कहानी - जंगल गूँज रहा है / व्लादीमिर कोरोलेन्को Story - The Murmuring Forest / Vladimir Korolenko
कहानी - जंगल गूँज रहा है
व्लादीमिर कोरोलेन्को (अनुवाद - मदनलाल ‘मधु’)
(पोलेस्ये की एक दन्त-कथा)
आपबीती यह किसी की जो कहानी बन गयी!
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लेखक परिचय - व्लादीमिर कोरोलेन्को (1853-1921) 19वीं शताब्दी के अन्त और 20वीं शताब्दी के आरम्भ के एक प्रमुख यथार्थवादी लेखक व्लादीमिर कोरोलेन्को अपने समय के एक सर्वाधिक मनमोहक व्यक्ति थे। कोरोलेन्को को अपना पहला गुरु बताते हुए सर्वहारा लेखक मक्सिम गोर्की ने लिखा है- “मेरे लिए कोरोलेन्को उन सैकड़ों लोगों में सबसे श्रेष्ठ बने रहे हैं जिनसे मेरी भेंट हुई है और मैं उन्हें रूसी लेखक का आदर्श रूप मानता हूँ।” कोरोलेन्को कहानियाँ और लघु-उपन्यास, आधी शती के रूसी जीवन के इतिवृत के रूप में अनेक खण्डोंवाला 'मेरे समकालीन का इतिहास', जारशाही द्वारा साइबेरिया में निर्वासित होने पर वहाँ बिताये गये जीवन के शब्दचित्र, लेव तोल्स्तोय और अन्तोन चेखव आदि के बारे में संस्मरण (लगभग 700 लेख, पत्र, शब्दचित्र और टिप्पणियाँ) साहित्यिक थाती के रूप में छोड़ गये हैं। 'जंगल गूँज रहा है' (1886) कहानी उत्पीड़ितों के प्रति सहानुभूति से ओतप्रोत है जिनका क्रोध धीरे-धीरे परिपक्व होता है, किन्तु सहसा और बहुत ज़ोर से फट पड़ता है।
1
जंगल गूँज रहा था...
सदा ही शोर मचा रहता था इस जंगल में - एक ही सुर में बँधा हुआ, दूरी पर बजने वाली घण्टियों की गूँज की तरह लहराता हुआ। अस्पष्ट-सा यह शोर मन को शान्ति देता था, दूर से सुनायी पड़ने वाली निःशब्द मधुर धुन की भाँति, अतीत की उलझी-उलझायी स्मृतियों की तरह। हमेशा ही शोर रहता था इस जंगल में, क्योंकि यह बहुत पुराना, घना और सपनों में ऊँघता हुआ-सा था। किसी ठेकेदार के आरे और कुल्हाड़ी ने इसे छुआ तक नहीं था। सनोबर के सौ-सौ वर्ष पुराने ऊँचे वृक्ष फ़ौजी जवानों की तरह मुँह फुलाये खड़े थे। बहुत बड़े-बड़े और लाल-लाल तने थे उनके। उनकी हरी-भरी फुनगियाँ आपस में गुँथी हुई थीं। नीचे गहरा सन्नाटा था, राल की गन्ध थी। सनोबर के सुई जैसे पत्तों की ज़मीन पर जमी हुई मोटी परतों के बीच से जहाँ-तहाँ चमकती हुई झाड़ियाँ अपने सिर बाहर निकाले हुए थीं। ये झाड़ियाँ इन परतों की फूली-फूली और अत्यधिक आकर्षक झालर-सी मालूम होती थीं। ये एकदम निश्चल थीं, एक पत्ता तक नहीं हिल रहा था इनका। जंगल के नम हिस्सों में ऊँची-ऊँची हरी घास दूर तक खड़ी थी। तिपतिया घास के सफ़ेद फूल सिर भारी होने के कारण झुके जा रहे थे, मानो चुपचाप अपनी थकान मिटा रहे हों। नीचे था ऐसा सन्नाटा और ऊपर थी जंगल की अविराम साँय-साँय। पुराना वन मानो गहरी साँसें ले रहा था।
जंगल की ये साँसें इस वक़्त और अधिक गहरी और ज़ोरदार हो गयी थीं। मैं इस वन की एक पगडण्डी पर चला जा रहा था। यह सही है कि मुझे आकाश दिखायी नहीं दे रहा था, मगर वन के तेवर देखकर मैंने यह महसूस कर लिया था कि ऊपर धीरे-धीरे बादल उमड़-घुमड़ रहे हैं। वक़्त काफ़ी हो चुका था। वृक्षों के तनों के बीच से कहीं-कहीं कोई किरण झलक दिखा रही थी। मगर वन के घने हिस्सों पर शाम का झुटपुटा छाता जा रहा था। नज़र आ रहा था कि रात होते तक तूफ़ान आयेगा। आज के लिए शिकार का ख़याल दिमाग़ से निकालना ज़रूरी हो गया था। तूफ़ान आने के पहले रात बिताने के ठिकाने पर पहुँचना लाज़िमी था। ज़मीन से बाहर निकली हुई जड़ों पर मेरे घोड़े के सुम बज रहे थे और वह नथुने फरफरा रहा था। आवाज़ की गूँज जब जंगल में ज़ोर से प्रतिध्वनित होती, तो वह कनौतियाँ बदलता। वन-रक्षक की जानी-पहचानी जगह की ओर वह ख़ुद ही तेज़ी से क़दम बढ़ाता जा रहा था।
कुत्ता भूँका। वृक्षों के तनों के बीच से लिपी-पुती दीवारें झलक दिखाने लगीं। ऊपर छायी हुई हरियाली के नीचे धुएँ की नीली रेखा बल खा रही थी। लाल तनों की दीवार के नीचे एक तरफ़ को झुकी हुई झोपड़ी थी, जिसकी छत भी जीर्ण-शीर्ण थी। ऐसा लगता था कि सुघड़ और तने हुए सनोबरों के ऊँचे-ऊँचे सिर जब इस झोपड़ी के ऊपर झूमते हैं, तो यह और अधिक ज़मीन में धँस जाती है। जंगल के खुले मैदान के बीचोबीच शाहबलूत के कमउम्र वृक्षों के झुण्ड आपस में गुँथे हुए खड़े थे।
शिकार के वक़्त के मेरे साथी वन-रक्षक ज़ख़ार और मक्सिम यहीं रहते थे। स्पष्ट था कि इस समय उन दोनों में से कोई भी घर पर नहीं था, क्योंकि एलसेशन कुत्ते के ज़ोर से भूँकने पर भी कोई घर से बाहर नहीं निकला था। सिर्फ़ एक बूढ़ा बाबा झोपड़ी की दीवार से सटकर बैठा हुआ था - चाँद निकली हुई, सफ़ेद मूँछें, जो सीने तक पहुँच रही थीं। वह छाल के जूते गाँठ रहा था और धुँधली नज़र से ऐसे देख रहा था, मानो कुछ याद करने की कोशिश कर रहा हो, जो उसे याद नहीं आ रहा था।
"नमस्कार बाबा! घर पर है कोई?"
