विश्व प्रसिद्ध कहानीकार अंतोन चेखव की कहानी - संताप Anton Chekhov's Story - Sorrow
विश्व
प्रसिद्ध कहानीकार अंतोन चेखव की कहानी - संताप
मिस्तरी
ग्रिगोरी पेत्रेव, जिसे
बहुत दिनों से पूरे गाल्चिनो ज़िले के लोग कुशल दस्तकार, मगर काहिल आदमी के रूप में जानते थे,
अपनी बूढ़ी बीमार
बीवी को जेम्स्त्वो अस्पताल ले जा रहा था। उसे गाड़ी हाँककर कोई तीस मील का सफ़र तय
करना था और सड़क बेहद ख़राब थी, काहिल ग्रिगोरी की तो बात ही क्या, सरकारी डाकिये तक के
बूते के बाहर की बात थी वह। ठिठुरन भरी तेज़ हवा चेहरे पर लग रही थी। बर्फ़ के गोले
बड़े-बड़े बादलों की तरह हवा में उड़ रहे थे और पता लगाना मुश्किल हो रहा था कि बर्फ़
आसमान से आ रही है या ज़मीन से। बर्फ़ की वजह से खेत, तार के खम्भे, जंगल कुछ भी नहीं दिखायी देते थे और जब
बहुत ज़्यादा तेज़ हवा का झोंका आ जाता, ग्रिगोरी को जुआ भी न सूझता। कमज़ोर, बूढ़ी घोड़ी कछुए की
रफ्तार से घिसट रही थी। गहरी बर्फ़ से एक-एक टाप निकालने और गरदन झटकने में ही उसे
अपनी सारी ताक़त लगा देनी पड़ती थी...मिस्तरी को जल्दी थी। बेचैनी से वह अपनी जगह
पर बीच-बीच में उठता-बैठता और घोड़ी की पीठ पर बार-बार चाबुक मारता।
“रोओ न, मत्र्योना...” वह
बड़बड़ाया, “ज़रा
कोशिश करके बरदाश्त कर लो। ईश्वर कृपा करे हम लोग जल्दी ही अस्पताल पहुँच जायेंगे
और वे लोग फ़ौरन पलक झपकते तुम्हारा इलाज... पावेल इवानिच तुम्हें कुछ दवा देंगे,
या तुम्हारी फसद
खोलकर ख़ून निकालने को कहेंगे, या फिर शायद वह इतनी भलाई करे कि तुम्हारे बदन पर
स्पिरिट की मालिश करवा दे...स्पिरिट बदन का दर्द खींच लेती है। पावेल इवानिच अपनी
ताक़त-भर तुम्हारे लिए सब कुछ करेंगे...वह चीख़़े-चिल्लायेंगे और पैर पटकेंगे,
फिर तुम्हें अच्छा
करने के लिए जो कुछ कर सकते हैं, वह करने में जुट जायेंगे। वह बड़ा सज्जन, भलामानस और दयालु
हैं, ईश्वर
उनका भला करे... जैसे ही हम लोग वहाँ पहुँचेंगे, वह दौड़ते हुए अपने घर से निकल आयेंगे और
गाली देने लगेंगे। वह चिल्लायेंगे: ‘क्या? क्यों? तुम वक़्त पर क्यों नहीं आये? क्या मैं कोई कुत्ता
हूँ जो तुम बदमाशों के इशारे पर नाचता रहूँ? तुम सवेरे क्यों नहीं आये? भाग जाओ अब, कल आना!’ और मैं
कहूँगा: ‘डॉक्टर साहब! पावेल इवानिच! हुज़ूर!’ जल्दी चल न, शैतान की बच्ची! जल्दी चल!”
मिस्तरी ने घोड़ी के
चाबुक जमाया और बीवी की ओर देखे बिना, बड़बड़ाता गया:
“‘हुज़ूर, ईश्वर साक्षी है,
मैं पाक सलीब की
क़सम खाता हूँ, मैं
बहुत तड़के घर से रवाना हुआ था। लेकिन मैं वक़्त से कैसे पहुँच पाता, माँ मरियम ने कुपित
होकर यह अन्धड़ चला दिया। आप अपने आप देख लें...कोई बढ़िया घोड़ा भी वक़्त पर नहीं
पहुँच सकता और मेरी घोड़ी, आप ज़रा इस पर एक निगाह डालें, यह तो एक बवाल है!
