भीष्म साहनी की कहानी चीफ की दावत Bhisham Sahni's story Chief ki Dawat
भीष्म
साहनी की कहानी चीफ की दावत
आज मिस्टर शामनाथ के
घर चीफ की दावत थी।
शामनाथ और उनकी
धर्मपत्नी को पसीना पोंछने की फुर्सत न थी। पत्नी ड्रेसिंग गाउन पहने, उलझे हुए बालों का
जूड़ा बनाए मुँह पर फैली हुई सुर्खी और पाउड़र को मले और मिस्टर शामनाथ सिगरेट पर
सिगरेट फूँकते हुए चीजों की फेहरिस्त हाथ में थामे, एक कमरे से दूसरे कमरे में आ-जा रहे थे।
आखिर पाँच बजते-बजते
तैयारी मुकम्मल होने लगी। कुर्सियाँ, मेज, तिपाइयाँ, नैपकिन, फूल, सब बरामदे में पहुँच गए। ड्रिंक का इंतजाम
बैठक में कर दिया गया। अब घर का फालतू सामान अलमारियों के पीछे और पलंगों के नीचे
छिपाया जाने लगा। तभी शामनाथ के सामने सहसा एक अड़चन खड़ी हो गई, माँ का क्या होगा?
इस बात की ओर न उनका
और न उनकी कुशल गृहिणी का ध्यान गया था। मिस्टर शामनाथ, श्रीमती की ओर घूम कर अंग्रेजी में बोले -
'माँ का
क्या होगा?'
श्रीमती काम
करते-करते ठहर गईं, और थोडी
देर तक सोचने के बाद बोलीं - 'इन्हें पिछवाड़े इनकी सहेली के घर भेज दो,
रात-भर बेशक वहीं
रहें। कल आ जाएँ।'
शामनाथ सिगरेट मुँह
में रखे, सिकुडी
आँखों से श्रीमती के चेहरे की ओर देखते हुए पल-भर सोचते रहे, फिर सिर हिला कर
बोले - 'नहीं,
मैं नहीं चाहता कि
उस बुढ़िया का आना-जाना यहाँ फिर से शुरू हो। पहले ही बड़ी मुश्किल से बंद किया
था। माँ से कहें कि जल्दी ही खाना खा के शाम को ही अपनी कोठरी में चली जाएँ।
मेहमान कहीं आठ बजे आएँगे इससे पहले ही अपने काम से निबट लें।'
सुझाव ठीक था। दोनों
को पसंद आया। मगर फिर सहसा श्रीमती बोल उठीं - 'जो वह सो गईं और नींद में खर्राटे लेने
लगीं, तो?
साथ ही तो बरामदा है,
जहाँ लोग खाना
खाएँगे।'
'तो इन्हें कह देंगे
कि अंदर से दरवाजा बंद कर लें। मैं बाहर से ताला लगा दूँगा। या माँ को कह देता हूँ
कि अंदर जा कर सोएँ नहीं, बैठी रहें, और क्या?'
'और जो सो गई,
तो? डिनर का क्या मालूम
कब तक चले। ग्यारह-ग्यारह बजे तक तो तुम ड्रिंक ही करते रहते हो।'
शामनाथ कुछ खीज उठे,
हाथ झटकते हुए बोले
- 'अच्छी-भली
यह भाई के पास जा रही थीं। तुमने यूँ ही खुद अच्छा बनने के लिए बीच में टाँग अड़ा
दी!'
