एंटीबायोटिक दवाओं का गैर जरूरी इस्तेमाल

 एंटीबायोटिक दवाओं का गैर जरूरी इस्तेमाल

डॉ नवमीत

भारत में मेडिकल प्रैक्टिस की सबसे बड़ी समस्या यूनिवर्सल हेल्थ केयर का न होना है।

खैर यह तो जगजाहिर बात है। तो अगर कोई पूछे कि इसके बाद सबसे बड़ी समस्या क्या है? तो शायद मेरा जवाब होगा.... एंटीबायोटिक दवाओं का गैर जरूरी इस्तेमाल। शायद इसलिए क्योंकि समस्याएं और भी हैं, लेकिन मुझे फिलहाल इसी पर लिखना है।

किस बीमारी में एंटीबायोटिक दवाएं दी जानी चाहिए?

यह एक महत्वपूर्ण सवाल है। लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि किस बीमारी के लिए एंटीबायोटिक दवाएं न दी जाएं।

स्थिति यह है कि साधारण जुकाम और खांसी के लिए भी थर्ड जेनरेशन सेफ़लोस्पोरिन दवाओं के शॉट्स दिए जा रहे हैं। ये उच्च स्तर की एंटीबायोटिक दवाएं होती हैं जो गंभीर बैक्टीरियया जनित संक्रमण में ही दी जानी चाहिए, लेकिन खामखा चल रही हैं।


एक जानकार महिला हैं। कुछ दिन पहले उन्हें बुखार, जुकाम और खांसी हुई। उन्होंने खुद से ही cefixime नामक एक एंटीबायोटिक लेनी शुरू कर दी। दो दिन दवा लेने के बाद आराम नहीं हुआ तो उनके पति ने उनको कहा कि यह हल्की एंटीबायोटिक है तुम Amoxicillin ले लो। उल्लेखनीय बार ये है कि उनके पति का मेडिकल फील्ड से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है। उन्होंने 3 दिन Amoxicillin खायी (जिसकी डोज भी पूरी नहीं थी)। लेकिन कोई आराम नहीं हुआ। फिर वह गयी हॉस्पिटल में। वहां डॉक्टर ने उन्हें चेक किया। सर्दी खांसी तो ठीक हो गये थे लेकिन बुखार नहीं जा रहा था। जांच में पता चला कि पेशाब में इन्फेक्शन हो गया है। डॉक्टर ने उन्हें दोबारा cefixime का कोर्स करवाया और फिर कुछ दिन बाद उनका इन्फेक्शन ठीक हुआ।

बहुत बार मेरे पास मरीज आते हैं और कहते हैं कि डॉ साहब गला खराब हो गया है। Azithromycin लिख दो। कभी कोई कोई मरीज कहता है कि ceftriaxone का इंजेक्शन लगवा दो तो जल्दी बुखार ठीक हो जायेगा। एक बार फेसबुक पर किसी की पोस्ट पढ़ी थी। उन्हें सर्दी जुकाम बुखार था। एंटीबायोटिक्स लेने पर भी आराम नहीं हुआ। अस्पताल में जाकर डॉक्टर को दिखाया तो उन्होंने इलाज किया।

2012 में मैं एक मेडिकल कॉलेज में श्वास विभाग में हाउस जॉब करता था। उधर एक छाती रोग विशेषज्ञ थे। उन्होंने एक स्टडी के बारे में बताया था कि साधारण खांसी हफ्ते दो हफ्ते में खुद ही ठीक हो जाती है। उसके लिये एंटीबायोटिक दवाओं का कोई रोल नहीं है। अगर किसी अन्य गंभीर कारण, जैसे टीबी, दमा या निमोनिया आदि, की वजह से खांसी है तो फिर उसके लिये विशेष इलाज की जरूरत पड़ेगी। खामखा एंटीबायोटिक कोई फायदा नहीं करेंगी। उस दिन के बाद से साधारण खांसी के लिये कम से कम मैंने तो कभी किसी को एंटीबायोटिक नहीं दी।

लेकिन अमोक्सीसिलिन और अज़ीथ्रोमाइसिन जैसी दवाएं तो रेवड़ियों की तरह बाँटी जाती हैं। कमजोरी है तो अमोक्सी, छींक आ गई तो अज़ीथ्रो...! दस्त लग गया तो कोई और एंटीबायोटिक। फिर अगर कोई गंभीर संक्रमण जैसे कि बैक्टीरियल न्यूमोनिया या दिमाग़ की सूजन हो जाए तो? तो पता चलता है कि ये दवाएं काम ही नहीं कर रही।

