मुंशी प्रेमचन्‍द की कालजयी कहानी - पूस की रात Munshi Premchand's Story - A Winter's Night


मुंशी प्रेमचन्‍द की कालजयी कहानी - पूस की रात


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हल्कू ने आकर स्त्री से कहा- सहना आया है, लाओ, जो रुपये रखे हैं, उसे दे दूं, किसी तरह गला तो छूटे.
मुन्नी झाड़ू लगा रही थी. पीछे फिरकर बोली- तीन ही तो रुपये हैं, दे दोगे तो कम्मल कहां से आवेगा? माघ-पूस की रात हार में कैसे कटेगी? उससे कह दो, फसल पर दे देंगे. अभी नहीं.
हल्कू एक क्षण अनिश्चित दशा में खड़ा रहा. पूस सिर पर आ गया, कम्मल के बिना हार में रात को वह किसी तरह नहीं जा सकता. मगर सहना मानेगा नहीं, घुड़कियां जमावेगा, गालियां देगा. बला से जाड़ों में मरेंगे, बला तो सिर से टल जाएगी. यह सोचता हुआ वह अपना भारी- भरकम डील लिए हुए (जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था) स्त्री के समीप आ गया और खुशामद करके बोला- ला दे दे, गला तो छूटे. कम्मल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा.
मुन्नी उसके पास से दूर हट गयी और आंखें तरेरती हुई बोली- कर चुके दूसरा उपाय! जरा सुनूं तो कौन-सा उपाय करोगे? कोई खैरात दे देगा कम्मल? न जाने कितनी बाकी है, जों किसी तरह चुकने ही नहीं आती. मैं कहती हूं, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते? मर-मर काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई. बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जनम हुआ है. पेट के लिए मजूरी करो. ऐसी खेती से बाज आये. मैं रुपये न दूंगी, न दूंगी.
हल्कू उदास होकर बोला- तो क्या गाली खाऊं?
मुन्नी ने तड़पकर कहा- गाली क्यों देगा, क्या उसका राज है?
मगर यह कहने के साथ ही उसकी तनी हुई भौहें ढीली पड़ गयीं. हल्कू के उस वाक्य में जो कठोर सत्य था, वह मानो एक भीषण जंतु की भांति उसे घूर रहा था.
उसने जाकर आले पर से रुपये निकाले और लाकर हल्कू के हाथ पर रख दिये. फिर बोली- तुम छोड़ दो अबकी से खेती. मजूरी में सुख से एक रोटी तो खाने को मिलेगी. किसी की धौंस तो न रहेगी. अच्छी खेती है! मजूरी करके लाओ, वह भी उसी में झोंक दो, उस पर धौंस.
हल्कू ने रुपये लिये और इस तरह बाहर चला मानो अपना हृदय निकालकर देने जा रहा हो. उसने मजूरी से एक-एक पैसा काट-कपटकर तीन रुपये कम्मल के लिए जमा किये थे. वह आज निकले जा रहे थे. एक-एक पग के साथ उसका मस्तक अपनी दीनता के भार से दबा जा रहा था.
II
पूस की अंधेरी रात! आकाश पर तारे भी ठिठुरते हुए मालूम होते थे. हल्कू अपने खेत के किनारे ऊख के पतों की एक छतरी के नीचे बांस के खटोले पर अपनी पुरानी गाढ़े की चादर ओढ़े पड़ा कांप रहा था. खाट के नीचे उसका संगी कुत्ता जबरा पेट मे मुंह डाले सर्दी से कूं-कूं कर रहा था. दो में से एक को भी नींद न आती थी.
