अस्क़द मुख़्तार के उपन्यास “चिंगारी” की पीडीएफ फाइल PDF file of Askad Mukhtar's Novel “Sisters”

अस्क़द मुख़्तार के उपन्यास “चिंगारी” की पीडीएफ फाइल


पीडीएफ फाइल डाउनलोड लिंक 

परिचय - अस्क़द मुख़्तार और उनका उपन्यास “चिंगारी”

ल. यकिमेंको

किसी युग का नायक होना-यही सर्वोच्च पुरस्कार है...

जान लो, प्याली की दीवारों पर चमकती इन बूंदों ने किसी विशाल झरने की सांसें छुपा रखी हैं।


अस्क़द मुख़्तार की आरम्भिक कविता “समर्पण” से उद्धृत इन पंक्तियों में लेखक की रचना-प्रक्रिया की दिशा बख़ूबी उजागर हो गयी है।

अस्क़द मुख़्तार सही एवं व्यापक अर्थों में आधुनिक युग के कवि हैं। उनकी कविताओं, काव्यों, कहानियों और उपन्यासों में हमें सोवियत उज्बेकिस्तान के जीवन के दर्शन होते हैं। “धरती का चेहरा” बदल देनेवाले कठोर परिश्रम में रत, उच्चकोटि की मानवोचित शूरता से परिपूर्ण उज़्बेकी लोगों के जीवन के दर्शन उन नाटक सदृश घटनाओं और संघर्षों में होते हैं, जो इस महान ऐतिहासिक प्रगति में अवश्यंभावी हैं।

1948 में उनका पहला काव्य “फ़ौलाद-निर्माता” प्रकाशित हुआ। अभी एक पूर्ण परिपक्वता परिलसित नहीं कर पानेवाली इस कृति में अ. मुख़्तार ने मनुष्य के हाथों की उस शक्ति का गुणगाण किया था, जिसने युद्ध के वर्षों में “तपती बालू के हृदयस्थल” में बेगोवात – “फ़ौलाद बनानेवालों के नगर” का निर्माण किया था। इस नगर के निर्माण की कहानी वहाँ के लोगों के जीवन में आये गहनतम परिवर्तनों की कहानी भी बन गयी।

अस्क़द मुख़्तार की श्रेष्ठतम कविताएँ सीधे-सादे ऐसे मेहनतकश लोगों के बारे में हैं, जिन पर अक्सर दृष्टि नहीं पड़ पाती। इस तरह, उनके विलक्षण गीतिकाव्य हमें मिस्तरी नियाज, मोची हैदर अमकि जैसे लोगों के बारे में बताते हैं ....

उनका काव्य “महायात्रा” ( 1949-1950 ) मरुस्थल से संघर्ष और उस पर विजय के सपने को साकार करने की गाथा है जिसे पढ़कर पाठक भावविभोर हो उठता है। नेकी और बदी के संघर्ष को जो प्राचीन काल से पूर्वी काव्य की परम्परा रहा है, अस्लान और सलीम के संघर्ष के रूप में एक अप्रत्याशित नयी अभिव्यक्ति मिली है। अस्लान द्वारा परिश्रम से अर्जित ख्याति से सलीम को द्वेष होता है, क्योंकि बंजर पड़ी ज़मीन में कपास पैदा करने का काम उसे नहीं, अस्लान को सौंपा गया था ...

मेहनतकशों के जीवन में निरंतर इतनी रुचि लेते रहने में लेखक के जीवनचरित की भी कम महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं रही है।

अस्क़द मुख़्तार का जन्म सन् 1920 में फ़र्ग़ाना के एक रेलवे-कर्मचारी के परिवार में हुआ था। वे सीधे-सादे मेहनतकशों के बीच पलकर बड़े हुए।

और विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त करने तथा अंदिजान शैक्षणिक संस्थान मैं उज़्बेकी साहित्य के संकाय अध्यक्ष के पद पर कार्य कर चुकने के बाद अस्क़द मुख़्तार ने जब पूर्णकालिक साहित्य सेवा शुरू की तो फ़ौलाद बनानेवाले, कपास पैदा करनेवाले, उदात्तकर्मी, कुशल कारीगर व मिस्तरी उनके लेखन-पात्र बने। और यह कोई संयोग न था। यह उनका अपने घर वापस लौटना था, जनता के श्रमिक और रचनात्मक जीवन के अक्षयस्त्रोत में कवि के रूप में मिल जाना था।