और पावेल इवानिच ग़ुस्से में भौंहें तानकर चिल्लायेंगे: ‘मैं तुम लोगों को समझता
हूँ! तुम लोग हमेशा कोई न कोई बहाना ढूँढ़ ही लोगे! ख़ास तौर पर तुम ग्रीश्का,
तुम्हें तो मैं ख़ूब
जानता हूँ! मेरा ख़याल है कि तुम रास्ते में पाँच बार शराबख़ाने में रुके होगे!’
और मैं कहूँगा: ‘हुज़ूर! मैं क्या कोई संगदिल, नास्तिक हूँ, क्या मुझे भगवान का डर नहीं है? यहाँ मेरी बुढ़िया मर
रही है, उसके
प्राण पखेरू उड़ने वाले हैं और मैं क्या शराबख़ानों की ओर दौड़ुंगा! यह आप कैसी बात
कर रहे हैं? जहन्नुम
में जाये शराबख़ाने!’ तब पावेल इवानिच तुम्हें अस्पताल के भीतर ले जाने को कहेंगे
और मैं उसके पैरों पर गिर जाऊँगा: ‘पावेल इवानिच! हुज़ूर! हम आपके अहसानमन्द हैं,
आपको धन्यवाद देते
हैं! हम पापियों व मूर्खों को आप माफ़ करें। हमें बहुत कड़ाई से न जाँचें, हम ठहरे गँवार
किसान! हम लोगों को तो लात मारकर निकाल देना चाहिए, और आप हैं कि हमसे मिलने के लिए बाहर
बर्फ़ में निकल आये हैं!’ और पावेल इवानिच मेरी ओर ऐसे ताकेंगे मानो मुझे ठोकने
वाले हैं और कहेंगे: ‘मेरे पैरों पर गिरने की जगह, तुम गदहे को वोद्का ढँकोसना छोड़ अपनी
बुढ़िया पर कुछ तरस खाना चाहिए! तेरे तो कोड़े मारना चाहिए!’ ‘कोड़े! पावेल इवानिच!
ईश्वर जानता है, हम
लोगों के सचमुच कोड़े लगने चाहिए! पर आपके पैरों पर हम कैसे न गिरें, आपकी श्रद्वा कैसे न
करें जब आप हमारे हितचिन्तक हैं, हमारे अपने पिता हैं? हुज़ूर! मैं सच कहता हूँ, ईश्वर साक्षी है,
अगर मैं अपनी बात से
फिरूँ तो आप मेरे मुँह पर थूक देना,! जैसे ही मेरी मत्र्योना अच्छी हो जायेगी, बिल्कुल पहले जैसी
हो जायेगी, आप जो
हुकुम देने की मेहरबानी करेंगे, मैं वही चीज़ बनाकर तैयार कर दूँगा, अगर आपको पसन्द हो,
तो सिगरेट केस बना
दूँगा, बढ़िया
लकड़ी का सिगरेट केस... क्रोके खेलने के लिए लकड़ी की गेंद बना दूँगा, स्किटिल खेलने की
तीलियाँ बना दूँगा - ऐसी बढ़िया मानो विदेशी हों... आपके लिए सब कुछ करने को तैयार
रहूँगा! इसके लिए मैं आपसे एक कोपेक भी न लूँगा! इस तरह के सिगरेट केस के लिए
मास्को में वे आपसे चार रूबल ऐंठ लेते और मैं आपसे एक कोपेक भी नहीं लूँगा।’ और
डॉक्टर हँसकर कहेगा: ‘अच्छा अच्छा, अब बस कर, बहुत हुआ। पर यह बड़े अफ़सोस की बात है कि
तू शराबी है।’ इन भलेमानसों से बात करना मुझे आता है, बुढ़िया! ऐसा कोई साहब है ही नहीं जिसे मैं
मना न लूँ। बस, भगवान
इतनी दया करे कि हम रास्ता न भूलें। कैसा तूफ़ान है! बर्फ़ की वजह से मुझे ठीक-ठीक
दिखायी भी नहीं पड़ता।”