हल्कू ने घुटनियों कों गरदन में चिपकाते हुए कहा- क्यों जबरा, जाड़ा लगता है? कहता तो था, घर में पुआल पर लेट रह, तो यहां क्या लेने आये थे? अब खाओ ठंड, मैं क्या करूं? जानते थे, मै यहां हलुवा-पूरी खाने आ रहा हूं, दौड़े-दौड़े आगे-आगे चले आये. अब रोओ नानी के नाम को.
जबरा ने पड़े-पड़े दुम हिलायी और अपनी कूं-कूं को दीर्घ बनाता हुआ एक बार जम्हाई लेकर चुप हो गया. उसकी श्वान-बुध्दि ने शायद ताड़ लिया, स्वामी को मेरी कूं-कूं से नींद नहीं आ रही है.
हल्कू ने हाथ निकालकर जबरा की ठंडी पीठ सहलाते हुए कहा- कल से मत आना मेरे साथ, नहीं तो ठंडे हो जाओगे. यह रांड पछुआ न जाने कहां से बरफ लिए आ रही है. उठूं, फिर एक चिलम भरूं. किसी तरह रात तो कटे! आठ चिलम तो पी चुका. यह खेती का मजा है! और एक-एक भगवान ऐसे पड़े हैं, जिनके पास जाड़ा जाय तो गरमी से घबड़ाकर भागे. मोटे-मोटे गद्दे, लिहाफ- कम्मल. मजाल है, जाड़े का गुजर हो जाय. तकदीर की खूबी! मजूरी हम करें, मजा दूसरे लूटें!
हल्कू उठा, गड्ढ़े में से जरा-सी आग निकालकर चिलम भरी. जबरा भी उठ बैठा.
हल्कू ने चिलम पीते हुए कहा- पियेगा चिलम, जाड़ा तो क्या जाता है, जरा मन बदल जाता है.
जबरा ने उसके मुंह की ओर प्रेम से छलकती हुई आंखों से देखा.
हल्कू- आज और जाड़ा खा ले. कल से मैं यहां पुआल बिछा दूंगा. उसी में घुसकर बैठना, तब जाड़ा न लगेगा.
जबरा ने अपने पंजे उसकी घुटनियों पर रख दिये और उसके मुंह के पास अपना मुंह ले गया. हल्कू को उसकी गर्म सांस लगी.
चिलम पीकर हल्कू फिर लेटा और निश्चय करके लेटा कि चाहे कुछ हो अबकी सो जाऊंगा, पर एक ही क्षण में उसके हृदय में कम्पन होने लगा. कभी इस करवट लेटता, कभी उस करवट, पर जाड़ा किसी पिशाच की भांति उसकी छाती को दबाये हुए था.
जब किसी तरह न रहा गया तो उसने जबरा को धीरे से उठाया और उसक सिर को थपथपाकर उसे अपनी गोद में सुला लिया. कुत्ते की देह से जाने कैसी दुर्गंध आ रही थी, पर वह उसे अपनी गोद मे चिपटाये हुए ऐसे सुख का अनुभव कर रहा था, जो इधर महीनों से उसे न मिला था. जबरा शायद यह समझ रहा था कि स्वर्ग यहीं है, और हल्कू की पवित्र आत्मा में तो उस कुत्ते के प्रति घृणा की गंध तक न थी. अपने किसी अभिन्न मित्र या भाई को भी वह इतनी ही तत्परता से गले लगाता. वह अपनी दीनता से आहत न था, जिसने आज उसे इस दशा को पहुंचा दिया. नहीं, इस अनोखी मैत्री ने जैसे उसकी आत्मा के सब द्वा र खोल दिये थे और उनका एक-एक अणु प्रकाश से चमक रहा था.
सहसा जबरा ने किसी जानवर की आहट पायी. इस विशेष आत्मीयता ने उसमे एक नयी स्फूर्ति पैदा कर दी थी, जो हवा के ठंडें झोकों को तुच्छ समझती थी. वह झपटकर उठा और छपरी से बाहर आकर भूंकने लगा. हल्कू ने उसे कई बार चुमकारकर बुलाया, पर वह उसके पास न आया. हार में चारों तरफ दौड़-दौड़कर भूंकता रहा. एक क्षण के लिए आ भी जाता, तो तुरंत ही फिर दौड़ता. कर्तव्य उसके हृदय में अरमान की भांति ही उछल रहा था.
III