"ऐं!" उसने सिर हिलाया। "न तो ज़ख़ार है और न मक्सिम। रही मोल्या तो वह गाय के पीछे जंगल में गयी है - गाय कहीं वन में खो गयी है। बहुत मुमकिन है भालू... गाय को भालू खा गये हों... हाँ तो, कोई नहीं है घर पर!"
"ख़ैर, कोई बात नहीं। मैं तुम्हारे पास बैठकर इन्तज़ार करता हूँ उनका।"
"कर लो इन्तज़ार, बैठ जाओ यहाँ," बूढ़े बाबा ने उत्तर दिया। मैं जब बलूत की टहनी से अपना घोड़ा बाँध रहा था, तो वह अपनी कमज़ोर और धुँधलायी हुई नज़र से मुझे देखता रहा। बेचारा बूढ़ा - आँखों से दिखायी नहीं देता, हाथ काँपते हैं।
मैं जब उसके क़रीब ही बैठ गया, तो बूढ़े ने पूछा -
"कौन हो भाई तुम?"
जब-जब भी मैं यहाँ आता था, बूढ़ा बाबा मुझसे हर बार यही सवाल पूछता था।
"अरे, तुम हो... समझा," बूढ़े ने जवाब दिया और फिर जूते गाँठने के काम में जुट गया। "अक्ल बुढ़ा गयी है। दिमाग़ बिल्कुल छलनी हो गया है, कुछ भी नहीं ठहरता उसमें। जो कभी के मर-खप गये, वे याद हैं मुझे, बहुत अच्छी तरह से याद हैं! मगर नये लोगों को, सभी नये लोगों को भूल जाता हूँ... बहुत अधिक दिन जी लिया इस धरती पर।"
"बाबा, बहुत अर्से से डेरा है क्या इसी जंगल में?"
"हाँ, ऐसा ही समझो, भाई! फ़्रांसीसी जब आये थे ज़ार के राज में, तब भी मैं धरती पर था।"
"तब तो बहुत कुछ देखा-जाना है तुमने, बाबा। शायद बहुत कुछ जानते हो।"
बूढ़े बाबा ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा।
"क्या देखना-वेखना था मुझे, भाई? बस, जंगल देखा... शोर मचाया करता है जंगल, दिन को, रात को, जाड़े में, गरमी में... मैं तो ख़ुद मानो एक पेड़ हूँ, यहीं जंगल में उम्र गुज़र गयी - न कुछ देखा, न भाला... क़ब्र में पाँव लटकाये बैठा हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ - सो भी अक्ल काम नहीं करती - समझ नहीं पाता कि दुनिया में जिया भी कि नहीं... हाँ, तो यह बात है! शायद बिल्कुल जिया ही नहीं..."
जंगल के खुले मैदान में खड़े हुए वृक्षों के झुण्डों की घनी चोटियों के पीछे से काली घटा का छोर दिखायी दिया। जंगल के इस खुले भाग को घेरने वाले सनोबरों की टहनियों ने हवा के झोंकों के इशारों पर झूलना शुरू कर दिया था। जंगल में बहुत शोर मच गया। बूढ़े ने सिर उठाया और इस शोर की तरफ़ कान लगा दिया।
"तूफ़ान आ रहा है," उसने घड़ी-भर बाद कहा, "मैं यह निश्चित रूप से जानता हूँ। ओह, रात को ज़ोर का अन्धड़ चलेगा, सनोबरों की शामत आयेगी, जड़ समेत उखाड़कर फेंक देगा वह उन्हें!... अपने रंग दिखायेगा जंगल का मालिक..." उसने धीरे-से कहा।
"तुम्हें कैसे मालूम है, बाबा?"