मिस्तरी लगातार
बड़बड़ाता जाता, अपनी
घबड़ाहट को दबाने के लिए वह बिना सोचे-समझे ज़ुबान चलाता जाता। पर जहाँ उसके पास
शब्दों की कमी नहीं थी, वहीं
उसके दिमाग़ में लगे विचारों और सवालों के ताँते का भी अन्त नहीं था। सन्ताप ने
अचानक ही आकर उसे घेर लिया था, जैसे गाज गिर पड़ी हो और वह हत्बुद्धि हो गया था,
वह सँभल न पा रहा था,
अपने होश-हवास में न
आ पा रहा था, सोच-समझ
न पा रहा था। अभी तक उसने लापरवाही की ज़िन्दगी बितायी थी, मानो शराब के खुमार में था, उसे ख़ुशी या अफ़सोस
किसी का पता ही न था, और अब
एकाएक उसके हृदय में असहनीय पीड़ा हो रही थी। लापरवाह, काहिल और शराबी अब अकस्मात अपने को व्यस्त,
काम में बूझे
व्यक्ति की, हड़बड़ी
में पड़े ऐसे व्यक्ति की स्थिति में पा रहा था, जो स्वयं प्रकृति के विपरीत पड़ गया हो।
जहाँ तक मिस्तरी को
याद थी, इस
सन्ताप ने उसे पिछली शाम आ घेरा था। हमेशा की तरह नशे में चूर, वह जब शाम को घर
लौटा, और
बरसों पुरानी आदत के मुताबिक़ गाली बकने और घूँसे चलाने लगा, उसकी बुढ़िया ने अपने
अत्याचारी की ओर ऐसी निगाह से देखा, जिस ढंग से उसने पहले कभी नहीं निहारा था। उसकी
बूढ़ी आँखों में आम तौर पर जो भाव रहता था, वह था शहीद का, भीरुता का, ऐसे कुत्ते का भाव जो पीटा बहुत जाता हो
और भोजन बहुत कम पाता हो, पर अब उसकी आँखें स्थिर और कठोर थीं, जैसे सन्तों की
प्रतिमाओं की आँखें होती हैं, या मरणासन्न लोगों की होती हैं। उन विलक्षण,
वेदनाप्रद आँखों ने
ही सन्ताप का बीज बोया था। किंकर्तव्यविमूढ़ मिस्तरी पड़ोसी से घोड़ा माँग लाया था और
अब इस आशा में अपनी बुढ़िया को अस्पताल ले जा रहा था कि पावेल इवानिच अपने चूर्णों
और लेपों की सहायता से वृद्धा की आँखों में वही पुरानी झलक ला देगा।
“सुनो, मत्र्योना!” वह बोला,
“याद रखो! अगर पावेल
इवानिच तुमसे पूछे कि क्या मैं तुझे मारता हूँ, तो तुम कह देना - ‘अरे नहीं, हुज़ूर!’ और मैं अब
कभी भी तुझे नहीं पीटूँगा। पाक सलीब की सौगन्ध, मैं अब कभी नहीं मारूँगा। तू तो जानती है
कि मैं जब भी तुझे मारता था तो तुझे सचमुच मारना कभी नहीं चाहता था। मैं तो तुझे
ऐसे ही, बिना
क्रोध के मारता था। मुझे तो तुझ पर तरस आता था। कोई और होता तो परवाह भी न करता,
पर मैं तुझे अस्पताल
ले चल रहा हूँ... मैं जो कुछ भी कर सकता हूँ, कर रहा हूँ। और ऐसे तूफ़ान में! तेरी दया
है भगवान! बस परमात्मा हमें रास्ता न भूलने दे... मत्र्योना! अब तुम्हारी बग़ल का
दर्द कैसा है? तुम कुछ
कहती क्यों नहीं? मैं
पूछता हूँ: तुम्हारी बग़ल का दर्द अब कैसा है?”