मास्को के “सोवियत लेखक” प्रकाशन गृह द्वारा सन् 1951 में प्रकाशित उनके कविता-संग्रह के प्राक्कथन में कहा गया था, “अस्क़द मुख़्तार ने साहित्यसृजन की अपनी यात्रा अभी शुरू ही की है।” और तब ऐसा कहना न्यायसंगत भी था।

लेखक की रचना शैली धीरे-धीरे परिपक्व होती गयी।

इसका सबसे अच्छा प्रमाण सन् 1955 में पहली बार प्रकाशित उपन्यास चिंगारीहै। इसे तभी काफ़ी लोकप्रियता प्राप्त हो गयी थी।


इस उपन्यास में उस जीवन के दर्शन हुए, जिससे रूसी पाठक अच्छी तरह परिचित न थे। उज्बेकिस्तान में सोवियत सत्ता के शुरू के वर्षों में छुपे संघर्ष का तनाव पूरे ज़ोर पर था। नये जीवन के दुश्मनों की शक्तियाँ अक्सर यत्र तत्र बचे-खुचे बसमाचियों के सशस्त्र गिरोहों के सहारे क्रान्ति द्वारा जनता के जीवन में उसकी चेतना में लायी जा रही नयी लहर का मार्ग अवरुद्ध करने की कोशिश कर रही थीं।

घटना-काल के आधार पर अ. मुख़्तार के उपन्यास और युक्रेनी लेखक एम. स्तेलमख़ की प्रसिद्ध कृति जनता का खून पानी नहीं होतामें काफ़ी समानता है। इन पुस्तकों के प्रकाशित होने के काफ़ी समय पहले, साहित्य सृजन शुरू कर रहे युवा मि. शोलोखोव ने भी दोन की कहानियाँ” ( 1923-1926 ) लगभग इसी काल के बारे में लिखा था।

दोन, यूक्रेन, उज्बेकिस्तान ... इनके बीच में हज़ारों किलोमीटर की दूरी है, ऐतिहासिक प्रारब्ध, जातीय चरित्र, रहन-सहन, आदि में काफ़ी असमानताएँ हैं।

पर फिर भी कुछ ऐसी समानताएं हैं जो इतनी भिन्न शैलियों और भिन्न-भिन्न जीवन बितानेवाले लेखकों को एक सूत्र में बाँध देती हैं। यह ऐतिहासिक प्रक्रिया की समझ, क्रांति से उत्पन्न नयी दुनिया को अपनी दुनिया के समान समझने की समानताएं हैं।

वस्तुत: इसी में उस मूलभूत आंतरिक नैकट्य की अभिव्यक्ति होती है जो सोवियत लेखकों को एक सूत्र में बांधकर समाजवादी यथार्थवाद के सामान्य रचनात्मक मंच पर ला खड़ा करता है।

लेखक का कौशल, उसकी प्रतिभा की शक्ति, अपने युग के अन्तर्द्वन्द्वों की तह में पहुँच पाने की योग्यता, अक्सर उसके पात्रों के चयन में परिलक्षित होती है।

यह विदित है कि क्रांतियों के इतिहास में कई सदियों से परिपक्व हो रहे अन्तर्विरोध उभर कर सामने आ जाते हैं। इन अन्तर्विरोधों में से एक है-अधिकारच्युत और गुलामी में जकड़ी पूर्वी स्त्री का भाग्य।

अस्क़द मुख़्तार ने अपना उपन्यास उन उज़्बेकी स्त्रियों को ही समर्पित किया है जो साहस करके सदियों पुराने रीति-रिवाजों और परम्पराओं के ख़िलाफ़ उठ खड़ी हुईं। क्रांति ने उनके लिए एक नयी अर्थपूर्ण और मेहनतभरी ज़िन्दगी का मार्ग प्रशस्त किया।

