तोल्स्तोय : रूसी क्रान्ति के दर्पण (तोल्स्तोय का विस्तृत साहित्यिक परिचय) / कात्यायनी, सत्यम
कात्यायनी, सत्यम
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आधुनिक इतिहास में यदि किसी विचारक–लेखक की ख्याति उसकी ज़िन्दगी में ही पूरी दुनिया में फैल चुकी थी और जीते–जी ही यदि वह एक मिथक बन गया था, तो वे निस्सन्देह लेव तोल्स्तोय ही थे।
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के साहित्यिक परिदृश्य पर जिस तरह
बाल्ज़ाक छाये हुए थे, उसी तरह उत्तरार्द्ध के साहित्यिक परिदृश्य पर तोल्स्तोय का
प्रभाव–साम्राज्य फैला हुआ था। मानव–जीवन की समस्त त्रासदियों–विडम्बनाओं का
तर्कपरक, इतिहाससंगत और वस्तुगत निरूपण और व्याख्या करते–करते तोल्स्तोय
हालाँकि ऐतिहासिक विकृतियों से मुक्त एक “सच्चे” ईसाई धर्म में, और
आत्म–परिष्करण के जरिए आधुनिक सभ्यता की सभी बुराइयों का समाधान प्रस्तुत करते हैं,
लेकिन
कलात्मक–दार्शनिक चिन्तन के इस अन्तरविरोध के बावजूद वे, मुख्य पहलू की
दृष्टि से, एक महान मानवतावादी चिन्तक और महान यथार्थवादी कलाकार थे। अपने
‘लेजिटिमिस्ट’ राजनीतिक विचारों के बावजूद बाल्ज़ाक ने ह्रासमान वर्गों की नियति
और “भविष्य के वास्तविक लोगों” की स्थिति को अपनी रचनाओं में दर्शाया जिसे
फ्रेडरिक एंगेल्स ने “यथार्थवाद की सबसे महती विजयों में से एक, प्रिय
बाल्ज़ाक के भव्यतम गुणों में से एक” बताया था। ठीक इसी तरह, तोल्स्तोय
ने अपने देशकाल के यथार्थ का जितने सजीव–सटीक ढंग से, और
उत्पीड़ित–दमित आम आबादी के प्रति जिस गहरे सरोकार के साथ, अपनी कृतियों
में कलात्मक पुनर्सृजन किया, उसका प्रभाव पाठक के मन–मस्तिष्क पर छा
जाता है और तोल्स्तोय स्वयं अपने द्वारा प्रस्तुत धार्मिक यूटोपियाई समाधान से इतर
समाधान के बारे में सोचने के लिए पाठक को प्रेरित कर देते हैं। दरअसल, जैसाकि
लेनिन ने इंगित किया था, तोल्स्तोय के अन्तरविरोध तत्कालीन रूसी
समाज के अन्तरविरोधों को प्रतिबिम्बित कर रहे थे और जब संघर्षों ने जनता की चेतना
को उन्नत कर दिया तो तोल्स्तोय की कृतियों को पढ़कर उसने वस्तुत: अपनी कमजोरियों के
बारे में जानना सीख लिया।
आम तौर पर, तोल्स्तोय को उनके दो वृहद और महान उपन्यासों-‘युद्ध और शान्ति’ तथा ‘आन्ना कारेनिना’ के लिए जाना जाता है। इनकी गणना निर्विवाद रूप से, अब तक लिखे गये दुनिया के सर्वोत्कृष्ट उपन्यासों में की जाती है। कुछ लोग उनके तीसरे प्रसिद्ध उपन्यास ‘पुनरुत्थान’ को भी इसी कोटि में शामिल करते हैं। उनकी एक और चर्चित कृति ‘इवान इलिच की मौत’ की गणना उपन्यासिका के सर्वश्रेष्ठ उदाहरणों में की जाती है। अपने अन्तिम तीस वर्षों के दौरान एक धार्मिक और नैतिक शिक्षक के रूप में उन्हें विश्वस्तरीय ख्याति मिली। बुराई का प्रतिरोध न करने के उनके सिद्धान्त का गाँधी पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा था। दुनिया आज तोल्स्तोय की धार्मिक मान्यताओं को भुला चुकी है, लेकिन साहित्यकार तोल्स्तोय की ख्याति आज भी अक्षुण्ण है और विश्व–साहित्य की क्लासिकी सम्पदा में अद्वितीय अभिवृद्धि करने वाले महान साहित्य–सर्जक के रूप में उन्हें शताब्दियों बाद ही नहीं बल्कि सहस्राब्दियों बाद भी याद किया जायेगा।
उन्नीसवीं शताब्दी के प्रसिद्ध अंग्रेज कवि और आलोचक मैथ्यू आर्नल्ड
ने एक बार कहा था कि तोल्स्तोय के उपन्यास कलाकृति नहीं, बल्कि जीवन का
एक हिस्सा होते हैं। तोल्स्तोय के कृतित्व से परिचित किसी भी पाठक के लिए इस विचार
से असहमत होना जरा मुश्किल है। रूसी लेखक इसाक बाबेल ने तोल्स्तोय के बारे में कहा
था कि यदि विश्व स्वयं लिख पाता तो वह तोल्स्तोय की तरह ही लिखता। परस्पर विरोधी
विचारों वाले साहित्य–चिन्तक और आलोचक भी इस बात पर एकमत रहे हैं कि तोल्स्तोय की
रचनाओं में कहीं भी कोई कृत्रिमता या छल नहीं होता। तोल्स्तोय के समकालीन ऐसा
बताते थे और उनकी रचनाएँ भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि भावनाओं–विचारों में
होने वाले छोटे से छोटे परिवर्तन और शरीर की मद्धमतम गतिमानता भी तोल्स्तोय की
नजरों से अदेखी नहीं रह पाती थी। अंग्रेज उपन्यासकार वर्जीनिया वुल्फ के अनुसार यह
प्रचण्ड पर्यवेक्षण–क्षमता पाठकों में एक तरह के भय का संचार करती है जो “उस
घूरती–भेदती दृष्टि से बच निकलना चाहता है जो तोल्स्तोय हमारे ऊपर टिका देते हैं।”
वर्जीनिया वुल्फ इस बात को एकदम निर्विवाद रूप से स्थापित मानती हैं कि तोल्स्तोय
विश्व के “सभी उपन्यासकारों में महानतम” थे। उनके लेखन की महानता उनकी कलात्मक
उत्कृष्टता, यथार्थ–चित्रण की वस्तुपरकता, साहस और
ईमानदारी में होने के साथ ही इस बात में भी थी कि वे जीवन के तात्पर्य की तलाश के
जीवित प्रतीक थे।
रूसी और विश्व–साहित्य के किसी भी लेखक में रूसी क्रान्ति के नेता
लेनिन ने उतनी गहरी रुचि नहीं दिखायी जितनी कि लेव तोल्स्तोय में। तोल्स्तोय पर
लिखे गये उनके छोटे–बड़े कुल पाँच लेख मौजूद हैं, जिनमें उन्होंने
उस समय तक के मार्क्सवादी–गैरमार्क्सवादी-सभी तरह के आलोचकों–विचारकों से एकदम
अलग ढंग से, द्वंद्वात्मक ऐतिहासिक विश्लेषण प्रस्तुत करते हुए यह दिखलाया है कि
तोल्स्तोय के कृतित्व में वस्तुत: असाधारण, वस्तुत: महान
तत्व क्या हैं! तोल्स्तोय के विचारों और कृतित्व की विशेषताओं एवं मूल्यांकन को
लेनिन ने 1905–07 की पहली रूसी क्रान्ति की कमजोरियों और विफलताओं के समाहार से
सम्बद्ध करते हुए बताया कि उस क्रान्ति की ऐतिहासिक विशिष्टताओं को “तोल्स्तोय ने
एक कलाकार, विचारक और उपदेशक के नाते-अपनी कृतियों में ...आश्चर्यजनक
स्पष्टता के साथ उभारा है।” इसी दृष्टि से लेनिन ने तोल्स्तोय को “रूसी क्रान्ति
के दर्पण” की संज्ञा दी है जिनका कृतित्व उसके सकारात्मक और नकारात्मक-दोनों
ही पक्षों को सामने लाता है। तोल्स्तोय ने अपनी रचनाओं में किसानों की बुर्जुआ
क्रान्ति के रूप में “समूची प्रथम रूसी क्रान्ति की ऐतिहासिक विशिष्टताओं को,
उसकी
शक्ति और दुर्बलता को” मूर्त रूप में प्रस्तुत किया। जारशाही रूस की समाज–व्यवस्था
की तोल्स्तोय ने जो आलोचना की थी, उसमें, लेनिन के अनुसार,
जोश,
तीव्रानुभूति,
निष्ठा,
ताजगी,
सच्चाई
और ...जनता की दुर्दशा के वास्तविक कारण का पता लगाने के मामले में निर्भीकता थी।
साथ ही लेनिन ने उनके विचारों, शिक्षाओं तथा कृतियों में मौजूद
अन्तरविरोधों, विसंगतियों और विरोधाभासों को भी रेखांकित किया। उन्होंने यह स्थापना
रखी कि तोल्स्तोय के अन्तरविरोध उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम तृतीयांश के रूसी
जीवन की परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब थे।
तोल्स्तोय के दार्शनिक–धार्मिक विचारों की यदि सूत्रवत चर्चा की जाये
तो उनके साथ न्याय होगा और यह स्पष्ट हो जायेगा कि वे किसी विज्ञान–विरोधी पादरी
के रूप में नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि के अभाव के कारण, उच्च
नैतिक–मानवीय आदर्शों की स्थापना के रूप में एक यूटोपिया रचते हुए धार्मिक
विश्व–दृष्टिकोण तक जा पहुँचते थे। तोल्स्तोय के दर्शन पर ईसाई धर्म, कन्फ्यूशियसवाद,
और
बौद्ध धर्म के साथ ही रूसो, शोपेनहार और ‘स्लावोफिल्स’ के विचारों
का प्रभाव स्पष्ट है। वे आस्था को बुनियादी संप्रत्यय मानते हैं, लेकिन
आस्था की तर्कबुद्धिवादी नैतिकता के रूप में व्याख्या करते हुए बताते हैं कि
‘आस्था इस बात का ज्ञान है कि मनुष्य क्या है और उसके जीवन का अर्थ क्या है।’
तोल्स्तोय के अनुसार, मानव–जीवन का अर्थ लोगों के परकीयकरण को दूर करने में, प्यार
के आधार पर उन्हें एक–दूसरे से स्वतंत्र रूप से ऐक्यबद्ध करने में और अपने में
दिव्यात्मा की चेतना की प्राप्ति के जरिए ईश्वर के साथ जुड़ जाने में निहित है। यही
तोल्स्तोय द्वारा प्रस्तुत उस “सच्चे” ईसाई धर्म का आदर्श था जिसे वे ऐतिहासिक
विकृतियों से मुक्त और आत्म–परिष्करण के माध्यम से प्राप्य मानते थे। तोल्स्तोय का
मानना था कि राज्य, निजी सम्पत्ति, चर्च तथा आधुनिक सभ्यता, जो
सब जनता के लिए परकीय हैं, इस आदर्श को मूर्त रूप देने में बाधक
हैं और समस्त सामाजिक बुराइयों को जन्म देते हैं। फलत: वह राज्य को, अराजकतावादी
अवस्थिति के समीपस्थ होकर, नकारने की ओर तथा साथ ही विज्ञान और
संस्कृति की उपलब्धियों को भी नकारने की ओर प्रवृत्त होते हैं। इसके साथ ही,
वे
किसानों के श्रम और सामुदायिक जीवन का आदर्शीकरण करते हैं और सादा जीवन बिताने का
आह्वान करते हैं। तोल्स्तोय के अनुसार, मनुष्य केवल तभी स्वतंत्र होता है,
जब
वह ईश्वर की सेवा (भलाई) करता है। सामाजिक–ऐतिहासिक प्रक्रिया ईश्वर द्वारा
निर्देशित होती है और उसे जन–साधारण का कार्यकलाप मूर्त रूप देता है। आम जन से
सम्राट तक, सभी इतिहास के दास होते हैं। ‘कला क्या है ?’ शीर्षक अपनी
सौन्दर्यशास्त्र विषयक कृति में और अन्यत्र तोल्स्तोय ने कलात्मक सर्जना में
पतनशीलता और सरकारी संस्कृति का विरोध किया और कला की व्याख्या ऐसे कार्यकलाप के
रूप में की जिसे लोगों को ऐक्यबद्ध करना चाहिये और उन्हें अपने आदर्शों को मूर्त
रूप देने में सहायक बनना चाहिये। लेकिन “पृथ्वी पर ईश्वरीय राज्य” की स्थापना को
मनुष्यता का परम लक्ष्य मानने के चलते, उनकी यह भी स्थापना थी कि
नैतिक–धार्मिक अवधारणा को कला का मार्ग–दर्शन करना चाहिये।
तोल्स्तोय की असामान्य प्रतिभा का उच्च मूल्यांकन करने के साथ ही
लेनिन उनके विश्व–दृष्टिकोण के नकारात्मक पक्ष-“पेशेवर पादरियों
के स्थान पर अपनी नैतिक धारणा से प्रेरित होने वाले धर्माचार्य बैठाने की कोशिश”,
सामाजिक
बुराइयों के विरुद्ध सक्रिय संघर्ष की बजाय आत्मोद्धार और “हिंसा के अप्रतिरोध” की
नपुंसकतापूर्ण अपील-का भी उल्लेख करते हैं। वे बताते हैं कि तोल्स्तोय के विचारों और
कृतित्व के ये अन्तरविरोध और विसंगतियाँ अत्यन्त तीव्र हैं, लेकिन उन्होंने
इस बात पर जोर दिया कि ये तोल्स्तोय की अपनी सनकों की उपज नहीं हैं बल्कि “...उन
अत्यन्त जटिल, असंगत परिस्थितियों, सामाजिक प्रभावों एवं ऐतिहासिक
परम्पराओं का बिम्ब मात्र हैं जिनका सुधार (1861 के सुधार-सं.)
