या है?
क्या है
यह धरती मेरे बिना? - - -
... कभी यह निर्जीव, विशालकाय, दयनीय गेंद
घूम रही थी अन्तरिक्ष के अनन्त विस्तार में ....
चांद हुआ करता था एक दर्पण की तरह दूर चमकता हुआ
रात में, प्रतिबिम्बित
होता था जिसमें
धरती का कुरूप चेहरा, दागों से भरा हुआ...
तब दुख के दिनों में इसने रचा मुझे
और गढ़ा मेरा सिर सूर्य की तरह और धरती की तरह...
यह छोटा गोला... जो कि मेरा सिर है -- जल्दी ही परिपक्व हो गया,
पीछे छोड़ दिया इसने पृथ्वी के बड़े गोले को भी
और बन गया है इसकी स्थाई धुरी ...
और अन्ततोगत्वा जब इसने माना आदेश मेरे दो हाथों का
उदघाटित कर दिया मैंने इसका विस्मयकारी सौन्दर्य...
यह धरती है जिसने सिरजा मुझे और फिर
यह मैं हूँ
जिसने गढ़ा इसे फिर से और बनाया इसे
युवतर, नवतर
और भव्यतर
पहले हमेशा से कहीं अधिक...
धरती पर मजबूती से टिकाये अपने पैर
और बाँहें फैलाये हुए सूरज की ओर
मैं खड़ा हूँ
एक पुल की तरह
जो जोड़ रहा है
धरती और सूरज को,
सूरज उतरता है
इससे होकर
धरती तक,
धरती उठती है ऊपर
सूरज की ओर
इससे होकर...
अपने दक्ष हाथों से
गढ़ी हैं जो कृतियाँ मैंने
इस धरती से
अनवरत
नाचती हैं वे मेरे चारों ओर
एक रंग-बिरंगी चरखी की तरह...
...देखता हूँ उन्हें मैं नाचते हुए अपने चारों ओर:
अपने पुलों और चौराहों सहित शहरों को,
घरों की लिफ्टों और सीढ़ियों सहित,
पहियेदार कीड़ों सदृश कारों को,
इस्पात और
कंक्रीट के ढाँचों को।
मैं देखता हूँ जहाजों को घूमते अपने सिर के
इर्द-गिर्द,
और लम्बी
ट्रेनों को चक्कर काटते हुए अपने पैरों के चतुर्दिक,
जहाजों को जोतते हुए
अनगिन एकड़ सागर-महासागर,
गतिमान ट्रैक्टरों और खदानों को
गरजते हुए,
मैं देखता हूँ,
उड़ते कपोतों सदृश
अपने हाथों से छूटते-उठते ढेरों उपग्रह और अन्तरिक्षयान...
खूबसूरत, मजबूत,
दीर्घकाय और चौड़े कन्धों वाला--
जोड़ता हुआ धरती और सूरज को
एक पुल की तरह--
मैं खड़ा हूँ
एकदम केन्द्र में
इस ग्रह के
उज्ज्वल सूर्य रश्मियों की मुस्कान बिखेरता
चारों दिशाओं में आह्ललादपूर्वक।
यह मैं हूँ---
मनुष्य।
Comments
Post a Comment