कहानी - नौकर / सर्गेई सेमियोनोव Story - The Servant / Sergey Terentyevich Semyonov

कहानी - नौकर

सर्गेई सेमियोनोव 

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लेखक परिचय - सर्गेई टेरेंटयेविच सेमियोनोव (28 मार्च, 1868 - 3 दिसंबर, 1922) रूसी लेखक और मॉस्को साहित्यिक समूह सेरेडा के सदस्य थे। उनका जन्म मॉस्को गवर्नरेट के आंद्रेयेवस्कॉय गांव में हुआ था, जहां उनके माता-पिता किसान थे। गरीबी के कारण उन्होंने गाँव छोड़ दिया और एक व्यापारी, सेल्समैन, प्लम्बर, मजदूर और यहाँ तक कि एक अंधे व्यापारी के लिए मार्गदर्शक के रूप में भी काम किया। इन अनुभवों ने उन्हें अपने लेखन के लिए सामग्री दी। उनकी पहली कहानी टू ब्रदर्स (1887) की लियो टॉल्स्टॉय ने प्रशंसा की, समर्थन किया और उसे प्रोत्साहित किया। उनका पहला संग्रह, 1894 में क्रिस्टेन्स्की रस्साज़ी (किसान कहानियाँ) टॉल्स्टॉय की प्रस्तावना के साथ सामने आया, जिन्होंने लेखक के गद्य की प्रमुख विशेषताओं के रूप में "ईमानदारी, सार्थकता, सरलता और गंभीरता, साथ ही लोककथाओं की कल्पना से समृद्ध भाषा की अभिव्यक्ति" का हवाला दिया। उन्होंने कविता, कई नाटक, ट्वेंटी-फाइव इयर्स इन द विलेज नामक संस्मरणों की एक पुस्तक और निबंधों का एक खंड प्रकाशित किया। उन्हें 1912 में रूसी विज्ञान अकादमी का पुरस्कार मिला।

1906 में उनके क्रांतिकारी संबंधों के कारण उन्हें निर्वासित कर दिया गया। 1917 की क्रांति के बाद, उन्होंने पुनर्गठन प्रयासों में सक्रिय भाग लिया। 1922 में सेम्योनोव की डाकुओं द्वारा हत्या कर दी गई, एक ऐसी घटना जिसने उनके मित्र मैक्सिम गोर्की को बहुत गहराई तक झकझोर दिया। गोर्की ने कहा कि सेम्योनोव के कार्यों के महत्व को पहचान लिया गया है, और किसी व्यक्ति के लिए इससे अधिक कीमती कुछ भी नहीं हो सकता है।

1.

जेराशिम ऐसे समय मास्को शहर में लौटकर आया जब कोई नौकरी मिलना बहुत कठिन था। क्रिसमस-त्योहार का केवल एक महीना रह गया था इस समय कुछ इनाम पाने की उम्मीद से सब अपनी-अपनी नौकरी पर लगे रहते हैं, चाहे वह नौकरी कितनी ही ख़राब हो। इसीलिए यह किसान का लड़का जेराशिम तीन सप्ताह तक मारा-मारा फिरा, मगर कहीं काम न मिला।

वह अपने गाँव के आदमियों और मित्रों के पास ठहरा था। यद्यपि अभी तक उसे पैसे की बहुत तंगी नहीं सहनी पड़ी थी, फिर भी एक हट्टा-कट्टा जवान आदमी होकर, बिना काम धन्धे के बैठे रहने से वह सारे दिन बहुत उदास रहता था।

जेराशिम लड़कपन से मास्को शहर में रहा था। जब वह बहुत छोटा था, उस समय शराब की भट्ठी पर बोतलें धोने का काम करता था, और बाद में एक मकान में चौका बर्तन का काम करता। इन पिछले दो सालों से वह एक सौदागर के पास था, और अगर सरकार ने उसे फ़ौजी कर्तव्य करने के लिए गाँव में न बुला लिया होता, तो वह अभी तक उसी काम में लगा रहता। खैर, फ़ौज में उसका नाम नहीं लिखा गया और गाँव में उसका मन नहीं लगा; क्योंकि ग्रामीण जीवन का वह आदी नहीं था, इसलिए उसने निश्चय किया कि भले ही उसे मास्को में दुख उठाना पड़े, वह गाँव में नहीं रहेगा।

