कविता - मूर्ख आततायी पर हँसो! उसकी अवज्ञा करो!! / कविता कृष्णपल्लवी
कविता - मूर्ख आततायी पर हँसो! उसकी अवज्ञा करो!!
कविता कृष्णपल्लवी
अगर एक ज़िंदा इंसान हो,
अगर एक विवेकशील, स्वाभिमानी नागरिक हो,
अगर तुम्हारे पास है अपने लोगों के लिए
प्यार की गरमी भरा एक निर्भीक ह्रदय,
तो अवज्ञा करो, अवज्ञा करो, अवज्ञा करो,
आततायी सत्ताधारी के हर उस बेतुके, हास्यास्पद,
और मनुष्यता को अपमानित करने वाले आदेश की
जो यह परीक्षा लेने के लिए जारी किया गया है कि
तुम गड़रिये के कुत्ते जितने गावदी और स्वामिभक्त,
धोबी के गदहे जितने रूटीन के गुलाम, विचारहीन
बने हो कि नहीं ,
या एक ऐसे आदर्श धर्मभीरु गोपुत्र और राष्ट्रवादी बने हो कि नहीं
जिसके भीतर एक बर्बर हत्यारा छिपा बैठा हो!
जब सड़कों पर बीमारी और महामारी दर-बदर करोड़ों
मेहनतक़शों को शिकार बना रही हों
और तानाशाह कुछ प्रतीकात्मक अनुष्ठान करने का
निर्देश जारी कर रहा हो,
और अगर तुम एक ज़िंदा इंसान हो,
एक विवेकशील, स्वाभिमानी नागरिक हो,
अगर तुम्हारे पास है अपने लोगों के लिए
प्यार की गरमी भरा एक निर्भीक ह्रदय,
तो अवज्ञा करो, अवज्ञा करो, अवज्ञा करो!
.
जब कोई बर्बर हत्यारा
खून सनी सड़कों से गुज़रकर
सत्ता के शिखर पर जा बैठा हो
और भयंकर झूठों को एक हज़ार डिजिटल मुँहों से
बार-बार दुहराता हुआ उन्हें अटल सच्चाइयों की तरह स्थापित कर रहा हो,
जब कोई सनकी हज़ारों नरभक्षियों को
बेगुनाह लोगों, बच्चों और स्त्रियों का आखेट करने के लिए
सड़क पर छुट्टा छोड़ने के बाद
शान्ति और अहिंसा के उपदेश सुनाता हो,
जब कोई विलासी, लम्पट व्यभिचार की गंद में
लोट लगाने के बाद सदाचार के कसीदे पढ़ता हो,
जब कोई महाभ्रष्टाचारी अपरिग्रह की महत्ता पर
प्रवचन सुनाता हो,
और उन्मादी विचारहीन बर्बर भीड़ से घिरे नागरिक भयवश चुप हों
और बस्तियों में मौत का सन्नाटा हो,
तो बाहर निकलना ही होगा उन कुछ लोगों को
इतिहास के निर्देशों का पालन करने के लिए
जो ज़िंदा इंसान हैं और जिन्होंने
ज़िंदा सवालों पर सोचने की आदत नहीं छोड़ी है!
उन्हें तानाशाह के हर आदेश की अवज्ञा करनी होगी,
उसकी हर मूर्खता पर हँसना होगा ज़ोर-ज़ोर से,
उनकी खिल्ली उड़ानी होगी,
उन्मादियों को उन्मादी, भक्तों को भक्त, मूर्खों को मूर्ख,
हत्यारों को हत्यारा और फासिस्ट को फासिस्ट कहना होगा
बिना किसी लागलपेट के, साफ़-साफ़ शब्दों में!
जब बहुत सारे भद्र नागरिक सुरक्षित-सुखी जीवन की चाहत में
जीने लगे हों बिलों में दुबके चूहों की तरह,
जब परिवर्तन से नाउम्मीद बहुतेरे ज्ञान-विलासियों ने
चीथड़ों पर ख़ूबसूरत पैबंद्साज़ी का धंधा शुरू कर दिया हो,
जब कई बार की पराजयों और कई विश्वासघातों के बाद,
आम मेहनतक़श लोगों के एक बड़े हिस्से ने सपने देखने
और उम्मीद पालने की आदत छोड़ दी हो,
जब हत्यारों की किलेबंदियाँ चारों ओर मज़बूत हो रही हों
इंसानी बस्तियों के इर्द-गिर्द,
तब कुछ लोगों को आगे आकर साफ़ शब्दों में
सच का बयान करना होगा
और सत्ताधारियों के हर आदेश की अवज्ञा करनी होगी!
याद रखो, इतिहास में किसी भी आततायी या हत्यारे की सत्ता
कभी भी अजेय नहीं रही!
कभी-कभी तो, थोड़े से, या यहाँ तक कि, एक आदमी के
सवाल उठाने से भी शुरुआत होती रही है!
कभी-कभी कुछ लोग सत्ता के आतंक को अपने निर्भीक उपहास से
रूई की तरह उड़ा देते हैं
वे अभय होकर हत्यारों की अवज्ञा करते हैं
और इसतरह वे एक नयी शुरुआत करते हैं!
Comments
Post a Comment