"अरे, यह मुझे मालूम है! मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि पेड़ क्या कहता है... प्यारे, पेड़ भी डरता है... इसे देखो इस एस्प के वृक्ष को... मनहूस वृक्ष है यह... चौबीसों घण्टे कुछ न कुछ बोलता रहता है अपनी बोली में। हवा नहीं है, मगर उसे तो अपने काँपने से मतलब। इस सनोबर को ले लो - साफ़ दिन होता है, धूप होती है, तो यह ख़ूब मस्त रहता है। ज़रा हवा चलने लगती है, तो यह लगता है गूँजने और कराहने। यह तो ख़ैर कुछ नहीं... तुम अब ज़रा ध्यान से सुनो। आँखों से तो बेशक मुझे बहुत कम दिखायी देता है, पर कानों से तो सुनता हूँ - शाहबलूत शोर मचा रहा है न, छेड़ रहा है उसे कोई जंगली मैदान में... यह निशानी है तूफ़ान की।"
उसकी बात सही थी। मैंने कम ऊँचे और इधर-उधर फैले हुए बलूतों के उस झुण्ड की तरफ़ देखा, जो जंगल के मैदान के बीचोबीच खड़ा था और जिसके गिर्द ऊँचे सनोबर वृक्षों की दीवार-सी बनी हुई थी। बलूत वृक्षों का यह झुण्ड हवा के ज़ोरदार झोंकों में झूल रहा था और उससे जो कठोर अघोष ध्वनि पैदा हो रही थी, वह सनोबरों के गूँजते शोर से बिल्कुल भिन्न थी।
"क्यों? सुना तुमने?" बूढ़े ने कहा। उसके होंठों पर बाल-सुलभ शरारत थी। "मैं ख़ूब जानता हूँ - छेड़ा है किसी ने बलूत को! मतलब यह है कि मालिक रात को आयेगा, तोड़ा-मरोड़ी करेगा... हाँ, मगर नहीं, टूटेगा नहीं वह! वह शाहबलूत है - बड़ा जानदार वृक्ष है, मालिक की भी चलने नहीं देता... यह है क़िस्सा, प्यारे!"
"यह मालिक कौन है, बाबा? तुम ख़ुद ही तो कहते हो कि तूफ़ान पेड़ों को तोड़ता-मरोड़ता है।"
बूढ़े बाबा ने सिर हिलाया। उसके चेहरे पर शरारत झलक रही थी।
"सभी कुछ तो जानता हूँ मैं!... कहते हैं कि ऐसी हो गयी है दुनिया कि किसी चीज़ में कोई विश्वास, कोई आस्था ही नहीं रही। तो यह है मामला! मगर मैंने तो देखा है उसे अपनी इन आँखों से, जैसे कि अब तुम्हें देख रहा हूँ। अरे नहीं, इससे भी कहीं अच्छी तरह से, क्योंकि अब तो बुढ़ा गयी हैं मेरी आँखें और तब जवानी की आँखें थीं। ओह, क्या रोशनी, कैसी ज्योति थी उन दिनों मेरी आँखों में!..."
"कैसे देख लिया तुमने उसे, बाबा? कुछ सुनाओ तो।"
"सब कुछ ऐसे ही था जैसे कि इस समय। पहले सनोबर वन में कराहता है... गूँजता नहीं, कराहता है - हाय... ओह! थोड़ा दम लेता है, फिर चीख़ता-चिल्लाता है, फिर चीख़ता है, जल्दी-जल्दी... हाँ, बहुत रोता-तड़पता है। जानते हो क्यों? क्योंकि रात को मालिक इसकी कसकर पिटाई करता है। फिर बलूत बोलना शुरू करता है। शाम होते-होते उसका ज़ोर बढ़ता है और रात होते ही उसका चक्कर शुरू हो जाता है - ठहाके लगाता है और हँसता है, उछल-कूद करता है, जी भरकर अपना रंग दिखाता है और बार-बार बलूत पर ही टूट-टूटकर पड़ता है, उसे ही उखाड़ फेंकने की फ़िक्र में रहता है... एक बार क्या हुआ कि पतझड़ के दिन थे - मैंने खिड़की से झाँका, मालिक को मेरी यह हरकत अच्छी नहीं लगी - सनोबर का सूखा तना उठाकर दे मारा खिड़की पर। बुरा हो उसका, चेहरे की खाल उड़ती-उड़ती बची। मैं भी कोई कच्ची गोलियाँ थोड़े ही खेला हूँ, साफ़ बचकर निकल गया। हाँ प्यारे, समझ लो, कैसा क्रोधी है वह!..."
"सूरत-शक्ल कैसी है उसकी?"
