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रबीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी तोता Story - The Parrot's Training / Rabindranath Tagore

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  रवीन्द्रनाथ टैगोर की कहानी तोता 1 एक था तोता। वह बड़ा मूर्ख था। गाता तो था , पर शास्त्र नही पढ़ता था। उछलता था , फुदकता था , उडता था , पर यह नहीं जानता था कि क़ायदा-क़ानून किसे कहते हैं। राजा बोले , '' ऐसा तोता किस काम का ? इससे लाभ तो कोई नहीं , हानि जरूर है। जंगल के फल खा जाता है , जिससे राजा-मण्डी के फल-ब़ाजार में टोटा पड़ जाता है। '' मंत्री को बुलाकर कहा , '' इस तोते को शिक्षा दो! '' 2 तोते को शिक्षा देने का काम राजा के भानजे को मिला। पण्डितों की बैठक हुई। विषय था , '' उक्त जीव की अविद्या का कारण क्या है ?'' बड़ा गहरा विचार हुआ। सिद्धान्त ठहरा : तोता अपना घोंसला साधारण खर-पात से बनाता है। ऐसे आवास में विद्या नहीं आती। इसलिए सबसे पहले तो यह आवश्यक है कि इसके लिए कोई बढ़िया-सा पिंजरा बना दिया जाय। राज-पण्डितों को दक्षिणा मिली और वे प्रसन्न होकर अपने-अपने घर गये। 3 सुनार बुलाया गया। वह सोने का पिंजरा तैयार करने में जुट पड़ा। पिंजरा ऐसा अनोखा बना कि उसे देखने के लिए देश-विदेश के लोग टूट पडे। कोई कहता , '' शिक्षा की तो

कहानी - क़िस्सा यह कि एक देहाती ने दो अफ़सरों का कैसे पेट भरा / मिख़ाईल सल्तिकोव-श्चेद्रीन Story - How a Muzhik Fed Two Officials / Mikhail Saltykov-Shchedrin

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कहानी - क़िस्सा यह कि एक देहाती ने दो अफ़सरों का कैसे पेट भरा For English version please scroll down  मिख़ाईल सल्तिकोव-श्चेद्रीन ( अनुवाद - मदनलाल ‘मधु’ ) कहते हैं कि कभी किसी ज़माने में दो अफ़सर थे। दोनों ही थे बड़े तरंगी और मनमौजी। जाने एक बार उन्हें क्या तरंग आयी , क्या धुन समायी कि दोनों एक ऐसे द्वीप में जा पहुँचे जहाँ आदमी का नामो-निशान भी नहीं था। दोनों अफ़सरों ने उम्र-भर किसी दफ़्तर में नौकरी की थी। वे वहीं जन्मे , वहीं उनका पालन-पोषण हुआ और उसी दफ़्तरी घेरे में बन्द रहे। परिणाम यह कि कूपमण्डूक हो गये , न कुछ जानें न समझें। सिर्फ़ इन शब्दों तक ही दौड़ थी उनकी - "अपनी वफ़ादारी का यक़ीन दिलाता हूँ।" कुछ वक़्त गुज़रा , उस दफ़्तर की ज़रूरत न रही , उसे बन्द कर दिया गया। इन दोनों अफ़सरों की वहाँ से छुट्टी हो गयी। जब करने-धरने को कुछ न रहा , तो दोनों पीटर्सबर्ग की पोद्याचेस्काया सड़क पर आ बसे। दोनों ने अलग-अलग मकानों में डेरा जमाया , दोनों ने अलग-अलग बावर्चिन रखी और दोनों अपनी पेंशन पाने लगे। एक दिन अचानक हुआ क्या कि दोनों एक ऐसे द्वीप में जा पहुँचे , जहाँ न आदमी था , न आदमज़ाद। आँख खुली

महान वैज्ञानिक और साहसी क्रान्तिकारी ब्रूनो की स्‍मृति में

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महान वैज्ञानिक और साहसी क्रान्तिकारी ब्रूनो की स्‍मृति में ('अनुराग ट्रस् ‍ ट' से प्रकाशित अ. वोल्कोव की पुस् ‍ तक 'धरती और आकाश' से)   17 फ़रवरी, सन् 1600 को, अपने विश् ‍ वासों के लिए क़ुर्बान होने वाले महान वैज्ञानिक, साहसी क्रान्तिकारी, जर्दानो ब्रूनो को रोम में प्राणदण्ड दिया गया था। प्राणदण्ड देने का ‘न्यायालय’ का निर्णय सुनकर, ब्रूनो ने ‘इन्क्विज़ितरों’ से शान्तिपूर्वक कहा था - ''आप दण्ड देने वाले हैं और मैं अपराधी हूँ, मगर अजीब बात है कि कृपासिन्धु भगवान के नाम पर अपना फै़सला सुनाते हुए आपका हृदय मुझसे कहीं अधिक डर रहा है।'' ‘इन्क्विज़िशन’ की यह प्रथा थी कि वह अपना निर्णय इन पाखण्ड भरे शब्दों में सुनाता था - ''पवित्र धर्म इस अपराधी को बिना ख़ून बहाये मृत्युदण्ड देने की प्रार्थना करता है।'' किन्तु वास्तव में इसका अर्थ होता था भयानक मृत्युदण्ड - यानी जीवित ही जला देना। ... ... ... ब्रूनो जीवन भर कॉपरनिकस के सिद्धान्तों का प्रचार करने के लिए संघर्ष करता रहा। ब्रूनो ने कॉपरनिकस के सिद्धान्तों को, एक परिश्रमी तथा भीरु शिष्य की भाँति दुहराय