एक घंटा और गुजर गया. रात ने शीत को हवा से धधकाना शुरु किया. हल्कू उठ बैठा और दोनों घुटनों को छाती से मिलाकर सिर को उसमें छिपा लिया, फिर भी ठंड कम न हुई | ऐसा जान पड़ता था, सारा रक्त जम गया है, धमनियों मे रक्त की जगह हिम बह रहा है. उसने झुककर आकाश की ओर देखा, अभी कितनी रात बाकी है! सप्तर्षि अभी आकाश में आधे भी नहीं चढ़े. ऊपर आ जायंगे तब कहीं सबेरा होगा. अभी पहर से ऊपर रात है.
हल्कू के खेत से कोई एक गोली के टप्पे पर आमों का एक बाग था. पतझड़ शुरु हो गयी थी. बाग में पत्तियों को ढेर लगा हुआ था. हल्कू ने सोचा, चलकर पत्तियां बटोरूं और उन्हें जलाकर खूब तापूं. रात को कोई मुझे पत्तियां बटोरते देख तो समझे कोई भूत है. कौन जाने, कोई जानवर ही छिपा बैठा हो, मगर अब तो बैठे नहीं रहा जाता.
उसने पास के अरहर के खेत में जाकर कई पौधे उखाड़ लिए और उनका एक झाड़ू बनाकर हाथ में सुलगता हुआ उपला लिये बगीचे की तरफ चला. जबरा ने उसे आते देखा तो पास आया और दुम हिलाने लगा.
हल्कू ने कहा- अब तो नहीं रहा जाता जबरू. चलो बगीचे में पत्तियां बटोरकर तापें. टांठे हो जायेंगे, तो फिर आकर सोयेंगें. अभी तो बहुत रात है.
जबरा ने कूं-कूं करके सहमति प्रकट की और आगे-आगे बगीचे की ओर चला.
बगीचे में खूब अंधेरा छाया हुआ था और अंधकार में निर्दय पवन पत्तियों को कुचलता हुआ चला जाता था. वृक्षों से ओस की बूंदे टप-टप नीचे टपक रही थीं.
एकाएक एक झोंका मेहंदी के फूलों की खूशबू लिए हुए आया.
हल्कू ने कहा- कैसी अच्छी महक आई जबरू! तुम्हारी नाक में भी तो सुगंध आ रही है?
जबरा को कहीं जमीन पर एक हडडी पड़ी मिल गयी थी. उसे चिंचोड़ रहा था.
हल्कू ने आग जमीन पर रख दी और पत्तियां बटोरने लगा. जरा देर में पत्तियों का ढेर लग गया. हाथ ठिठुरे जाते थे. नंगे पांव गले जाते थे. और वह पत्तियों का पहाड़ खड़ा कर रहा था. इसी अलाव में वह ठंड को जलाकर भस्म कर देगा.
थोड़ी देर में अलाव जल उठा. उसकी लौ ऊपर वाले वृक्ष की पत्तियों को छू-छूकर भागने लगी. उस अस्थिर प्रकाश में बगीचे के विशाल वृक्ष ऐसे मालूम होते थे, मानो उस अथाह अंधकार को अपने सिरों पर संभाले हुए हों अंधकार के उस अनंत सागर मे यह प्रकाश एक नौका के समान हिलता, मचलता हुआ जान पड़ता था.
हल्कू अलाव के सामने बैठा आग ताप रहा था. एक क्षण में उसने दोहर उताकर बगल में दबा ली, दोनों पांव फैला दिए, मानों ठंड को ललकार रहा हो, तेरे जी में जो आये सो कर. ठंड की असीम शक्ति पर विजय पाकर वह विजय-गर्व को हृदय में छिपा न सकता था.
उसने जबरा से कहा- क्यों जब्बर, अब ठंड नहीं लग रही है?
जब्बर ने कूं-कूं करके मानो कहा- अब क्या ठंड लगती ही रहेगी?
'पहले से यह उपाय न सूझा, नहीं इतनी ठंड क्यों खाते.'
जब्बर ने पूंछ हिलायी.
'अच्छा आओ, इस अलाव को कूदकर पार करें. देखें, कौन निकल जाता है. अगर जल गए बच्चा,
तो मैं दवा न करूंगा.'
जब्बर ने उस अग्निराशि की ओर कातर नेत्रों से देखा!
मुन्नी से कल न कह देना, नहीं तो लड़ाई करेगी.
यह कहता हुआ वह उछला और उस अलाव के ऊपर से साफ निकल गया. पैरों में जरा लपट लगी, पर वह कोई बात न थी. जबरा आग के गिर्द घूमकर उसके पास आ खड़ा हुआ.