के बाद के, किन्तु क्रान्ति के पहले के युग के रूसी समाज के विभिन्न वर्गों और
तबकों की मनोवृत्ति पर गहरा असर पड़ा था।” लेनिन ने उस युग को तोल्स्तोय के युग का
नाम दिया और बताया कि रूसी जीवन के पुराने-भूदास प्रथात्मक-ढर्रे का निर्मम
ढंग से तोड़ा जाना तथा देश में नये बुर्जुआ सम्बन्धों का सुदृढ़ीकरण इस युग की मुख्य
विशेषताएँ थीं। वे बताते हैं कि “तोल्स्तोय की साहित्यिक गतिविधियों का आरम्भ इस
युग के आरम्भ से पहले और अन्त इसके अन्त के बाद हुआ,” लेकिन वह जोर
देते हैं कि “विचारक के रूप में तोल्स्तोय का पूर्ण विकास इसी युग में हुआ,
जिसकी
संक्रमणात्मक प्रकृति से तोल्स्तोय की रचनाओं तथा ‘तोल्स्तोयवाद’ की सभी
विशिष्टताएँ पनपीं।”
लेनिन, तोल्स्तोय द्वारा आधुनिक समाज में व्याप्त झूठ और पाखण्ड के विरोध,
पूँजीवादी
शोषण की निर्मम आलोचना और सरकारी दमनतंत्र के पर्दाफाश को रेखांकित करते हुए उनके
गम्भीर यथार्थवाद पर जोर देते हैं। वे लिखते हैं, “तोल्स्तोय की
महानता इस बात में है कि रूस में बुर्जुआ क्रान्ति से पहले लाखों रूसी किसानों में
जो भावनाएँ और विचार पनप रहे थे, उन्हें उन्होंने अभिव्यक्त किया है।
तोल्स्तोय की मौलिकता इस बात में है कि समूचे तौर पर उनके विचार किसानों की
बुर्जुआ क्रान्ति के रूप में हमारी क्रान्ति की विशेषताओं को ही व्यक्त करते हैं।”
लेनिन ने तोल्स्तोय की “विचार–समष्टि” और कृतित्व–समष्टि की विवेचना
करते हुए वस्तुगत यथार्थ और कलात्मक यथार्थ के अन्तर्सम्बन्धों का जो निरूपण
प्रस्तुत किया, उससे साहित्यिक–सौन्दर्यशास्त्रीय आलोचना का सर्वथा नया दृष्टिकोण और
नया मापदण्ड सामने आये। और यह स्वाभाविक ही प्रतीत होता है कि तोल्स्तोय के
विश्व–दृष्टिकोण और कृतित्व जैसी अत्यन्त जटिल वैचारिक परिघटना का विश्लेषण करते
हुए स्वयं विश्लेषण के उपकरणों को ही नई समृद्धि अर्जित हो जाये।
लेव निकोलायेविच तोल्स्तोय का जन्म रूसी साम्राज्य के तूला प्रान्त
की यास्नाया पोल्याना जागीर के मालिक, कुलीन भूस्वामी परिवार में 9
सितम्बर (पुराने कैलेण्डर के हिसाब से 28 अगस्त), 1828 को हुआ था।
उनके पिता काउण्ट निकोलाई इलिच तोल्स्तोय ने 1812
में नेपोलियन के हमले के विरुद्ध देशभक्तिपूर्ण युद्ध में हिस्सा लिया था।
तोल्स्तोय जब दो वर्ष के थे, तभी उनकी माँ मारिया निकोलायेव्ना का
देहान्त हो गया। 1837 में उनके पिता का भी देहान्त हो गया। एक वर्ष बाद उनकी दादी का और
फिर उनकी अगली अभिभाविका चाची अलेक्सान्द्रा का भी 1841 में निधन हो
गया। फिर देखभाल के लिए तोल्स्तोय को उनके चार भाई–बहनों के साथ कज़ान में एक और
चाची के पास भेज दिया गया। बचपन में तोल्स्तोय पर यास्नाया पोल्याना में रहने वाली
रिश्ते की एक बहन तात्याना अलेक्सान्द्रा यर्गोल्स्काया का गहरा प्रभाव पड़ा। युवा
होने के बाद तोल्स्तोय ने अपने कुछ सर्वाधिक मर्मस्पर्शी पत्र तात्याना को ही लिखे
थे। मौत की लगातार मौजूदगी के बावजूद, आगे चलकर, तोल्स्तोय ने
अपने बचपन के दिनों को बहुत सुखद रूप में याद किया है।
प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हासिल करने के बाद तोल्स्तोय ने पूर्वी
भाषाओं के अध्ययन के लिए 1844 में कज़ान विश्वविद्यालय में दाखिला
लिया, लेकिन उनका रिकार्ड अच्छा नहीं रहा। नतीजतन, वे विषय बदलकर
कानून का अध्ययन करने लगे। इस दौरान उन्होंने मोंतेस्क्यू की पुस्तक ‘कानूनों की
भावना’ और कैथेरीन द्वितीय की ‘विधि–संहिता के लिए निर्देश’ के तुलनात्मक अध्ययन
पर एक निबन्ध लिखा, जो लेखन के क्षेत्र में उनका प्रथम प्रयास था। जल्दी ही तोल्स्तोय
साहित्य और दर्शन के अध्ययन की दिशा में प्रवृत्त हुए। अंग्रेज उपन्यासकार लॉरेंस
स्टर्न, चार्ल्स डिकेंस और खास तौर पर प्रबोधनकालीन फ्रांसीसी दार्शनिक–लेखक
जां–ज़ाक रूसो के कृतित्व ने उन्हें प्रभावित किया। ज्ञातव्य है कि वे गले में
क्रॉस की जगह रूसो का चित्र जड़ा एक तमगा पहना करते थे। लेकिन इस दौरान उन्होंने
अपना ज्यादा समय अतिलम्पटता, शराबखोरी, जुएबाज़ी में
खर्च किया। 1847 में बिना डिग्री हासिल किये ही तोल्स्तोय यास्नाया पोल्याना लौट गये
तथा खुद को शिक्षित करने, जागीर सम्हालने और अपने भूदासों की
स्थिति में सुधार की योजनाएँ बनाने लगे। अपनी ज़िन्दगी बदलने की कोशिशों के बावजूद
तूला, मास्को और सेण्ट पीटर्सबुर्ग प्रवासों के दौरान उनके
भोग–विलास–व्यभिचार का सिलसिला जारी रहा। 1851 में वे काकेशस
चले गये जहाँ उनके बड़े भाई निकोलाई तोल्स्तोय सैन्य–सेवा में थे। तोल्स्तोय भी
सेना में भरती हो गये। इस दौरान उन्होंने स्थानीय काकेशियाई जनजातियों के विरुद्ध
सैन्य अभियानों में और क्रीमियाई युद्ध (1853–56) में हिस्सा लिया।
तोल्स्तोय की शुरुआती साहित्यिक परियोजनाओं की रूपरेखा उनकी 1851 की
डायरी में मिलती है, जिसमें ‘बीते हुए कल का इतिहास’ जैसी कई रचनाओं के कच्चे मसविदे या
रूपरेखाएँ मौजूद हैं। तोल्स्तोय 1847 से ही नियमित डायरी लिखते थे, जो
उनके आत्मविश्लेषण के प्रयोगों के लिए और उनके कृतित्व के लिए प्रयोगशाला की
भूमिका निभाती थी। चन्द एक व्यवधानों को छोड़कर, तोल्स्तोय
जीवनपर्यन्त डायरियाँ लिखते रहे। उनकी शुरुआती डायरियों में नियम बनाने के प्रति
एक विशेष रुझान दीखती है। सामाजिक और नैतिक व्यवहार के विभिन्न पहलुओं के लिए
तोल्स्तोय नियम बनाते थे और फिर उन नियमों का पालन करने में बार–बार असफल होते थे।
फिर पुराने नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिए वे कुछ और नये नियमों को
सूत्रबद्ध करते थे, उनका भी उल्लंघन करते थे, फिर आत्मभर्त्सना करते थे और यह सब कुछ
ब्यौरेवार डायरी में दर्ज़ करते थे। बाद के दिनों में तोल्स्तोय की यह मान्यता थी
कि जीवन इतना जटिल और अव्यवस्थित है कि नियमों और दार्शनिक प्रणालियों के अनुकूल
हो ही नहीं सकता। इस नतीजे तक पहुँचने में शायद उनके इन प्रारम्भिक प्रयोगों की भी
कहीं कुछ भूमिका रही हो। बहरहाल, तोल्स्तोय के उपन्यासों में जो
आत्मकथात्मक तत्व मौजूद रहते हैं, उसकी जड़ में उनके डायरी–लेखन की अवश्य
ही भूमिका रही है।
तोल्स्तोय काकेशस में बिताये गये दो वर्षों के एकाकी जीवन को अपने
आत्मिक विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण मानते थे। ‘बचपन’ उपन्यासिका तोल्स्तोय की
प्रकाशित होने वाली पहली रचना थी। यह प्रसिद्ध कवि नेक्रासोव द्वारा सम्पादित
पत्रिका ‘सोव्रेमेन्निक’ (‘समकालीन’) में 1852 में छपी। इसे
तोल्स्तोय ने अपनी पहचान छिपाकर, सिर्फ एल.एन. नाम से छपवाया। इसी क्रम
में तोल्स्तोय ने फिर ‘किशोरावस्था’ और ‘युवावस्था’ (1855–57) शीर्षक
उपन्यासिकाएँ लिखीं। तोल्स्तोय की मूल योजना चार खण्डों में ‘विकास के चार काल’
नामक वृहद आत्मकथात्मक उपन्यास लिखने की थी, जिसका चौथा खण्ड
‘युवा पौरुष’ लिखा नहीं जा सका और यह पूरी परियोजना उपन्यास–त्रयी के रूप में ही
फलीभूत हो सकी।
अपनी इन प्रारम्भिक अर्द्ध–आत्मकथात्मक उपन्यासिकाओं में तोल्स्तोय
ने 1840 के दशक के प्रारम्भिक प्रकृतवाद के यथार्थवादी सिद्धान्तों-वस्तुपरकता,
सटीकता
और विस्तृत वर्णन-का पालन करते हुए एक बच्चे, एक किशोर और एक युवा के मनोविज्ञान का
अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने अपने को मानव–प्रकृति का विश्लेषक बताया जो
चेतना के गुप्त नियमों को समझने की कोशिश में जुटा है। ‘बचपन’ का नायक निकोलेंका
इर्तनेव झूठ और कपट के हर रंग–रूप को पहचानना सीखता है, चाहे वह खुद
उसके भीतर हो या फिर दूसरे के भीतर। त्रयी के दूसरे और तीसरे भाग में, नायक
का आत्म–असन्तोष, और साथ ही उसकी मननशीलता और आत्म–विश्लेषण की प्रवृत्ति भी गहराती
चली जाती है। जीवन के अन्तरविरोधों का अमूर्त बोध और नैतिक परिशुद्धता की आग्रही
आकांक्षा दुर्निवार होती जाती है। निकोलेंका के अन्तर्जगत का अध्ययन, तोल्स्तोय
द्वारा बाद में किये गये, वर्ग–विशेषाधिकारों से रहित “प्राकृतिक
मनुष्य” के विश्लेषणों का पहला स्केच था।
क्रीमियाई युद्ध के दौरान तोल्स्तोय के खुद के अनुरोध पर उन्हें
सेवास्तोपोल भेज दिया गया। सैनिक जीवन और युद्ध की घटनाओं से तोल्स्तोय ने ‘एक
धावा’ (1853) और ‘जंगल–कटाई’ (1853–55) जैसी कहानियों तथा ‘दिसम्बर,
1854
में सेवास्तोपोल’, ‘मई, 1855 में सेवास्तोपोल’, और ‘अगस्त, 1855 में