उसे यह बात अजीब लग
रही थी कि वृद्धा के चेहरे पर बर्फ़ पिघल नहीं रही थी, अजीब बात यह थी कि उसका चेहरा भी लम्बा
खिंचा लगता था, और ऐसे
मटमैले भूरे रंग का हो रहा था, मानो गन्दी मोम का हो, और ऐसा गम्भीर, ऐसा कठोर लग रहा था।
मिस्तरी ने भन्नाकर
कहा - “ऐ पागल बूढ़ी! मैं तुझसे ईमानदारी से, ईश्वर को साक्षी करके पूछता हूँ, और तू... बूढ़ी पगली!
मैं तुझे पावेल इवानिच के पास नहीं ले जाऊँगा, बस!”
मिस्तरी ने लगाम
ढीली छोड़ दी और सोच-विचार में लग गया। बुढ़िया की ओर ताकने की उसकी हिम्मत नहीं हो
रही थी, वह डर
रहा था। बिना जवाब पाये उससे सवाल करते जाने में भी उसे डर लग रहा था। अन्त में इस
दुविधा को दूर करने के लिए उसने वृद्धा की ओर देखे बिना उसका ठण्डा हाथ टटोला। जब
उसने हाथ छोड़ा, वह
पत्थर की तरह गिर पड़ा।
“मर गयी! हाय,
हाय!”
और मिस्तरी रोने
लगा। उसकी भावना दुख की नहीं, खीझ की थी। वह सोचने लगा कि दुनिया में घटनाएँ
किस तेज़ी से घटती हैं! उसका सन्ताप ठीक से शुरू भी न हुआ था, कि अब सब कुछ समाप्त
हो गया। अपनी वृद्धा के साथ रहना, उससे अपने दिल की बात कहना, उससे स्नेह करना,
उसकी सेवा करना अभी
ठीक से शुरू भी न हुआ था कि वह मर गयी...वह उसके साथ चालीस वर्ष से रह रहा था,
पर ये चालीस वर्ष
मानो एक कुहासे में बीत गये थे। शराब पीने, लड़ने-झगड़ने और ज़रूरतों में ज़िन्दगी
अज्ञात-सी ही गुज़र गयी थी। और वृद्धा ठीक उस समय गुज़र गयी जब उसे आभास हुआ कि वह
उसे प्यार करता था, कि वह
उसके बिना रह नहीं सकता, कि उसने उसके साथ बड़ा जुल्म किया था।
उसे याद आया - “वह
भीख माँगने जाती थी, मैं उसे
रोटी के लिए भीख माँगने भेजता था, हाँ मैं भेजता था! ओफ़, ओफ़! वह अभी दस साल और ज़िन्दा रह सकती
थी।
बेचारी पगली,
और अब वह सोचती होगी
कि मैं सचमुच ही ऐसा था। पवित्र माता! मैं जा कहाँ रहा हूँ? अब उसे डॉक्टर नहीं, क़ब्र की ज़रूरत है!
अरे मुड़ जा, वापस
मुड़!”
ग्रिगोरी ने लगाम
खींचकर घोड़ी का मुँह पीछे फेर दिया और पूरी ताक़त से उसके चाबूक जमाया। हर घण्टे
सड़क और ज़्यादा ख़राब होती जाती थी। अब उसे घोड़ी का जूआ बिल्कुल ही नहीं दिखायी
देता था। बीच-बीच में गाड़ी किसी चीड़ के पौधों को कुचल जाती, कोई काली चीज़ मिस्तरी का हाथ खरोंच जाती
और तेज़ी से उसकी आँखों के सामने से चमककर निकल जाती, और फिर उसे चक्कर मारती हुई सफ़ेदी के
अलावा और कुछ न दिखायी देता।
मिस्तरी सोच रहा था
- “काश! ज़िन्दगी फिर नये सिरे से शुरू करने का मौक़ा मिलता...”