हल्कू ने कहा- चलो-चलो इसकी सही नहीं! ऊपर से कूदकर आओ. वह फिर कूदा और अलाव के इस पार आ गया.
IV
पत्तियां जल चुकी थीं. बगीचे में फिर अंधेरा छा गया था. राख के नीचे कुछ-कुछ आग बाकी थी, जो हवा का झोंका आ जाने पर जरा जाग उठती थी, पर एक क्षण में फिर आंखें बंद कर लेती थी!
हल्कू ने फिर चादर ओढ़ ली और गर्म राख के पास बैठा हुआ एक गीत गुनगुनाने लगा. उसके बदन में गर्मी आ गयी थी, पर ज्यों-ज्यों शीत बढ़ती जाती थी, उसे आलस्य दबाये लेता था.
जबरा जोर से भूंककर खेत की ओर भागा. हल्कू को ऐसा मालूम हुआ कि जानवरों का एक झुंड खेत में आया है. शायद नीलगायों का झुंड था. उनके कूदने-दौड़ने की आवाजें साफ कान में आ रही थी. फिर ऐसा मालूम हुआ कि खेत में चर रहीं हैं. उनके चबाने की आवाज चर-चर सुनाई देने लगी.
उसने दिल में कहा- नहीं, जबरा के होते कोई जानवर खेत में नहीं आ सकता. नोच ही डाले. मुझे भ्रम हो रहा है. कहां! अब तो कुछ नहीं सुनाई देता. मुझे भी कैसा धोखा हुआ!
उसने जोर से आवाज लगायी- जबरा, जबरा.
जबरा भूंकता रहा. उसके पास न आया.
फिर खेत के चरे जाने की आहट मिली. अब वह अपने को धोखा न दे सका. उसे अपनी जगह से हिलना जहर लग रहा था. कैसा दंदाया हुआ था. इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा. वह अपनी जगह से न हिला.
उसने जोर से आवाज लगायी- लिहो-लिहो!लिहो!!
जबरा फिर भूंक उठा. जानवर खेत चर रहे थे. फसल तैयार है. कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किये डालते हैं.
हल्कू पक्का इरादा करके उठा और दो-तीन कदम चला, पर एकाएक हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा कि वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठा और राख को कुरेदकर अपनी ठंडी देह को गर्माने लगा.
जबरा अपना गला फाड़ डालता था, नीलगायें खेत का सफाया किए डालती थीं और हल्कू गर्म राख के पास शांत बैठा हुआ था. अकर्मण्यता ने रस्सियों की भांति उसे चारों तरफ से जकड़ रखा था.
उसी राख के पास गर्म जमीन पर वह चादर ओढ़ कर सो गया.
सबेरे जब उसकी नींद खुली, तब चारों तरफ धूप फैल गयी थी और मुन्नी कह रही थी- क्या आज सोते ही रहोगे? तुम यहां आकर रम गए और उधर सारा खेत चौपट हो गया.
हल्कू ने उठकर कहा- क्या तू खेत से होकर आ रही है?
मुन्नी बोली- हां, सारे खेत का सत्यानाश हो गया. भला, ऐसा भी कोई सोता है. तुम्हारे यहां मड़ैया डालने से क्या हुआ?
हल्कू ने बहाना किया- मैं मरते-मरते बचा, तुझे अपने खेत की पड़ी है. पेट में ऐसा दरद हुआ कि मै ही जानता हूं!
दोनों फिर खेत के डांड़ पर आये. देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा हुआ है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानो प्राण ही न हों.
दोनों खेत की दशा देख रहे थे. मुन्नी के मुख पर उदासी छायी थी, पर हल्कू प्रसन्न था.
मुन्नी ने चिंतित होकर कहा- अब मजूरी करके मालगुजारी भरनी पड़ेगी.
हल्कू ने प्रसन्न मुख से कहा- रात को ठंड में यहां सोना तो न पड़ेगा.