सेवास्तोपोल’ जैसे रेखाचित्रों के लिए सामग्री जुटाई। ये सभी रचनाएँ
‘सोव्रेमेन्निक’ में प्रकाशित हुर्इं। दस्तावेज़ी रिपोर्टिंग और रचनात्मक तफ़सीलों
से युक्त, ‘सेवास्तोपोल के रेखाचित्र’ नामक बाद की तीन रचनाओं में युद्ध को
मानव–प्रकृति के प्रतिकूल, वीभत्स नरसंहार के रूप में प्रस्तुत
किया गया है। रूसी जनता पर इनका जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। इनमें से एक रेखाचित्र के
अन्त में तोल्स्तोय इस बात पर बल देते हैं कि सत्य उनका एकमात्र नायक है। यह
सूत्र–वाक्य तोल्स्तोय के समस्त उत्तरवर्ती कृतित्व का मार्गदर्शक सिद्धान्त बना
रहा। तोल्स्तोय की युगान्तरकारी सर्जनात्मकता को सबसे पहले समझने और रेखांकित करने
वालों में महान रूसी भौतिकवादी दार्शनिक लेखक, क्रान्तिकारी
जनवादी और काल्पनिक समाजवादी निकोलाई चेर्निशेव्स्की अग्रणी थे। उन्होंने
तोल्स्तोय की इन प्रातिनिधिक विशिष्टताओं को रेखांकित किया : पहला, मनोवैज्ञानिक
विश्लेषण की एक विशिष्ट कोटि के रूप में “आत्मा की द्वंद्वात्मकता” का निरूपण,
और
दूसरा, “उनके नैतिक बोध की निरपेक्ष शुद्धता।”
1855 में तोल्स्तोय सेण्ट पीटर्सबर्ग पहुँचे और ‘सोव्रेमेन्निक’ से जुड़े
साहित्यकारों -नेक्रासोव, तुर्गनेव, गोंचारोव और
चेर्निशेव्स्की आदि की मण्डली से निकटता से जुड़ गये। लेकिन अपनी चुभने वाली
अहम्मन्यता, किसी भी बौद्धिक खेमे से जुड़ने से इंकार और अपनी सम्पूर्ण निजी आजादी
पर जोर के कारण तोल्स्तोय तत्कालीन रैडिकल बुद्धिजीवियों के बीच जल्दी ही
अलोकप्रिय हो गये। आगे भी वे जीवनपर्यन्त तमाम प्रभावी बौद्धिक प्रवृत्तियों के
विरुद्ध रहे और सत्ता का सक्रिय विरोध तो वैसे भी उनके जीवन–दर्शन के प्रतिकूल था।
1856 में उनकी एक कहानी “एक ज़मींदार की सुबह’ प्रकाशित हुई जो वस्तुत:
‘एक रूसी ज़मींदार का उपन्यास’ नामक एक भावी परियोजना का एक अंश था। यह उपन्यास
अधूरा ही रह गया। इस रचना के बारे में लिखते समय, चेर्निशेव्स्की
वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने तोल्स्तोय के “किसानी” दृष्टिकोण को रेखांकित किया।
अपनी अगली कृति ‘अल्बर्ट’ नामक उपन्यासिका में दु्रझिनिन की मण्डली के प्रभाव में
तोल्स्तोय ने इस विचार का प्रतिपादन किया कि कलाकार वह व्यक्ति होता है जो स्वर्ग
से आई पवित्र अग्नि को ग्रहण करने के लिए ईश्वर द्वारा चुना गया होता है।
1857 में, पश्चिम यूरोप की पहली यात्रा से लौटने के बाद उसके अनुभवों के आधार
पर लिखी गयी तोल्स्तोय की कहानी ‘लूसर्न’ प्रकाशित हुई। इसमें लेखक ने बुर्जुआ
पाखण्ड, हृदयहीनता और सामाजिक अन्याय को हमले का निशाना बनाया है। यही आलोचना
आगे हमें तोल्स्तोय के ‘पुनरुत्थान’ (1899) उपन्यास और अन्य
निबन्धों–कहानियों में और अधिक परिपक्व एवं विकसित रूप में देखने को मिलती है। 1859
में उनकी एक और कहानी ‘तीन मौतें’ प्रकाशित हुई जिसमें एक कुलीन महिला इस सच्चाई
का सामना नहीं कर पाती कि वह मर रही है, एक किसान अपनी मौत को सामान्य ढंग से
स्वीकार करता है और अन्त में एक पेड़ का वर्णन है जिसका नितान्त स्वाभाविक अन्त
समस्त मानवीय कृत्रिमताओं का विलोम प्रतीत होता है। इन तीनों घटनाओं को लेखक की
अतीन्द्रिय चेतना परस्पर सम्बद्ध करती है।
1853–59 में ही तोल्स्तोय ने अपना उपन्यास ‘सुखी दम्पति’ पूरा किया जिसमें
परिवार की अलग–थलग स्थित, खुश–प्रसन्न दुनिया के आदर्श की तबाही
का चित्रण किया गया है। एक पत्नी के कर्तव्य, गुण और शादी में
उसके आत्मत्याग की तोल्स्तोयवादी अवधारणा इस कृति के निष्कर्ष के रूप में पहली बार
सामने आई है और उनकी उत्तरवर्ती कृतियों के ही समान, यहाँ भी,
तोल्स्तोय
की इच्छा से स्वतंत्र, यथार्थ का जो पहलू आलोकित होकर सामने आ गया है, वह
है परिवार संस्था में स्त्री की त्रासद नियति और मानव इतिहास का एक विकट
प्रश्नचिह्न-स्त्री–प्रश्न!
1863 में तोल्स्तोय ने एक कहानी लिखी, ‘खोल्सतोमर : एक
घोड़े की कहानी’ (‘इंसान और हैवान’) जो काफी बाद में, 1886 में प्रकाशित
हुई। यह कहानी तोल्स्तोय की प्रिय कलात्मक तकनीक-“अपरिचितिकरण”
(डिफ़ैमिलियराइजे़शन) के नाटकीय इस्तेमाल के लिए प्रसिद्ध है। इसमें किसी परिचित
सामाजिक चलन का वर्णन किसी ऐसे पर्यवेक्षक के “भोले–निष्कपट” नजरिए से किया जाता
है जो उस चलन को आम मानकर नहीं चलता। इस कहानी का मुख्य ‘नैरेटर’ एक घोड़ा है।
तोल्स्तोय की अन्य प्रारम्भिक रचनाओं की तरह इस कहानी में भी मानव समाज की
कृत्रिमता और परम्पराबद्धता पर व्यंग्य किया गया है। तोल्स्तोय के उपन्यास ‘कज्ज़ाक’
का भी मूल कथ्य इसी के इर्दगिर्द घूमता है। यह लघु उपन्यास लोक जीवन से कथावस्तु
उठाता है ओर उसे एक तरह की महाकाव्यात्मक शैली में प्रस्तुत करता है। काकेशस में
भव्य प्राकृतिक दृश्यों और सरल, शुद्ध–हृदय लोगों के बीच नायक को ऊँची
सोसाइटी के झूठ और पाखण्डपूर्ण जीवन का अहसास होता है ओर वह उसे छोड़ने का फैसला
करता है। तोल्स्तोय यह दिखलाते हैं कि दूसरों के साथ किसी के रिश्तों में ईमानदारी
स्वयं प्रकृति से आती है और उस व्यक्ति की चेतना से आती है जो प्रकृति के इतने
निकट होता है कि उसके साथ लगभग एकाकार हो गया रहता है।
अपने लेखन से, नागर कुलीन समाज से और साहित्यिक
मण्डलियों से असन्तुष्ट तोल्स्तोय ने 1850 के दशक के उत्तरार्द्ध में साहित्य
छोड़कर गाँव में जा बसने की सोची। 1859 से 1862 के बीच
उन्होंने कुछ समय यास्नाया पोल्याना में किसानों के बच्चों को शिक्षा देने और
शिक्षणशास्त्र के अध्ययन पर खर्च किया, विदेश यात्रा की और ‘यास्नाया
पोल्याना’ नामक शिक्षणशास्त्र की एक पत्रिका निकाली जिसमें रूढ़ पाठ्यक्रम और
औपचारिक अनुशासन से मुक्त अपारम्परिक शिक्षा विषयक अपने विचारों को प्रस्तुत किया।
साहित्यिक लेखन वे फिर भी नहीं छोड़ सके। वह भी जारी रहा।
1862 में सोफिया आन्द्रेयेव्ना से उनकी शादी हुई और अपनी जागीर में
अलग–थलग शान्त–सुखद पारिवारिक जीवन बिताते हुए तोल्स्तोय ने अपने जीवन के सर्वाधिक
सर्जनशील दौर में प्रवेश किया।
उच्च कुलीन पारिवारिक पृष्ठभूमि और पालन–पोषण वाले तोल्स्तोय ने 1850 के
दशक के उत्तरार्द्ध में, आम लोगों के हितों और आवश्यकताओं से
जुड़ने में अपने आत्मिक संकट का समाधान ढूँढ़ा। 1860–61 में उन्होंने
‘दिसम्बरवादी’ नामक उपन्यास लिखना शुरू किया था जिसका पहला खण्ड 1884
में छपा। इस उपन्यास में, समकालीन जीवन को समझने के लिए
तोल्स्तोय ने इतिहास की मदद लेने की कोशिश की थी। पोलिकुश्का (1861–63) कहानी
में उन्होंने आम किसानों के जीवन का वर्णन किया था। इसी नये अप्रोच और
महाकाव्यात्क शैली का संश्लेषण ‘कज़्ज़ाक’ में दीखता है, जो ‘युद्ध और
शान्ति’ में अपने चरमोत्कर्ष पर जा पहुँचता है।
‘युद्ध और शान्ति’ के चार खण्डों का लेखन तोल्स्तोय ने 1863 से
1869 के बीच किया। 1865 में इसके प्रकाशन की शुरुआत हुई।
‘युद्ध और शान्ति’ विश्व का महानतम उपन्यास ही नहीं बल्कि साहित्यिक
इतिहास की एक परिघटना है। ऐसी संजटिल, ऐतिहासिक–मनोवैज्ञानिक बहुसंस्तरीय
महाकाव्यात्मक कलात्मक संरचना के बारे में, एक हद तक
सरलीकरण का खतरा मोल लेते हुए कहा जा सकता है कि इसमें तीन तरह की सामग्री का दक्ष
संश्लेषण किया गया है-
(i) नेपोलियानिक युद्धों और रूसी जनता के एकजुट दुर्द्धर्ष प्रतिरोध का
ब्योरा (ii) औपन्यासिक चरित्रों का अन्तरंग एवं बहिरंग जीवन, परिवेश
और जीवन–दर्शन, तथा (iii) इतिहास–दर्शन विषयक तोल्स्तोय के विचारों को निरूपित करने वाले
निबन्धों की एक श्रृंखला। इनके सहायक पहलुओं के रूप में परिवार, विवाह,
स्त्रियों
की स्थिति, कुलीनों के निस्सार, जनविमुख, पाखण्डपूर्ण
जीवन आदि पर तोल्स्तोय के विचार और मौजूद स्थिति की प्रखर आलोचना भी कहानी के साथ
गुँथी–बुनी प्रस्तुत होती चलती है। विस्तृत ऐतिहासिक विवरण और मनोवैज्ञानिक
गहराइयों के साथ ही इतिहास–दर्शन विषयक अपने विचारों की निबन्धात्मक प्रस्तुति को
जिस दक्षता के साथ उपन्यास में पिरोया गया है, वह अद्वितीय और
विस्मित कर देने वाला है।
उपन्यास के ऐतिहासिक घटना–क्रम का ढाँचा 1805 का अभियान,
उसकी
परिणति के तौर पर ऑस्टरलित्ज के युद्ध में नेपोलियन की विजय और फिर 1812
में रूस पर नेपोलियन का आक्रमण है। मान्य धारणा के विरुद्ध, तोल्स्तोय ने
