क्या गरीब किसानों और अमीर किसानों की मांग एक ही है?
क्या गरीब किसानों और अमीर किसानों की मांग एक ही है?
इन्द्रजीत
किसानों के आन्दोलनों के दौरान पिछले दो-तीन दशकों से उठायी जाने वाली सबसे
प्रमुखतम दो माँगें हैं; पहली है फ़सल का लाभकारी मूल्य बढ़ाने की
माँग और दूसरी है कृषि में होने वाली लागत को कम करने की माँग। स्वामीनाथन आयोग की
सिफ़ारिशों में भी उक्त दोनों ही माँगें अभिव्यक्त हुई हैं। सन 2004 में तत्कालीन कांग्रेस नीत ‘यूपीए’ सरकार के कार्यकाल में मोनकोम्पू साम्बासिवन
स्वामीनाथन की अध्यक्षता में किसानों की आर्थिक हालत को बेहतर करने के मक़सद से
बनी ‘नेशनल कमीशन ऑन फ़ार्मर्स’ ने अपनी पाँच रिपोर्टें सरकार के सामने पेश की थीं। आयोग के
द्वारा अन्तिम व पाँचवीं रिपोर्ट 4 अक्टूबर 2006 को सौंपी गयी थी। सरकारों द्वारा ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (‘एमएसपी’) औसत लागत से 50 प्रतिशत अधिक करने और क़र्ज़ माफ़ी समेत
लागत मूल्य कम करने के अलावा आयोग द्वारा की गयी सिफ़ारिशों में भूमि सुधार, सिंचाई, खाद्य सुरक्षा, किसान आत्महत्याओं के समाधान, राज्य स्तरीय किसान आयोग बनाने, सेहत सुविधाओं से लेकर वित्त-बीमा की स्थिति सुनिश्चित करने
पर बल दिया गया था।
निश्चय ही देश की काफ़ी बड़ी आबादी कृषि से जुड़ी है
किन्तु औसत जोत का आकार छोटा होने के कारण प्रति व्यक्ति उत्पादकता बेहद कम है,
बहुत बड़ी आबादी तो मज़बूरी में खेती-किसानी में उलझी हुई है जिसके पास
कोई वैकल्पिक रोज़गार नहीं है। देश के स्तर पर देखा जाये तो 2011 के
सामाजिक-आर्थिक सर्वे व 2011-12 की कृषि जनगणना के अनुसार गाँवों के क़रीब 18
करोड़ परिवारों में से 54 प्रतिशत श्रमिक हैं, 30 प्रतिशत
खेती, 14 प्रतिशत सरकारी/ग़ैर सरकारी नौकरी, 1.6 प्रतिशत
ग़ैर-कृषि कारोबार से जुड़े हैं। सिर्फ़ खेती पर निर्भर 30 प्रतिशत आबादी में 85
प्रतिशत सीमान्त और छोटे किसान हैं जिनके पास क्रमशः एक से दो
हेक्टेयर और एक हेक्टेयर से कम ज़मीन है। ऊपर के मध्यम और बड़े 15 प्रतिशत
किसानों के पास कुल कृषि योग्य ज़मीन का क़रीब 56 प्रतिशत है। हम
सिर्फ़ किसानों की ही बात करें तो स्थिति साफ़-साफ़ दिखायी देती है कि उनका बहुत बड़ा
हिस्सा रसातल में है तथा छोटी जोत होने के कारण न केवल इस हिस्से की उत्पादन लागत
औसत से अधिक आती है, बल्कि पूँजी के अभाव में यही हिस्सा क़र्ज़ के
बोझ तले भी दबा रहता है। 2013 के सैम्पल सर्वे के अनुसार केवल 13 प्रतिशत
किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य, लाभकारी दामों का फ़ायदा उठा पाते हैं और भाजपा के
आने के बाद तो यह आँकड़ा 6 प्रतिशत तक भी पहुँचा है। इसका कारण कुछ और नहीं
बल्कि औसत उत्पादन लागत में आने वाले ख़र्च का फ़र्क़ ही है, ज़ाहिर