"सूरत-शक्ल की क्या पूछते हो, दलदल में उगने वाले बेद वृक्ष जैसी है सूरत उसकी। बेहद मिलती-जुलती!.. बाल ऐसे जैसे सूखी हुई अमरबेल, जो पेड़ों पर छा जाती है। दाढ़ी भी ऐसी ही! रही नाक, तो जैसे मोटा-ताज़ा तना हो। थोबड़ा एकदम खुरदरा, काई से लथ-पथ। छिः कैसी भौंड़ी सूरत है उसकी! भगवान न करे कि कभी किसी की सूरत उससे मिलती-जुलती हो... भगवान की क़सम! दूसरी बार फिर मुझे इसके दर्शन हुए दलदल में, बिल्कुल वैसा ही था! बहुत निकट से देखा मैंने इसे... अगर मन हो, तो जाड़े में आ जाना, ख़ुद अपनी आँखों से देख लेना उसे। वहाँ चले जाना उस पहाड़ पर - वहाँ जहाँ जंगल ही जंगल है, वहाँ सबसे ऊँचे पेड़ पर चढ़ जाना - उसकी फुनगी पर। वहाँ से किसी न किसी दिन नज़र आ जायेगा वह तुम्हें। जंगल के ऊपर-ऊपर से सफ़ेद खम्भे की तरह जाता है वह, अपने आप ही कभी इधर तो कभी उधर घूमता-फिरता है और फिर पहाड़ से नीचे ही नीचे उतरता चला जाता है। भागता जाता है, भागता जाता है नीचे की ओर और फिर जंगल में ओझल हो जाता है आँखों से। ओह!... जिधर से गुज़रता है, उधर ही सफ़ेद बर्फ़ के निशान छोड़ता जाता है... क्या विश्वास नहीं होता बूढ़े की बातों पर? कभी न कभी ख़ुद देख लेना अपनी आँखों से।"
बूढ़े के मन में जो कुछ आता था, अपनी लहर में कहे जा रहा था। लगता था कि जंगल की हलचल और बेचैनी और हवा में तूफ़ान की झलक ने बूढ़े रक्त में गरमी ला दी थी। बूढ़ा बाबा सिर हिलाता था, हँसता था और अपनी धुँधलायी तथा ज्योतिहीन आँखों को मिचमिचाता था।
पर अचानक उसके ऊँचे माथे पर एक छाया-सी पड़ी। उसके माथे पर झुर्रियों की हलरेखाएँ-सी बनी हुई थीं। कोहनी से मुझे टहोककर उसने रहस्यमय ढंग से कहा -
"जानते हो, प्यारे, मैं तुमसे क्या कहने वाला हूँ?... बेशक है वह वन का स्वामी, लेकिन बड़ा ही दुष्ट है, यह भी सच है। धर्म-ईमान में विश्वास रखने वाले आदमी के लिए तो उसकी भौंड़ी सूरत देखना भी ठीक नहीं... मगर फिर भी उसके बारे में सच्ची बात तो कहनी ही चाहिए - वह बुरा किसी का नहीं करता... योंही किसी से थोड़ी छेड़छाड़ कर ले, यह बात दूसरी है, मगर किसी को सताये-रुलाये, ऐसा कभी नहीं होता।"
"बाबा, तुमने ख़ुद ही तो कहा था कि उसने तुम्हारे मुँह पर सूखा तना दे मारना चाहा था?"
"अरे हाँ, चाहा तो था उसने! वह तो बात ही दूसरी थी! नाराज़ हो उठा था वह कि मैंने खिड़की में से क्यों झाँका था! पर अगर कोई उसके मामले में टाँग न अड़ाये, तो ऐसे आदमी को कोई हानि नहीं हो सकती उससे। तो ऐसा है वह वन का मालिक!... और जानते हो कैसे-कैसे भयानक काम किये हैं लोगों ने इस जंगल में। भगवान बचाये, राम-राम!"
बूढ़े बाबा ने सिर झुकाया और घड़ी-भर के लिए चुप्पी साधे रहा। फिर जब उसने मेरी तरफ़ देखा, तो उसकी आँखों की धुँधलायी हुई पुतलियों के भीतर से मानो एक चिंगारी-सी निकली, किसी भूली-बिसरी, किसी सोयी हुई याद की चिंगारी-सी।
"तो लो, प्यारे, सुना ही देता हूँ तुम्हें क्या कुछ हो चुका है हमारे इस जंगल में। बहुत पुरानी, बरसों पुरानी बात है यह, यहीं ठीक इसी जगह घटी थी वह घटना... याद है मुझे, सपने जैसी लगती है। और जैसे ही जंगल ज़ोर से शोर मचाने लगता है, वैसे ही मुझे याद आने लगती है उस घटना की... चाहते हो सुनना? सुनोगे?"
"हाँ, हाँ, ज़रूर! सुनाओ, बाबा।"
"तो सुना ही देता हूँ, लो सुनो!"
2
"बहुत छोटा-सा था मैं कि माँ-बाप चल बसे... एकदम अकेला रह गया मैं इस दुनिया में। तो ऐसी गुज़री अपने साथ! पंचायत बैठी और लोग-बाग लगे सोचने - ‘क्या किया जाये इस यतीम का?’ ख़ुद ज़मींदार चौधरी को भी मेरी फ़िक्र... हुआ यह कि तभी वन-रक्षक रोमान वहाँ आ पहुँचा। उसने पंचायत से कहा, ‘मुझे दे दो यह छोकरा, मैं इसकी देखभाल करूँगा, इसे खिलाऊँ-पिलाऊँगा... मेरा जंगल में जी बहलेगा और इसका पेट भरेगा...’ तो यह कहा रोमान ने। पंचायत ने कहा, ‘ठीक है, ले जाओ!’ और वह मुझे अपने साथ ले आया। इस तरह मैं पहुँचा इस जंगल में और वह दिन और आज का दिन - बस, सारी उम्र यहीं बीत गयी।