पुराने ताशकंद के कारीगरों और जुलाहों के इलाक़े-नैमन्चा का चित्रण हमें न केवल घटनास्थल पर ला खड़ा करता है, उस समय के नयी आर्थिक नीति के समय के प्रामाणिक लक्षणों से प्रभावशाली व कलात्मक ढंग से परिचय कराता है बल्कि उस अन्तर्द्वन्द्व की प्रभावशाली शक्ति और जातीय विशेषता से भी, जो उपन्यास के घटनाक्रम का निरूपण करती है।

अस्क़द मुख़्तार ने मज़दूर स्त्रियों का उस समय पनप रहे “नेपमेन” ( नयी आर्थिक नीति का फ़ायदा उठानेवाले ) बाय कुद्रतुल्लाह ख्वाजा के वर्कशॉप में उनके कठिन परिश्रम का, धूलभरे गन्दे इलाके में उनके ग़रीब घरों का चित्रण इस तरह से किया है, जैसे वे इन सब से बचपन से ही परिचित हों, उनके बहुत निकट रहे हों।

इसी कारण उपन्यास में प्रगीतात्मक लय सुनाई देती है, जो न केवल सीधे विषयांतरकरण और ख़्यालों में ही ज़ाहिर होती है, बल्कि लेखक के लहजे और स्त्री पात्रों के प्रति उसके व्यवहार में भी।

लेखक उनसे प्यार करता है, उनके प्रति सहानुभूति दिखाता है और परंजी में रहनेवाली इन स्त्रियों पर गर्व करता है, जिन्होंने अपना मुंह उघाड़कर नयी जिन्दगी का स्वागत करने की हिम्मत की है।

केवल लेखक के सच्चे मानवोचित व्यवहार मात्र से, उसके दृष्टिकोण मात्र से ही क्रांतिकारी कार्यक्रम की कायापलट कर देने की महान शक्ति का पता चल जाता है।

अस्क़द मुख़्तार का उपन्यास कई नाटक सदृश संघर्षों से परिपूर्ण है। लेखक ने दिखाया है कि किस प्रकार नये जीवन के प्रति उत्साह जीवन के सभी पक्षों को प्रभावित करता है: आर्थिक पक्ष ( सहकारी संघों की स्थापना, बुनाई-मिल का निर्माण, निजी व्यापार की समाप्ति, उज्बेक श्रमिक वर्ग का जन्म, मजबूत समाजवादी शक्ति का उद्भव ), नैतिक पक्ष (स्त्रियों को स्वतंत्रता दिलाने, उन्हें समान अधिकार दिलाने, उन्हें अपनी मानवोचित गरिमा के प्रति जागरूक बनाने, धार्मिक अंधविश्वास को दूर करने आदि के लिए संघर्ष और रूढ़िवादियों तथा धर्मान्ध लोगों के विरुद्ध संघर्ष ), रहन-सहन का पक्ष...

उपन्यास के सभी पात्रों को स्पष्टत: दो दलों में बांटा जा सकता है। एक ओर नैमन्चा के मेहनतकश लोग हैं, उज्बेक स्त्रियां अनाख़ाँ, जुराख़ाँ, हाजिया, उनके क्रांतिकारी मित्र, बोल्शेविक यफ़ीम दनीलोविच, एर्गश, ग़ैरपार्टीवाला इंजीनियर दोब्रोखोतोव और दूसरी ओर-बाय, ईशान, नेपमेन क़द्रतुल्लाह ख़्वाजा, शिक्षक नईमी, जासूस चाय विक्रेता और अन्य।