बेकारी की हालत में गली-गली भटकना उसे बहुत ही बुरा लगता था। किसी तरह का भी काम पाने के लिए उसने जी-जान से कोशिश की। अपने सब जाने-पहचाने लोगों के पास जा जाकर तलाश की। सड़क चलते लोगों को रोक कर पूछा कि वे किसी जगह के खाली होने के बारे में जानते हैं या नहीं, मगर सब व्यर्थ!

अन्त में अपने लोगों पर एक बोझ होकर रहना जेराशिम को बुरा लगा। उसके आने पर कुछ लोग खीज प्रकट करने लगे थे; कुछ को मालिकों से डाँट-फटकार सुननी पड़ी थी। पर वह सोच नहीं पाता था कि उसे क्या करना चाहिए। कभी-कभी वह दिन भर बिना खाए-पीए रह जाता था।

2.

एक दिन जेराशिम अपने गाँव के एक मित्र के पास गया, जो शहर के बिलकुल बाहर रहता था। वह शरोव नामक एक सौदागर के यहाँ बहुत दिनों से कोचवानी कर रहा था। उस पर मालिक बहुत खुश रहते थे, उसका विश्वास करते थे और उस पर उनकी कृपा भी थी। खासकर अपनी मीठी बोली के कारण यह आदमी मालिक का कृपा-पात्र था। वह नौकरों से ठीक-ठीक काम भी करवा लेता था, इसलिए शरोव महाशय उसकी बहुत क़दर करते थे।

जेराशिम ने पास पहुँच कर उसे नमस्ते की। कोचवान ने अतिथि का स्वागत किया, उसे कुछ खाने को दिया और चाय पिलाई। फिर उससे पूछा कि उसके दिन कैसे कट रहे हैं।

जेराशिम ने कहा, "बहुत ही बुरी तरह दिन कट रहे हैं, एगर! गाँव से आने के बाद बेकार ही बैठा हूँ।"

"तुम अपने पुराने मालिक के पास क्यों नहीं गए?"

गया तो था।"

"क्या वे तुम्हें फिर नहीं रखना चाहते?"

"मेरी जगह पर एक और आदमी काम कर रहा है।"

"अच्छा, ऐसी बात है! तुम छोकरों के काम करने का ढंग ही ऐसा है तुम लोग अपनी मालिक की सेवा इस ढंग से करते हो कि एक बार काम छोड़कर लौट आने पर वे काम नहीं देते। मालिक की खिदमत इस तरह से करनी चाहिए, जिससे वे तुम पर खुश रहें, और जब तुम लौट कर आओ तब फिर रखने से इनकार न करें, बल्कि तुम्हारी जगह पर जो काम कर रहा हो, उसे छुड़ा कर तुम्हें रखें!

"कौन ऐसा करता है? आजकल के मालिक इस तरह के नहीं हैं।"

"बहस करने से फ़ायदा क्या? मैं अपने बारे में कह रहा हूँ। सुनो, अगर किसी वजह से मुझे गाँव जाना पड़े और बहुत दिनों के बाद भी लौट कर आऊँ, तो मिस्टर शरोव बहुत खुशी के साथ मुझे रख लेंगे।"

आँखें नीची करके जेराशिम बैठा रहा। उसने देखा, उसका मित्र अपनी बड़ाई कर रहा है। उसे वह खुश करना चाहा। इसलिए उसने कहा, "मैं यह जानता हूँ। मगर तुम्हारी तरह आदमी मिलना मुश्किल है। एगर, अगर तुम लायक न होते, आलसी होते, तो तुम्हारे मालिक तुम्हें बारह साल तक कभी नहीं रखते।"

एगर मुस्कराया। अपनी तारीफ़ सुनकर उसे खुशी हुई। उसने कहा, “हाँ, अगर तुम लोग मेरी तरह जी-जान लगा कर ख़िदमत करो, तो तुम्हें महीने भर बेकार न रहना पड़े।"

जेराशिम ने कोई जवाब नहीं दिया।

इसी समय मालिक ने एगर को बुला भेजा। उसने जेराशिम से कहा, "जरा ठहरो, मैं अभी आ रहा हूँ।"

3.