"तो वह रोमान ही मुझे खिलाता-पिलाता। बड़ी उल्टी खोपड़ी का आदमी था वह, भगवान बचाये ऐसे लोगों से!... लम्बा-तड़ंगा, काली-काली आँखें। और आँखों में झाँकने से ही मालूम हो जाता था कि आत्मा भी काली है उसकी। मामला ही कुछ ऐसा था - सारी उम्र बितायी थी उसने जंगल में ही। लोग-बाग कहते थे कि भालू उसके भाई जैसे हैं और भेड़िये भाँजे-भतीजे। सभी दरिन्दों से उसकी जान-पहचान थी और क्या मज़ाल कि किसी से डरे। पर जब लोगों को देखता, तो उनसे कन्नी काटता... तो ऐसा था वह रोमान - सच कहता हूँ क़सम भगवान की! मुझे जब कभी वह नज़र भरकर देख लेता था, तो ऐसे महसूस होता था कि मानो बिल्ली की दुम मेरी पीठ सहला रही है... पर ख़ैर, कुल मिलाकर आदमी था दरियादिल - खिलाता-पिलाता मुझे ख़ूब अच्छी तरह। दलिया बना-बनाकर देता, ख़ूब चर्बी डाल-डालकर। जब कभी कोई बत्तख़ हाथ लग जाती, तो वह भी खिलाता मुझे। सच तो सच ही रहेगा, ख़ूब खिलाया-पिलाया उसने।
"तो इस तरह हम दोनों रहे जंगल में। रोमान जंगल में जाता, तो मुझे भीतर बन्द कर जाता कि कोई दरिन्दा न फाड़ खाये। बाद में बीवी भी बाँध दी गयी उसके पल्ले। ओक्साना नाम था उसका।
"चौधरी ने ही दिलवायी थी उसे बीवी। रोमान को बुलवा भेजा उसने गाँव में और कहा, ‘रोमान ब्याह करना है तुम्हारा।’ रोमान ने जवाब दिया, ‘मुझे क्या लेना-देना है बीवी से? जंगल में मेरा डेरा, क्या करूँगा मैं उसे वहाँ ले जाकर? और फिर बिना बीवी के ही मेरे तो बेटा भी है। नहीं करना मुझे शादी-ब्याह!’ बात असल में यह थी कि रोमान कभी लड़कियों से घुला-मिला नहीं था! मगर चौधरी - वह भी ख़ूब घुटा हुआ आदमी था... जब याद आती है उसकी, तो सोचता हूँ कि अब ऐसे चौधरी नहीं रहे, अब पहले जैसे चौधरी हो गुज़रे... तुम अपने ही को ले लो - कहते हैं कि तुममें भी चौधरियों का ख़ून है... शायद ठीक ही होगा, पर फिर भी वह बात नहीं तुममें, असली चौधरी वाली... ख़ैर, यों ही छोटे-मोटे चौधरी हो तुम भी, पर वैसे नहीं!
"वह था असली चौधरी, पुराने ज़माने के चौधरियों में से एक... सुनो, बताता हूँ तुम्हें, कैसी धाक थी उसकी! सौ-सौ जने डरते थे उस अकेले से! समझे!... देखो प्यारे, यों तो अण्डे में से ही निकलता है बाज़ भी और चूज़ा भी। बाज़ आसमान की तरफ़ उड़ान भरता है! ओह! जब वह वहाँ से चीख़ता है, तो बेचारे चूज़ों की तो क्या हस्ती, बडे़-बड़े मुर्ग़ों का भी दम निकल जाता है... तो इसे कहते हैं बाज़ - असली, ऊँची नस्ल का परिन्दा, और चूज़ा - वह तो योंही होता है मामूली-सा देहाती नस्ल का जानवर...
"हाँ, अभी तक याद है मुझे, छोटा-सा ही था तब मैं। एक दिन देखता क्या हूँ कि देहाती जंगल से मोटे-मोटे लट्ठे लिये जा रहे हैं - यही रहे होंगे कोई तीस जने। दूसरी तरफ़ से चौधरी अकेला आ रहा था अपने घोड़े पर, मूँछों पर ताव देता हुआ। घोड़ा उसका अठखेलियाँ कर रहा था और वह ख़ुद इधर-उधर देख रहा था। ओह! देहातियों की नज़र पड़ गयी चौधरी पर! बस, क्या था खलबली मच गयी, रास्ता छोड़ दिया, घोड़े बर्फ़ में डाल दिये और टोपियाँ उतार लीं। बाद में जाने कैसी-कैसी मुसीबतों से लट्ठे निकाले उन्होंने बर्फ़ में से। कुछ न पूछो! और चौधरी, वह उसी तरह अपना घोड़ा कुदाता चला गया। देखा तुमने, उस अकेले आदमी के लिए रास्ता तंग था! चौधरी की त्योरी चढ़ती, देहातियों की जान सूख जाती, वह हँस देता, तो सब चहक उठते, नाक-भौं सिकोड़ लेता, तो सबके चेहरों का रंग उड़ जाता। चौधरी की बात काट दे, ऐसा माई का लाल पैदा नहीं हुआ था।
"मगर रोमान तो ज़ाहिर है कि जंगल में ही पला था, दुनिया के तौर-तरीक़े वह नहीं जानता था। चौधरी ने इसीलिए उसकी बात का कुछ बुरा नहीं माना।
"चौधरी ने कहा, ‘मैं चाहता हूँ कि तू शादी कर ले। क्यों तू कर ले शादी यह मुझे मालूम है। ले ले ओक्साना को।’
"‘नहीं चाहता मैं शादी करना,’ रोमान ने तड़ाक से इंकार दिया। ‘नहीं ज़रूरत मुझे बीवी की, ओक्साना ही क्यों न हो वह। बेशक काले चोर से हो जाये उसकी शादी, मेरी बला से!..’
"‘तो यह रहा माज़रा!’
"चौधरी ने हुक्म दिया कि कोड़े लाये जायें। रोमान को बाँधकर लिटा दिया गया है। चौधरी ने पूछा -
"‘क्यों रे करेगा रोमान शादी?’
"‘नहीं,’ उसने जवाब दिया, ‘नहीं करूँगा।’
"‘करो इसकी पिटाई,’ चौधरी ने हुक्म दिया।
"बस, फिर क्या था, दे कोड़े पर कोड़ा। ख़ूब खाल उधेड़ी गयी उसकी। रोमान भी बड़ा जानदार आदमी था, पर कब तक सहता कोड़ों की मार। आ गया रास्ते पर।
"‘बस करो, बस करो,’ उसने कहा। ‘कर लूँगा शादी! बेशक उसे शैतान उठा ले जाये, मुझे क्या! मुझे क्या पड़ी है कि एक औरत के लिए इतनी मुसीबत सहूँ। ले आओ उसे, कर लूँगा शादी!’