लेखक ने अपने पात्रों के जीवन के व्यक्तिगत पक्ष और उसकी विशेषताएं, उनके सामाजिक जीवन के ढांचे और उनकी मानसिक स्थिति को बड़े युक्तियुक्त ढंग से उभारा है। उनकी गतिविधियों और व्यवहार पर इन बातों का स्पष्ट प्रभाव है। जुराख़ाँ जो लेनिन से मिलकर हर्षित हुई है एक नारी-योद्धा है। उसने मास्को में परंजी छोड़ दी थी। वहाँ उसने उस पथ पर पहला क़दम रखा था, जिस पर वह अपनी दुःखद मृत्यु तक चलती रही। उसके चरित्र में नारी सुलभ गुणों और सौम्यता के साथ-साथ, कई वर्षों के पार्टी कार्य और सरकारी कामकाज के अनुभव से प्राप्त अधिकार प्रवणता, दृढ़प्रतिज्ञा और धैर्य का सामंजस्य है। लोगों में आतंक फैलानेवाले शिक्षक नईमी को रोकते समय वह व्यंग्यपरायण और कटु हो जाती तो अपनी भीरु “नायिकाओं” के प्रति अतिधैर्यवान और शुभाकांक्षी।

अनाख़ाँ को अपने अतीत से नाता तोड़ने में ज्यादा मुश्किल का सामना करना पड़ा। पर एक बार आगे क़दम बढ़ाने के बाद उसने मुड़कर पीछे नहीं देखा। उसे किसी तरह भी नहीं डराया जा सका - न धमकियों से, न हत्या के प्रयत्नों से ही।

हंसमुख और मज़ाक़ पसन्द नजाकत में नये जीवन के प्रति एक साथ ही उत्साह भी है, भय भी और भीरुता भी। एक ओर लोगों का रुख देखकर वह परंजी उतारकर फेंक सकती थी तो दूसरी ओर ईशान द्वारा डराये जाने पर उसे फिर से पहन भी सकती थी। वह औरों की तुलना में ज्यादा खुशहाल ज़िन्दगी बसर कर रही थी, उसे वैसे दुःख कभी नहीं झेलने पड़े जैसे कि अनाख़ाँ, मिस्तरी साबिर की विधवा को झेलने पड़े : बरबादी, क्रांति के संघर्ष में पति की मृत्यु, आदि।

बुढ़िया अन्जिरत, समय और धर्म द्वारा परम्परागत रूप से उचित माने जानेवाले अपने भाग्यवादी दृष्टिकोण और फ़र्मानबरदारी के कारण, सबसे ज़्यादा मुश्किल से अपने अतीत से छुटकारा पा सकी।

इस प्रकार अस्क़द मुख़्तार जीवन की विशेष परिस्थितियों और व्यक्तिगत मानसिक स्थिति की सहायता से अपने स्त्री पात्रों का आचरण पुरानी दुनिया की शक्तियों से डरकर किये जा रहे संघर्ष की नाटक सदृश परिस्थितियों में स्पष्ट करते हैं।

जातीय ढांचे और समाजवादी रूप-विधान की धारणाओं की अखंडता पूर्णरूप से चरित्र और प्रतिरूप में ही ज़ाहिर होती है। जातीय जीवन की विशेषताएं, रहन-सहन, प्रकृति की विशेषताएं, इत्यादि, पात्रों के चरित्र और उनकी मानसिक स्थिति में ही स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आते हैं। उन अद्वितीय जातीय विशेषताओं को जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चारित्रिक गुणों और जीवन में आचरण का निर्धारण करती हैं, स्पष्ट रूप से महसूस करने के लिए, “चिंगारी” के स्त्रीपात्रों-अनाखां, जुराखां, हाजिया, अंजिरत आदि की तुलना “धीरे बहे दोन” और “कांटों भरी जिन्दगी” के स्त्रीपात्रों से करना ही काफ़ी होगा।

अस्क़द मुख़्तार की विशिष्टता सबसे पहले उनकी अविस्मरणीय जातीय चरित्रों की सृजन-प्रतिभा में ज़ाहिर होती है, जो ऐतिहासिक अहमन्यता और उस सन्दर्भानुरूप वातावरण से प्रतिबद्ध हैं, जिसमें वे पले थे।

उपन्यास पढ़ते समय यह बात ज़रूर हमारा ध्यान खींच लेती है कि किस युक्तिपूर्ण ढंग से अस्क़द मुख़्तार ने उज्बेक स्त्री की वर्तमान मानसिक स्थिति की विशेषताओं के ऐतिहासक कारणों का विवेचन किया है।