उसे याद आया कि
चालीस साल पहले मत्र्योना नवयुवती सुन्दरी और प्रसन्नचित्त थी, कि वह एक समृद्ध
परिवार से आयी थी। उसकी शादी ग्रिगोरी की कुशलता के कारण ही उससे कर दी गयी थी।
सुखी जीवन के लिए जो कुछ चाहिए, वह सब उनके पास था, पर विवाह सम्पन्न होते ही, उसी क्षण, शराब में चूर वह
अलावघर के ऊपर की पट्टी पर धम से आकर सो रहा और तब से वह मानो कभी पूरी तरह जागा
नहीं, आज तक
पूरी तरह होश में आया नहीं। उसे शादी की तो याद थी, पर वह चाहे जितनी कोशिश करे शादी के बाद
क्या हुआ इसकी याद उसे नहीं आती थी - सिवा शराब पीने, सोने और मारपीट करने के और इस तरह चालीस
साल बरबाद हो गये थे।
उड़ती हुई बर्फ़ के
सफ़ेद बादल अब धीरे-धीरे धूमिल हो रहे थे। साँझ होती जा रही थी।
अचानक मिस्तरी ने
फिर अपने आप से पूछा - “मैं जा कहाँ रहा हूँ? मुझे चाहिए कि मैं जाकर उसे दफ़ना दूँ,
और मैं लगातार
अस्पताल की ओर हाँकता चला जा रहा हूँ। मैं मानो पागल हो गया हूँ!”
उसने फिर घोड़ी का
मुँह पीछे फेरा, चाबुक
से उसे फिर मारा। अपनी सारी शक्ति सँजोकर घोड़ी फुँफकारी और दुलकी भागने लगी।
मिस्तरी उसे बराबर चाबुक मारता जाता...उसे अपने पीछे खट-खट की आवाज़ सुनायी देने
लगी और उसने पीछे मुड़े बिना समझ लिया कि लाश का सिर गाड़ी से टकरा रहा होगा। अँधेरा
बढ़ता गया, बढ़ता
गया, हवा और
ठण्डी होती गयी, और तेज़
व ठिठुरन भरी होती गयी...
“ज़िन्दगी फिर से
शुरू करने को मिले,” मिस्तरी
सोच रहा था, “मैं
अपने लिए नये औजार ख़रीद लूँ और लोगों से ऑर्डर ले-लेकर उनके लिए सामान बनाने
लगूँ...और रुपया मैं वृद्धा को देने लगूँ... हाँ!”
तब उससे लगाम छूट
गयी। वह उसे ढूँढ़ने लगा और झुककर उसे उठाना चाहा पर बेकार, उसके हाथ चल नहीं रहे थे...
“कोई बात नहीं,”
उसने सोचा, “घोड़ी अपने आप चलती
जायेगी, वह
रास्ता जानती है। अगर मैं अभी एक झपकी ले पाता... जनाजे और गिरजाघर में दुआ के
वक़्त तक मैं आराम कर लेता...”
मिस्तरी ने आँखें
मींच लीं और ऊँघने लगा। थोड़ी देर में उसे लगा कि घोड़ी रुक गयी है। आँखें खोलकर
उसने देखा कि वह किसी गहरे रंग की झोंपड़ी या चारे के बड़े ढेर के सामने है...
वह समझ रहा था कि
उसे स्लेज से उतरकर देखना चाहिए कि वह है कहाँ, पर उसके अंग-अंग में ऐसी थकान, ऐसा आलस्य भरा था कि
वह सर्दी से जमकर मर जाने से बचने के लिए भी हिलडुल न सकता था...वह आराम से सो
गया।
वह एक बड़े कमरे में
जागा जिसकी दीवारें सफ़ेदी से पुती हुई थीं। खिड़की से चमकीली धूप भीतर आ रही थी।
मिस्तरी ने देखा कि कमरे में लोग मौजूद हैं और उसके दिमाग़ में जो पहली बात आयी वह
थी कि उसे विज्ञ और समझदार लगना चाहिए।
उसने कहा - “पादरी
को बताना होगा, हमें
वृद्धा के लिए दुआ माँगनी चाहिए।”
किसी आवाज़ ने उसे
टोका - “ठीक है, ठीक है,
तुम ज़रा चुपचाप लेटे
रहो!”
यकायक डॉक्टर की झलक
पा, अचम्भे
में वह चिल्ला पड़ा - “अरे, यह तो पावेल इवानिच है, हुज़ूर! माई बाप! हमारे हितचिन्तक!”