अरे ये कैसे हुआ? ये ऐसे हुआ कि गैर जरूरी इस्तेमाल करके आपने बैक्टीरिया को रेजिस्टेंस बना दिया है। एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस, यानि संक्रमण पर एंटीबायोटिक दवाओं का काम न करना।

एक उदाहरण टीबी का लेते हैं। हम सबको पता है कि यह एक गंभीर बीमारी है जोकि बिना इलाज के अक्सर ही जानलेवा होती है। आजकल टीबी की दवाओं का रेजिस्टेंस एक बड़ी समस्या है। जब पहली पंक्ति की दवाएं रेजिस्टेंट हो जाती हैं तो दूसरी पंक्ति दवाएं प्रयोग की जाती हैं। टीबी की एक दूसरी पंक्ति की दवा है Amikacin. साथ ही यह दवा बहुत से अन्य बैक्टीरिया जनित संक्रामक रोगों में भी काम करती है, लेकिन इस दवा का भी इतना गैर जरूरी इस्तेमाल होता है कि टीबी में भी इसका रेजिस्टेंस बढ़ने लगा है। अब सोचिये अगर दूसरी पंक्ति की दवा भी काम करना बंद कर देगी तो रोगी का क्या होगा?

एलेग्जेंडर फ्लेमिंग ने जब पहली एंटीबायोटिक पेनिसिलिन का आविष्कार किया था तो इसे चमत्कारी दवा कहा जाता था। उस वक्त फ्लेमिंग ने खुद ही चेताया था कि इसका प्रयोग सोच समझकर कर करना चाहिए वरना ये बैक्टीरिया पर काम करना छोड़ देंगी। लेकिन उनकी चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया गया। आज पेनिसिलिन सहित बहुत सी एंटीबायोटिक्स का काफी सारे बैक्टीरिया पर कोई असर ही नहीं होता।

आज के समय में मेडिकल साइंस के आगे सबसे बड़ी चुनौती यही है कि एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस यानी हानिकारक जीवाणुओं की एंटीबायोटिक दवाओं से प्रतिरोध की बढ़ती हुई समस्या से कैसे निपटा जाए। एंटीबायोटिक दवाओं के गैर जरूरी इस्तेमाल ने इस समस्या को इतना बढ़ा दिया है कि आने वाले समय में हमारे पास जीवाणुओं से लड़ने की दवा ही नहीं बचेगी और हम उसी युग में वापस चले जायेंगे जब हम पूरी तरह से जीवाणुओं की दया पर निर्भर थे।

एक बार आठ महीने के एक बच्चे को दस्त लगे हुए थे। गांव में लोकल झोलाछाप डॉक्टर के पास लेकर गए। डॉक्टर ने एंटीबायोटिक दे दी। लेकिन पानी की कमी दूर करने के लिए कुछ न दिया। एंटीबायोटिक्स ने तो असर करना नहीं था, ऊपर से बच्चे में पानी की गंभीर कमी हो गई। फिर जब बच्चा बेहोश हो गया तो एक बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल लेकर पहुंचे। बड़ी मुश्किल से बच्चे की जान बची। पैसे लगे वे अलग।

बच्चों में दस्त लगना एक गंभीर समस्या है। दुनिया भर के विशेषज्ञ और अध्ययन मानते हैं कि इसके अधिकतर केस वायरस के इन्फेक्शन से होते हैं। दस्त लगने पर हमारा मुख्य जोर पानी की कमी न होने देने पर होता है। जिसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ORS की सलाह दी है। एक पैकेट ORS का एक लीटर साफ और उबाल कर ठंडा किये हुए पानी में घोलना है और बच्चे को वही पिलाना है ताकि दस्त की वजह से पानी की कमी न हो। साथ में जिंक का पूरक देने की सलाह दी जाती है। सिर्फ बैक्टीरिया जनित संक्रमण की पुष्टि होने पर ही एंटीबायोटिक दवाएं दी जानी चाहिए। लेकिन भारत में सबसे पहले क्या दिया जाता है? एंटीबायोटिक्स। क्यों? क्योंकि डॉक्टर साहब को लगता है कि एंटीबायोटिक संजीवनी बूटी है। और डॉक्टर साहब सुशेण वैद्य हैं और बच्चा लक्ष्मण है। माता पिता हनुमान की तरह एंटीबायोटिक रूपी संजीवनी लाते हैं जिससे बच्चे की जान बच सके। नहीं श्रीमान, इसके लिए दुनिया भर के विशेषज्ञ ORS और ज़िंक सप्लीमेंट की सलाह देते हैं। परन्तु विशेषज्ञ कौन होते हैं? WHO क्या बला है? WHO तो चीन और अमेरिका की साजिश है। हम नहीं मानेंगे।