वास्तव में उपन्यास के मुख्य स्त्रीपात्रों, जुराख़ाँ और अनाख़ाँ ने उन बेड़ियों को तोड़ दिया, जिनमें वे सदियों से जकड़ी हुई थीं। इसीलिए उन अप्रधान और गौण पात्रों, उन घटनाओं और दृश्यों का महत्व और ज़्यादा बढ़ जाता है, जिनमें हमें स्त्रियां झुंडों और भीड़ों में दिखाई देती हैं।

स्त्रियों की एक सभा में शिक्षक नईमी “क्रांतिकारी” दृष्टिकोण से बिलकुल उचित-सा लगनेवाला भाषण दे रहा था। वह उन्हें सहकारी समितियों में शामिल होने, परंजी छोड़ने, बच्चों को शिशुगृहों में देने, और पति के मना करने पर न सुनने को कहता है।

इस भड़कानेवाले के भाषण का परिणाम यह हुआ कि स्त्रियाँ एक एक करके सभा से उठकर जाने लगीं। उस बात को बिलकुल ही भुला दिया गया था, जो स्त्री को मां के दूध के साथ ही सिखा दिया जाता है: पति का आदर करना, परिवार से प्रेम रखना ... जुराख़ाँ बड़ी मुश्किल से उन्हें रोककर शान्त कर पाती है।

और इस घटना के बाद हम इन्हीं स्त्रियों को मिल के निर्माण-स्थल पर देखते हैं, देखते हैं कि वे सब किस प्रकार आवेश में आकर एक साथ परंजी उतारकर आग में झोंक देती हैं और अपनी हमदर्द व हिमायती जुराख़ाँ के प्रति उनका यह प्रेम ही था जिसके वशीभूत हो वे जुराख़ाँ को बरबाद करनेवाली पुरानी शक्तियों से बदला लेती हैं।

औरत को छोटी-सी उम्र से ही बिना चूं-चपड़ किये पति और पिता की आज्ञा मानना सिखाया जाता था। औरत को नाम लेकर नहीं पुकारा जाता था। और इन्हीं औरतों ने देखा कि किस तरह जुराख़ाँ ने शिक्षक नईमी को अचानक बीच में रोककर गुस्से से कहा, “बैठ जाइये।” “और न आसमान फटा, न मर्द ने उसे जान से मारा... पर फिर भी बहुत डर लगा।”

यह एक छोटी-सी घटना है। पर लेखक ने इसके माध्यम से कितनी महत्वपूर्ण बात कही है !

लेखक ने मुख्य पात्र अनाख़ाँ के चरित्र का विकास बड़े कलात्मक ढंग से दिखाया है। उसका बाह्य जीवन पटल पूर्णता के स्पंदनों और अनुभवों की मनोविज्ञानी गहराई से परिपूर्ण होने लगता है।

रेलवे वर्कशॉप में काम करते समय उसके पति साबिर का परिचय बोल्शेविकों से हो जाता है। अपनी पत्नी के प्रति उसका व्यवहार बिलकुल दूसरा ही हो जाता है, वह उसके साथ एक मित्र की तरह बात करता है, अपने विचार उसे बताता है। इससे अनाख़ाँ अचंभे में पड़ जाती है।

“पहली बार उसने अपने शौहर को इतना आत्मविश्वासी, दृढ़ और खूबसूरत पाया था। लेकिन क्या एक मर्द के लिए किसी औरत के प्रति हमदर्दी दिखाना ठीक था? अनाखाँ ने तो खुद के बारे में, अपने सुख के बारे में कभी सोचा ही नहीं था। ज़माने से औरतें इसी तरह रहती आयी थीं-उसकी माँ, उसकी माँ की माँ... "

अपने स्त्रीपात्रों का चित्रण करते हुए लेखक ने दिखाया है कि न केवल वातावरण की परिस्थितियों ने बल्कि बाह्य परिस्थितियों ने भी स्त्री को पुराने जमाने के बंधनों में जकड़ रखा था। उनकी चेतना में एक सच्ची क्रांति आने की आवश्यकता थी, स्त्रियों को अपनी अपमानजनक गुलामी और भाग्यवादी फ़र्मानबरदारी पर विजय पाने की आवश्यकता थी. . .