उसने बिस्तर से
कूदकर चिकित्सा विज्ञानी के चरणों में नत-मस्तक होने की कोशिश की, लेकिन उसे लगा कि
उसके हाथ-पाँव उसके बस में नहीं हैं।
“हूजूर, मेरे पाँव कहाँ है?
मेरे हाथ कहाँ गये?”
“अपने हाथ-पाँवों को
अलविदा कह लो... तुमने उन्हें सर्दी में जमने दिया। हूँ-हूँ, बस करो! तुम रो
किसलिए रहे हो? ईश्वर
को धन्यवाद दो कि तुम्हें पूरी ज़िन्दगी मिली! मैं समझता हूँ, तेरी उमर तो साठ हो
चुकी है - तुमने भी अपना ज़माना देख लिया!”
“हाय, हाय, हुज़ूर! मन में यह
बिथा लिये कैसे मरूँ? मुझे
माफ़ करें! मैं अगर पाँच-छह बरस और रह पाता...”
“काहे के लिए?”
“यह घोड़ी मेरी नहीं
थी, मुझे वह
वापस करनी होगी...मुझे अपनी बुढ़िया को दफ़न करना होगा... आह, इस दुनिया में हर
बात किस तेज़ी से हो जाती है। हुज़ूर! पावेल इवानिच! सबसे बढ़िया लकड़ी का सिगरेट
केस! मैं आपको क्रोके खेलने की गेंद बना दूँगा...”
डॉक्टर हाथ हिलाकर
कमरे के बाहर हो गया - मिस्तरी का सब कुछ समाप्त हो गया।
(1885)
Anton Chekhov's Story - Sorrow
THE turner, Grigory Petrov, who had been known for years
past as a splendid craftsman, and at the same time as the most senseless
peasant in the Galtchinskoy district, was taking his old woman to the hospital.
He had to drive over twenty miles, and it was an awful road. A government post
driver could hardly have coped with it, much less an incompetent sluggard like
Grigory. A cutting cold wind was blowing straight in his face. Clouds of
snowflakes were whirling round and round in all directions, so that one could
not tell whether the snow was falling from the sky or rising from the earth.
The fields, the telegraph posts, and the forest could not be seen for the fog
of snow. And when a particularly violent gust of wind swooped down on Grigory,
even the yoke above the horse's head could not be seen. The wretched, feeble
little nag crawled slowly along. It took all its strength to drag its legs out
of the snow and to tug with its head. The turner was in a hurry. He kept
restlessly hopping up and down on the front seat and lashing the horse's back.
"Don't cry, Matryona, . . ." he muttered.
"Have a little patience. Please God we shall reach the hospital, and in a
trice it will be the right thing for you. . . . Pavel Ivanitch will give you
some little drops, or tell them to bleed you; or maybe his honor will be
pleased to rub you with some sort of spirit -- it'll . . . draw it out of your
side. Pavel Ivanitch will do his best. He will shout and stamp about, but he
will do his best. . . . He is a nice gentleman, affable, God give him health!
As soon as we get there he will dart out of his room and will begin calling me
names. 'How? Why so?' he will cry. 'Why did you not come at the right time? I
am not a dog to be hanging about waiting on you devils all day. Why did you not
come in the morning? Go away! Get out of my sight. Come again to-morrow.' And I
shall say: 'Mr. Doctor! Pavel Ivanitch! Your honor!' Get on, do! plague take
you, you devil! Get on!"
The turner lashed his nag, and without looking at the old
woman went on muttering to himself:
" 'Your honor! It's true as before God. . . . Here's
the Cross for you, I set off almost before it was light. How could I be here in
time if the Lord. . . .The Mother of God . . . is wroth, and has sent such a
snowstorm? Kindly look for yourself. . . . Even a first-rate horse could not do
it, while mine -- you can see for yourself -- is not a horse but a disgrace.'