'वाह! तुम माँ और
बेटे की बातों में मैं क्यों बुरी बनूँ? तुम जानो और वह जानें।'
मिस्टर शामनाथ चुप
रहे। यह मौका बहस का न था, समस्या का हल ढूँढ़ने का था। उन्होंने घूम कर माँ
की कोठरी की ओर देखा। कोठरी का दरवाजा बरामदे में खुलता था। बरामदे की ओर देखते
हुए झट से बोले - मैंने सोच लिया है, - और उन्हीं कदमों माँ की कोठरी के बाहर जा खड़े
हुए। माँ दीवार के साथ एक चौकी पर बैठी, दुपट्टे में मुँह-सिर लपेटे, माला जप रही थीं।
सुबह से तैयारी होती देखते हुए माँ का भी दिल धड़क रहा था। बेटे के दफ्तर का बड़ा
साहब घर पर आ रहा है, सारा
काम सुभीते से चल जाय।
माँ, आज तुम खाना जल्दी खा
लेना। मेहमान लोग साढ़े सात बजे आ जाएँगे।
माँ ने धीरे से मुँह
पर से दुपट्टा हटाया और बेटे को देखते हुए कहा, आज मुझे खाना नहीं खाना है, बेटा, तुम जो जानते हो,
मांस-मछली बने,
तो मैं कुछ नहीं
खाती।
जैसे भी हो, अपने काम से जल्दी
निबट लेना।
अच्छा, बेटा।
और माँ, हम लोग पहले बैठक
में बैठेंगे। उतनी देर तुम यहाँ बरामदे में बैठना। फिर जब हम यहाँ आ जाएँ, तो तुम गुसलखाने के
रास्ते बैठक में चली जाना।
माँ अवाक बेटे का
चेहरा देखने लगीं। फिर धीरे से बोलीं - अच्छा बेटा।
और माँ आज जल्दी सो
नहीं जाना। तुम्हारे खर्राटों की आवाज दूर तक जाती है।
माँ लज्जित-सी आवाज
में बोली - क्या करूँ, बेटा,
मेरे बस की बात नहीं
है। जब से बीमारी से उठी हूँ, नाक से साँस नहीं ले सकती।
मिस्टर शामनाथ ने
इंतजाम तो कर दिया, फिर भी
उनकी उधेड़-बुन खत्म नहीं हुई। जो चीफ अचानक उधर आ निकला, तो? आठ-दस मेहमान होंगे, देसी अफसर, उनकी स्त्रियाँ
होंगी, कोई भी
गुसलखाने की तरफ जा सकता है। क्षोभ और क्रोध में वह झुँझलाने लगे। एक कुर्सी को
उठा कर बरामदे में कोठरी के बाहर रखते हुए बोले - आओ माँ, इस पर जरा बैठो तो।
माँ माला सँभालतीं,
पल्ला ठीक करती उठीं,
और धीरे से कुर्सी
पर आ कर बैठ गई।
यूँ नहीं, माँ, टाँगें ऊपर चढ़ा कर
नहीं बैठते। यह खाट नहीं हैं।
माँ ने टाँगें नीचे
उतार लीं।
और खुदा के वास्ते
नंगे पाँव नहीं घूमना। न ही वह खड़ाऊँ पहन कर सामने आना। किसी दिन तुम्हारी यह
खड़ाऊँ उठा कर मैं बाहर फेंक दूँगा।
माँ चुप रहीं।
कपड़े कौन से पहनोगी,
माँ?
जो है, वही पहनूँगी,
बेटा! जो कहो,
पहन लूँ।
मिस्टर शामनाथ
सिगरेट मुँह में रखे, फिर
अधखुली आँखों से माँ की ओर देखने लगे, और माँ के कपड़ों की सोचने लगे। शामनाथ हर बात
में तरतीब चाहते थे। घर का सब संचालन उनके अपने हाथ में था। खूँटियाँ कमरों में
कहाँ लगाई जाएँ, बिस्तर
कहाँ पर बिछे, किस रंग
के पर्दे लगाएँ जाएँ, श्रीमती
कौन-सी साड़ी पहनें, मेज किस
साइज की हो... शामनाथ को चिंता थी कि अगर चीफ का साक्षात माँ से हो गया, तो कहीं लज्जित नहीं
होना पडे। माँ को सिर से पाँव तक देखते हुए बोले - तुम सफेद कमीज और सफेद सलवार
पहन लो, माँ।
पहन के आओ तो, जरा
देखूँ।
माँ धीरे से उठीं और
अपनी कोठरी में कपड़े पहनने चली गईं।
यह माँ का झमेला ही
रहेगा, उन्होंने
फिर अंग्रेजी में अपनी स्त्री से कहा - कोई ढंग की बात हो, तो भी कोई कहे। अगर कहीं कोई उल्टी-सीधी
बात हो गई, चीफ को
बुरा लगा, तो सारा
मजा जाता रहेगा।
माँ सफेद कमीज और
सफेद सलवार पहन कर बाहर निकलीं। छोटा-सा कद, सफेद कपड़ों में लिपटा, छोटा-सा सूखा हुआ
शरीर, धुँधली
आँखें, केवल
सिर के आधे झड़े हुए बाल पल्ले की ओट में छिप पाए थे। पहले से कुछ ही कम कुरूप नजर
आ रही थीं।
चलो, ठीक है। कोई
चूड़ियाँ-वूड़ियाँ हों, तो वह
भी पहन लो। कोई हर्ज नहीं।
चूड़ियाँ कहाँ से
लाऊँ, बेटा?