अनाख़ाँ पर छुरे से किये गये नीचतापूर्ण वार के बाद उसने अपने आपको संभलते ही उन्हें खुली चुनौती दी और अपने जीवन में पहली बार बिना परंजी बाहर निकल आयी।

उसके क़दमों में दृढ़ता थी, लेकिन ऐसा महसूस हुआ जैसे उसके पैरों के नीचे धरती काँप रही हो। ऐसा प्रतीत होता जैसे सिर्फ़ लोग ही नहीं बल्कि दीवारें भी उसे घूर रही हों। परंजी के बिना अपना सिर सीधा किये रहना, एकदम सीधे आगे की ओर देखना, बिना जोर लगाये डग बढ़ाना मुश्किल हो रहा था।

अपने पात्रों की भावनाओं का यथार्थ एवं विश्वासोत्पादक ढंग से चित्रण करते हुए अस्क़द मुख़्तार हर बार कुछ ऐसे अविस्मरणीय सूक्ष्म विवरण देते हैं, जो उनके बाह्य व्यवहार में उन गहरे परिवर्तनों को बताते हैं, जो उनके स्वभाव को ही बदल देते हैं।

एक बार जब साबिर ने कहा कि उनके घर एक रूसी आदमी आयेगा, तो अनाखां घबरा गयी। लोग क्या कहेंगे? पड़ोसी क्या सोचेंगे?

वह सोचने लगी कि “नैमन्चा की औरतें कैसे एक दूसरे से कहेंगी। अनाख़ाँ ने रूसियों से मिलना शुरू कर दिया है। उसका शौहर शराबख़ाने के अपने यारों को घर लाता है, लोग साबिर और अनाख़ाँ से कतराने लगेंगे। व उसे काम देना बंद कर देंगे।”

परंजी उतर फेंकने के बाद अनाख़ाँ अपने आप को नया आदमी महसूस करते हुए विस्मित एवं पुलकित हो उठी और रूसी इंजिनियर सेर्गेय दोब्रोखोतोव को प्यार करने लगी। उसके संकट के क्षणों में वह किसी से नहीं डरी और अपने प्रिय व्यक्ति पर झूठे लांछन लगानेवाले लोगों के ख़िलाफ़ निडर होकर बोल उठी।

इसे वृत्तान्त में वक़्त की नब्ज़ सुनाई देती है और इसी के आधार पर लेखक ने बड़ी निपुणता से आगामी घटनाओं का महल खड़ा किया है।

लाल सेना से सेवा-निवृत एर्गश की आँखों से हम निजी कॉफी-हाउस और बाज़ारों का दिवाला देखते हैं... वह क्रोधित होता है, विद्रोह करता है, सब कुछ नष्ट कर देना चाहता है। और इस प्रकार हमें न केवल समय के यथार्थपूर्ण लक्षण ही दिखाई पड़ते है बल्कि एक जोशीला, विशाल हृदय, असंयमित व्यक्तित्व भी दिखाई देता है, तथापि राजनीतिक दृष्टि- कोण से वह पूर्णतया परिपक्व नहीं।

जुराख़ाँ की आँखों से हमें पुराने शहर के जीवन का बहुत बड़ा अंश दिखाई देता है ... उपन्यास के प्रभावशाली दृश्यों में से एक की याद दिलाता हूँ। किस प्रकार एक असह्यरूप से गरम और घुटनभरे दिन सजे सजाये गधे पर बैठकर एक बेहद मोटा आदमी, जिसका पेट भरा हुआ है, चायखाने में आता है। उसके पीछे-पीछे पुरानी, पैबन्द भरी परंजी पहने एक औरत अपने बच्चे को गोद में लिये चल रही होती है। जब तक वह आदमी शीतल छाया में बैठकर आराम करता रहा, उसकी पत्नी ज़मीन पर धूल में बैठी बच्चे को दूध पिलाती रही ...