एगर ने लौटकर बताया कि आधे घंटे के भीतर घोड़े पर साज़ कस कर गाड़ी जोत कर तैयार रखनी होगी। मालिक शहर को जाएँगे। फिर उसने एक चिलम सुलगा कर तम्बाकू पीते-पीते जेराशिम से कहा, "तुम कहो तो मालिक से कहकर यहाँ तुम्हारी नौकरी लगवा दूँ ।"

"क्या उन्हें नौकर की जरूरत है?"

"जरूरत तो नहीं है, मगर जो एक आदमी रहता है, वह ठीक ढंग से काम नहीं कर सकता। वह बूढ़ा हो चला है; उससे काम होना मुश्किल है। इस मुहल्ले में बहुत कम लोग रहते हैं और पुलिस भी तंग करने नहीं आती, वरना वह टिक नहीं सकता था जगह जैसी साफ़ रखनी चाहिए वह नहीं रख पाता।"

तब मालिक से कहकर मुझे रखवा दो, एगर मैं जिन्दगी भर के लिए अहसानमन्द रहूँगा। बिना काम के अब एक दिन भी गुजर करना मेरे लिए मुश्किल है!"

"अच्छी बात है। मैं उनसे कहूँगा। कल फिर आ जाना और लो, यह दुअन्नी लेते जाओ। इससे अभी काम चलाना।"

"शुक्रिया, एगर ! तब तुम मेरे लिए कोशिश करोगे? मुझ पर यह मेहरबानी करना न भूलना !

हाँ, हाँ, मैं कोशिश करूँगा।"

जेराशिम चला गया, और एगर घोड़े पर साज कसने लगा। फिर वह अपनी कोचवान की वर्दी पहन कर गाड़ी जोत कर उसे दरवाज़े के सामने ले गया। मिस्टर शरोब मकान के अन्दर से निकलकर गाड़ी पर बैठ गए और वह गाड़ी हाँकने लगा। वे शहर में अपना काम करके घर लौट आए। एगर ने देखा, उसके मालिक इस वक्त खुश हैं, तो उसने कहा- "मालिक! आपसे मेरी एक विनती है।"

"क्या ?"

"मेरे गाँव से एक नौजवान आया है, वह अच्छा लड़का है। वह बेकार बैठा है।"

"अच्छा!

"आप उसे रखिएगा?"

"किस काम के लिए रखूँ?"

"बाहर के काम, चौकीदारी, झाडू-बाड़ देने के लिए आप उसे रख सकते हैं।"

"मगर उसके लिए तो पोलिकारपिच है?"

"अब वह किस काम का रहा? अब उस बूढ़े को निकाल देने का वक्त आ गया है।"

"यह ठीक नहीं होगा। बहुत दिनों से वह मेरे यहाँ काम कर रहा है। अकारण मैं कैसे उसे छुड़ा सकता हूँ?"

"हाँ, यह बात तो सही है कि वह आपके पास बहुत दिनों से काम कर रहा है; मगर उसने मुफ्त तो काम नहीं किया। इसके लिए उसे तनख्वाह मिली है। अपने बुढ़ापे के लिए ज़रूर ही उसने सौ-पचास रुपए बचा लिए होंगे।"

"बचा लिए होंगे! कैसे, कहाँ से? वह अकेला तो नहीं है; उसे अपनी औरत को पालना पड़ा है। कैसे बचा सका होगा?"

