क्या आप अफ्रीकी महाद्वीप के इतिहास में मुगाबे के स्थान और महत्व से परिचित हैं?
क्या आप अफ्रीकी महाद्वीप के इतिहास
में मुगाबे के स्थान और महत्व से परिचित हैं?
कविता कृष्णपल्लवी
गत 6 सितम्बर को जिम्बाब्वे के पूर्व राष्ट्रपति रोबर्ट मुगाबे का 95 वर्ष की आयु में सिंगापुर में निधन हो गया। भारतीय मीडिया में तो यह खबर लगभग गायब ही थी, पश्चिमी मीडिया ने भी इसे कोई विशेष महत्व नहीं दिया।
टी.वी. चैनलों
के कूपमंडूकों और हिन्दी अखबारों के भाड़े के कलमघ blog-post_11 सीट पत्रकारों को तो यह पता भी
नहीं होगा कि जिन नायकों ने बीसवीं सदी में एक नए अफ्रीका की सर्जना में अग्रणी
भूमिका निभाई थी उनमे मुगाबे का नाम कितना महत्वपूर्ण था! जो थोड़े से जागरूक लोग
मुगाबे के बारे में जानते भी हैं वे पश्चिमी प्रचार मशीनरी के प्रभाव में बस इतना
जानते हैं कि मुगाबे जिम्बाब्वे के निरंकुश तानाशाह थे, जिनकी पश्चिम-विरोध की जिद्दी नीतियों ने और झक ने उनके देश की
अर्थ-व्यवस्था को विनाश के कगार पर पहुँचा दिया था! सच्चाई इससे कोसों दूर है और
कहीं अधिक जटिल भी है!
1960 और '70 के दशक में जब सोया हुआ अफ्रीका उठ खड़ा
हुआ था, तो नेल्सन मंडेला, क्वामे एन्क्रूमा, रोबर्ट मुगाबे, अमिल्कर कबराल, आगस्तिनो नेतो, सैम नुजोमा, जोमो केन्याटा, केनेथ काउंडा, लिओपोल्ड सेंघोर, बेन बेला, बुमैदियेन, जूलियस न्यरेरे, हबीब बुर्गीबा आदि-आदि अलग-अलग अफ्रीकी
देशों के स्वातंत्र्यवीर नायकों के नाम पूरी दुनिया की मुक्तिकामी जनता और युवाओं
के बीच बेहद लोकप्रिय हुआ करते थे। वह युग अब न सिर्फ पीछे छूट चुका है, बल्कि उसे काफी हद तक भुलाया भी जा चुका है! पर उन
मुक्ति-संघर्षों और उनके नायकों के बिना हम आज की उस दुनिया की कल्पना भी नहीं कर
सकते, जब उपनिवेशवाद और नव-उपनिवेशवाद को
इतिहास की कचरा-पेटी के हवाले किया जा चुका है! यह सही है कि आज हम एक ऐसी दुनिया
में जी रहे हैं जब क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति और पराजय की लहर हावी है। साम्राज्यवाद भूमंडलीकरण के दौर में मनुष्यता पर लूट, युद्ध, विनाश और फासिज्म का कहर बरपा कर रहा
है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि राष्ट्रीय
मुक्ति युद्धों के दौर की सारी उपलब्धियाँ मिट्टी में मिल चुकी हैं! इतना तय है कि
विश्व-स्तर पर वर्ग-संघर्ष को अब आगे ही जाना है, पीछे नहीं! उपनिवेशवाद का दौर फिर वापस नहीं आने वाला है! विगत
शताब्दी की क्रांतियों और मुक्ति-युद्धों ने ही भविष्य के वर्ग-संघर्ष के नए चरण
के लिए रंगमंच तैयार किया है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए।
बीसवीं शताब्दी के
राष्ट्रीय नायकों का जो व्यापक नक्षत्र-मंडल था, मुगाबे उसका आख़िरी सितारा थे! उनकी मृत्यु के साथ बीते हुए युग
का आख़िरी स्मृति-चिह्न भी इतिहास के संग्रहालय के हवाले हो गया। मुगाबे के समकालीन जितने भी अफ्रीकी राष्ट्रीय नायक थे, वे सभी रेडिकल राष्ट्रवादी थे और लगभग सभी समाजवादी
अर्थ-व्यवस्था के निर्माण की ओर अपना झुकाव दिखाते थे! इनमें एन्क्रूमा का अपना
विशेष किस्म का समाजवाद था, न्यरेरे 'उजमा सोशलिज्म' की बात करते थे, बेन बेला-बुमैदियेन और हबीब बुर्गीबा भी समाजवाद की बात करते थे!