तुम तो जानते हो,
सब जेवर तुम्हारी
पढ़ाई में बिक गए।
यह वाक्य शामनाथ को
तीर की तरह लगा। तिनक कर बोले - यह कौन-सा राग छेड़ दिया, माँ! सीधा कह दो, नहीं हैं जेवर, बस! इससे पढ़ाई-वढ़ाई का क्या तअल्लुक है!
जो जेवर बिका, तो कुछ
बन कर ही आया हूँ, निरा
लँडूरा तो नहीं लौट आया। जितना दिया था, उससे दुगना ले लेना।
मेरी जीभ जल जाय,
बेटा, तुमसे जेवर लूँगी?
मेरे मुँह से यूँ ही
निकल गया। जो होते, तो लाख
बार पहनती!
साढ़े पाँच बज चुके
थे। अभी मिस्टर शामनाथ को खुद भी नहा-धो कर तैयार होना था। श्रीमती कब की अपने
कमरे में जा चुकी थीं। शामनाथ जाते हुए एक बार फिर माँ को हिदायत करते गए - माँ,
रोज की तरह गुमसुम
बन के नहीं बैठी रहना। अगर साहब इधर आ निकलें और कोई बात पूछें, तो ठीक तरह से बात
का जवाब देना।
मैं न पढ़ी, न लिखी, बेटा, मैं क्या बात
करूँगी। तुम कह देना, माँ
अनपढ़ है, कुछ
जानती-समझती नहीं। वह नहीं पूछेगा।
सात बजते-बजते माँ
का दिल धक-धक करने लगा। अगर चीफ सामने आ गया और उसने कुछ पूछा, तो वह क्या जवाब
देंगी। अंग्रेज को तो दूर से ही देख कर घबरा उठती थीं, यह तो अमरीकी है। न मालूम क्या पूछे। मैं
क्या कहूँगी। माँ का जी चाहा कि चुपचाप पिछवाड़े विधवा सहेली के घर चली जाएँ। मगर
बेटे के हुक्म को कैसे टाल सकती थीं। चुपचाप कुर्सी पर से टाँगें लटकाए वहीं बैठी
रही।
एक कामयाब पार्टी वह
है, जिसमें
ड्रिंक कामयाबी से चल जाएँ। शामनाथ की पार्टी सफलता के शिखर चूमने लगी। वार्तालाप
उसी रौ में बह रहा था, जिस रौ
में गिलास भरे जा रहे थे। कहीं कोई रूकावट न थी, कोई अड़चन न थी। साहब को व्हिस्की पसंद आई
थी। मेमसाहब को पर्दे पसंद आए थे, सोफा-कवर का डिजाइन पसंद आया था, कमरे की सजावट पसंद
आई थी। इससे बढ़ कर क्या चाहिए। साहब तो ड्रिंक के दूसरे दौर में ही चुटकुले और
कहानियाँ कहने लग गए थे। दफ्तर में जितना रोब रखते थे, यहाँ पर उतने ही दोस्त-परवर हो रहे थे और
उनकी स्त्री, काला
गाउन पहने, गले में
सफेद मोतियों का हार, सेंट और
पाउड़र की महक से ओत-प्रोत, कमरे में बैठी सभी देसी स्त्रियों की आराधना का
केंद्र बनी हुई थीं। बात-बात पर हँसतीं, बात-बात पर सिर हिलातीं और शामनाथ की स्त्री से
तो ऐसे बातें कर रही थीं, जैसे उनकी पुरानी सहेली हों।
और इसी रो में
पीते-पिलाते साढ़े दस बज गए। वक्त गुजरते पता ही न चला।
आखिर सब लोग
अपने-अपने गिलासों में से आखिरी घूँट पी कर खाना खाने के लिए उठे और बैठक से बाहर
निकले। आगे-आगे शामनाथ रास्ता दिखाते हुए, पीछे चीफ और दूसरे मेहमान।
बरामदे में पहुँचते
ही शामनाथ सहसा ठिठक गए। जो दृश्य उन्होंने देखा, उससे उनकी टाँगें लड़खड़ा गई, और क्षण-भर में सारा
नशा हिरन होने लगा। बरामदे में ऐन कोठरी के बाहर माँ अपनी कुर्सी पर
ज्यों-की-त्यों बैठी थीं। मगर दोनों पाँव कुर्सी की सीट पर रखे हुए, और सिर दाएँ से बाएँ
और बाएँ से दाएँ झूल रहा था और मुँह में से लगातार गहरे खर्राटों की आवाजें आ रही
थीं। जब सिर कुछ देर के लिए टेढ़ा हो कर एक तरफ को थम जाता, तो खर्राटें और भी गहरे हो उठते। और फिर
जब झटके-से नींद टूटती, तो सिर
फिर दाएँ से बाएँ झूलने लगता। पल्ला सिर पर से खिसक आया था, और माँ के झरे हुए बाल, आधे गंजे सिर पर
अस्त-व्यस्त बिखर रहे थे।
देखते ही शामनाथ
क्रुद्ध हो उठे। जी चाहा कि माँ को धक्का दे कर उठा दें, और उन्हें कोठरी में धकेल दें, मगर ऐसा करना संभव न
था, चीफ और
बाकी मेहमान पास खड़े थे।
माँ को देखते ही
देसी अफसरों की कुछ स्त्रियाँ हँस दीं कि इतने में चीफ ने धीरे से कहा - पुअर
डियर!