Munshi Premchand's Story - A Winter’s Night 


                                         

Halku came in and said to his wife, ‘Sahna is at the door. Come on, give me the money you have. Let me pay him and be rid of the noose.’

His wife, Munni, was sweeping the floor. She turned her face towards him and said, ‘Three rupees is all I have. If we give these up, how shall you buy a blanket? How’ll you face the winter nights guarding the crop. Tell him, we shall pay at the time of harvest. Not now.’

Halku stood quietly for a moment, unsure of himself. The month of Poos, the peak of winter, was at hand and he won’t be able to sleep out in the field without a blanket. But Sahna won’t relent. He will threaten and curse. It was better to face the winter somehow and be rid of this trouble.  Halku , carrying his heavy weight (which disproved his name which meant ‘light- weight’), moved towards his wife and said in a cajoling voice, ‘Come on, please give me the money. Let me get rid of this. I shall find a blanket somehow.’

Munni moved away from him, arching her eyes. ‘What’ll you do?  Will someone give you a blanket in charity? God knows how much more we owe him. There’s no end to it. I say, stop tilling the land. Kill yourself toiling, and when the harvest is ready, hand it over to him. That’s the end. We’re born to remain under debt. And then slave as a labour to fill our stomach. What use is this tillage? I won’t give you the money. I won’t.’

‘So I should face the insults?’ Halku said in a melancholy tone.

‘How can he insult you? Does he own you?’ shouted Munni.

But the taut eyebrows were lowered just as she uttered these words. There was a bitter truth in Halku’s words that stared at them like a fierce animal.

She went up to the nich in the wall, took out the rupees and placed them on Halku’s palm. ‘You stop tilling the land. We shall feed ourselves through our daily labour peacefuly. And we won’t have to face the insults. What sort of tillage is this? Even the earnings from daily labouring also go into it. And over and above this bullying.

Halku walked out with the money as if he was going to tear his own heart out and hand it over to someone. He had saved these three rupees bit by bit out of his daily wages for buying a blanket. He was losing them today. With each step he took his mind was sinking under the weight of his helplessness.


2

A dark night in the winter’s month of Poos! Even the stars seemed to be shivering with cold. Halku lay at one edge of his field on a bamboo-stick cot under the sugar cane-leaf shelter, wrapped in an old thick cotton sheet, shaking with cold. Under the cot sat his pet dog Jabra with his mouth pushed into his body, whining. Neither of them was able to sleep.  

Halku folded his knees up to his mouth and said to Jabra, ‘Are you feeling cold? I had told you to sleep under the pual (a pile of paddy husk) at home. Why did you come here? Now face it. What can I do!  You followed me thinking I was coming here to feast on halwa-poori.  Now go and call your grandmother for help.’

Jabra wagged his tail, and letting out a long whine he stretched his body once and then became silent. Perhaps his dog-sense had told him that his master was unable to sleep because of his cries. 