द. अफ्रीका में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस का तो कम्युनिस्ट पार्टी के साथ संयुक्त
मोर्चा ही था! आगस्तिनो नेतो, अमिल्कर कबराल और रोबर्ट मुगाबे ऐसे नेता
थे जो अपने आप को मुखर रूप से मार्क्सवादी-लेनिनवादी कहते थे। वैज्ञानिक समाजवाद की स्पष्ट समझ न होने के कारण इनमें से
अधिकांश नेता स्वतन्त्रता के बाद जन-पहलकदमी पर आधारित स्वतंत्र-स्वावलम्बी
समाजवादी अर्थ-व्यवस्था का निर्माण नहीं कर सके, विश्व-पूँजीवाद से निर्णायक विच्छेद नहीं कर सके और कालान्तर
में भारत के नेहरूकालीन मिश्रित अर्थ-व्यवस्था जैसे ही जाल में उलझ कर रह गए। कुछ दशकों के रेडिकल सुधारों और जन-कल्याणकारी कार्यों के बाद
स्वतंत्र पूँजीवादी विकास के इस रास्ते की संभावनाएँ संतृप्त हो गयीं। और फिर ठहराव, आर्थिक संकट और भ्रष्टाचार के माहौल में
राजनीतिक सत्ताएँ दमनकारी होने लगीं! कल के कई राष्ट्रीय नायक निरंकुश दमनकारी
शासकों जैसा व्यवहार करने लगे। उनके अतीत का गौरव विघटित हो गया और
नायकत्व खंडित हो गया। इन में से अधिकांश के उत्तराधिकारियों ने
आगे चलकर निजीकरण-उदारीकरण के फण्ड-बैंक-गैट/ डब्ल्यू.टी.ओ. प्रस्तावित उदारीकरण-निजीकरण के नुस्खों
को स्वीकार कर लिया और भूमंडलीकरण-प्रपंच में शामिल हो गए। अफ्रीकी देशों की मुक्ति-यात्रा अगर समाजवाद की दिशा में आगे
नहीं बढ़ पाई, तो इसका एक बाह्य कारण विश्व-ऐतिहासिक
विपर्यय भी था। 1956 में सोवियत संघ में सत्तारूढ़ ख्रुश्चेव
एक संशोधनवादी था और उसीने वहाँ पूँजीवाद की पुनर्स्थापना की शुरुआत कर दी थी! 1976 में माओ की मृत्यु के बाद चीन में भी देंग के 'बाज़ार समाजवाद' के झंडे तले पूँजीवाद कायम हो गया!
फिलहाली तौर पर ही सही, लेकिन विश्व-इतिहास की अग्रवर्ती लहर
के पीछे जाने का गंभीर प्रतिकूल प्रभाव अफ्रीकी महाद्वीप पर
भी पड़ा। अब वर्ग-संघर्ष का कोई नया
विश्व-ऐतिहासिक चक्र ही अफ्रीकी भूमि पर सर्वहारा क्रान्ति की लहर को नए सिरे से
गति दे सकता है।
रोबर्ट मुगाबे
अपनी युवावस्था में एक शिक्षक के रूप में काम करते हुए घाना के राष्ट्रीय नेता
एन्क्रूमा से प्रभावित होकर समाजवाद की ओर आकृष्ट हुए और फिर मार्क्सवाद-लेनिनवाद
का अध्ययन किया। जिम्बाब्वे (तत्कालीन रोडेशिया) के
स्वतन्त्रता संघर्ष में उन्होंने जोशुआ न्कोमो की समझौतापरस्ती के खिलाफ लंबा
संघर्ष करके अपना और अपने संगठन 'जानु' का राजनीतिक वर्चस्व स्थापित किया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वह माओकालीन चीन के समाजवाद के समर्थक थे, जबकि न्कोमो संशोधनवादी सोवियत संघ के निकट थे। लम्बे छापामार संघर्ष के दौरान मुगाबे को बारह वर्षों तक जेल
में भी बिताने पड़े! अंततोगत्वा मुक्ति-संघर्ष की जीत हुई और रोबर्ट मुगाबे पहले
प्रधान मंत्री और फिर राष्ट्रपति के रूप में 1980 से लेकर 2017 तक सत्ता पर क़ाबिज रहे। 2017 में उन्हीं की पार्टी के लोगों ने बगावत करके उन्हें सत्ता से
हटा दिया और उपराष्ट्रपति एमर्सन न्गाग्वा को राष्ट्रपति बना दिया।
सत्तासीन होने
के बाद मुगाबे साम्राज्यवादी देशों से लगातार टकराते रहे! अन्य अफ्रीकी राष्ट्रीय