"उसकी औरत भी तो कमाती है।"

"अरे, वह क्या कमाती होगी, ताड़ी पीने का खर्च चल जाता होगा।

"आप पोलिकारपिच और उसकी औरत के लिए इतना क्यों सोच रहे हैं? सच बात तो यह है कि वह अब काम नहीं कर सकता। उसे रखने से आपका कोई फ़ायदा नहीं, फ़िज़ूल रुपया बर्बाद होता है। वह वक्त पर बर्फ़ बटोरकर नहीं फेंकता, अहाता भी गन्दा रखता है। कभी ठीक ढंग से काम नहीं करता। और जब उसकी चौकीदारी की बारी होती है, कम-से-कम रात भर में दस बार अपनी कोठरी में जाकर बैठा रहता है। उससे ठंड बर्दाश्त नहीं होती। आप देख लीजिएगा, उसके लिए किसी दिन आपकी फटकार सुननी पड़ेगी। कुछ दिनों में तिमाही जाँच के लिए दारोगा आनेवाला है।"

"फिर भी उसे छुड़ा देना क्या ठीक होगा? पन्द्रह साल से मेरे पास वह नौकरी कर रहा है। उसके साथ बुढ़ापे में अगर ऐसा व्यवहार किया, तो यह एक पाप होगा।"

"पाप ! क्यों? आप उसका क्या नुकसान कीजिएगा? वह भूखा नहीं मरेगा। वह मुहताज खाने में जाएगा। बुढ़ापे में वहाँ पर वह शान्ति से, आराम से रहेगा।"

शरोव ने सोचकर कहा, "अच्छी बात है। तुम अपने दोस्त को मेरे पास लाना ।” “मालिक ! आप उसे रख लीजिए। उसके लिए मुझे बहुत फ़िक्र है। वह बहुत नेक लड़का है और बहुत 'दिनों से बेकार बैठा है। मुझे अच्छी तरह से मालूम है, वह खरा आदमी है और आपकी खिदमत जी-जान से करेगा। अगर सरकार उसे फ़ौज में भरती करने के लिए गाँव में नहीं बुलाती, तो उसकी नौकरी नहीं छूटती। वह अगर नहीं जाता, तो उसके मालिक उसे नहीं छोड़ते।"

4.

दूसरे दिन शाम को जेराशिम फिर आया और पूछा, “क्या मेरे लिए तुम कुछ कर सके ?"

"हाँ, कुछ किया है। पहले चाय तो पी लो फिर हम लोग मालिक से मिलेंगे।"

जेराशिम को चाय पीने की बिलकुल इच्छा नहीं थी। उसे मालिक का फ़ैसला सुनने की बहुत उत्सुकता थी; मगर कोचवान की खातिर के दबाव से वह दो गिलास चाय पी गया। फिर वे मालिक से मिलने के लिए चले।

शरोव ने जेराशिम से पूछताछ की कि पहले वह कहाँ काम करता था और क्या-क्या कर सकेगा। फिर उसे इस शर्त पर रख लिया कि जब जो काम आ पड़ेगा, उसे करना होगा ।

और जेराशिम को हुक्म मिला, “सुबह से काम पर हाजिर हो जाओ।"

अपने सौभाग्य से जेराशिम चकित हो गया। वह खुशी के मारे उछलता कूदता कोचवान की कोठरी में गया।

तब एगर ने उससे कहा, "देखना भाई, अपना काम ठीक ढंग से करना; तुम्हारे लिए मुझे शर्मिन्दा न होना पड़े। तुम जानते ही हो कि मालिक लोग कैसे होते हैं। अगर ज़रा भी ग़फलत की और पकड़े गए, तो वे हमेशा कुसूर ढूँढ़ते रहेंगे और शान्ति से रहना ही दूभर हो जाएगा।"

"इसके लिए फ़िक्र न करो, एगर!"

"बहुत अच्छा! बहुत अच्छा!"