सी बात है अपनी निजी कृषि मशीनों-उपकरणों, बड़ी जोत और धनबल के
आधार पर बने रसूख के कारण धनी किसानों की कृषि लागत भी कम आयेगी जबकि हर समय
क़र्ज़ के बोझ तले दबे और किराये पर उपकरण-मशीनें लेकर खेती में लगे ग़रीब किसानों
की कृषि लागत अधिक आयेगी! और यदि सही पड़ताल के साथ देखा जाये तो यह बात भी स्पष्ट
है कि सीमान्त व छोटे किसान के लिए सिर्फ़ कृषि पर निर्भर रहकर अपनी आजीविका तक कमा
पाना ख़ासा मुश्किल काम है, इसीलिए परिवार के किसी न किसी सदस्य को ग़ैर-कृषि
व्यवसाय या नौकरी-चाकरी में ख़ुद को लगाना पड़ता है। दूसरे पहलू से यदि देखा जाये
तो आमतौर पर सीमान्त और छोटा किसान जितनी कृषि पैदावार मण्डी में बेचता है उससे
कहीं ज़्यादा साल-भर में ख़रीद लेता है। जैसे एक छोटा और सीमान्त किसान गेहूँ,
सरसों, बाजरा, धान जैसी फ़सलों का
गुज़ारे लायक रखने के बाद एक हिस्सा मण्डी में बेच भले ही ले किन्तु उसे साल भर
अन्य कृषि उत्पाद जैसे दालें, चीनी, चावल, पत्ती, तेल,
गुड़, तम्बाकू, फल-सब्ज़ी, पशुओं
के लिए खल-बिनोला इत्यादि से लेकर वे उत्पाद जिनमें कच्चे माल के तौर पर कृषि
उत्पादों का इस्तेमाल होता है, ख़रीदने ही पड़ेंगे। कहना नहीं होगा कि यदि फ़सलों
के दाम लागत से 50 प्रतिशत अधिक तय होते हैं तो केवल वे उन्हीं
फ़सलों के तो होने से रहे जिन्हें छोटी किसानी का 85 प्रतिशत हिस्सा
मण्डी तक पहुँचाता है बल्कि ये बढ़े हुए “लाभकारी” दाम तो
सभी फ़सलों पर ही लागू होंगे। या नहीं? तो, अब यह सवाल उठना
लाज़िमी है कि फ़सलों के लाभकारी दाम बढ़ाने की माँग किसके हितों में जाती है?
निश्चय ही महँगाई में सहायक भूमिका निभाने वाली यह माँग खेत मज़दूरों,
औद्योगिक मज़दूरों समेत अन्य मज़दूरों के साथ-साथ शहरी ग़रीबों के ख़िलाफ़
तो है ही बल्कि उक्त माँग असल में ख़ुद ग़रीब किसानों के हितों के भी ख़िलाफ़ जाती
है। यह अनायास ही नहीं है कि कांग्रेस नीत ‘यूपीए’ सरकार
के शासन काल में जब समर्थन मूल्यों में तुलनात्मक रूप से वृद्धि की गयी थी तब बदले
में बेहिसाब बढ़ी महँगाई ने ग़रीब आबादी की कमर तोड़ने का ही काम किया था। और वहीं
दूसरी तरफ़ 2003 से 2013 के 10 वर्षों
में कृषि उत्पाद में 13 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज हुई, किन्तु
इसी दौरान किसानों पर क़र्ज़ 24 प्रतिशत बढ़ गया।
खेती किसानी में लागत मूल्य कम करने की माँग को
देखा जाये तो पहली बात तो यही स्पष्ट है कि धनी और ग़रीब किसान दोनों का ही औसत
ख़र्च यानी कि लागत अलग-अलग आती है, जिस पर हम थोड़ी-सी बात ऊपर कर आये हैं।
दूसरा, लागत मूल्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा ‘मज़दूरी’ भी होती
है। धनी किसान और एग्रो बिज़नेस कम्पनियाँ मज़दूरों की श्रम शक्ति का सीधे इस्तेमाल