"चौधरी की ड्योड़ी में एक हँकवा पड़ा रहता था - ओपानास श्वीद्की नाम था उसका। जब रोमान को शादी के लिए ले जा रहे थे, वह ठीक तभी खेत से लौटा। उसने रोमान की विपदा सुनी और फट से जा गिरा चौधरी के पैरों पर। पैरों पर पड़ा हुआ चूमता जाये उन्हें...
"‘हुज़ूर, क्या ज़रूरत पड़ी है आदमी को मारने-पीटने की। मुझसे कर दीजिये ओक्साना का ब्याह। क्या मज़ाल कि चूँ भी करूँ...’
"अपने आप तैयार हो गया ब्याह करने को। देखो तो कैसा कमाल का था वह आदमी, भगवान की क़सम!
"रोमान के तो मन के चीते हो गये, बाँछें खिल गयीं। झटपट उठकर खड़ा हो गया, शलवार ठीक की और कहा -
"‘लो झंझट निपट गया। भलेमानस, तू क्या थोड़ी देर पहले नहीं आ सकता था? और ये चौधरी भी ख़ूब हैं - हमेशा ऐसा ही करते हैं। इतना भी न हुआ कि पूछ ही लेते कि क्यों भाई, कोई अपनी मर्ज़ी से शादी करने को राजी है। पकड़ लिया आदमी को और करवा दी उसकी पिटाई। धर्म-ईमान वाले लोग भी भला कभी ऐसा करते हैं? छिः!...’
"रोमान तो आदमी था कुछ दूसरे ही ढंग का! चौधरी को भी ख़ातिर में नहीं लाता था। जब ग़ुस्से में आ जाता था, तो क्या हिम्मत किसी की कि उसके मुँह लगे, बेशक चौधरी ही क्यों न हो। मगर चौधरी भी बड़ी चलती रक़म था! उसके दिमाग़ में कोई दूसरी ही बात थी। फिर हुक्म दे दिया उसने रोमान को घास पर लिटाने का। चौधरी ने कहा -
"‘मैं तुझ गधे का भला करना चाहता हूँ और तू नख़रा करता है। अब तू अकेला पड़ा रहता है जैसे भालू गुफा में। तेरे घर जाने में न कोई मज़ा होता है, न कोई लुत्फ़... उधेड़ते जाओ इस पाजी की खाल जब तक कह न उठे - बस करो!... और ओपानास तू! तू जा भाड़ में! तू कौन - मैं ख़ामख़ाह। किसने बुलाया है तुझे तेरी दावत करने को। अपने आप ही मत पड़ इस फेर में, वरना समझ ले रोमान की तरह ही तेरी भी मेहमानी होगी।’
"इस बार रोमान सचमुच ही बहुत ग़ुस्से में था। कोड़े पर कोड़ा पड़ रहा था। जानते हो कैसे थे पहले वक़्तों के लोग? जब पिटाई शुरू करते थे, तो खाल ही उड़ती दिखायी देती थी। मगर रोमान था कि कोड़े खाता रहा और मुँह से कहकर नहीं दिया - बस करो! सहता गया, सहता गया, बहुत देर तक और आखि़र को उसने थूक दिया -
"‘बुरा हो तुम्हारा, एक औरत के लिए इस तरह पीट रहे हो एक धर्म-ईमान मानने वाले को! मारते जाते हो, गिनते तक भी नहीं! बस करो अब! राम करे तुम्हारे हाथ टूट जायें! शैतान ने सिखा दिया तुम्हें कोड़े लगाना! पूला समझ लिया है क्या मुझे, जो इस बुरी तरह धुनते चले जा रहे हो। अँधेर है अँधेर, कर लूँगा शादी।’
"चौधरी ने हँसते हुए मज़ाक़ किया -
"‘अच्छा ही हुआ, तुम्हारी पिटाई हो गयी। अब तुम शादी के वक़्त बैठ तो पाओगे नहीं, इसलिए नाचते फिरोगे...’
"बड़ा ही मज़ेदार आदमी था चौधरी, बहुत ही मज़े का आदमी था। मगर बाद में उस पर जो गुज़री, भगवान करे धर्म-ईमान वाले किसी आदमी पर न गुज़रे! सच कहता हूँ, भगवान किसी को भी ऐसा बुरा दिन न दिखाये, किसी यहूदी पर भी ऐसी मुसीबत न आये। मैं तो ऐसा ही सोचता हूँ...
"तो ख़ैर, रोमान का ब्याह हो गया। जवान बीवी को घर ले आया। शुरू-शुरू में तो उसे डाँटता-डपटता, कोडे़ खाने के ताने-बोलियाँ देता -
"‘इस लायक़ थोड़े ही थी तू कि कोई अपनी खाल उधड़वाता।’
"कई बार ऐसा भी हुआ था कि वह जंगल से लौटा और लगा उसे धक्के देकर घर से बाहर निकालने -
"‘निकल यहाँ से! नहीं रखनी औरत मुझे अपने झोपड़े में! तेरी छाया भी नहीं देखना चाहता! मेरे झोपड़े में औरत सोये, यह मुझे पसन्द नहीं। दम घुटने लगता है मेरा...’"
"हाँ!"