जेराशिम विदा लेकर, फाटक के बाहर जाने के लिए आँगन पार कर रहा था। पोलकारपिच की कोठरी आँगन में थी और उसकी खिड़की से रोशनी आकर जेराशिम की राह में पड़ रही थी। अपना भविष्य का कमरा जरा झाँककर देख लेने के लिए उसे बहुत कौतूहल हुआ। वह दो कदम आगे बढ़कर खिड़की के पास आया, मगर खिड़की के काँच पर बर्फ जम जाने के कारण भीतर नहीं देख पाया। फिर भी भीतर के लोग क्या बातें कर रहे हैं, वह यह साफ़ सुन पाया।

कोई औरत कह रही थी, "अब हम लोग क्या करेंगे?"

एक पुरुष ने जवाब दिया, वह पोलिकारपिच था, "मुझे पता नहीं, मुझे पता नहीं भीख माँगनी पड़ेगी और क्या ?"

औरत ने कहा, "हाँ! इसके सिवाय हम लोग और क्या कर सकते हैं? आखिर हम लोगों को भीख माँगनी पड़ेगी! हाय, हम ग़रीबों की जिन्दगी किस क़दर बुरी होती है ! सुबह से रात तक दिन-दिन भर काम करते जाते हैं और जब बूढ़े हो जाते हैं तब- -भागो यहाँ से!"

हमारी बात कौन सुनता है? मालिक तो हम में से एक नहीं हैं जो हमारा दुख समझे। उनसे सब कहना फ़िज़ूल है। वे सिर्फ़ अपना फ़ायदा देखते हैं।"

"सब मालिक लोग इसी तरह के नीच होते हैं। वे दूसरों के बारे में बिलकुल सोचते ही नहीं, सिर्फ़ फ़ायदे पर निगाह रखते हैं। उन लोगों को यह ख्याल ही नहीं होता कि हम लोग ईमानदारी के साथ एक जमाने से उनकी खिदमत करते रहे हैं। उनकी सेवा में अपनी सारी ताक़त ख़त्म कर चुके हैं। और एक साल भर भी हम लोगों को वे नहीं रखना चाहते हैं। क्या हम लोगों में बिल्कुल ताक़त नहीं रही हम लोगों को रखे रहें, अगर हम न कर सकें, तो अपनी खुशी से चले जाएँगे।"

"मालिक का ज्यादा कुसूर नहीं है; हम लोगों को यह कोचवान यहाँ से भगा रहा है। एगर अपने एक दोस्त को मेरी जगह पर रखवाना चाहता है।"

"हाँ, वह तो साँप है ! वह जुबान चलाना खूब जानता है। बदमाश कहीं का! ठहर बदजुबान जानवर, मैं भी तुझे मजा चखाऊँगी मैं अभी सीधी मालिक के पास जाकर कहूँगी, वह किस तरह से उन्हें उगता है, किस तरह घास और दाने की चोरी करता है। मैं पूरा-पूरा सबूत दिखाऊँगी और तब उन्हें मालूम हो जाएगा कि वह हम लोगों के बारे में कैसी झूठी चुगली करता है!"

"अरी बुढ़िया ! ऐसा न कर यह पाप है।"

"पाप है! मैंने जो कुछ कहा, क्या वह सच नहीं है? मैं जो कुछ कह रही हूँ, सब सच है, और मालिक से जरूर कहूँगी! वे अपनी आँखों से देख लें। क्यों न कहूँ? हम लोग कहाँ जाएँ! उसने हम लोगों का नाश कर दिया है, एकदम नाश कर दिया है।"

बुढ़िया रो पड़ी।

जेराशिम ने सब सुना। वे बातें उसके दिल में छुरी की तरह चुभ रही थीं। वह साफ़ समझ गया कि इन बूढ़े लोगों को वह कितना दुख देने जा रहा है। उसका हृदय वेदना से भर गया। बहुत देर तक वहाँ खड़ा रहकर बहुत उदास होकर, चिन्ता में डूबा रहा, फिर घूम कर कोचवान की कोठरी की ओर लौट गया ।

"अरे, क्या तुम कुछ भूल कर छोड़ गए ?"