माँ हड़बड़ा के उठ
बैठीं। सामने खड़े इतने लोगों को देख कर ऐसी घबराई कि कुछ कहते न बना। झट से पल्ला
सिर पर रखती हुई खड़ी हो गईं और जमीन को देखने लगीं। उनके पाँव लड़खड़ाने लगे और
हाथों की उँगलियाँ थर-थर काँपने लगीं।
माँ, तुम जाके सो जाओ,
तुम क्यों इतनी देर
तक जाग रही थीं? - और
खिसियाई हुई नजरों से शामनाथ चीफ के मुँह की ओर देखने लगे।
चीफ के चेहरे पर
मुस्कराहट थी। वह वहीं खड़े-खड़े बोले, नमस्ते!
माँ ने झिझकते हुए,
अपने में सिमटते हुए
दोनों हाथ जोड़े, मगर एक
हाथ दुपट्टे के अंदर माला को पकड़े हुए था, दूसरा बाहर, ठीक तरह से नमस्ते भी न कर पाई। शामनाथ इस
पर भी खिन्न हो उठे।
इतने में चीफ ने
अपना दायाँ हाथ, हाथ
मिलाने के लिए माँ के आगे किया। माँ और भी घबरा उठीं।
माँ, हाथ मिलाओ।
पर हाथ कैसे मिलातीं?
दाएँ हाथ में तो
माला थी। घबराहट में माँ ने बायाँ हाथ ही साहब के दाएँ हाथ में रख दिया। शामनाथ
दिल ही दिल में जल उठे। देसी अफसरों की स्त्रियाँ खिलखिला कर हँस पडीं।
यूँ नहीं, माँ! तुम तो जानती
हो, दायाँ
हाथ मिलाया जाता है। दायाँ हाथ मिलाओ।
मगर तब तक चीफ माँ
का बायाँ हाथ ही बार-बार हिला कर कह रहे थे - हाउ डू यू डू?
कहो माँ, मैं ठीक हूँ,
खैरियत से हूँ।
माँ कुछ बडबड़ाई।
माँ कहती हैं,
मैं ठीक हूँ। कहो
माँ, हाउ डू
यू डू।
माँ धीरे से सकुचाते
हुए बोलीं - हौ डू डू ..
एक बार फिर कहकहा
उठा।
वातावरण हल्का होने
लगा। साहब ने स्थिति सँभाल ली थी। लोग हँसने-चहकने लगे थे। शामनाथ के मन का क्षोभ
भी कुछ-कुछ कम होने लगा था।
साहब अपने हाथ में
माँ का हाथ अब भी पकड़े हुए थे, और माँ सिकुड़ी जा रही थीं। साहब के मुँह से शराब
की बू आ रही थी।
शामनाथ अंग्रेजी में
बोले - मेरी माँ गाँव की रहने वाली हैं। उमर भर गाँव में रही हैं। इसलिए आपसे
लजाती है।
साहब इस पर खुश नजर
आए। बोले - सच? मुझे
गाँव के लोग बहुत पसंद हैं, तब तो तुम्हारी माँ गाँव के गीत और नाच भी जानती
होंगी? चीफ
खुशी से सिर हिलाते हुए माँ को टकटकी बाँधे देखने लगे।
माँ, साहब कहते हैं,
कोई गाना सुनाओ। कोई
पुराना गीत तुम्हें तो कितने ही याद होंगे।
माँ धीरे से बोली -
मैं क्या गाऊँगी बेटा। मैंने कब गाया है?
वाह, माँ! मेहमान का कहा
भी कोई टालता है?