नेपोलियन को एक अप्रभावी, उन्मादी होने की हद तक अहम्मन्य और
विदूषक के रूप में तथा जार अलेक्सान्द्र प्रथम को एक मुहावरेबाज के रूप में
चित्रित किया है जिसको हरदम यही चिन्ता सताती रहती है कि इतिहासकार उसे किस रूप
में प्रस्तुत करेंगे। अतीत में अप्रतिष्ठा का शिकार हो चुके, प्रसिद्ध
रूसी जनरल मिखाइल कुतुजोव को उन्होंने एक ऐसे धैर्यवान बुजुर्ग के रूप में चित्रित
किया है जो मानवेच्छा और मानव–निर्मित योजनाओं की सीमाओं को समझता है। उपन्यास के
युद्ध–दृश्य विशेष उल्लेखनीय हैं जिनमें मुठभेड़ों को विशुद्ध अराजकता के रूप में
चित्रित किया गया है। जनरल ‘‘सभी आकस्मिक या सम्भाव्य घटनाओं के पूर्वानुमान’’ की
कल्पना कर सकते हैं, लेकिन युद्ध वास्तव में ‘‘करोड़ों विविध इत्तफाकों’’ का नतीजा होता है,
जिसका
फैसला ऐन वक्त पर, ऐसी परिस्थितियों द्वारा होता है जिनका पूर्वानुमान नहीं किया जा
सकता। तोल्स्तोय की मान्यता थी कि जीवन की ही तरह युद्ध में भी, किसी
प्रणाली, व्यवस्था या मॉडल को लागू करना मानव–व्यवहार की अनगिन जटिलताओं का
लेखा–जोखा तैयार करने जैसा काम होगा जो असम्भव है।
उपन्यास के दूसरे अर्द्धांश से इतिहास–दर्शन विषयक तोल्स्तोय के जिन
निबन्धों की बीच–बीच में पिरोई गई कड़ियों की शुरुआत होती है, उनमें
भी इतिहास के सामान्य नियमों को सूत्रबद्ध करने की कोशिशों का वे मजाक उड़ाते हैं
और सभी ऐतिहासिक विवरणों के अविवेकी सामान्यीकरणों के रूप में प्रस्तुत अभिधारणाओं
को खारिज करते हैं। तोल्स्तोय के विचार से, युद्ध की ही तरह
इतिहास भी मूलत:, आकस्मिकता का उत्पाद है, इसकी कोई दिशा नहीं होती, कोई
‘पैटर्न’ नहीं होता। ऐतिहासिक घटनाओं के कारणों में अनन्त वैविध्य होता है और वे
चिरन्तन अज्ञेय होते हैं और इसलिए, अतीत की व्याख्या का दावा करने वाला
ऐतिहासिक लेखन अनिवार्यत: उसका मिथ्याकरण करता है। ऐतिहासिक आख्यानों की
आकृति–संरचना घटनाओं की वास्तविक प्रक्रिया को नहीं, बल्कि साहित्यिक
मानदण्डों को परावर्तित करती है। तोल्स्तोय के इतिहास–विषयक इन ‘‘निबन्धों’’ के
अनुसार, इतिहासकार इसी से निकटता से जुड़ी अनेकों गलतियाँ करते हैं। प्राय: वे
मानकर चलते हैं कि इतिहास का निर्माण महान लोगों के विचारों और योजनाओं के अनुसार
होता है, चाहे वे सेनापति हों, राजनीतिक नेता हों या बुद्धिजीवी हों,
और
यह कि बड़े निर्णयों के लिए स्थिति पैदा करने वाले नाटकीय क्षणों द्वारा इसकी दिशा
तय होती है। जबकि इतिहास ऐसे आम लोगों के असंख्य छोटे–छोटे निर्णयों के कुल योग
द्वारा निर्मित होता है जिनके क्रियाकलाप इतने उल्लेखनीय नहीं होते कि दस्तावेजों
में दर्ज हो सकें। सामान्य की प्रभावोत्पादकता और प्रणाली–निर्माण की निरर्थकता
में तोल्स्तोय के इस विश्वास ने उन्हें अपने समय के तमाम क्रान्तिकारी जनवादी
विचारकों के खिलाफ खड़ा कर दिया। एक ओर इतिहास–निर्माण में सामान्य जन की भूमिका का
प्रतिपादन और उसकी परिणतियों के किसी सामान्य समीकरण की तलाश तथा दूसरी ओर,
इतिहास
के किसी भी आम नियम को सचेतन सैद्धान्तिक धरातल पर खारिज करना-यह
भी तोल्स्तोय के उस मूल दार्शनिक अन्तरविरोध की ही इतिहास–दर्शन के धरातल पर
अभिव्यक्ति है जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं।
समग्रता में, कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता और
आवश्यकता के बारे में, तथा इतिहास की चालक शक्ति के बारे में तोल्स्तोय के विचार सारत:
भाग्यवादी या दैवाधीनवादी हैं। स्वतंत्रता को वे तर्कणा से स्वतंत्र एक सहजवृत्तिक
जीवन–शक्ति के रूप में देखते हैं। लेकिन इसके साथ ही, वे जीवन की
प्रक्रियाओं के बोध, व्याख्या और विशदीकरण के लिए सतत् चेष्टारत रहते हैं। वे आवश्यकता और
स्वतंत्रता के द्वंद्वात्मक अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल करते हैं तथा असंख्य
व्यक्तियों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्तियों का सामान्यीकरण करते हैं। इन
अर्थ–सन्दर्भों में, वे अपने समकालीन सुप्रसिद्ध इतिहासकार ए. तियेर से (और
त्येरी, मिन्ये और गिज़ो जैसे पुन:स्थापनकाल के अन्य फ्रांसीसी इतिहासकारों से
भी) आगे थे। वर्ग संघर्ष के ऐतिहासिक यथार्थ को स्वीकारते हुए भी तियेर अपवाद
व्यक्तियों की कथित तौर पर स्वतंत्र कार्रवाइयों को इतिहास की चालक शक्ति मानते थे।
तोल्स्तोय के सूत्रबद्ध इतिहास–दर्शन से उनका कलात्मक व्यवहार अलग है।
यदि इतिहास–विकास के कुछ व्यापक सामान्य नियम नहीं होते तो उनके पात्रों द्वारा न
तो जीवन के अर्थ के तलाश की चेतना का कोई अर्थ होता, न ही
सामाजिक–नैतिक आचरण के किसी आम नियम की जरूरत होती और न ही तोल्स्तोय के उपन्यासों
में समकालीन जीवन के समस्त अन्तरविरोधों का सटीक परावर्तन ही सम्भव हो पाता।
तोल्स्तोय के कलात्मक प्रयोग स्वयं यहाँ उनके सचेतन इतिहास–दर्शन के विरुद्ध जा
खड़े होते हैं। जो सामने आता है वह इतिहास के नियमों की विजय है और यथार्थवाद की भी
विजय है।
युद्ध और शान्ति तोल्स्तोय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण विचारों और
अनुभूतियों को अभिव्यक्त करता है। राष्ट्रीय–सामुदायिक ऐक्य की भावना के साथ ही
उनका ‘यूटोपियावाद’ भी उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ के भूस्वामी कुलीन परिवारों
के जीवन की पुनर्रचना में स्पष्ट है। वे सेण्ट पीटर्सबुर्ग के दरबार और हाई
सोसाइटी के लोगों के मिथ्याभासी जीवन और राष्ट्र की कठिन परीक्षा की घड़ी में आम जन
से उनके कटाव को रूसी समाज के संकट का मुख्य कारण मानते हैं। दूसरी ओर, आम
लोगों के तात्विक जीवन के एक अंग के तौर पर उन्होंने रोस्तोव की देशभक्ति को
चित्रित किया है। ‘युद्ध और शान्ति’ में तोल्स्तोय व्यक्ति के रूप में मनुष्य के
आत्मचेतस् होने की पहली मंजिल वर्ग, जाति और सामाजिक मण्डलियों से उसका
आत्म–विमोचन मानते हैं, जैसा कि दरबार और शेरर की बैठक के प्रति अन्द्रेई बोल्कोंस्की और
पियेर बेजुखोव की उदासीनता के जरिए दिखलाया गया है। मनुष्य के आत्मचेतस् होने की
दूसरी मंजिल वह होती है जब वह अपनी वैयक्तिक चेतना को, व्यक्ति से परे,
व्यापकतर
विश्व के साथ एक कर देता है, आम जन के सत्य के साथ अभिन्न हो जाता
है, उसे आत्मसात कर लेता है। बोल्कोंस्की और बेजुखोव की आध्यात्मिक खोजें
अन्तरविरोधों से भरपूर हैं, लेकिन दोनों नायक अपनी अहम्मन्यता और
वर्ग–पार्थक्य को तोड़ने की ओर आगे बढ़ते हैं और गर्वपूर्ण मनोगतता से उबरकर अन्यों
के साथ, और सामान्य जनता के साथ, अपनी सम्पृक्तता के अहसास की दिशा में
विकसित होते हैं। ‘आन्ना कारेनिना’ के पात्र लेविन और ‘पुनरुत्थान’ के नेख्लुदोव
के साथ भी तोल्स्तोय ने यही होते हुए दिखलाया है।
‘युद्ध और शान्ति’ में तोल्स्तोय ने ‘‘देशभक्ति की गुप्त ऊष्मा’’ को
राष्ट्रीय रूसी अभिलाक्षणिकता के रूप में रेखांकित करते हुए, आम
सैनिकों के साहस, विनम्र आत्मसम्मान और न्याय में मौन–अविचल आस्था का प्रभावी चित्रण
किया है। जिन ऐतिहासिक चरित्रों को तोल्स्तोय ने कलात्मक स्वतंत्रता के साथ
चित्रित किया है, उनका उपन्यास में केन्द्रीय स्थान नहीं है। केन्द्र में तोल्स्तोय की
दार्शनिक चिन्ताओं–खोजों के निमित्त–पात्र हैं या फिर उन आम जनों के प्रतिनिधि
चरित्र हैं जिन्हें तोल्स्तोय किसी राष्ट्र के नियति–निर्धारक और भाग्य–विधाता
मानते हैं।
चरित्रों के जटिल अन्तर्सम्बन्धों के विकास के विस्तृत, प्रभावशाली
निरूपण के साथ ही रूसी भूदृश्य का अतुलनीय चित्रण ‘युद्ध और शान्ति’ की
महाकाव्यात्मक शैली की विशिष्टता है। क्लासिकी महाकाव्य के आधार के रूप में काम
करने वाली, भाग्य और भवितव्य की अवधारणाओं की जगह तोल्स्तोय ने स्वत:स्फूर्त गति
और जीवन के प्रवाह की अवधारणाओं को स्थापित किया है। नायक के परम्परागत विचार को
तोल्स्तोय अस्वीकार करते हैं : उनका नायक स्वयं जीवन है, व्यक्तिगत और
सार्वजनिक दोनों ही, एक सजीव ‘‘भीड़।’’ वे जीवन के विमन्द प्रवाह का, इसकी
खुशियों और दुखों–उदासियों का, जन्म, प्यार और मृत्यु
के शाश्वत क्षणों का तथा जीवन के सतत् पुनर्नवा होते रहने का आख्यान प्रस्तुत करते
हैं।
‘युद्ध और शान्ति’ में जीवन की बाह्य घटनाओं की अपेक्षा मनुष्य के
आन्तरिक जीवन पर अधिक जोर है। तोल्स्तोय के नायक लगातार जटिल अन्तर्संघर्षों,