"नहीं, एगर !" जेराशिम हकलाता हुआ कहने लगा, “तुमने ... तुमने मेरे ... लिए कितनी ... तकलीफ़ उठाई; मगर...मगर मैं यह नौकरी नहीं कर सकूँगा। क्षमा करना।"

"क्यों? आखिर बात क्या है?"

"कुछ नहीं! मैं यह नौकरी नहीं करना चाहता। कोई और ढूँढ लूँगा।"

एगर बहुत नाराज हो गया। चिल्लाकर कहने लगा, "तब क्या तुम मुझे उल्लू बनाना चाहते थे? बेवकूफ़ ! पहले आकर पैरों पड़े 'एक नौकरी लगवा दो, एक नौकरी लगवा दो!' और अब नौकरी नहीं करना चाहते! बदमाश कहीं के! तुमने मुझे बेइज़्ज़त किया।"

जवाब देने लायक कोई बात जेराशिम को नहीं मिली। उसने सिर नीचा कर लिया। एगर घृणा से मुँह फेरकर खड़ा हो गया। उसने और कुछ नहीं कहा।

तब जेराशिम चुपचाप अपनी टोपी उठाकर कोचवान की कोठरी से निकला। वह जल्दी-जल्दी आँगन पार कर, फाटक से सड़क पर निकल आया, और तेज कदमों से शहर की ओर बढ़ने लगा। अब उसका चित्त हल्का था और उसे एक सुख का अनुभव हो रहा था।


The Servant

S.T. Semyonov

Author Introduction - Sergey Terentyevich Semyonov (1868 - 1922) was a Russian writer and a member of the Moscow literary group, Sreda. He was admired and mentored by both Leo Tolstoy and Maxim Gorky.

Semyonov was born in a small Moscow village called Andreyevskoy, which he left at a young age to try to find any work he could, which included: errand boy, salesman, plumber, laborer, and a blind merchant guide. These experiences and travels were the material for his writing. Leo Tolstoy praised his first work, Two Brothers, published in 1887.

Semyonov's political pursuits proved deadly. He was exiled in 1906 for his revolutionary connections, and after actively participating in the Revolution of 1917, was murdered by bandits in 1922. His friend, Maxim Gorky remarked after his death that at least Semyonov was recognized for his work, which is all a man could ask.

We feature Semyonov's short story, The Servant, about a young man desperate to find work, published in 1917, the year of the Revolution.


The Servant is a semi-autobiographical story based on Semyonov's own struggles to find odd jobs in an attempt to crawl out of poverty. It was featured in Thomas Seltzer's collection of Best Russian Stories (1917).



I

Gerasim returned to Moscow just at a time when it was hardest to find work, a short while before Christmas, when a man sticks even to a poor job in the expectation of a present. For three weeks the peasant lad had been going about in vain seeking a position.

He stayed with relatives and friends from his village, and although he had not yet suffered great want, it disheartened him that he, a strong young man, should go without work.

Gerasim had lived in Moscow from early boyhood. When still a mere child, he had gone to work in a brewery as bottle-washer, and later as a lower servant in a house. In the last two years he had been in a merchant's employ, and would still have held that position, had he not been summoned back to his village for military duty. However, he had not been drafted. It seemed dull to him in the village, he was not used to the country life, so he decided he would rather count the stones in Moscow than stay there.

Every minute it was getting to be more and more irk-some for him to be tramping the streets in idleness. Not a stone did he leave unturned in his efforts to secure any sort of work. He plagued all of his acquaintances, he even held up people on the street and asked them if they knew of a situation--all in vain.

Finally Gerasim could no longer bear being a burden on his people. Some of them were annoyed by his coming to them; and others had suffered unpleasantness from their masters on his account. He was altogether at a loss what to do. Sometimes he would go a whole day without eating.

II

One day Gerasim betook himself to a friend from his village, who lived at the extreme outer edge of Moscow, near Sokolnik. The man was coachman to a merchant by the name of Sharov, in whose service he had been for many years. He had ingratiated himself with his master, so that Sharov trusted him absolutely and gave every sign of holding him in high favour. It was the man's glib tongue, chiefly, that had gained him his master's confidence. He told on all the servants, and Sharov valued him for it.