साहब ने इतना रीझ से
कहा है, नहीं
गाओगी, तो साहब
बुरा मानेंगे।
मैं क्या गाऊँ,
बेटा। मुझे क्या आता
है?
वाह! कोई बढ़िया
टप्पे सुना दो। दो पत्तर अनाराँ दे ...
देसी अफसर और उनकी
स्त्रियों ने इस सुझाव पर तालियाँ पीटी। माँ कभी दीन दृष्टि से बेटे के चेहरे को
देखतीं, कभी पास
खड़ी बहू के चेहरे को।
इतने में बेटे ने
गंभीर आदेश-भरे लिहाज में कहा - माँ!
इसके बाद हाँ या ना
सवाल ही न उठता था। माँ बैठ गईं और क्षीण, दुर्बल, लरजती आवाज में एक पुराना विवाह का गीत गाने लगीं
-
हरिया नी माए,
हरिया नी भैणे
हरिया ते भागी भरिया
है!
देसी स्त्रियाँ
खिलखिला के हँस उठीं। तीन पंक्तियाँ गा के माँ चुप हो गईं।
बरामदा तालियों से
गूँज उठा। साहब तालियाँ पीटना बंद ही न करते थे। शामनाथ की खीज प्रसन्नता और गर्व
में बदल उठी थी। माँ ने पार्टी में नया रंग भर दिया था।
तालियाँ थमने पर
साहब बोले - पंजाब के गाँवों की दस्तकारी क्या है?
शामनाथ खुशी में झूम
रहे थे। बोले - ओ, बहुत
कुछ - साहब! मैं आपको एक सेट उन चीजों का भेंट करूँगा। आप उन्हें देख कर खुश
होंगे।
मगर साहब ने सिर
हिला कर अंग्रेजी में फिर पूछा - नहीं, मैं दुकानों की चीज नहीं माँगता। पंजाबियों के
घरों में क्या बनता है, औरतें
खुद क्या बनाती हैं?
शामनाथ कुछ सोचते
हुए बोले - लड़कियाँ गुड़ियाँ बनाती हैं, और फुलकारियाँ बनाती हैं।
फुलकारी क्या?
शामनाथ फुलकारी का
मतलब समझाने की असफल चेष्टा करने के बाद माँ को बोले - क्यों, माँ, कोई पुरानी फुलकारी
घर में हैं?
माँ चुपचाप अंदर गईं
और अपनी पुरानी फुलकारी उठा लाईं।
साहब बड़ी रुचि से
फुलकारी देखने लगे। पुरानी फुलकारी थी, जगह-जगह से उसके तागे टूट रहे थे और कपड़ा फटने
लगा था। साहब की रुचि को देख कर शामनाथ बोले - यह फटी हुई है, साहब, मैं आपको नई बनवा
दूँगा। माँ बना देंगी। क्यों, माँ साहब को फुलकारी बहुत पसंद हैं, इन्हें ऐसी ही एक
फुलकारी बना दोगी न?
माँ चुप रहीं। फिर
डरते-डरते धीरे से बोलीं - अब मेरी नजर कहाँ है, बेटा! बूढ़ी आँखें क्या देखेंगी?
मगर माँ का वाक्य
बीच में ही तोड़ते हुए शामनाथ साहब को बोले - वह जरूर बना देंगी। आप उसे देख कर
खुश होंगे।
साहब ने सिर हिलाया,
धन्यवाद किया और
हल्के-हल्के झूमते हुए खाने की मेज की ओर बढ़ गए। बाकी मेहमान भी उनके पीछे-पीछे
हो लिए।
जब मेहमान बैठ गए और
माँ पर से सबकी आँखें हट गईं, तो माँ धीरे से कुर्सी पर से उठीं, और सबसे नजरें बचाती
हुई अपनी कोठरी में चली गईं।
मगर कोठरी में बैठने
की देर थी कि आँखों में छल-छल आँसू बहने लगे। वह दुपट्टे से बार-बार उन्हें
पोंछतीं, पर वह
बार-बार उमड़ आते, जैसे
बरसों का बाँध तोड़ कर उमड़ आए हों। माँ ने बहुतेरा दिल को समझाया, हाथ जोड़े, भगवान का नाम लिया,
बेटे के चिरायु होने
की प्रार्थना की, बार-बार
आँखें बंद कीं, मगर
आँसू बरसात के पानी की तरह जैसे थमने में ही न आते थे।
आधी रात का वक्त
होगा। मेहमान खाना खा कर एक-एक करके जा चुके थे। माँ दीवार से सट कर बैठी आँखें
फाड़े दीवार को देखे जा रही थीं। घर के वातावरण में तनाव ढीला पड़ चुका था।
मुहल्ले की निस्तब्धता शामनाथ के घर भी छा चुकी थी, केवल रसोई में प्लेटों के खनकने की आवाज आ
रही थी। तभी सहसा माँ की कोठरी का दरवाजा जोर से खटकने लगा।
माँ, दरवाजा खोलो।
माँ का दिल बैठ गया।
हड़बड़ा कर उठ बैठीं। क्या मुझसे फिर कोई भूल हो गई? माँ कितनी देर से अपने आपको कोस रही थीं
कि क्यों उन्हें नींद आ गई, क्यों वह ऊँघने लगीं। क्या बेटे ने अभी तक क्षमा
नहीं किया? माँ
उठीं और काँपते हाथों से दरवाजा खोल दिया।
दरवाजे खुलते ही
शामनाथ झूमते हुए आगे बढ़ आए और माँ को आलिंगन में भर लिया।
ओ अम्मी! तुमने तो आज रंग ला
दिया! ...साहब तुमसे इतना खुश हुआ कि क्या कहूँ। ओ अम्मी! अम्मी!