अप्रत्याशित
मोहभंगों और अन्वेषणों तथा नई अर्न्दृष्टियों और नई शंकाओं से गुजरते रहते हैं।
लेखक सत्य और न्याय के लिए संघर्ष पर आधारित, सतत प्रवहमान
मनस्तात्विक प्रक्रिया का, एक तरह का विभ्रम रचता है। जीवन के
जड़त्व, एक नकारात्मक परिवेश के लोकाचार और आत्म–पराजय की क्षणिक मन:स्थितियों
के बावजूद, अन्वेषण की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है।
‘युद्ध और शान्ति’ के लेखन ने तोल्स्तोय की सारी क्षमता को निचोड़कर,
एकबारगी
तो उन्हें मानसिक थकान से चूर कर दिया। 1870 के दशक के
प्रारम्भिक वर्षों में वे एक बार फिर शिक्षण–शास्त्र विषयक अपने सरोकारों की ओर
उन्मुख हुए और बच्चों के लिए ‘एक प्रवेशिका’ (1871–72) तथा ‘एक नई
प्रवेशिका’ (1874–75) की रचना की जिनमें मौलिक लघुकथाओं के साथ ही परीकथाओं और नीति–कथाओं
के संशोधित रूपान्तरण भी शामिल थे। तोल्स्तोय ने ऐसी ही रचनाओं को मिलाकर कुल चार
‘रूसी रीडर’ तैयार किये। एक बार फिर वे यास्नाया पोल्याना के स्कूल में पढ़ाने लगे।
लेकिन, उनकी आन्तरिक दुनिया में जल्दी ही नये संकटों की उथल–पुथल शुरू हो
गयी। संशयवादी प्रवृति और आलोचनात्मक विश्लेषण की आदत के चलते परम्परागत धर्म में
उनका विश्वास नाममात्र का ही था। अब, व्यक्तिगत अनश्वरता में उनका विश्वास
भी चरमरा रहा था। 1870 के दशक में बुर्जुआ विकास के मार्ग पर रूस के संक्रमण से उत्पन्न
सामाजिक संकट के बोध ने उनके अपने नैतिक–दार्शनिक संकट को घनीभूत करने में
महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
तोल्स्तोय के आत्मसंघर्ष के इस नये पीड़ादायी दौर की
कलात्मक–सर्जनात्मक परिणति एक दूसरे महान उपन्यास ‘आन्ना कारेनिना’ के रूप में
सामने आई। 1873–77 के बीच के पाँच वर्षों का समय तोल्स्तोय ने इसके लेखन में लगाया। 1876–77
में इसका प्रकाशन हुआ।
महाकाव्यात्मक त्रासदी को नये दिक्–काल सन्दर्भों में पुनर्परिभाषित
करने का दबाव बनाने वाला यह महान उपन्यास अपराध या पाप के नैतिक प्रश्न को गहरे
ऐतिहासिक–सामाजिक सन्दर्भों में प्रस्तुत करते हुए, समाज और स्वयं
अपने जीवन के प्रति प्रत्येक व्यक्ति के उत्तरदायित्व को चिन्तन के केन्द्र में
उपस्थित करता है। इसके साथ ही, यह तत्कालीन रूसी जीवन के सभी बुनियादी
और केन्द्रीय अन्तरविरोधों को भी चित्रित करता है। सामाजिक जीवन की समस्याओं तथा
कला और दर्शन के प्रश्नों के साथ ही तोल्स्तोय ने इस उपन्यास में परिवार और नैतिक
जीवन की समस्याओं पर केन्द्रित करते हुए स्त्री–प्रश्न को गहरी दार्शनिक चिन्ता के
साथ प्रस्तुत किया है। उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास के प्रकाशन के बाद, तोल्स्तोय
गम्भीर विचारधारात्मक संकट के दौर से गुजरे, जिसकी परिणति के
तौर पर, बल के द्वारा बुराई के अप्रतिरोध का सिद्धान्त प्रतिपादित करते हुए
भी, वे मौजूद व्यवस्था की सभी बुनियादों को खारिज करने तथा सामाजिक ढाँचे
की निर्मम–बेलाग आलोचना करने की स्थिति तक जा पहुँचे।
उपन्यास की शुरुआत ओब्लिन्स्की परिवार से होती है, जहाँ
तमाम तकलीफ़ें झेलने वाली, धैर्यवान पत्नी डॉली को अपने खुशमिजाज़
और विलासप्रिय पति स्टिवा की बेवफ़ाई के बारे में पता चलता है। तोल्स्तोय ने डॉली
को उसकी दयालुता, परिवार का ख्याल रखने की उसकी आदत और दैनन्दिन जीवन के उसके सरोकारों
के साथ, उपन्यास के नैतिक कुतुबनुमा के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश की है।
इसके विपरीत, स्टिवा बदनीयत न होते हुए भी, फ़िज़ूलखर्ची और
बरबादी करता रहता है, परिवार की उपेक्षा करता है और सुख–भोग को जीवन का उद्देश्य मानता है।
स्टिवा का व्यक्तित्व शायद यह इंगित करने के लिए भी गढ़ा गया है कि अच्छे की तरह
बुरा भी, अन्ततोगत्वा इंसान द्वारा क्षण–प्रतिक्षण चुने जाने वाले छोटे–छोटे
नैतिक विकल्पों से ही निगमित–निर्धारित होता है।
स्टिवा की बहन आन्ना कठोर, गैर–रोमानी अलेक्सेई कारेनिन की वफ़ादार
पत्नी है। कारेनिन सरकारी मंत्री है और आम व्यवहार में अच्छा आदमी है। आन्ना का एक
छोटा बच्चा भी है-सेर्योझा। आन्ना अकसर अपनी कल्पना एक रोमानी उपन्यास की नायिका के
रूप में करती है और अपने वैवाहिक जीवन में रिक्तता और भावनात्मक अतृप्ति का उसका
अहसास गहराता चला जाता है। वह एक फ़ौजी अफ़सर अलेक्सेई व्रोन्स्की के प्रेम में पड़
जाती है। अन्ततोगत्वा वह बच्चे और पति को छोड़कर व्रोन्स्की के साथ चली जाती है।
सुखी परिवार और उसमें स्त्री के दायित्वों के बारे में अपने घनघोर प्रत्ययवादी,
पितृसत्तात्मक
सामुदायिक जीवन–समर्थक किसानी दृष्टिकोण के चलते तोल्स्तोय, समूचे उपन्यास
में यह इंगित करना चाहते हैं कि प्यार के जिस रोमानी ख्याल को ज्यादातर लोग प्यार
समझते हैं, उसका उन्नत किस्म के प्यार से और अच्छे परिवारों के अन्तरंग प्यार से,
कुछ
भी लेना–देना नहीं होता। उपन्यास जैसे–जैसे आगे बढ़ता है, आन्ना की
अन्तरात्मा पति और बच्चे को छोड़ने के लिए उसे ज्यादा से ज्यादा धिक्कारने लगती है।
गहरी मनोव्यथा उसे पागल जैसी मन:स्थिति में पहुँचा देती है और वह यथार्थ से पूरी
तरह कट–सी जाती है। अन्त में वह ट्रेन के आगे लेटकर आत्महत्या कर लेती है। जीवन के
बारे में वह शायद गलत ढंग से सोच रही थी, यह ख्याल उसके दिमाग में आता है,
जब
वह पटरी पर लेटी हुई है। पर तब तक देर हो चुकी रहती है।
तीसरी कहानी डॉली की बहन किटी से सम्बन्धित है जो पहले सोचती है कि
वह व्रोन्स्की से प्यार करती है, लेकिन बाद में उसे अहसास होता है कि
वास्तविक प्यार वह गहन आत्मीय अनुभूति है जो उसके भीतर परिवार के पुराने मित्र
कोन्स्तान्तिन लेविन के लिए मौजूद है। उनकी कहानी प्यार, विवाह और
पारिवारिक जीवन की सामान्य घटनाओं के इर्द–गिर्द आगे बढ़ती है, जिनमें
तमाम कठिनाइयों के बावजूद वास्तविक खुशी और सार्थक जीवन शक्ल अख्तियार करते हैं।
पूरे उपन्यास में लेविन मृत्यु के समक्ष जीवन के अर्थ जैसे दार्शनिक प्रश्नों से
जूझता रहता है। इन प्रश्नों का कभी उत्तर नहीं मिलता है, लेकिन लेविन जब
“सही ढंग से” जीवन बिताते हुए अपने परिवार और दैनन्दिन कामों में लग जाता है,
तो
ये प्रश्न गायब हो जाते हैं। अपने सर्जक तोल्स्तोय की ही भाँति लेविन भी
दार्शनिकों की चिन्तन–प्रणालियों को नकली तथा जीवन की जटिलताओं को पकड़ पाने में
अक्षम मानता है।
लेकिन लेविन सिर्फ इतना ही नहीं है। तोल्स्तोय–साहित्य में वह
बोल्कोंस्की, बेजुखोव (युद्ध और शान्ति) तथा नेख्लुदोव (पुनरुत्थान) की कतार का
पात्र है जो जीवन की सार्थकता की तलाश में अपने सरोकारों के प्रति सजग होते हैं,
अपने
दायित्व तय करते हैं और लोक–जीवन से जुड़ने की कोशिश करते हैं। साथ ही, उपन्यास
में लेविन किसानी यूटोपिया को स्वर देता है और भूदास–प्रथा को विस्थापित करने वाले
पूँजीवादी भूमि–सम्बन्धों की पड़ताल किसानी दृष्टि से करता है।
‘आन्ना कारेनिना’ के लेखन–काल तक तोल्स्तोय किसानों और “अन्तरात्मा के
मारे” कुलीन भूस्वामियों के हितों के बीच समन्वय–समझौते की सम्भावनाओं के प्रति
अपना विश्वास काफी हद तक खो चुके थे। 1860 के बुर्जुआ भूमि–सुधारों के नतीजों और
उनसे जनता के व्यापक मोहभंग ने तोल्स्तोय को विश्वास दिला दिया कि आकस्मिक सामाजिक
परिवर्तन पूरी तरह अनुपयोगी हैं। बुर्जुआ प्रगति के प्रभाव में पितृसत्तात्मक
व्यवस्था के अवशेषों के ध्वंस को वे गहरी चिन्ता–परेशानी के साथ देख रहे थे। वे यह
भी देख रहे थे कि मुद्रा के इर्दगिर्द जीवन को केन्द्रित कर देने वाली बुर्जुआ
प्रगति नैतिक मूल्यों को पतन की ओर धकेल रही है, पारिवारिक बन्धन
कमजोर पड़ रहे हैं और अपनी पुश्तैनी खेती और जंगल धनिक रियाबिनियों को बेच देने
वाले ओब्लोन्स्की परिवार जैसे अव्यावहारिक और झक्की कुलीन तबाह हो रहे हैं।
अपना ऐतिहासिक आशावाद खोते हुए तोल्स्तोय परिवार में और
पितृसत्तात्मक लोकाचारों में शरण और सम्बल ढूँढ रहे थे। जीवन में अर्थ की तलाश और
अर्थव्यवस्था तथा समाज–व्यवस्था की बुनियादों को समझने की लेविन की सभी कोशिशें
उसे एक बन्द गली के छोर पर ला खड़ा करती हैं। उसके तमाम व्यक्तिगत संकटों में
पारिवारिक सुख उसके लिए मजबूत सहारे का काम करता है और बूढ़े किसान फोकानिच का यह
मासूम–बचकाना विश्वास, कि वह “अपनी आत्मा की प्रेरणाओं का अनुपालन करता है और ईश्वर को याद