नेताओं की तरह उन्होंने उनकी असमान शर्तों के आगे कभी घुटने नहीं टेके। इस प्रक्रिया में अफ्रीका के अन्य राष्ट्रीय नेताओं से भी
धीरे-धीरे उनकी दूरी बनती गयी। पश्चिमी देशों की आर्थिक घेरेबंदी से
जिम्बाब्वे की अर्थ-व्यवस्था लगातार बद से बदतर होती चली गयी। स्वतंत्र देश में फले-फूले मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा मुगाबे
के खिलाफ हो गया, जिसके आन्दोलनों का बेशक मुगाबे की
सत्ता ने दमन भी किया। समस्या यह थी कि एक साम्राज्यवादी
दुनिया में जनता के बूते टिके रहने की मुगाबे के पास लेनिनकालीन सोवियत संघ जैसी
कोई सुसंगत समाजवादी नीति नहीं थी। इसका देश की अर्थ-व्यवस्था पर गंभीर
असर पडा। फिर भी आम लोगों की नज़र में मुगाबे ही
राष्ट्र-नायक थे। अंदरूनी विद्रोह भड़काने की पश्चिमी
देशों की सारी कोशिशें नाकाम रहीं। लेकिन बुर्जुआ मीडिया पूरी दुनिया में
इस धारणा को मजबूत बनाने में सफल रहा कि मुगाबे एक झक्की निरंकुश तानाशाह हैं।
जब नव-उदारवाद
का दौर परवान चढ़ा तो धीरे-धीरे मुगाबे की पार्टी जानू (पेट्रियाटिक फ्रंट) के
अधिकांश नेता, विशेषकर नयी पीढी के लोगों की भी यह
राय बनती गयी कि इस नयी वैश्विक लहर में बहने के अतिरिक्त जिम्बाब्वे के पास दूसरा
कोई विकल्प नहीं है। अपने विचारों पर अडिग मुगाबे अन्दर ही
अन्दर पार्टी में भी अलग-थलग पड़ने लगे। देश की आम अश्वेत जनता की स्थिति
सुधारने के लिए उन्होंने जो आख़िरी क्रांतिकारी कदम उठाया, वह रेडिकल भूमि-सुधार का था। उनके आह्वान पर बड़े पैमाने पर ग्रामीण अश्वेत आबादी ने श्वेत
भूस्वामियों के फार्मों पर कब्जे किये। स्थिति यह थी कि गरीब जनता का बड़ा
हिस्सा अभी भी मुगाबे को अपना हीरो मानता था, लेकिन देश का नवोदित बुर्जुआ वर्ग और मध्य वर्ग का एक हिस्सा
"पश्चिमी" ढंग के पूँजीवादी स्वर्ग के नव-उदारवादी फल चखने को आतुर था
और मुगाबे की पार्टी का बड़ा हिस्सा उन्हींकी नुमाइंदगी कर रहा था। इन्हीं हालात में मुगाबे को सत्ता छोड़ने के लिए विवश किया गया। इस घटना-क्रम को पश्च-दृष्टि से देखते हुए यह कहा जा सकता है कि
देर-सबेर यही होना था। सवाल मुगाबे की क्रांतिकारी नीयत और
मंशा का नहीं है। उनका "समाजवाद" रेडिकल
पेटी-बुर्जुआ यूटोपियाई समाजवाद था। उनके पास पूँजीवाद का, वैज्ञानिक समाजवाद जैसा कोई सांगोपांग विकल्प नहीं था। ऐसी स्थिति में अंततोगत्वा उन्हें एक बंद गली के आख़िरी मुकाम तक
तो कभी न कभी पहुँचना ही था। नव-उदारवाद की वैश्विक आँधी में मुगाबे
के जिम्बाब्वे का टिक पाना संभव नहीं था!
मुगाबे की
विफलता क्रांतिकारी से क्रांतिकारी बुर्जुआ राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक विफलता थी!
उनकी विफलता पेटी-बुर्जुआ समाजवाद की विफलता थी। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि वह एक क्रांतिकारी राष्ट्रीय
नायक थे जिनकी समाजवाद लाने की उत्कट आकांक्षा थी और जो अपने देश की जनता को प्यार
करते थे! उनका जाना राष्ट्रीय संघर्षों के दौर से हमें जोड़ने वाली आख़िरी अहम कड़ी
के टूट जाने के समान है।
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