दिल्ली-यूपी सीमा पर किसानों पर चला दमन चक्र और किसानों की मांगें
दिल्ली-यूपी सीमा पर किसानों पर चला दमन चक्र!! यह लोकतन्त्र है या दमनतन्त्र????
जारीकर्त्ता : नौजवान भारत सभा
दोस्तो, साथियो!
पैट्रोल-डीज़ल की महँगाई, समय पर फ़सल के दाम देने, स्वामीनाथन
आयोग की सिफ़ारिशें लागू कराने, कर्ज़
माफ़ी, सस्ते बिजली-पानी जैसी माँगों के 21 सूत्रीय माँग-पत्रक
के साथ भारतीय किसान यूनियन के नेतृत्व में हरिद्वार से दिल्ली के लिए चले किसानों
के हज़ारों के काफ़िले पर 2 अक्टूबर के दिन सरकार ने भयंकर दमन चक्र चला
दिया। उन पर आँसू गैस के गोले दागे गये, लठियाँ भांजी गयी और
रबड़ की गोलियाँ छोड़ी गयी! किसानों की माँगों पर सहमति-असहमति बाद की बात है किन्तु
सरकार का यह लाठी-गोली से बात करने का रवैया बेहद निन्दनीय है। क्या इस देश में
माल्याओं, मोदियों, अम्बानियों, टाटाओं
को ही अपनी बात कहने का हक़ है? क्या किसानों को शान्तिपूर्ण विरोध करने और अपनी
बात रखने का भी हक़ नहीं है? यह लोकतन्त्र है या फ़िर डण्डातन्त्र?
पूरे देश में इस समय अफ़रा-तफ़री का माहौल है।
छात्र-नौजवान हों या फ़िर कर्मचारी-मज़दूर हों, छात्राएँ हों या फ़िर
सामाजिक कार्यकर्त्ता हों हर कोई जो सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाता है
उसका तुरन्त लाठियों-गोलियों से स्वागत किया जाता है। ज़्यादा दिन नहीं हुए जब
तमिलनाडु के तूतीकोरिन में वेदान्ता कम्पनी की ताम्बे की फैक्ट्री के प्रदूषण से
परेशान लोगों पर सरकार बहादुर ने गोलियाँ चलवायी थी और एक दर्जन से ज़्यादा लोगों
को प्रशिक्षित सरकारी निशानेबाज़ों ने गोलियों से उड़ा दिया था। आन्दोलनरत लोग केवल
संविधान प्रदत्त जीने का अधिकार माँग रहे थे!
मज़दूरों-कर्मचारियों-छात्रों-नौजवानों का दमन सरकारों का रोज़ का पेशा बन गया है!
एक तरफ़ देश बेरोज़गारी, भुखमरी, शिशु मृत्युदर,
कुपोषण आदि मामलों में पूरी दुनिया को पछाड़ रहा है तो दूसरी और
कॉर्पोरेट घरानों की सेवा करने, धनपशुओं को फ़ायदा पहुँचाने में भी भारत सबको पीछे
छोड़ रहा है। यही अच्छे दिनों की असल हक़ीक़त है।
9,000 करोड़ लेकर भागा विजय माल्या अरुण जेटली के साथ
भरत मिलाप करके गया था और मेहुल चोकसी को तो प्रधानमन्त्री अपने मुखारविन्द से
मेहुल भाई उचार रहे थे तथा इनका गोती भाई नीरव मोदी दाओस में इनके पीछे खड़ा निडर
मुस्कान के साथ फ़ोटो खिंचा ही रहा था फ़िर किसानों के साथ सरकार को बात कर लेने में
क्या हर्ज़ था? आज देश में गरीब किसान लगातार उजड़ रहे हैं।
महँगाई-बेरोज़गारी ने इनकी कमर तोड़ डाली है। ऐसे में इनका बिना नेतृत्व की ज़्यादा
पहचान किये फ़ायदेमन्द लगने वाली माँगों को लेकर सरकार के दरवाज़े पर आना लाज़मी है!