Halku stretched his hand to caress Jabra’s cold body and said, ‘Don’t come tomorrow, or you will go cold for ever. God alone knows wherefrom this bastardly west wind is bringing in this iciness. Let me light another chillum. The night must be passed somehow. I have already smoked eight. This is the pleasure of farming! There are many so fortunate that if the cold came near them it would be driven away by heat. Thick quilts, sheets, and blankets! The cold dare not come near them. How strange life is! We work hard, others enjoy at our cost.

Halku got up and filled up his chillum with a bit of  fire from the pit. Jabra also stood up.

As he smoked, Halku said to Jabra, ‘Would you have a go at the chillum? It doesn’t drive away the cold, but it’s a good diversion.’

Jabra looked towards Halku, his eyes overflowing with love.  
    
‘Face this cold for this night. Tomorrow I shall spread a pual for you, and you can sit covered under it. Then you won’t feel the cold.’

Jabra placed his front legs on Halku’s knees and brought his mouth close to Halku’s mouth. Halku could feel his warm breath. After smoking his chillum Halku lay down again with the determination to sleep this time. But his heart began to beat fast in no time. He would turn and twist now on this, then on that side, but the cold had caught hold of his body like an evil spirit.

When he could do nothing to ward off the cold, he gently lifted Jabra, patted his head and made him lie down in his lap. The dog stank awfully, but by holding the animal so close to his body Halku was experiencing a kind of contentment he had not felt for months. Jabra was perhaps feeling that this was the very heaven; and in Halku’s pure heart there was no trace of any aversion towards the dog. He would not have embraced his dearest friend or the nearest relative with such affection! He was no longer feeling hurt by the wretchedness of his state. No, this strange friendship had expanded his spirit in all directions, and every pore in his body was shining brilliantly.

Suddenly Jabra heard the footsteps of an animal. This rare show of friendship had infused such a new spirit in him that he thought nothing of the blasts of the cold wind. He got up out of the shed and began to bark vigorously. Halku tried to coax him to come back to him but Jabra did not turn. He kept on running around in the field, barking. He would return for a moment but go back at once. Duty was spilling out of his heart like an unfulfilled desire.  


3
      
 Another hour passed. The night began to pulsate with draughts of cold wind. Halku sat up. He folded his legs and brought his knees on to his chest and hid his head in them. This gave him no respite from cold. He felt as if the blood in his body had frozen, and ice was flowing through his blood vessels. He looked up at the sky to check how far the night had gone. The constellation Saptarishi was still half-way up. It will be dawn only when the constellation reached directly above. More than one fourth of the night still remained.

There was a mango orchard at stone's throw from Halku’s field. It was the time when leaves fall off. There was a heap of dry leaves in the orchard. Halku thought of collecting them and lighting a fire to get some warmth. He was reflecting: If someone saw him gathering the leaves here, he might take him for a ghost. Who knows some animal might be hiding in them. But now it was impossible to stand this cold.

He went into the neighbouring arhar field, uprooted a few stalks and tied them together to make a broom. He picked up a piece of smouldering dung cake and began to walk towards the orchard. Jabra saw him and came to him and started wagging his tail.

Halku said, ‘I can stand it no more. Come, Jabru, let’s go to the orchard and burn the leaves to get some warmth, and when we have warmed ourselves a little we shall come back and sleep. The night is still long.

Jabra whined his assent and began to walk in front towards the orchard.

It was pitch-dark in the orchard; and the cruel wind was blowing across, mercilessly trampling upon the leaves.  Dewdrops were constantly dripping down the trees.

All of a sudden the wind carried towards them a waft of fragrance from henna flowers.

Halku said, ‘What a fine smell, Jabru! Doesn’t it tickle your nose?’

Jabru had found a bone and was gnawing at it.

Halku put the smouldering piece of dung cake on the ground and began to gather leaves around it. In no time he had collected a big heap. His hands were stiff with cold. His bare feet were dissolving. And he was raising a mountain of leaves, lighting which he was going to incinerate this cold.