Gerasim approached and greeted him. The coachman gave his guest a proper reception, served him with tea and something to eat, and asked him how he was doing.

"Very badly, Yegor Danilych," said Gerasim. "I've been without a job for weeks."

"Didn't you ask your old employer to take you back?"

"I did."

"He wouldn't take you again?"

"The position was filled already."

"That's it. That's the way you young fellows are. You serve your employers so-so, and when you leave your jobs, you usually have muddied up the way back to them. You ought to serve your masters so that they will think a lot of you, and when you come again, they will not refuse you, but rather dismiss the man who has taken your place."

"How can a man do that? In these days there aren't any employers like that, and we aren't exactly angels, either."

"What's the use of wasting words? I just want to tell you about myself. If for some reason or other I should ever have to leave this place and go home, not only would Mr. Sharov, if I came back, take me on again without a word, but he would be glad to, too."

Gerasim sat there downcast. He saw his friend was boasting, and it occurred to him to gratify him.

"I know it," he said. "But it's hard to find men like you, Yegor Danilych. If you were a poor worker, your master would not have kept you twelve years."

Yegor smiled. He liked the praise.

"That's it," he said. "If you were to live and serve as I do, you wouldn't be out of work for months and months."

Gerasim made no reply.

Yegor was summoned to his master.

"Wait a moment," he said to Gerasim. "I'll be right back."

"Very well."

III

Yegor came back and reported that inside of half an hour he would have to have the horses harnessed, ready to drive his master to town. He lighted his pipe and took several turns in the room. Then he came to a halt in front of Gerasim.

"Listen, my boy," he said, "if you want, I'll ask my master to take you as a servant here."

"Does he need a man?"

"We have one, but he's not much good. He's getting old, and it's very hard for him to do the work. It's lucky for us that the neighbourhood isn't a lively one and the police don't make a fuss about things being kept just so, else the old man couldn't manage to keep the place clean enough for them."

"Oh, if you can, then please do say a word for me, Yegor Danilych. I'll pray for you all my life. I can't stand being without work any longer."

"All right, I'll speak for you. Come again to-morrow, and in the meantime take this ten-kopek piece. It may come in handy."

"Thanks, Yegor Danilych. Then you will try for me? Please do me the favour."

"All right. I'll try for you."

Gerasim left, and Yegor harnessed up his horses. Then he put on his coachman's habit, and drove up to the front door. Mr. Sharov stepped out of the house, seated himself in the sleigh, and the horses galloped off. He attended to his business in town and returned home. Yegor, observing that his master was in a good humour, said to him:

"Yegor Fiodorych, I have a favour to ask of you."

"What is it?"

"There's a young man from my village here, a good boy He's without a job."

"Well?"

"Wouldn't you take him?"

"What do I want him for?"

"Use him as man of all work round the place."

"How about Polikarpych?"

"What good is he? It's about time you dismissed him."

"That wouldn't be fair. He has been with me so many years. I can't let him go just so, without any cause."

"Supposing he has worked for you for years. He didn't work for nothing. He got paid for it. He's certainly saved up a few dollars for his old age."

"Saved up! How could he? From what? He's not alone in the world. He has a wife to support, and she has to eat and drink also."

"His wife earns money, too, at day's work as charwoman."

"A lot she could have made! Enough for kvas."

"Why should you care about Polikarpych and his wife? To tell you the truth, he's a very poor servant. Why should you throw your money away on him? He never shovels the snow away on time, or does anything right. And when it comes his turn to be night watchman, he slips away at least ten times a night. It's too cold for him. You'll see, some day, because of him, you will have trouble with the police. The quarterly inspector will descend on us, and it won't be so agreeable for you to be responsible for Polikarpych."

"Still, it's pretty rough. He's been with me fifteen years. And to treat him that way in his old age--it would be a sin."

