कविता - सुखी-सम्पन्न लोग / कविता कृष्णपल्लवी
कविता - सुखी-सम्पन्न लोग
कविता कृष्णपल्लवी
सुखी-सम्पन्न लोग अक्सर
अपने अकेलेपन की बातें करते हैं।
थोड़ी दार्शनिक मुद्रा में अक्सर
वे कहते हैं कि सबकुछ होते हुए भी
मनुष्य कितना अकेला होता है!
वे सड़क से रोज़ाना गुज़रते
कामगारों को बिना चेहरों वाली
भीड़ की तरह देखते हैं।
अपनी कार के टायर बदलने वाले
या घर की सफाई-पुताई करने वाले
मज़दूर को वे नाम से नहीं जानते
और कुछ ही दिनों बाद
उसका चेहरा भी भूल जाते हैं।
लेबर चौक पर खड़े मज़दूरों को देखकर
उन्हें लगता है कि देश की
आबादी बहुत बढ़ गयी है।
सुखी-सम्पन्न लोगों को आम लोगों से
हमेशा बहुत सारी शिक़ायतें रहतीं हैं।
वे उनके गँवारपन, काहिली, बद्तमीज़ी,
ज़्यादा बच्चे पैदा करने की उनकी आदत
और उनमें देशभक्ति की कमी की
अक्सर बातें करते रहते हैं।
सरकार के बारे में वे हमेशा
सहानुभूतिपूर्वक सोचते हैं और
कहते रहते हैं कि सरकार भी आख़िर क्या करे!
वे आम लोगों को सुधारने और उनके
बिगड़ैलपन को दूर करने के लिए
तानाशाही को सबसे कारगर मानते हैं।
सुखी-सम्पन्न लोगों को
बदलते मौसमों, पेड़ों और
फूलों के बारे में और नदियों-पहाड़ों के बारे में
बस इतनी जानकारी होती है
कि वे उनके बारे में बातें कर सकें
जब उनके पास करने के लिए
कोई और बात न हो.
सुखी-सम्पन्न लोग अपनी छोटी सी
सुखी-सम्पन्न दुनिया में
पूरी उम्र बिता देते हैं
और अपने दुखी होने के कारणों के बारे में
कुछ भी नहीं जान पाते।
सुखी-सम्पन्न लोगों को
इस बहुत बड़ी दुनिया के आम लोगों की
बहुत बड़ी आबादी के जीवन के बारे में
बहुत कम जानकारी होती है
और दुनिया की सारी ज़रूरतें
पूरी करने वाले मामूली लोग
उनके ज़ेहन में कहीं नहीं होते
जब वे मनुष्यता के संकट की बातें करते हैं।
सुखी-सम्पन्न लोग मनुष्यता से अपनी दूरी
और उसके कारणों के बारे में
कभी जान नहीं पाते
और अपने सुखी-सम्पन्न जीवन के
अनंत क्षुद्र दुखों के बारे में ही
सोचते हुए और रोते-गाते हुए,
ध्यान और योग और विपश्यना करते हुए,
नियमित हेल्थ चेकअप कराते हुए
और मरने से डरते हुए
एक दिन, आख़िरकार मर ही जाते हैं
सचमुच!
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