And Pavel Ivanitch will frown and shout: 'We know you! You always find some
excuse! Especially you, Grishka; I know you of old! I'll be bound you have
stopped at half a dozen taverns!' And I shall say: 'Your honor! am I a criminal
or a heathen? My old woman is giving up her soul to God, she is dying, and am I
going to run from tavern to tavern! What an idea, upon my word! Plague take
them, the taverns!' Then Pavel Ivanitch will order you to be taken into the
hospital, and I shall fall at his feet. . . . 'Pavel Ivanitch! Your honor, we
thank you most humbly! Forgive us fools and anathemas, don't be hard on us
peasants! We deserve a good kicking, while you graciously put yourself out and
mess your feet in the snow!' And Pavel Ivanitch will give me a look as though
he would like to hit me, and will say: 'You'd much better not be swilling
vodka, you fool, but taking pity on your old woman instead of falling at my
feet. You want a thrashing!' 'You are right there -- a thrashing, Pavel
Ivanitch, strike me God! But how can we help bowing down at your feet if you
are our benefactor, and a real father to us? Your honor! I give you my word, .
. . here as before God, . . . you may spit in my face if I deceive you: as soon
as my Matryona, this same here, is well again and restored to her natural
condition, I'll make anything for your honor that you would like to order! A
cigarette-case, if you like, of the best birchwood, . . . balls for croquet,
skittles of the most foreign pattern I can turn. . . . I will make anything for
you! I won't take a farthing from you. In Moscow they would charge you four
roubles for such a cigarette-case, but I won't take a farthing.' The doctor
will laugh and say: 'Oh, all right, all right. . . . I see! But it's a pity you
are a drunkard. . . .' I know how to manage the gentry, old girl. There isn't a
gentleman I couldn't talk to. Only God grant we don't get off the road. Oh, how
it is blowing! One's eyes are full of snow."
And the turner went on muttering endlessly. He prattled on
mechanically to get a little relief from his depressing feelings. He had plenty
of words on his tongue, but the thoughts and questions in his brain were even
more numerous. Sorrow had come upon the turner unawares, unlooked-for, and
unexpected, and now he could not get over it, could not recover himself. He had
lived hitherto in unruffled calm, as though in drunken half-consciousness,
knowing neither grief nor joy, and now he was suddenly aware of a dreadful pain
in his heart. The careless idler and drunkard found himself quite suddenly in
the position of a busy man, weighed down by anxieties and haste, and even
struggling with nature.
The turner remembered that his trouble had begun the evening
before. When he had come home yesterday evening, a little drunk as usual, and
from long-established habit had begun swearing and shaking his fists, his old
woman had looked at her rowdy spouse as she had never looked at him before.
Usually, the expression in her aged eyes was that of a martyr, meek like that
of a dog frequently beaten and badly fed; this time she had looked at him
sternly and immovably, as saints in the holy pictures or dying people look.
From that strange, evil look in her eyes the trouble had begun. The turner,
stupefied with amazement, borrowed a horse from a neighbor, and now was taking
his old woman to the hospital in the hope that, by means of powders and
ointments, Pavel Ivanitch would bring back his old woman's habitual expression.
"I say, Matryona, . . ." the turner muttered,
"if Pavel Ivanitch asks you whether I beat you, say, 'Never!' and I never
will beat you again. I swear it. And did I ever beat you out of spite? I just
beat you without thinking. I am sorry for you. Some men wouldn't trouble, but
here I am taking you. . . . I am doing my best. And the way it snows, the way
it snows! Thy Will be done, O Lord! God grant we don't get off the road. . . .
Does your side ache, Matryona, that you don't speak? I ask you, does your side
ache?"
It struck him as strange that the snow on his old woman's
face was not melting; it was queer that the face itself looked somehow drawn,
and had turned a pale gray, dingy waxen hue and had grown grave and solemn.
"You are a fool!" muttered the turner. . . .
"I tell you on my conscience, before God,. . . and you go and . . . Well,
you are a fool! I have a good mind not to take you to Pavel Ivanitch!"
The turner let the reins go and began thinking. He could not
bring himself to look round at his old woman: he was frightened. He was afraid,
too, of asking her a question and not getting an answer. At last, to make an
end of uncertainty, without looking round he felt his old woman's cold hand. The
lifted hand fell like a log.
"She is dead, then! What a business!"
