केदारनाथ अग्रवाल की आठ कविताएँ
केदारनाथ अग्रवाल की आठ कविताएँ
(एक)
जीवन की धूल
जो जीवन की धूल
चाटकर बड़ा हुआ है,
तूफ़ानों से लड़ा और
फिर खड़ा हुआ है,
जिसने सोने को खोदा,
लोहा मोड़ा है,
जो रवि के रथ का
घोड़ा है,
वह जन मारे नहीं
मरेगा,
नहीं मरेगा।
जो जीवन की आग जलाकर आग बना है
फ़ौलादी पंजे फैलाये
नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा,
शासन मोड़ा है,
जो युग के रथ का
घोड़ा है
वह जन मारे नहीं
मरेगा,
नहीं मरेगा।।
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(दो)
आग लगे इस रामराज में
आग लगे इस रामराज में
ढोलक मढ़ती है अमीर
की
चमड़ी बजती है ग़रीब
की
ख़ून बहा है रामराज
में
आग लगे इस रामराज
में
आग लगे इस रामराज में
रोटी रूठी, कौर छिना है
थाली सूनी, अन्न बिना है
पेट धँसा है रामराज
में
आग लगे इस रामराज में।
१८ सितम्बर १९५१
(तीन)
मजदूर का जन्म
एक हथौड़ेवाला घर
में और हुआ!
हाथी सा बलवान,
जहाज़ी हाथों वाला
और हुआ!
सूरज-सा इंसान,
तरेरी आँखों वाला और
हुआ!!
एक हथौड़ेवाला घर
में और हुआ!
माता रही विचारः
अँधेरा हरनेवाला और
हुआ!
दादा रहे निहारः
सवेरा करने वाला और
हुआ!!
जनता रही पुकारः
सुन ले री सरकार!
कयामत ढानेवाला और
हुआ!!
एक हथौड़ेवाला घर
में और हुआ!
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(चार)
हम बड़े नहीं हैं
हम बड़े नहीं हैं
फिर भी बड़े हैं
इसलिए कि
लोग जहाँ गिर पड़े
हैं
हम वहाँ तने खड़े है
द्वन्द्व की लड़ाई
भी साहस से लड़े हैं
न दुख से डरे,
न सुख से मरे हैं
काल की मार में
जहाँ दूसरे झरे हैं
हम वहाँ अब भी
हरे-के-हरे हैं।
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(पांच)
हमारी जिन्दगी
हमारी जिन्दगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन
हैं।
हमेशा काम करते हैं,
मगर कम दाम मिलते
हैं।
प्रतिक्षण हम बुरे
शासन--
बुरे शोषण से पिसते
हैं!!
अपढ़, अज्ञान, अधिकारों से
वंचित हम कलपते हैं।
सड़क पर खूब चलते
पैर के जूते-से
घिसते हैं।।
हमारी जिन्दगी के
दिन,
हमारी ग्लानि के दिन
हैं!!
हमारी जिन्दगी के
दिन,
बड़े संघर्ष के दिन
हैं!
न दाना एक मिलता है,
खलाये पेट फिरते
हैं।
मुनाफाखोर की गोदाम
के ताले न खुलते
हैं।।
विकल, बेहाल, भूखे हम
तड़पते औ' तरसते हैं।
हमारे पेट का दाना
हमें इनकार करते
हैं।।
हमारी जिन्दगी के
दिन,
हमारी भूख के दिन
हैं!!
हमारी जिन्दगी के
दिन,
बड़े संघर्ष के दिन
हैं!
नहीं मिलता कहीं
कपड़ा,
लँगोटी हम पहनते
हैं।
हमारी औरतों के तन
उघारे ही झलकते
हैं।।
हजारों आदमी के शव
कफन तक को तरसते
हैं।
बिना ओढ़े हुए चदरा,
खुले मरघट को चलते
हैं।।
हमारी जिन्दगी के
दिन,
हमारी लाज के दिन
हैं!!
हमारी जिन्दगी के
दिन,
बड़े संघर्ष के दिन
हैं!
हमारे देश में अब भी,
विदेशी घात करते
हैं।
बड़े राजे, महाराजे,
हमें मोहताज करते
हैं।।
हमें इंसान के बदले,
अधम सूकर समझते हैं।
गले में डालकर रस्सी
कुटिल कानून कसते
हैं।।
हमारी जिन्दगी के
दिन,
हमारी कैद के दिन
हैं!!
हमारी जिन्दगी के
दिन,
बड़े संघर्ष के दिन
हैं!
इरादा कर चुके हैं
हम,
प्रतिज्ञा आज करते
हैं।
हिमालय और सागर में,
नया तूफान रचते
हैं।।
गुलामी को मसल देंगे
न हत्यारों से डरते
हैं।
हमें आजाद जीना है
इसी से आज मरते
हैं।।
हमारी जिन्दगी के
दिन,
हमारे होश के दिन
हैं!!
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(छह)
वीरांगना
मैंने उसको
जब-जब देखा
लोहा देखा
लोहे जैसा-
तपते देखा-
गलते देखा-
ढलते देखा
मैंने उसको
गोली जैसा
चलते देखा।
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(सात)
एका का बल
डंका बजा गाँव के भीतर,
सब चमार हो गए
इकट्ठा।
एक उठा बोला दहाड़कर :
“हम पचास हैं,
मगर हाथ सौ फौलादी
हैं।
सौ हाथों के एका का
बल बहुत बड़ा है।
हम पहाड़ को भी
उखाड़कर रख सकते हैं।
जमींदार यह अन्यायी
है।
कामकाज सब करवाता है,
पर पैसे देता है छै
ही।
वह कहता है ‘बस इतना लो’,
‘काम करो, या गाँव छोड़ दो।’
पंचो! यह बेहद बेजा
है!
हाथ उठायो,
सब जन गरजो :
गाँव छोड़कर नहीं जायँगे
यहीं रहे हैं,
यहीं रहेंगें,
और मजूरी पूरी लेंगे,
बिना मजूरी पूरी पाए
हवा हाथ से नहीं
झलेंगें।”
हाथ उठाये,
फन फैलाये,
सब जन गरजे।
फैले फन की फुफकारों
से
जमींदार की लक्ष्मी
रोयी!!
रचनाकाल: १२-०४-१९४६
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(आठ)
जनता का बल
मुझे प्राप्त है जनता का बल
वह बल मेरी कविता का
बल
मैं उस बल से
शक्ति प्रबल से
एक नहीं – सौ साल जिऊँगा
काल कुटिल विष देगा
तो भी
मैं उस विष को नहीं
पिऊँगा
मुझे प्राप्त है
जनता का स्वर
वह स्वर मेरी कविता
का स्वर
मैं उस स्वर से
काव्य प्रखर से
युग जीवन के सत्य
लिखूँगा
राज्य अमित धन देगा
तो भी
मैं उस धन से नहीं
बिकूँगा
दीन दुखियों का समर्पित ये रचनाएं मन को गहरे तक छू गई, बहुत ही सुन्दर वाह
ReplyDeleteनागार्जुन की तरह केदारनाथ अग्रवाल भी जमीन की भाषा में कविताई करते हैं, असरदार होते हैं!..
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