"मगर बाद में ख़ैर, सब्र का घूँट भर लिया उसने। ओक्साना घर की ख़ूब अच्छी तरह सफ़ाई करती, उसे लीपती-पोतती, बर्तन-भाँडों को चमकाती, सारा घर चमचम करता रहता। रोमान को अनुभव होने लगा कि कुछ बुरी नहीं औरत। धीरे-धीरे आदी हो गया उसका। प्यारे, आदी ही नहीं हो गया, दिल में समा गयी, वह उसे प्यार करने लगा। भगवान की क़सम, झूठ नहीं बोलता हूँ! तो यह रहा रोमान का क़िस्सा। जब अच्छी तरह से जान-समझ गया अपनी बीवी को, तो लगा कहने -
"‘भला हो चौधरी जी का, मुझे रास्ते पर डाल दिया। और हाँ, मैं तो सचमुच ही बड़ा बेवक़ूफ़ आदमी था, बेकार कोड़े पर कोड़े खाता रहा। अब देखता हूँ कि कुछ बुरा नहीं रहा। सच तो यह है कि अच्छा ही रहा यह क़िस्सा!’
"इसके बाद बहुत दिन गुज़र गये, मालूम नहीं कितने। एक दिन क्या हुआ कि ओक्साना चारपाई पर लेटकर कराहने-चीख़ने लगी। मैं जो शाम को सोया, तो सुबह उठा। सुनता क्या हूँ कि कोई बारीक-सी आवाज़ में रो रहा है। सोचा, हो न हो, बच्चा जना है ओक्साना ने! सचमुच ऐसा ही निकला भी।
"बहुत समय तक नहीं जिया वह बच्चा इस धरती पर। बस, इतना ही समझो, सुबह से शाम तक। शाम होते तक उसकी आवाज़ बन्द हो गयी... ओक्साना रो पड़ी। रोमान ने उससे कहा -
"‘बच्चा तो अब रहा नहीं। जब वही नहीं रहा, तो पादरी को बुलाकर क्या करेंगे। सनोबर के नीचे दफ़ना देते हैं।’
"तो ऐसे कहा रोमान ने। और केवल कहा ही नहीं, झटपट कर भी डाला - छोटी-सी क़ब्र खोदी और उसे दफ़ना दिया। वह देखो, वह रहा पुराना ठूँठ, बिजली मार गयी थी उसे... वही है वह सनोबर का पेड़, जहाँ रोमान ने बच्चे को दफ़नाया था। देखो प्यारे, एक बात बताऊँ तुम्हें, अभी तक ऐसा होता है कि जैसे ही सूरज डूबता है और जंगल के ऊपर जगमगाता सितारा चमकने लगता है, एक चिड़िया उड़ती हुई आती है और चीख़ती है। ओह, कैसा दर्द होता है उसकी चीख़ में! दिल भर-भर आता है उसकी चीख़ सुनकर! यह है बिना बपतिस्मे के भटकने वाली आत्मा! सलीब माँगती है चीख़-चीख़कर। भई, जिन लोगों ने किताबें पढ़ रखी हैं, सब कुछ जानते-समझते हैं, कहा जाता है कि वे उसे शान्ति दे सकते हैं। फिर नहीं उड़ती फिरेगी यह आत्मा... और देखो न, हम लोग तो हैं वनवासी, न कुछ जानें, न समझें। वह बेचारी आत्मा उड़ती-फिरती है, शान्ति और धर्म-ईमान चाहती है और हम बस, इतना ही कह पाते हैं, ‘उड़ जा, उड़ जा, बेचारी दुखी आत्मा! कुछ भी तो मदद नहीं कर सकते हम तुम्हारी!’ बेचारी रो-धोके उड़ जाती है और फिर आ जाती है। ओह प्यारे, बड़ा रहम आता है बेचारी आत्मा पर!
"कुछ समय बाद ओक्साना भली-चंगी हो गयी, हर रोज़ बच्चे की छोटी-सी क़ब्र पर जा बैठती। क़ब्र पर जा बैठती और रोती ज़ार-ज़ार, इतने ज़ोर से कि जंगल-भर में गूँजते उसके बैन। इस तरह तड़पती वह अपने बच्चे के लिए। रोमान को बच्चे के मरने का तो ग़म नहीं था, पर ओक्साना के लिए उसे दुख होता। जंगल से लौटता रोमान ओक्साना के क़रीब जा खड़ा होता और उससे कहता -
"‘तू तो बिल्कुल पगली हो गयी, बन्द कर यह रोना-धोना! आखि़र रोया भी जाये, तो किसलिए! एक बच्चा मर गया, तो दूसरा हो जायेगा। और इस बार और भी अच्छा हो जायेगा। फिर एक बात और भी है - हो सकता है कि वह मेरा हो ही नहीं। मैं तो नहीं जानता, न। लोग कहते हैं... पर ख़ैर, इस बार जो होगा, वह होगा मेरा बच्चा।’
"जब वह ऐसा कहता, तो ओक्साना बुरा मानती। होता यह कि रोना-धोना बन्द कर देती और लगती उसकी लानत-मलामत करने, उसे जली-कटी सुनाने। मगर रोमान उसकी बातों का बुरा न मानता। वह कहता -