And the turner cried. He was not so much sorry as annoyed.
He thought how quickly everything passes in this world! His trouble had hardly
begun when the final catastrophe had happened. He had not had time to live with
his old woman, to show her he was sorry for her before she died. He had lived
with her for forty years, but those forty years had passed by as it were in a
fog. What with drunkenness, quarreling, and poverty, there had been no feeling
of life. And, as though to spite him, his old woman died at the very time when
he felt he was sorry for her, that he could not live without her, and that he
had behaved dreadfully badly to her.
"Why, she used to go the round of the village," he
remembered. "I sent her out myself to beg for bread. What a business! She
ought to have lived another ten years, the silly thing; as it is I'll be bound
she thinks I really was that sort of man. . . . Holy Mother! but where the
devil am I driving? There's no need for a doctor now, but a burial. Turn
back!"
Grigory turned back and lashed the horse with all his might.
The road grew worse and worse every hour. Now he could not see the yoke at all.
Now and then the sledge ran into a young fir tree, a dark object scratched the
turner's hands and flashed before his eyes, and the field of vision was white
and whirling again.
"To live over again," thought the turner.
He remembered that forty years ago Matryona had been young,
handsome, merry, that she had come of a well-to-do family. They had married her
to him because they had been attracted by his handicraft. All the essentials
for a happy life had been there, but the trouble was that, just as he had got
drunk after the wedding and lay sprawling on the stove, so he had gone on
without waking up till now. His wedding he remembered, but of what happened
after the wedding -- for the life of him he could remember nothing, except
perhaps that he had drunk, lain on the stove, and quarreled. Forty years had
been wasted like that.
The white clouds of snow were beginning little by little to
turn gray. It was getting dusk.
"Where am I going?" the turner suddenly bethought
him with a start. "I ought to be thinking of the burial, and I am on the
way to the hospital. . . . It as is though I had gone crazy."
Grigory turned round again, and again lashed his horse. The
little nag strained its utmost and, with a snort, fell into a little trot. The
turner lashed it on the back time after time. . . . A knocking was audible
behind him, and though he did not look round, he knew it was the dead woman's
head knocking against the sledge. And the snow kept turning darker and darker,
the wind grew colder and more cutting. . . .
"To live over again!" thought the turner. "I
should get a new lathe, take orders, . . . give the money to my old woman. . .
."
And then he dropped the reins. He looked for them, tried to
pick them up, but could not -- his hands would not work. . . .
"It does not matter," he thought, "the horse
will go of itself, it knows the way. I might have a little sleep now. . . .
Before the funeral or the requiem it would be as well to get a little rest. . .
."
The turner closed his eyes and dozed. A little later he
heard the horse stop; he opened his eyes and saw before him something dark like
a hut or a haystack. . . .
He would have got out of the sledge and found out what it
was, but he felt overcome by such inertia that it seemed better to freeze than
move, and he sank into a peaceful sleep.
He woke up in a big room with painted walls. Bright sunlight
was streaming in at the windows. The turner saw people facing him, and his
first feeling was a desire to show himself a respectable man who knew how
things should be done.
"A requiem, brothers, for my old woman," he said.
"The priest should be told. . . ."
"Oh, all right, all right; lie down," a voice cut
him short.
"Pavel Ivanitch!" the turner cried in surprise,
seeing the doctor before him. "Your honor, benefactor! "
He wanted to leap up and fall on his knees before the
doctor, but felt that his arms and legs would not obey him.
"Your honor, where are my legs, where are my
arms!"
"Say good-by to your arms and legs. . . . They've been
frozen off. Come, come! . . . What are you crying for ? You've lived your life,
and thank God for it! I suppose you have had sixty years of it -- that's enough
for you! . . ."
"I am grieving. . . . Graciously forgive me! If I could
have another five or six years! . . ."
"What for?"
"The horse isn't mine, I must give it back. . . . I
must bury my old woman. . . . How quickly it is all ended in this world! Your
honor, Pavel Ivanitch! A cigarette-case of birchwood of the best! I'll turn you
croquet balls. . . ."
The doctor went out of the ward with a wave of his hand. It
was all over with the turner.
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