कविता - मुर्गी फार्म की अलमस्त मुर्गियां / जुल्मीरामसिंह यादव
कविता - मुर्गी फार्म की अलमस्त मुर्गियां
जुल्मीरामसिंह यादव
अपने मुर्गी फार्म की अलमस्त मुर्गी
तुम सर घुमा घुमा कर चोंच नचा नचा कर
खुश होकर दिन रात चुंगते रहते हो दाना
कुछ नकली इतिहास का दोगला दाना चुगते हो
कुछ अधर्म का रंगीन रामदाना
जादूगरनी यह जानती है कि
अफवाहों की अफीम से तुम्हारा बढ़ता है वजन
यह बड़ा सुख देता है तुम्हे उतना ही सूकून
मुर्गीफार्म की भेंड़िया धसान भीड़ को भी
गुलजार करते रहते हो अपने कलरव से
निगोड़ी जादूगरनी ने कब तुम्हारी आंखे निकाल कर
लगा दी है उल्लू की आंख
उजाले को अंधेरा समझते हो और अंधेरे को उजाला
गढ्ढे को समतल और समतल को गढ्ढा
जितनी जोर से तुम गढ्ढे में गिरते हो
उतनी ही जोर से खिलखिलाते हो
तुम्हारे वेदनातंत्र को उखाड़ कर
जादूगरनी ने वहां उगा दिया है भांग का फूल
तुम्हे पता ही नहीं चला
कि कब तुम्हारी किडनी निकाल कर
नगर सेठों के सब्जबाग का गुलदस्ता बना दिया गया है
और तुम्हारी कलेजी निचोड़ कर
हिटलर की मूंछे रंगी जा रही है
जादूगरनी का मेकअप मैन
तुम्हारे दिमाग को नये नये ईस्टमैन कलर से
रंगता रहता है रोज रोज
जिसमें वह जादूगरनी करती है रंगीन गांजे की खेती
तुम्हारी आने वाली सात पीढ़ियों की पीठ पर
गोदा जाता है चाबुक का निशान
तुम्हारी बेड़ियों में चढ़ाया जाता है सोने का पानी
जिसे तुम घुंघरू की तरह पहन कर इतरा इतरा कर नाचते हो
इसका सच तुम नहीं सिर्फ तुम्हारी जली राख से जन्मी
अगली पीढ़ी समझ पायेगी
इस पर भी तुम ठिल्ल ठिल्ल कर हॕस ले रहे हो
क्या इतना कम है
तुम्हारे पैरों में छुरी बांध कर नफरत के अखाड़े मे़ं
जो मुर्गे की लड़ाई करायी जाती है
इसमें दोनों तरफ से घायल कौन होता है
यह प्रश्न पूछने वाला जरूर तुम्हारा दुश्मन होगा
मेरे भाई तुम मुर्गी फार्म के दड़बे से सब कुछ देख सुन लेते हो
वहां से नहीं देख पाते हो तो अपना प्यारा खटिकखाना
वहां से नहीं सुन पाते हो तो अपने बच्चों की गर्दन पर पड़ने वाले छूरे की खटखटाहट
मेरे प्यारे भाई कैलेंडर की वह तारीख खोजो
जिस दिन तुम मुर्गी फार्म की मुर्गी से मनुष्य बन पाओगे
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