लाठी-गोली का शिकार भी गरीब किसान ही होते हैं! हम गरीब किसानों से यह बात ज़रूर
साझा करेंगे कि अपनी ऐसी माँगों की पहचान की जाये जिनके आधार पर देश की व्यापक
गरीब मेहनतकश आबादी के साथ एकजुटता स्थापित की जा सके। अन्त में हम यही कहेंगे कि
सरकार के द्वारा किसानों का दमन बेहद निन्दनीय है! इतिहास गवाह है कि लाठी-गोली के
अँधेरे दौर सदा नहीं रहते हैं और शासन की अकड़फूँ जनता की ताकत के सामने कुछ भी
मायने नहीं रखती है। मोदी सरकार द्वारा ढाये जा रहे एक-एक ज़ुल्म का हिसाब समय आने
पर जनता ज़रूर लेगी।
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पुलिसिया अत्याचार का विरोध पर उनकी मांगों से कोई हमदर्दी नहीं
मुकेश असीम
किसानों को दिल्ली में न घुसने देने और उन पर
बर्बर पुलिस कार्रवाई की निंदा बिल्कुल सही बात है। लेकिन ऋण माफी और स्वामीनाथन
आयोग की सिफ़ारिशों आधारित समर्थन मूल्य की जिन मांगों को लेकर यह किसान संगठन
दिल्ली आया था तथा और भी कई किसान संगठन आ रहे हैं, आने वाले हैं,
उन पर भी कुछ विचार जरूरी है।
विभिन्न सरकारी-गैरसरकारी सर्वेक्षण बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्र में
अभी 50% से अधिक आबादी भूमिहीन है। जिनके पास जमीन हैं उनमें जोत का रकबा छोटा
होता जा रहा है और 1 अक्तूबर को जारी कृषि जनगणना के अनुसार अब 86%
किसान दो हेक्टेयर से कम जमीन वाले लघु-सीमांत किसान हैं, औसत जोत
का आकार 0.6 हेक्टेयर ही है। एक ओर तो छोटी जोत व कम पूंजी के
कारण इनकी उत्पादन लागत बड़े किसानों के मुक़ाबले अधिक आती है, दूसरी
ओर इनके पास इतना बाजार में बेचने के लिए इतना फाजिल उत्पादन नहीं होता कि समर्थन
मूल्य दोगुना कर देने से भी इन्हें इतनी बड़ी रकम हासिल हो जाए जिससे इनकी आर्थिक
कठिनाइयाँ दूर हो जाएँ। साथ ही इनका जो फाजिल उत्पादन है भी वह समर्थन मूल्य पर
बिक ही नहीं पता और इन्हें गरज बेचा होकर इसे गाँव में ही किसी बड़े किसान या लाला
का कम दामों में बेचना मजबूरी बन जाती है। ये बड़े किसान-लाला ही समर्थन मूल्य का
फायदा उठा पाते हैं।
इसलिए भूमिहीन मजदूरों के साथ लघु-सीमांत किसानों में से भी बहुतेरे
जीवन निर्वाह के लिए पास के कस्बों से मुंबई-दिल्ली तक अपनी श्रमशक्ति बेचने जाते
हैं। अभी बड़े शहरों की दुर्गंध भरी मजदूर बस्तियों में बड़ी आबादी इन्हीं देहाती
परिवारों से आती है। गांवों की यह 90% से अधिक सर्वहारा व अर्ध सर्वहारा आबादी
आज शहर में ही नहीं बल्कि खुद गाँव तक में बहुत सारे कृषि उत्पाद भी खरीद कर खाने
को मजबूर है।
स्वामीनाथन आयोग या ऋण माफी इनकी समस्याओं के लिए कोई समाधान नहीं
देता। इनके लिए मुख्य जरूरत आज उपयुक्त वेतन वाले रोजगार की है क्योंकि इस
बहुसंख्यक ग्रामीण आबादी के लिए कृषि अब जीवन निर्वाह योग्य आय उपलब्ध नहीं करा
सकती। लेकिन पिछले सालों के आर्थिक संकट ने एक ओर तो बड़ी तादाद में रोजगार को नष्ट
किया है साथ ही इनको मिलने वाली मजदूरी को महंगाई की तुलना में कम कर दिया है। यही
रोजगार और मजदूरी का सवाल आज शहर में ही नहीं गांवों में भी मुख्य सवाल है।
लेकिन गांवों के इस वर्ग विन्यास को नजरअंदाज कर समर्थन मूल्य और ऋण
माफी के सवाल पर ही अटके हुए किसान संगठन सिर्फ 5-6% किसान आबादी के
हितों पर ही केंद्रित संगठन हैं।
इसका दूसरा पक्ष है कि रोजगार, मजदूरी, आवास,
शिक्षा, स्वास्थ्य के वाजिब आर्थिक सवालों पर एकजुट
ग्रामीण मेहनतकश आबादी (दलितों-पिछड़ों का बहुसंख्यक भूमिहीन मजदूर, दस्तकार,
लघु-सीमांत किसान हिस्सा और सवर्णों का लघु-सीमांत किसान भाग) और शहरी
मजदूर-निम्न मध्य वर्ग के साथ इन सवालों पर उसकी एकता ही एक जातिवाद विरोधी सेकुलर
राजनीति का आधार बन सकती है।
इसके बजाय समर्थन मूल्य-ऋण माफी वाले किसान संगठन ग्रामीण भूपतियों,
कारोबारियों के पीछे की गई जातिगत लामबंदी से प्रतिक्रियावादी राजनीति
का आधार मजबूत करते हैं, दलित गरीबों पर अत्याचार का सामाजिक आधार बनते
(मजदूरी जिसमें एक मुख्य मुद्दा होता है) और हर नाजुक घड़ी में संघी सांप्रदायिक
साज़िशों के लठैत व औज़ार बनते हैं। राकेश-नरेश टिकैत यह कारनामा कई बार कर चुके
हैं।
इसलिए उनके प्रदर्शन पर पुलिसिया अत्याचार का विरोध करते हुए भी उनकी
मांगों से मेरी कोई हमदर्दी नहीं।
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