करती हैं और कृषि मशीनरी निर्माण में लगी श्रमिक आबादी भी श्रमशक्ति बेचकर ही
ज़िन्दा रहती है। राजनीतिक अर्थशास्त्र का प्राथमिक ज्ञान हासिल व्यक्ति भी इस बात
को भली प्रकार से समझ सकता है कि कृषि की लागत क़ीमतों को कम तभी किया जा सकता है
जब कृषि की आगत लागतों (‘इनपुट कॉस्ट’) को कम किया जाये। और
आमतौर पर कम यह तभी हो सकती हैं जब कृषि व सम्बन्धित उद्यमों में लगे श्रमिकों की
या तो मज़दूरी घटायी जाये, या उतनी ही मज़दूरी में अधिक घण्टे काम लिया जाये
या फिर श्रम की सघनता बढ़ायी जाये। सरकारों से साँठ-गाँठ करके कृषि क्षेत्र में लगी
खाद-बीज, ‘एग्रो-बिज़नेस’ और बैंक-बीमा
कम्पनियाँ ख़ुद ही धनी किसानों के पूँजी निवेश का एक माध्यम हैं। निश्चय ही
सरकारें इनकी लूट और अन्धेरगर्दी पर आँच नहीं आने देंगी। यह बात भी स्पष्ट ही है
कि कृषि मशीनों का ज़्यादा इस्तेमाल तो धनी किसान यानी ‘कुलक फ़ार्मर’
ही करते हैं, सीमान्त और छोटे किसान तो कृषि उपकरणों और मशीनरी
को भाड़े-किराये पर ही लेते हैं। इस प्रकार से लागत मूल्यों में कमी की माँग भी
समाज के ‘किस तबक़े के पक्ष में’ जायेगी और ‘किस
तबक़े के विरुद्ध’ यह स्पष्ट है।
किसान आन्दोलनों के घोषणापत्रों में एक माँग ‘क़र्ज़
माफ़ी’ की भी रहती है। यही नहीं विभिन्न चुनावी मदारी क़र्ज़ माफ़ी का मुद्दा
उछालकर किसानों के वोट भी बटोरते रहे हैं। स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें पेश किये
जाने के बाद से ही यदि देखा जाये तो कई बार अलग-अलग मौक़ों पर बिजली बिलों से लेकर,
क़र्ज़ माफ़ होते रहे हैं किन्तु ग़रीब किसान फिर-फिर क़र्ज़ के बोझ तले
ख़ुद को दबा हुआ पाते हैं। इसलिए समस्या के असल कारण कहीं और हैं। तथा क़र्ज़ केवल
ग़रीब किसान ही नहीं लेते बल्कि धनी किसान भी लेते हैं जिसे वे माफ़ी के दौरान सीधे
तौर पर निगल जाते हैं और शुद्ध मुनाफ़ा कमाते हैं। क़र्ज़ माफ़ी का टोना-टोटका और
झाड़-फूँक तात्कालिक तौर पर भले ही राहत देती प्रतीत होती हों, किन्तु
दूरगामी तौर पर यह भी छलावा मात्र ही है। पूँजीवादी व्यवस्था की गतिकी ही ऐसी है
कि इसमें ग़रीब किसानों की हालत बद से बदतर होती जाती है तथा इनका एक हिस्सा लगातार
उजड़कर उजरती मज़दूर यानी अपनी मेहनत बेचकर ज़िन्दा रहने वाले मज़दूर वर्ग में शामिल
होता रहता है। फिर क़र्ज़ में दी जाने वाली राशि भी सरकारें जनता से ही तो निचोड़ती
हैं।
आज के समय में ख़ास तौर पर लाभकारी मूल्य बढ़ाने
और लागत मूल्य घटाने की माँगों के समर्थन में विपक्षी पार्टियाँ, चुनावी
तथा संशोधनवादी वामपन्थी पार्टियों से जुड़े किसान संगठन, एनजीओ की राजनीति
करने वाले, किसान जातियों में वोट बैंक तलाशने वाले
क्षेत्रीय गुट, भारत में क्रान्ति की जनवादी और नवजनवादी मंजि़ल
मानने वाले वामपन्थी संगठन और ‘अहा ग्राम्य जीवन’ की रट लगाने वाले