कुछ समय पहले मैं एक अध्ययन पढ़ रहा था। दस्त लगने पर एंटीबायोटिक दवाओं का सबसे ज्यादा प्रयोग भारत में होता है। यहाँ चिंता का विषय ये है कि एमबीबीएस और उससे उच्चतर शिक्षा पाए हुए डॉक्टर भी एंटीबायोटिक दवाओं का गैर जरूरी प्रयोग कर रहे हैं। इसका जो कारण मुझे समझ में आ रहा है वो ये कि या तो लोगों को विज्ञान पर भरोसा नहीं है या फिर इसके आर्थिक कारण हैं या फिर दोनों ही कारण हैं।

एक बार मेरे पास एक मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव आया। कहने लगा कि मेरी कम्पनी की यह ब्रॉड स्पेक्टरम एंटीबायोटिक चला लो। यह अमोक्सीसिलिन से बेहतर है। मैंने कहा कैसे? कोई स्टडी है क्या? बोला स्टडी तो नहीं है लेकिन सभी मानते हैं। मैंने कहा तो मुझे भी इसीलिए मान लेना चाहिए?

एक डॉक्टर दोस्त है। वह बता रहा था कि कई बार मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव उसके पास आते हैं कि हमारी कम्पनी की यह दवा चला लीजिये, अस्पताल के मालिक से बात हो गयी है। मित्र मुझे बता रहा था कि इलाज मालिक को थोड़े ही करना है। किसी को जरूरत होगी तभी तो दवा दूंगा न। दूसरा ये जो सिफारिश लेकर आते हैं इनकी दवाएं वैसे ही बोगस होती है। बढ़िया क्वालिटी होगी तो सिफारिश की जरूरत ही क्यों पड़ेगी?

एंटीबायोटिक्स दोधारी तलवार की तरह होती हैं। अगर हथियार चलाना आता है तो दुश्मन खतरे में है और अगर नहीं चलाना आता तो खतरा खुद को है।

कौन सी बीमारी है, क्या लक्षण हैं, कब से हैं, जांच की रिपोर्ट्स क्या हैं? एंटीबायोटिक्स की जरूरत है या नहीं? जरूरत है तो कौन सी एंटीबायोटिक्स की जरूरत है? और कितने दिन तक? मरीज को कोई और बीमारी तो नहीं है? कोई और दवा तो नहीं चल रही? किसी दवा का पिछला कोर्स कब लिया था और कितने दिन तक? सभी बातों का ध्यान रख कर ही डॉक्टर कोई दवाई देते हैं।

हल्की या भारी एंटीबायोटिक्स कुछ नहीं होती। जो जिस बैक्टीरिया पर काम करेगी, जिसके साइड इफेक्ट कम होंगे वही सही होती है। हालांकि कभी कभी सिर्फ ज्यादा साइड इफेक्ट वाली एंटीबायोटिक के बिना काम भी नहीं चलता।

तो फाइनली करना क्या है?

सिर्फ यह ध्यान रखना है कि एंटीबायोटिक्स सहित कोई भी दवा बिना डॉक्टर की सलाह के न ली जाये। ठीक है प्राइवेट डॉक्टर की फीस ज्यादा हो सकती है। अगर आप अफोर्ड नही कर सकते तो नजदीकी सरकारी स्वास्थ्य केंद्र या अस्पताल में जाकर डॉक्टर की सलाह लें। डॉक्टर की सलाह भी अगर एंटीबायोटिक की हो तो उनसे पूछ लें कि उन्होंने किस वज़ह से यह सलाह दी है। साथ ही डॉक्टर की सलाह अनुसार एंटीबायोटिक दवा का कोर्स अगर शुरू किया है तो कोर्स पूरा करें। भले ही आप चंगा महसूस कर रहे हों लेकिन दवा बीच में खुद से ना छोड़ें।

 

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