The fire came alive in a short while. The flames leapt out of it to touch the tree above. In the flickering flames of the fire, it appeared as if the trees in the orchard were carrying the unbounded darkness on their heads. In this limitless sea of darkness this light seemed to be rocking and dancing like a boat.

Halku was sitting in front of the fire warming himself. Soon he took the cloth sheet off his body, tucked it in one of his armpits, and spread out his legs, as if he was provoking the cold. ‘Come on, do what you can.’ Having conquered the infinite power of cold, he was unable to repress his triumph. 

He said to Jabra, ‘Are you still feeling cold?’

Jabra whined, as if to say, ‘Shall we go on feeling cold for ever?’

‘We didn’t think of this, otherwise why should we have suffered so much.’

Jabra wagged his tail.

‘Come on, let’s jump over this fire and see who can cross over. And son, if you burn yourself I won’t get you any treatment.’

Jabra looked at the fire with frightened eyes. 

“And don’t tell Munni about it, or there would be a fight.’

Saying this he jumped cleanly over the fire, just grazing the flames but without any harm. Jabra only circled round the fire, and then came and stood beside him.

Halku said, ‘Come, come, this is not right. Now jump.’ Saying this, he jumped over the fire again and came over to the other side.


4

The leaves had burnt out. Once again the orchard was stark dark. The fire was still alive under the ashes; and ruffled by draughts of wind, it would peep out momentarily, and then close its eyes.

Halku once again wrapped the sheet round himself, and sitting beside the still warm ashes he began to hum a song. His body had warmed up but as the cold around him began to envelop him he was sinking into a state of torpor.   

Jabru barked angrily and ran towards the field. Halku thought that a herd of animals had invaded his field. Perhaps it was a herd of neelgais. He could clearly hear the noise of their running and tramping around; and then it looked they were grazing in the field for he could hear the sound of munching.
‘No.’ For a moment he thought, ‘No no animal can enter the field in the presence of Jabra. He would bite them away. It’s my imagination.’ The next moment he heard no noise. He must have been mistaken.

He shouted loudly for Jabra.

Jabra kept on barking and did not come to him.

Then again he heard the sound of animals grazing. He could deceive himself no longer. He hated the idea of moving from his seat. How cosily he was sitting! In this cold the thought of entering the field and chasing the animals seemed foolhardy. He did not move.

He shouted loudly, ‘Go! Go! Go!’

Jabra barked again. The animals were devouring the field. The harvest is ready. And what a good harvest! But these villainous animals are going to destroy it.

Halku got up with determination and walked a few steps. But all of a sudden a draught of wind, biting like the sting of a scorpion, overwhelmed him and he returned to the dying fire and began scouring through the ashes to get some warmth.

Jabra was barking himself hoarse, the neelgais were cleaning out the field, and Halku was sitting beside the warm ashes with a calm resignation. Listlessness had bound him hand and foot.

He covered himself in his sheet went to sleep, close to the ashes.

When he woke in the morning there was sunshine all around, and Munni was waking him up, ‘Will you keep sleeping today? You are lying here in bliss, and there the crop has been destroyed.’

Halku woke up and said, ‘Have you been to the field?’    

‘Yes’, she said, ‘The whole crop has been ruined. Who sleeps like this? How did your camping here all night help?’

Halku reeled off an excuse, ‘Here I was dying, and you’re worried about the crop. I had such a severe stomach ache!’

Both walked to their field. They saw the whole crop trampled upon, and Jabru lying under the shed almost lifeless.

Both of them were looking at their field. Munni was sad, but Halku was happy.

Munni said, ‘Now, to pay the tax we shall have to work as daily wagers.’

Halku replied, ‘So what? I won’t have to sleep here on a cold night.’  

English translation credit - http://ghai-tc.blogspot.com/2013/05/prem-chands-story-poos-ki-raat-in.html

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