बुद्धिजीवी सभी एकजुट हैं! किसान आन्दोलनों की मौजूदा स्थिति और इनकी माँगों का
वर्ग चरित्र निश्चय ही समाज के प्रबुद्ध, चिन्तनशील और
प्रगतिशील तत्त्वों को सोचने के लिए विवश करते हैं। ग़रीब किसानों के दर्द से
द्रवित होना, उनके पैरों के छाले देखकर गला रुन्द जाना एक बात
है, किन्तु उनकी असल माँगों को समझना और उनके आधार पर उन्हें संगठित करना
अलग ही बात है।
ग़रीब किसानों के असल हित आज पूरी तरह से
मज़दूरों-मेहनतकशों के हितों के साथ जुड़े हुए हैं। एक ऐसी समाज व्यवस्था ही उन्हें
आज के दुखों से छुटकारा दिला सकती है जिसमें उत्पादन के साधनों पर मेहनतकशों का
नियन्त्रण हो तथा उत्पादन समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर हो, न की
निजी मुनाफ़े को केन्द्र में रखकर। छोटा लगने वाला कोई भी रास्ता मंजि़ल तक पहुँचने
की दूरी को और भी बढ़ा सकता है। यह बात हम तथ्यों के माध्यम से स्पष्ट कर आये हैं
कि लाभकारी मूल्य बढ़ाने और लागत मूल्य घटाने की माँगें असल में ग़रीब किसान आबादी
की सही-सही आर्थिक-राजनीतिक माँगें हो ही नहीं सकती।
थोड़ी सी बातचीत के बाद ग़रीब किसान इस बात को अपने
सहज बोध से समझ भी लेते हैं कि प्रत्येक फ़सल के साथ उन्हें दो-चार हज़ार रुपये
ज़्यादा मिल भी जायेंगे तो इससे स्थिति में कोई गुणात्मक फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला,
बल्कि महँगाई बढ़ाकर ब्याज़ समेत इन्हीं की जेब से ये पैसे वापस निकाल
लिये जायेंगे। बेरोज़गारी की मार झेल रहे ग़रीब किसानों के बेटे-बेटियों का गुज़ारा
थोड़ी-सी ज़मीन में नहीं होने वाला, यह बात भी साफ़ है। इसलिए तर्क के आधार पर
सोचा जाना चाहिए और अपने सही वर्ग हितों की पहचान की जानी चाहिए। बेरोज़गारी,
बढ़ती महँगाई, सबके लिए शिक्षा और चिकित्सा सुविधा, पूँजीवादी
लूट का ख़ात्मा, दमन-शोषण का ख़ात्मा आदि वे मुद्दे होंगे जिनके
आधार पर व्यापक जनता को एकजुट किया जा सकता है। यही नहीं इन्हीं माँगों के आधार पर
ही अन्य जातियों के ग़रीबों के साथ पुश्तैनी तौर पर खेती-किसानी से जुड़ी जातियों
के बहुसंख्यकों की एकजुटता भी बनेगी। जायज़ माँगों के लिए एकजुट संघर्ष की
प्रक्रिया में ही आपसी भाईचारा और एकता और भी मज़बूत होंगे। पहचान की राजनीति करने
वालों, अस्मितावादी एनजीओ मार्का धन्धेबाज़ों और धनी किसानों की माँगों को
लेकर ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगाने वाली किसान यूनियनों से ग़रीब किसानों का कोई भला नहीं
होने वाला है। इस बात को जितना जल्दी समझ लिया जाये, उतना ही न केवल समाज
के लिए बेहतर होगा, बल्कि यह ख़ुद ग़रीब किसानों के लिए भी बेहतर
होगा।
मज़दूर बिगुल, मार्च 2018 अंक में
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