यह दृश्य देखकर हमें क्रोध आता है, क्योंकि यह सब हम जुराख़ाँ की नज़रों से देखते हैं: उसका मानवतावाद, उसका प्यारभरा शोकाकुल हृदय विह्वल हो उठता है।

अस्क़द मुख़्तार की कृति में स्त्रियों के प्रति सम्मान की गरमाहट है।

स्त्रियों के रोषपूर्ण विरोध, उनके साहस का इसमें काव्यात्मक शैली में वर्णन किया गया है। यह पुस्तक साथी स्त्रीवर्ग और प्रिय बहनों के बारे में है।

उपन्यास " चिंगारी " अपनी यथार्थता और पूर्णता में अपने कलात्मक-गुणों के कारण अद्वितीय है।

लेखक ने जिन दुश्मनों, खलनायकों की सृष्टि की है, उन में बाय क़द्रतुल्लाह का पुत्र, नईमी, नीली मस्जिद का इमाम अब्दूमजीद ख़्वाजा, दूकानदार मतक़ोबुल आदि सबसे ज्यादा समय तक याद रहनेवाले चरित्रों में से हैं... उनमें से प्रत्येक में उनके “वर्ग के लक्षणों” के अलावा कुछ अवगम्य और व्यक्तिगत विशेषताएँ भी हैं, जो उनके चरित्र को यथार्थता प्रदान करती हैं।

उदाहरण के तौर पर शिक्षक नईमी मृदुभाषी, मुस्लिम धर्म और उसकी जातीय परम्परानों का रक्षक है, जो मित्र बनकर सोवियत सत्ता में घुस आता है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में वह तरह-तरह की बातें करता है : स्कूल में, स्त्रियों की सभा में, कुद्रतुल्लाह ख्वाजा के घर में, चाय विक्रेता के साथ... हमें हर समय उसके चरित्र का एक नया ही पक्ष दिखाई देता है। एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली प्रतिमा का निर्माण होता है।

लेखक की योजना के अनुसार सोवियत सत्ता का सबसे कट्टर एवं साधनसम्पन्न शत्रु चाय-विक्रेता को होना चाहिए था। उपन्यास की बहुत-सी महत्वपूर्ण घटनाओं से उसका सीधा सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई पड़ता है : अनाख़ाँ की हत्या का प्रयास, मिल के निर्माण में तोड़-फोड़ करनेवाला दल, जुराख़ाँ की हत्या आदि। पर उपन्यास में जिस रहस्य से यह चरित्र घिरा हुआ है, और जिसके कारण हर पाठक को उसके प्रति जिज्ञासा होनी चाहिए, वह रहस्य अंत तक नहीं खुलता।

आजकल अस्क़द मुख़्तार का यह उपन्यास विशेष रुचि के साथ पढ़ा जा रहा है। हमारी चेतना और हमारे जीवन में पुराने समय के जो लक्षण दिखाई देते हैं, उन से सम्बन्ध विच्छेद करके संघर्ष करने का समय आ गया है। इसके साथ ही स्त्रियों के प्रति बायों जैसे सामन्तवादी व्यवहार से भी संघर्ष करने का समय आ गया है, जो अब भी कभी-कभी फिर दिखाई दे जाता है।

उदाहरण के लिए, इस संदर्भ में उज़्बेकी लेखक के इस उपन्यास और किरगीजियाई लेखक च. आयतमातोव के लघु उपन्यासों “जमीला” और “लाल ओढ़नी में मेरी सरूक़द प्रेमीमें सीधा सम्बन्ध दिखाई देता है। वे स्त्रियों के मानवोचित आत्मसम्मान और उनके अधिकारों के प्रति आदर से परिपूर्ण हैं।

अस्क़द मुख़्तार का उपन्यास अपनी ऐतिहासिक प्रामाणिकता से सम्बन्धित होते हुए भी लगता है, जैसे हमारे आधुनिक युग में भी महत्त्व रखता है। यह पूर्ण परिपक्वता की ओर अग्रसर हो रहे उज्बेक गद्य की एक नवीन उपलब्धि है।


Comments

Popular posts from this blog

केदारनाथ अग्रवाल की आठ कविताएँ

कहानी - आखिरी पत्ता / ओ हेनरी Story - The Last Leaf / O. Henry

अवतार सिंह पाश की सात कविताएं Seven Poems of Pash