करता है।”
लेकिन कलाकार तोल्स्तोय की और उनके यथार्थवाद की महानता इस बात में
निहित है कि किसानी–धार्मिक यूटोपिया, पितृसत्तात्मकता के प्रति अतीतोन्मुख
लगाव और तात्कालिक मोहभंग और निराशा के बावजूद, उन्होंने
वास्तविक लोगों और वास्तविक चीजों को वहाँ और उसी रूप में देखा, जहाँ
और जिस रूप में वे मौजूद थीं। सामन्ती अभिजातों के अनिवार्य पतन–विघटन की
प्रक्रिया को रेखांकित करने के साथ ही बुर्जुआ समाज की मानव–द्रोही संस्कृति और
अनैतिकता को उन्होंने एकदम साफ नजर से देखा जो पितृसत्तात्मक समाज के तमाम
काव्यात्मक सम्बन्धों को आने–पाई के ठण्डे पानी में डुबो देती है। यह यथार्थवादी
तस्वीर तोल्स्तोय के दार्शनिक–वैचारिक समाधान के पक्ष पर हावी हो जाती है। जहाँ तक
तोल्स्तोय के दार्शनिक–वैचारिक समाधान के बचकानेपन का प्रश्न है, उसे
बुर्जुआ किसान क्रान्ति के युग की वैचारिक सीमा और कमजोरी की कलात्मक प्रतिछवि के
रूप में देखा जाना चाहिये।
आन्ना की कहानी के सूत्र लेविन की कहानी से आवयविक संश्लिष्टता के
साथ अन्तर्सम्बद्ध हैं। आन्ना खुद को अपनी भावनाओं के सुपुर्द कर देती है, विवाह
के बन्धन की अवहेलना करती है और नतीजतन, उस सबसे ऊँची अदालत में उसकी पेशी होती
है, जिसका हवाला लेखक द्वारा इस सूक्ति में दिया गया है :“प्रतिशोध मेरा
है। मुझे ही चुकाना होगा।” लेकिन इस अदालत के सामने आन्ना के मुकदमे में, उसके
व्यक्तित्व और उसके सामाजिक परिवेश की अनदेखी नहीं करनी होगी। नागरिक और धार्मिक
विधि–संहिताओं तथा कुलीन समाज की नैतिकता के असंख्य अलिखित रिवाज़ों–परिपाटियों के
द्वारा विवाह की कथित पवित्रता की हिफ़ाज़त की जाती है, लेकिन ईमानदार
भावनाओं–अनुभूतियों–कामनाओं का इनके लिए कोई मतलब नहीं। वे इन्हें बस
कुचलने–रौंदने का ही काम करती हैं। ज़िन्दगी के लिए आन्ना की तड़प भरी चाहत को कोई
रास्ता नहीं मिलता और वह समाज के पाखण्ड की चट्टानी दीवार से जा टकराती है।
लेविन के जीवन और डॉली की नैतिक मान्यताओं के बरक्स आन्ना की त्रासदी
को रखते हुए तोल्स्तोय अपनी रोमानी भावनाओं–कामनाओं के बहाव में बहकर जीने के बजाय
पारिवारिक पितृसत्तात्मक संरचना के भीतर त्याग और सरोकार के आधार पर पनपने वाले
“वास्तविक प्यार” को स्थापित करना चाहते हैं, लेकिन आन्ना के
अन्तर्जगत और बहिर्जगत का यथार्थ वस्तुपरक आधिकारिकता के साथ प्रस्तुत करते हुए वे
एक बार फिर “यथार्थवाद की विजय” का रास्ता साफ कर देते हैं। स्त्री की दोयम दर्जे
की स्थिति वाली सामाजिक संरचना में विवाह और परिवार की संस्थाओं पर, तोल्स्तोय
चाहें या न चाहें, प्रश्नचिह्न उठ खड़े होते हैं। समय की यात्रा तोल्स्तोयपंथी समाधान के
यूटोपिया को जितना साफ करती जाती है, उतने ही ये प्रश्नचिह्न विकट होते जाते
हैं।
स्त्री–प्रश्न पर तोल्स्तोय का चिन्तन और उसके अन्तरविरोध अलग से
अध्ययन का एक गम्भीर और दिलचस्प विषय है। इतिहास के लगभग उसी दौर में, रूस
के महान क्रान्तिकारी जनवादी दार्शनिक चेर्निशेव्स्की ने स्त्रियों की पारिवारिक
गुलामी से मुक्ति और सामाजिक जीवन में भागीदारी के साथ ही क्रान्तिकारी संघर्ष में
भी उनकी भूमिका पर बल दिया। ‘क्या करें’ उपन्यास में उन्होंने एक ऐसा
स्त्री–चरित्र प्रस्तुत किया जिसने संकीर्ण पारिवारिक दायरे से मुक्त होकर अपनी
स्वतंत्र सामाजिक–आर्थिक स्थिति बनाई थी और जो सामाजिक सक्रियताओं में भी संलग्न
थी। इसी समय इंग्लैण्ड में जॉन स्टुअर्ट मिल की पुस्तक ‘स्त्री की पराधीनता’
प्रकाशित हुई थी। फ्रांस में स्त्रियों की पारिवारिक गुलामी और सामाजिक असमानता की
आलोचना करने वाले, लेखिका जार्ज सांद के उपन्यास कुछ दशक पहले ही छपकर चर्चित हो चुके
थे। यही समय था जब मार्क्स और एंगेल्स ने परिवार की पुरुषवर्चस्ववादी संरचना पर
सवाल उठाते हुए बुर्जुआ समाज में विवाह को “संस्थाबद्ध वेश्यावृत्ति” का नाम दिया
था। अपनी दार्शनिक अवस्थिति के प्रतिगामी चरित्र के बावजूद महान मानवतावादी और
यथार्थवादी कलाकार होने के नाते तोल्स्तोय ने (यूटोपियाई, अतीतोन्मुख
समाधान सुझाने के बावजूद) परिवार और समाज में घुटती–पिसती स्त्री के यातनामय
अन्तर्जगत और बहिर्जगत को वास्तविक रूप में यों चित्रित किया कि निरूपित स्थितियों
के भीतर से परिवार और विवाह की पुरुषवर्चस्ववादी संरचना को कटघरे में खड़ा कर देने
वाले प्रश्नचिह्न उभर आये। आगे चलकर, ‘पुनरुत्थान’ उपन्यास में भी, हालाँकि
मूल कथा नेख्लुदोव के चरित्र के आत्मिक विकास के इर्द–गिर्द आगे बढ़ती है, लेकिन
कात्यूशा का जीवन स्त्री–प्रश्न का एक नया आयाम प्रस्तुत करने लगता है।
‘आन्ना कारेनिना’ का दायरा हालाँकि ‘युद्ध और शान्ति’ की अपेक्षा
संकुचित है, लेकिन इस उपन्यास के चरित्र अधिक जटिल हैं। वे अधिक संवेदनशील प्रतीत
होते हैं और उनके आन्तरिक तनाव और चिन्ताएँ उपन्यास में समग्र जीवन की अनिश्चितता
और अस्थायित्व के परिवेश को परावर्तित करती हैं। ‘युद्ध और शान्ति’ की अपेक्षा
चरित्रों के आन्तरिक जीवन का चित्रण भी यहाँ अधिक परिष्कृत और संश्लिष्ट रूप में
हुआ है। अपनी पूर्ववर्ती रचनाओं में भी तोल्स्तोय ने नायक की आत्मा के भीतर चल रहे
संघर्ष को आन्तरिक एकालाप की युक्ति के माध्यम से दर्शाया है तथा मनोवैज्ञानिक
स्थितियों को दर्शाने के लिए ऊपरी तौर पर अप्रासंगिक लगने वाले वर्णनों–विवरणों को
प्रस्तुत करने की युक्ति अपनाई है, लेकिन ‘आन्ना कारेनिना’ में प्यार,
मोहभंग,
ईर्ष्या,
निराशा,
आत्मिक–प्रबोधन
आदि की परिष्कृत अभिव्यक्ति के लिए उपरोक्त प्रविधियों का अधिक दक्ष और अधिक
कलात्मक इस्तेमाल किया गया है।
‘आन्ना कारेनिना’ एक हद तक आत्मकथात्मक उपन्यास भी है। इसे लिखते हुए
तोल्स्तोय अपने समय और अपने खुद के जीवन के बारे में स्वयं ही स्पष्ट होने की
प्रक्रिया से गुजर रहे थे। उपन्यास में जिन समस्याओं को उठाने और हल करने की कोशिश
की गयी थी, उनके प्रति तोल्स्तोय के सरोकार ने 1870 के दशक के अन्त
में उन्हें एक नये विचारधारात्मक संकट के भँवर में धकेल दिया और पितृसत्तात्मक
किसानी नजरिए के प्रति उनकी पक्षधरता भी संकटग्रस्त हो गयी।
1880 और 1890 के दशक तक तोल्स्तोय की विचार–यात्रा उस दौर में प्रविष्ट हो चुकी
थी जहाँ वे तत्कालीन व्यवस्था और उसकी समस्त सामाजिक एवं नैतिक आधारशिलाओं को
खारिज करने लगे थे। जैसा कि लेनिन ने लिखा था : “मानवता की मुक्ति के लिए नया
रामबाण खोज लेने वाले पैगम्बर के रूप में तोल्स्तोय बेतुके हैं... बुर्जुआ
क्रान्ति के समय लाखों रूसी किसानों के बीच उभरने वाले विचारों और भावनाओं के
प्रवक्ता के रूप में तोल्स्तोय महान हैं।”
तोल्स्तोय का नया विश्व–दृष्टिकोण ‘एक आत्मस्वीकृति’ (1979–80,
1884
में प्रकाशित) और ‘जो मेरा विश्वास है’ (1982–84) नामक कृतियों
में सम्पूर्णता के साथ अभिव्यक्त हुआ है। तोल्स्तोय की यह धारणा पक्की हो चुकी थी
कि समाज के ऊँचे तबके के कुलीनों का जीवन झूठा, नकली और
पाखण्डपूर्ण है। अपरिहार्य मृत्यु के सामने, जीवन के
मिथ्याभिमानी आडम्बर के बारे में उनके नये बोध ने उनके धार्मिक विश्वासों को और
अधिक मजबूत बनाया। समाज के जीवन के बारे में उनके नतीजे भी उतने ही फैसलाकुन थे।
अतीत में वे प्रगति की भौतिकवादी और प्रत्यक्षवादी सिद्धान्तों की आलोचना करते हुए
चेतना की अकृत्रिम निष्कपटता की वकालत किया करते थे। अब वे राज्य और
राज्य–प्रायोजित चर्च के साथ ही अपने खुद के वर्ग (उच्च कुलीन भूस्वामी) की
जीवन–शैली और विशेषाधिकारों की भी तीखी आलोचनाएँ करने लगे थे तथा भूदासता, भौतिकवाद
और नौकरशाही से पैदा होने वाली सामाजिक–नैतिक–आत्मिक विकृतियों को हमलों का निशाना
बनाने लगे थे।
समाज के बारे में तोल्स्तोय की यह नयी दृष्टि उनके नैतिक और धार्मिक
दर्शन के साथ गुँथी–बुनी हुई थी। उनके चिन्तन का धार्मिक पक्ष अपने समग्र रूप में
‘मताग्रही धर्मशास्त्र की पड़ताल’ (1879–80) और ‘चार
सुसमाचारों का एकीकरण और अनुवाद’ (1880–81) के रूप में
सामने आया और तोल्स्तोयपंथ की बुनियाद बना जिसे लेनिन ने तोल्स्तोय के चिन्तन का
सबसे पिछड़ा हुआ पहलू बताया है। तोल्स्तोय का विचार था कि जनता को प्यार और
पारस्परिक क्षमा–भाव की सार्वभौमिक स्पिरिट से ऐक्यबद्ध करने के लिए ईसाइयत को