माँ की छोटी-सी काया
सिमट कर बेटे के आलिंगन में छिप गई। माँ की आँखों में फिर आँसू आ गए। उन्हें
पोंछती हुई धीरे से बोली - बेटा, तुम मुझे हरिद्वार भेज दो। मैं कब से कह रही हूँ।
शामनाथ का झूमना
सहसा बंद हो गया और उनकी पेशानी पर फिर तनाव के बल पड़ने लगे। उनकी बाँहें माँ के
शरीर पर से हट आईं।
क्या कहा, माँ? यह कौन-सा राग तुमने
फिर छेड़ दिया?
शामनाथ का क्रोध
बढ़ने लगा था, बोलते
गए - तुम मुझे बदनाम करना चाहती हो, ताकि दुनिया कहे कि बेटा माँ को अपने पास नहीं रख
सकता।
नहीं बेटा, अब तुम अपनी बहू के
साथ जैसा मन चाहे रहो। मैंने अपना खा-पहन लिया। अब यहाँ क्या करूँगी। जो थोड़े दिन
जिंदगानी के बाकी हैं, भगवान
का नाम लूँगी। तुम मुझे हरिद्वार भेज दो!
तुम चली जाओगी,
तो फुलकारी कौन
बनाएगा? साहब से
तुम्हारे सामने ही फुलकारी देने का इकरार किया है।
मेरी आँखें अब नहीं
हैं, बेटा,
जो फुलकारी बना
सकूँ। तुम कहीं और से बनवा लो। बनी-बनाई ले लो।
माँ, तुम मुझे धोखा देके
यूँ चली जाओगी? मेरा
बनता काम बिगाड़ोगी? जानती
नही, साहब
खुश होगा, तो मुझे
तरक्की मिलेगी!
माँ चुप हो गईं। फिर
बेटे के मुँह की ओर देखती हुई बोली - क्या तेरी तरक्की होगी? क्या साहब तेरी
तरक्की कर देगा? क्या
उसने कुछ कहा है?
कहा नहीं, मगर देखती नहीं,
कितना खुश गया है।
कहता था, जब तेरी
माँ फुलकारी बनाना शुरू करेंगी, तो मैं देखने आऊँगा कि कैसे बनाती हैं। जो साहब
खुश हो गया, तो मुझे
इससे बड़ी नौकरी भी मिल सकती है, मैं बड़ा अफसर बन सकता हूँ।
माँ के चेहरे का रंग
बदलने लगा, धीरे-धीरे
उनका झुर्रियों-भरा मुँह खिलने लगा, आँखों में हल्की-हल्की चमक आने लगी।
तो तेरी तरक्की होगी
बेटा?
तरक्की यूँ ही हो
जाएगी? साहब को
खुश रखूँगा, तो कुछ
करेगा, वरना
उसकी खिदमत करनेवाले और थोड़े हैं?
तो मैं बना दूँगी,
बेटा, जैसे बन पड़ेगा,
बना दूँगी।
और माँ दिल ही दिल
में फिर बेटे के उज्ज्वल भविष्य की कामनाएँ करने लगीं और मिस्टर शामनाथ, अब सो जाओ, माँ, कहते हुए, तनिक लड़खड़ाते हुए
अपने कमरे की ओर घूम गए।
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