"A sin! Why, what harm would you be doing him? He won't starve. He'll go to the almshouse. It will be better for him, too, to be quiet in his old age."

Sharov reflected.

"All right," he said finally. "Bring your friend here. I'll see what I can do."

"Do take him, sir. I'm so sorry for him. He's a good boy, and he's been without work for such a long time. I know he'll do his work well and serve you faithfully. On account of having to report for military duty, he lost his last position. If it hadn't been for that, his master would never have let him go."

IV

The next evening Gerasim came again and asked:

"Well, could you do anything for me?"

"Something, I believe. First let's have some tea. Then we'll go see my master."

Even tea had no allurements for Gerasim. He was eager for a decision; but under the compulsion of politeness to his host, he gulped down two glasses of tea, and then they betook themselves to Sharov.

Sharov asked Gerasim where he had lived before end what work he could do. Then he told him he was prepared to engage him as man of all work, and he should come back the next day ready to take the place.

Gerasim was fairly stunned by the great stroke of fortune. So overwhelming was his joy that his legs would scarcely carry him. He went to the coachman's room, and Yegor said to him:

"Well, my lad, see to it that you do your work right, so that I shan't have to be ashamed of you. You know what masters are like. If you go wrong once, they'll be at you forever after with their fault-finding, and never give you peace."

"Don't worry about that, Yegor Danilych."

"Well--well."

Gerasim took leave, crossing the yard to go out by the gate. Polikarpych's rooms gave on the yard, and a broad beam of light from the window fell across Gerasim's way. He was curio as to get a glimpse of his future home, but the panes were all frosted over, and it was impossible to peep through. However, he could hear what the people inside were saying.

"What will we do now?" was said in a woman's voice.

"I don't know, I don't know," a man, undoubtedly Polikarpych, replied. "Go begging, I suppose."

"That's all we can do. There's nothing else left," said the woman. "Oh, we poor people, what a miserable life we lead. We work and work from early morning till late at night, day after day, and when we get old, then it's, 'Away with you!'"

"What can we do? Our master is not one of us. It wouldn't be worth the while to say much to him about it. He cares only for his own advantage."

"All the masters are so mean. They don't think of any one but themselves. It doesn't occur to them that we work for them honestly and faithfully for years, and use up our best strength in their service. They're afraid to keep us a year longer, even though we've got all the strength we need to do their work. If we weren't strong enough, we'd go of our own accord."

"The master's not so much to blame as his coachman. Yegor Danilych wants to get a good position for his friend."

"Yes, he's a serpent. He knows how to wag his tongue. You wait, you foul-mouthed beast, I'll get even with you. I'll go straight to the master and tell him how the fellow deceives him, how he steals the hay and fodder. I'll put it down in writing, and he can convince himself how the fellow lies about us all."

"Don't, old woman. Don't sin."

"Sin? Isn't what I said all true? I know to a dot what I'm saying, and I mean to tell it straight out to the master. He should see with his own eyes. Why not? What can we do now anyhow? Where shall we go? He's ruined us, ruined us."

The old woman burst out sobbing.

Gerasim heard all that, and it stabbed him like a dagger. He realised what misfortune he would be bringing the old people, and it made him sick at heart. He stood there a long while, saddened, lost in thought, then he turned and went back into the coachman's room.

"Ah, you forgot something?"

"No, Yegor Danilych." Gerasim stammered out, "I've come--listen--I want to thank you ever and ever so much--for the way you received me--and--and all the trouble you took for me--but--I can't take the place."

"What! What does that mean?"

"Nothing. I don't want the place. I will look for another one for myself."

Yegor flew into a rage.

"Did you mean to make a fool of me, did you, you idiot? You come here so meek--'Try for me, do try for me'--and then you refuse to take the place. You rascal, you have disgraced me!"

Gerasim found nothing to say in reply. He reddened, and lowered his eyes. Yegor turned his back scornfully and said nothing more.

Then Gerasim quietly picked up his cap and left the coachman's room. He crossed the yard rapidly, went out by the gate, and hurried off down the street. He felt happy and lighthearted.

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