अपने पुनर्नवीकृत रूप में युगों पुरानी विकृतियों और भोंड़े चर्च–अनुष्ठानों से
मुक्त होना होगा। गौरतलब है कि धर्म के सामन्तवादी और पूँजीवादी संस्करणों की मूल
भावना से बेमेल होने के कारण स्थापित धर्मों के लिए तोल्स्तोय के धार्मिक विचार
नास्तिकता और भौतिकवाद जैसे ही “भयानक” बने रहे। अपने इन विचारों के गहन
अन्तरविरोधों को तोल्स्तोय जीवनपर्यंत नहीं सुलझा पाये और एक सम्प्रदाय के रूप में
तोल्स्तोयपंथ जल्दी ही अप्रासंगिक हो गया, लेकिन तोल्स्तोय के मानवतावाद और
यथार्थवाद की चमक आज तक कायम है। सामाजिक बुराइयों की आलोचना करते हुए भी
तोल्स्तोय उनके प्रति निष्क्रिय अप्रतिरोध की नीति अपनाने की वकालत करते थे। उनका
मानना था कि बुराइयों का प्रतिकार बल द्वारा नहीं किया जाना चाहिये, बल्कि
उन्हें जनता की नजरों के सामने उजागर किया जाना चाहिये और सत्ता के प्रति
निष्क्रिय अवज्ञा का रुख अपनाया जाना चाहिये। उनका विश्वास था कि नैतिक–आत्मिक
शुद्धता प्राप्त करने के असंख्य व्यक्तियों के अनगिन प्रयासों के जरिए व्यक्ति और
मानवता का पुनर्नवीकरण होता है। इसलिए वे राजनीतिक संघर्षों और क्रान्तिकारी
उभारों के महत्व से इंकार करते हैं।
1880 के दशक में, साहित्यिक रचनात्मकता और अपने पुराने
कृतित्व को “कुलीनों के शगल” के रूप में खारिज करते हुए तोल्स्तोय शारीरिक श्रम पर
आधारित सादगी–भरे जीवन पर जोर देने लगे, खेत जोतने लगे, अपने जूते भी
खुद बनाने लगे और शाकाहारी हो गये। इस दौरान, स्वयं अपने
परिवार की जीवन–शैली के प्रति उनका असन्तोष गहराता चला गया। ‘तब हमें क्या करना
चाहिये’ (1882–86) और ‘हमारे समय की गुलामी’ (1899–1900) नामक प्रचारपरक
कृतियों में उन्होंने बुर्जुआ सभ्यता की बुराइयों की तीखी आलोचना करते हुए,
समाधान
के तौर पर, नैतिक एवं धार्मिक आत्मविकास की यूटोपियाई अपीलें कीं।
साहित्य–सर्जना से तोल्स्तोय, घोषणाएँ करने के
बावजूद, खुद को कभी दूर नहीं कर पाये। एक धार्मिक–दार्शनिक के रूप में जीवन
की समस्याओं के खुद द्वारा प्रस्तुत समाधानों के प्रति उनका जो असन्तोष–अविश्वास
अन्तस्तल के अँधेरे कोनों में गहरे पैठा रहता था, शायद यथार्थवादी
कलाकार तोल्स्तोय उन्हें कुरेदकर बाहर लाता था और जीवन को यथातथ्यत: प्रस्तुत करने
पर बल देता था ताकि इतिहास–प्रवाह समाधानों को अपनी स्वचलित आन्तरिक गति से
अवक्षेपित कर सके।
1880 के बाद का तोल्स्तोय का साहित्यिक लेखन प्रकरण–केन्द्रिक चरित्र
वाला और नैतिक निदेशनों से भरपूर है। लेकिन इनमें तोल्स्तोय का आलोचनात्मक
यथार्थवादी स्वर भी पहले की अपेक्षा अधिक प्रखर रूप में सामने आया है। वे
अन्यायपूर्ण अदालतों, विवाह की संस्था, भूस्वामित्व और चर्च पर सीधे हमला करते
हैं और पाठकों की अन्तरात्मा, तर्कणा तथा आत्मसम्मान–बोध से भावाकुल
अपीलें करते हैं।
अपने दो प्रसिद्ध लघु उपन्यासों ‘इवान इलिच की मौत (1886) और
‘क्रूज़र सोनाटा’ (1889) में तोल्स्तोय मुख्यत: अभिजातों के
जीवन के खोखलेपन और पाखण्ड को उजागर करते हैं। ‘इवान इलिच की मौत’ एक सामान्य आदमी
की कहानी है जिसे मौत की दहलीज पर अपने व्यतीत जीवन की निरर्थकता का अहसास होता है।
इवान इलिच के जीवन के अन्तिम क्षणों की अनुभूति धार्मिक मुक्ति विषयक तोल्स्तोय की
अवधारणा को प्रस्तुत करती है, लेकिन इन मिथ्याभासों के ऊपर रचना का
गम्भीर मनोवैज्ञानिक यथार्थवाद हावी है। अगली दो उपन्यासिकाओं ‘क्रूज़र सोनाटा’ और
‘शैतान’ (1889–90, 1911 में प्रकाशित) में ऐन्द्रिक प्यार और वासना के विरुद्ध संघर्ष को
विषय बनाया गया है और नि:स्वार्थ प्यार के ईसाई सिद्धान्त की वकालत की गयी है,
लेकिन
यहाँ भी तोल्स्तोय के धर्मोपदेश के पहलू पर वस्तुस्थिति का आलोचनात्मक यथार्थवादी
चित्रण हावी है।
व्यापक आम जनता तक पहुँच के लिए अधिक सम्प्रेषणीय और सरल भाषा में
लिखने की जरूरत तोल्स्तोय लम्बे समय से महसूस कर रहे थे। इसे मूर्त रूप देते हुए 1880 और
1890 के दशक में उन्होंने ‘लोग कैसे ज़िन्दा रहते हैं’, ‘मोमबत्ती’,
‘दो
बूढ़े आदमी’ और ‘एक आदमी को कितनी जमीन चाहिये ?’ जैसी लोककथानुमा
नीतिकथाएँ तथा ‘मालिक और आदमी’ जैसी कहानी लिखी।
1880 के दशक में तोल्स्तोय ने नाटक के क्षेत्र में भी कुछ गम्भीर काम
किया। 1887 में प्रकाशित प्रयोगपरक नाटक ‘अन्धकार की शक्ति’ लोक शैली में लिखा
गया है जो गाँवों पर शहरी सभ्यता के दुष्प्रभावों का यथार्थवादी चित्रण प्रस्तुत
करता है। दूसरा नाटक ‘प्रबोधन के फल’ (1886–90, 1891 में प्रकाशित)
एक कामदी है जिसमें एक जागीर के निठल्ले मालिकों की नैतिकता, उनके
झक्कीपन, सनक और समय बिताने के तौर–तरीकों को प्रस्तुत किया गया है जो किसानों
की निर्धनता और कठिन जीवन की पृष्ठभूमि में भद्दे–अश्लील और अपमानजनक प्रतीत होते
हैं।
1890 के दशक में तोल्स्तोय ने कला और सौन्दर्यशास्त्र विषयक अपने विचारों
को सूत्रबद्ध करते हुए उनका सैद्धान्तिकीकरण करने की कोशिश की। उन्होंने पतनशील
कला के बरक्स उस कला को खड़ा किया जिसकी अन्तर्वस्तु गम्भीर हो तथा जिसके
उच्च–उदात्त नैतिक–धार्मिक आदर्श हों। अपने प्रसिद्ध निबन्ध ‘कला क्या है’ (1897–98)
में
उन्होंने कला के द्वारा अनुप्रेरण या संसर्गात्मक प्रभाव का सिद्धान्त विकसित किया
जिसके अनुसार, कला में, लेखक या कलाकार पंक्तियों, ध्वनियों, रंगों और
बिम्बों के माध्यम से अपनी अनुभूतियों को संचरित–संक्रमित करता है और
पाठक–दर्शक–श्रोता तक सम्प्रेषित ये अनुभूतियाँ उसके अपने भावनात्मक अनुभव का आधार
बन जाती हैं। तोल्स्तोय के अनुसार, “कला की मुख्य महत्ता यह है कि यह जनता
को ऐक्यबद्ध करती है।”
1884 में तोल्स्तोय के अनुयायी और मित्र चेर्तकोव और गोर्बुनोव–पोसादोव
ने आम लोगों तक तोल्स्तोयपंथी विचारों को पहुँचाने के लिए एक प्रकाशन गृह खोला
जिसमें उन्होंने भरपूर मदद की। रूस में कठोर सेंसरशिप के कारण तोल्स्तोय की
बहुतेरी किताबें जेनेवा और लन्दन से छपीं। 1891, 1893 और 1894
में तोल्स्तोय ने रूस के अकाल–पीड़ित राज्यों में किसानों के लिए राहतकार्य संगठित
करने में हिस्सा लिया। अलेक्सान्द्र तृतीय और निकोलस द्वितीय को लिखे गये अपने
पत्रों में उन्होंने निरंकुश स्वेच्छाचारी दमन और सत्ता के मनमानेपन के विरुद्ध
अपना विरोध मुखर रूप में प्रकट किया।
1890 के दशक तक यास्नाया पोल्याना न सिर्फ रूसी, बल्कि पूरी
दुनिया के साहित्यकारों–संस्कृतिकर्मियों के लिए एक तीर्थस्थल बन चुका था।
पुनरुत्थान
1890 के दशक में तोल्स्तोय की प्रमुख रचना उनका तीसरा विश्वविख्यात
उपन्यास ‘पुनरुत्थान’ (1889–99) है जिसका प्लॉट एक वास्तविक मुकदमे पर
आधारित है। उपन्यास का नायक एक कुलीन जागीरदार द्मीत्री नेख्लुदोव है जो कात्यूशा
मास्लोवा नामक एक वेश्या पर चलाये जाने वाले मुकदमे में जूरी का सदस्य है। वह
कात्यूशा को सहसा पहचान लेता है। कभी वह एक मासूम गरीब लड़की के रूप में नेख्लुदोव
की जागीर में लाई गई थी और नेख्लुदोव ने उसका यौन–शोषण किया था। नेख्लुदोव
कात्यूशा की जिन्दगी को पतन की राह पर धकेलने के लिए स्वयं को जिम्मेदार महसूस
करता है और उसकी अन्तरात्मा उसे धिक्कारने लगती है। कात्यूशा को जब
साइबेरिया–निर्वासन का दण्ड मिल जाता है तो नेख्लुदोव अपनी आराम की जिन्दगी छोड़कर
उसके पीछे जाने का, और यदि वह राजी हो तो उससे शादी करने का फैसला करता है। उपन्यास के
एक महत्वपूर्ण संवाद में कात्यूशा नेख्लुदोव को फटकार लगाती है कि एक बार तो उसने
उसे आनन्दोपभोग के लिए इस्तेमाल किया और अब उसी के जरिए अपनी मुक्ति चाहता है। वह
शादी से इंकार कर देती है। इस पूरी प्रक्रिया में, तोल्स्तोय का
आविष्कार कात्यूशा के आन्तरिक पुनरुत्थान की गाथा है। साथ ही प्रिन्स नेख्लुदोव का
भी एक तरह का नैतिक पुनर्जन्म होता है। ‘पुनरुत्थान’ एक नये प्रकार का उपन्यास था
जिसमें पात्रों के गहन आत्मसंघर्ष और रूपान्तरण के साथ ही, सेण्ट
पीटर्सबुर्ग के दरबार के लोगों और ग्रामीण कुलीनों से लेकर किसानों, कैदियों
और साइबेरिया–निर्वासन पर जा रहे कैदियों के चरित्रों के माध्यम से तत्कालीन रूस
के समूचे, वैविध्यपूर्ण सामाजिक परिदृश्य को एक इतिहासकार–सदृश वस्तुपरकता और
आधिकारिकता के साथ उपस्थित कर दिया गया है। कात्यूशा का मुकदमा और उसमें जूरी
सदस्य के रूप में नेख्लुदोव की उपस्थिति सामाजिक अन्याय पर आधारित जीवन की
निरर्थकता और न्यायतंत्र की कुरूपता को एकदम नंगा कर देती है।
‘पुनरुत्थान’ में तोल्स्तोय सरकार, न्यायालय,
चर्च,
कुलीन
भूस्वामियों के विशेषाधिकारों, भूमि के निजी स्वामित्व, मुद्रा,
जेलों
और वेश्यावृत्ति की मर्मभेदी आलोचना करते हैं। धनी और शक्तिशाली लोगों द्वारा
उत्पीड़ित निम्न वर्गों के प्रति सहानुभूति–प्रदर्शन पर उपन्यास तीखा व्यंग्य करता
है। किसानों, क्रान्तिकारियों और निर्वासित अपराधियों सहित सामान्य जनसमुदाय का
चित्रण करते हुए तोल्स्तोय का जोर इस बात पर है कि उत्पीड़न और अधिकारहीनता ने आम
जन की आत्मिक शक्तियों को पंगु बना डाला है। ‘पुनरुत्थान’ में चर्च के अनुष्ठानों
को हमले का निशाना बनाने के कारण 1901 में रूसी आर्थोडाक्स चर्च की ‘पवित्र
धर्मसभा’ ने तोल्स्तोय को पंथ–बहिष्कृत कर दिया।
बीसवीं शताब्दी की दहलीज पर, समाज में जिस बढ़ते–गहराते अलगाव के
तोल्स्तोय साक्षी हो रहे थे, उसने उनकी व्यक्तिगत और नैतिक
जिम्मेदारियों और सामाजिक चिन्ताओं–सरोकारों को और अधिक गहन–गम्भीर बनाने का काम
किया। इस प्रक्रिया ने सघन आन्तरिक सन्ताप, प्रबोधन या
ज्ञानप्राप्ति की अवधियों और नैतिक संकटों से गुजरने के बाद तोल्स्तोय को वहाँ
पहुँचा दिया जहाँ वे अपने परिवेश से ही बेगाने हो गये। जीवन के विभिन्न दायरों से
साक्षात्कार कराती घटनाओं की श्रृंखला का प्रयोग और नायकों के नये टाइपों का सृजन-तोल्स्तोय
की इस दौर की रचनाओं की अभिलाक्षणिक विशिष्टता है। इसके प्रतिनिधि उदाहरण
‘पुनरुत्थान’ के अतिरिक्त हाजी मुराद (1896–1904, 1912 में प्रकाशित),
नकली
कूपन (1902–1904, 1911 में प्रकाशित) और असमाप्त कथा ‘कोई व्यक्ति दोषी नहीं’ (1911
में प्रकाशित) हैं।
इस दौर की तोल्स्तोय की कुछ अन्य रचनाओं के प्लॉट पूर्व–धारणाओं के
परित्याग, आकस्मिक और जबर्दस्त व्यक्तिगत संकट और एक नये विश्वास की ओर झुकाव
जैसी घटनाओं और प्रवृत्तियों से गुँथे–बुने हैं। फादर सेर्जियस (1890–98,
1912
में प्रकाशित), सजीव मुर्दा (1900, 1911 में प्रकाशित), नाच के बाद (1903,
1911
में प्रकाशित) और ‘बड़ेफेदोर कुजमिच की मरणोपरान्त प्रकाशित टिप्पणियाँ’ (1905–1912
में प्रकाशित) ऐसी रचनाओं के प्रतिनिधि उदाहरण हैं।
‘हाजी मुराद’ उपन्यासिका और ‘सजीव मुर्दा’ नाटक तोल्स्तोय के जीवन के
संध्याकाल की आखिरी महत्वपूर्ण रचनाएँ मानी जा सकती हैं। ‘हाजी मुराद’ में
तोल्स्तोय एक काकेशियन नेता शमील और निकोलस प्रथम की स्वेच्छाचारी निरंकुशता की
समान तीक्ष्णता के साथ आलोचना करते हैं और अपनी प्रारम्भिक उपन्यासिका ‘कज्जाक’ की
ही तरह प्राकृतिक मनुष्य की नैसर्गिकता और शुद्धता पर बल देते हैं। उल्लेखनीय है
कि इस रचना में निष्क्रिय अप्रतिरोध के अपने ही सिद्धान्त के खिलाफ खड़े होते हुए
तोल्स्तोय जीवन के प्रति प्यार के साथ ही साहसिक संघर्ष और प्रतिरोध की गरिमा को
भी महिमामण्डित करते हैं। ‘सजीव मुर्दा’ एक प्रयोगात्मक नाट्य–कृति है जो फेदिया
प्रोतासोव द्वारा अपने परिवार और अपने परिवेश के परित्याग की कहानी है, जहाँ
रहने में उसे शर्म महसूस होने लगी है। ‘सबटेक्स्चुअल’ मनोवैज्ञानिक स्तर पर और
बहुस्तरीय संवाद के सन्दर्भ में इस नाटक की चेखव के नाटकों के साथ कुछ समानताएँ
लक्षित की जा सकती हैं।
अपने जीवन के अन्तिम दशक के दौरान तोल्स्तोय साहित्यिक यथार्थवाद की
मुखर पक्षधरता के साथ ही पतनशील बुर्जुआ कलात्मक प्रवृत्तियों–रुझानों का मुखर
विरोध कर रहे थे। रूसी साहित्य के वे निर्विवाद शीर्षस्थ व्यक्तित्व थे। कोरोलेंको,
चेखव,
गोर्की
आदि से उनके अन्तरंग भावनात्मक सम्बन्ध थे। विभिन्न सामाजिक–राजनीतिक मुद्दों पर
अपील जारी करने और लेख लिखने जैसी उनकी प्रचारपरक गतिविधियाँ लगातार जारी थीं।
तोल्स्तोयपंथ जब एक विश्वविख्यात सिद्धान्त के रूप में स्थापित हो
रहा था, तब तक स्वयं तोल्स्तोय ही उसकी सार्थकता और तर्कसंगति के बारे में
संशय प्रकट करने लगे थे। 1905–07 की रूसी क्रान्ति की ओर अग्रसर
घटना–प्रवाह उनके पितृसत्तात्मक आदर्शों के लिए निर्णायक परीक्षा का समय था। 1908
में मृत्युदण्ड के विरुद्ध जोरदार शब्दों में विरोध प्रकट करते हुए उन्होंने अपना
विश्व–प्रसिद्ध लेख लिखा था : ‘मैं चुप नहीं रह सकता।’
यास्नाया पोल्याना में अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में तोल्स्तोय भी
कुछ–कुछ अपने नाटक ‘सजीव मुर्दा’ के नायक फेदिया प्रोतासोव जैसा ही महसूस करने लगे
थे। गहराते पारिवारिक कलह में एक ओर उनकी पत्नी थीं, दूसरी ओर शेष
तोल्स्तोय परिवार। जागीर में जिन्दगी के इस ढर्रे से तंग आकर और अपने विश्वासों के
साथ अपनी जीवन–शैली की संगति बैठाने के उद्देश्य से तोल्स्तोय ने 10
नवम्बर (पुराने कैलेण्डर से 28 अक्टूबर) 1910 को गुप्त रूप
से यास्नाया पोल्याना छोड़ दिया। यात्रा के दौरान ठण्ड लग जाने से वे बीमार पड़ गये
और 20 नवम्बर (पुराने कैलेण्डर के अनुसार, 7 नवम्बर) 1910 को
अस्तापोवो रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के घर में उनका निधन हो गया।
तोल्स्तोय के निधन के बाद लिखे गये अपने लेख में लेनिन ने लिखा था कि
तोल्स्तोय “इतनी अधिक संख्या में महान समस्याओं को उठाने में सफल रहे और कलात्मक
शक्ति की ऐसी ऊँचाइयों तक ऊपर उठने में सफल रहे कि उनका कृतित्व विश्व साहित्य के
महानतम की कोटि में शामिल हो गया।”
तोल्स्तोय ने यूरोपीय मानवतावाद और विश्व साहित्य में यथार्थवादी
धारा के विकास को बहुत बड़े पैमाने पर प्रभावित किया। रोम्या रोलाँ, फ्रांस्वा
मौरियाक, रोझा मारतन दि गार (फ्रांस), अर्नेस्ट हेमिंग्वे, थॉमस
वुल्फ’ (अमेरिका), जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, जॉन गाल्सवर्दी (ब्रिटेन), थॉमस
मान, आना जे़गर्स (जर्मनी), यूहान ओग्यूस्त स्ट्रिण्डबर्ग (स्वीडन),
रेनर
मारिया रिल्के (आस्ट्रिया), लाओ श (चीन) और तोकुतोमी रोका (जापान)
आदि दर्ज़नों प्रसिद्ध लेखकों को तोल्स्तोय ने विचार और कलात्मक यथार्थवादी शैली
के धरातल पर प्रभावित किया।
तोल्स्तोय का कृतित्व रूस में और पूरी दुनिया में, यथार्थवाद
के विकास की एक नयी मंज़िल का द्योतक है। यह उन्नीसवीं शताब्दी के परम्परागत
उपन्यास और बीसवीं शताब्दी के साहित्य को जोड़ने वाली कड़ी है। तोल्स्तोय के
यथार्थवाद की अद्वितीय स्वयंस्फूर्तता और प्रत्यक्षता सामाजिक अन्तरविरोधों को
उद्घाटित करने वाले कुशाग्र उपकरणों का काम करती हैं। तत्काल प्रभावित करने वाली
भावनात्मक अपील और जीवन के रग–रेशे की सजीव प्रस्तुति के साथ सूक्ष्म–सटीक,
अन्तर्भेदी
बौद्धिक शक्ति और गम्भीर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण का सम्मिलन तोल्स्तोय की कला की
अभिलाक्षणिक विशिष्टता है। विश्व और मानव–जीवन को संचालित करने वाले नियमों की
समाकलित समझ तक पहुँचने के लिए तोल्स्तोय का सप्राण–ओजस्वी यथार्थवाद विश्लेषण और
संश्लेषण में कुशल द्वन्द्वात्मक समन्वय स्थापित करता है।
तोल्स्तोय के यथार्थवाद ने रूसी राष्ट्रीय परम्पराओं से खाद–पानी
लिया था और फिर उसे समृद्ध करते हुए अपना कर्ज मय ब्याज के उतार दिया था। पर
राष्ट्रीय से कहीं अधिक इसका दायरा और स्कोप सार्वभौमिक है।
स्थापित विचारों और पूर्वाग्रहों में तोल्स्तोय को कोई विश्वास नहीं
था। कुछ भी उनके लिए सन्देह से परे नहीं था, प्रश्नोपरि कुछ
भी नहीं था। उन्होंने जीवन के हर पहलू की, नये सिरे से और अपने ढंग से जाँच–पड़ताल
की। हर तरह के साहित्यिक ‘स्टीरियोटाइपों’ को अस्वीकार करते हुए उन्होंने जो खुद
देखा, समझा और सहजानुभूत बोध से अर्जित किया उसी को रचना के यथार्थ में
ढाला। लोगों के आन्तरिक जीवन, स्वप्नों–आकांक्षाओं और अन्तरात्मा की
टीसों को जान लेने की उनकी क्षमता असाधारण थी। दैनन्दिन जीवन और इतिहास से लिये
गये दृश्यों की वैविध्यमय पुनर्रचना के मामले में वे अद्वितीय थे।
यथार्थवाद की धारा को इक्कीसवीं सदी में भी आगे जाने के लिए
तोल्स्तोय से अभी काफी कुछ लेना है और पहले का भी उनका काफी कर्ज है जो चुकाना है।
समकालीन जीवन के संश्लिष्ट यथार्थ की वस्तुगत प्रस्तुति के द्वारा ही, भविष्य
और वर्तमान के वास्तविक पात्रों को उनके वास्तविक स्थान पर दिखाकर ही, विगत
के कर्ज को उतारा जा सकता है।
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