"‘किसलिए तू बिगड़ रही है, बक-झक कर रही है? आखि़र मैंने बुरा ही क्या कहा है? यही तो कहा है कि मुझे सच-झूठ की कुछ ख़बर नहीं। सो भी इसलिए कि यहाँ आने के पहले तू मेरी नहीं थी और न जंगल में रहती ही थी। तू रहती थी बड़ों के बीच, लोगों के बीच। अब मैं भला कैसे जान सकता हूँ कि क्या सच है? अब तू जंगल में रहती है, अब सब ठीक है। जब मैं फ़ेदोस्या धाय को बुलाने गाँव गया, तो उसने यही कहा था, ‘अरे रोमान, इतनी जल्दी तुम्हारे घर बच्चा भी हो गया।’ मैंने उसे जवाब दिया, ‘मुझे भला क्या मालूम, जल्दी हुआ है कि देर से...’ पर ख़ैर, तू यह अपना रोना-धोना बन्द कर दे, वरना मेरा पारा चढ़ जायेगा और देखना कि मैं कहीं तेरी मरम्मत ही न कर डालूँ।’
"ओक्साना बकबक करती जाती, भौंकती रहती और फिर चुप हो जाती।
"ऐसा भी होता कि वह उसे बुरा-भला कहती रहती, डाँटती जाती और कभी-कभी तो पीठ पर दो-चार हाथ भी जमा देती। मगर जैसे ही रोमान ग़ुस्से में आता, तो ठण्डी पड़ जाती - डरती थी उससे। उसे सहलाती, पुचकारती, चूमती और उसकी आँखों में आँखें डाल देती... और मेरा रोमान था कि बस, मोम हो जाता। देखो न, बात यह है, प्यारे... तुम तो शायद यह सब कुछ नहीं जानते हो, पर मैं ठहरा बूढ़ा-खूसट! बेशक अपनी शादी नहीं की, मगर फिर भी बहुत ज़माना देखा है मैंने। जवान औरत जब मीठे-मीठे प्यार करने लगती है, तो ख़सम को चाहे कितना भी ग़ुस्सा क्यों न आया हो, चुटकी बजाते में हवा हो जाता है। मैं अच्छी तरह समझता हूँ इनके तिरिया-चरित्तर! ओक्साना बड़ी चिकनी-सी थी, एकदम जवान। अब तो ऐसी कहीं नज़र ही नहीं आती हैं। ईमान की बात कहूँ तुमसे, दोस्त, अब कहाँ वे औरतें, जो पहले होती थीं।
"एक बार क्या हुआ कि जंगल में नरसिंघा बज उठा - तरा-ता, तरा-तरा-ता-ता-ता। ऐसी गूँज उसकी जंगल में कि क्या कहने, बहुत ही अच्छा लगा। मैं तब छोकरा-सा था, नहीं जानता था कि वह क्या चीज़ है। देखता क्या हूँ कि पक्षी घोंसलों से निकल-निकलकर उड़ रहे हैं, पंख फड़फड़ा रहे हैं, चीख़ रहे हैं, ख़रगोश कान दबाये हुए इधर-उधर दीवाने-से भागे जा रहे हैं। सोचा, शायद यह कोई दरिन्दा है, जो पहले कभी नहीं देखा मैंने। वह दरिन्दा ही इतने अच्छे ढंग से चीख़ता है। पर नहीं, कोई दरिन्दा-वरिन्दा नहीं, वह तो चौधरी था, जो घोड़े पर सवार चला आ रहा था और नरसिंघा बजा रहा था। चौधरी के पीछे-पीछे कुत्तों की जं़जीरें थामे हुए घोड़ों पर हँकवे आ रहे थे। सभी हँकवों में से ख़ूबसूरत था वही ओपानास श्वीद्की। वह चौधरी के पीछ-पीछे था। नीले कोट में अपनी छटा दिखाता हुआ। उसकी टोपी के ऊपरी हिस्से पर कढ़ाई का सुनहरा काम किया हुआ था। घोड़ा उसका अठखेलियाँ कर रहा था। कन्धों से लगी हुई बन्दूक़ चमक रही थी और पेटी के साथ एक तरफ़ को लटका हुआ था बन्दूरा(एक उक्राइनी बाजा। - सं)। बहुत मन चढ़ा हुआ था ओपानास चौधरी के। भई, मन तो चढ़ना ही था, ख़ूब बढ़िया बजाता था वह बन्दूरा और गाता भी था तो ख़ूब ही। कैसा बाँका, कैसा ख़ूबसूरत आदमी था यह ओपानास, यह मत पूछो! बला का ख़ूबसूरत था! चौधरी भी भला क्या बराबरी कर सकता था ओपानास की इस मामले में! चौधरी की चाँद निकल आयी थी, नाक उसकी लाल थी और आँखें - ख़ैर, वैसे तो वे हँसती हुई थीं, मगर ओपानास की आँखों के सामने तो पानी भरती थीं। होता यह था कि ओपानास जैसे ही मेरी ओर देखता, तो मुझ छोकरे का भी, मैं कोई लड़की थोड़े ही था, हँसने को मन होता। सुनने में आया था कि ओपानास के बाप-दादा ज़ापोरोज्ये के कज़्ज़ाक थे, वहाँ के मैदानों में आज़ादी की ज़िन्दगी बिताते थे। वहाँ के लोग बड़े हट्टे-कट्टे, बड़े सुन्दर-सुडौल और फ़ुर्तीले होते थे। अब प्यारे, तुम ख़ुद ही सोचकर देख लो कि कहाँ तो वे लोग जो भाला लेकर पक्षियों की तरह मैदानों में घोड़ों पर उड़े फिरते हैं और कहाँ हम लोग हैं कि लकड़ी काटते-काटते ही उम्र बीत जाती है। फ़र्क़ तो होना ही हुआ।
"मैं भागकर बाहर आया। देखा कि चौधरी दरवाज़े तक आ पहुँचा है। उसका घोड़ा रुका और उसी वक़्त हँकवों के घोड़े भी रुक गये। रोमान झोपड़े से बाहर निकला, उसने चौधरी के घोड़े की लगाम थामी और चौधरी नीचे उतरा। रोमान ने झुककर नमस्कार किया।
"‘कैसे गाड़ी चल रही है?’ चौधरी ने रोमान से पूछा।
"‘कौन-सी गाड़ी, हुज़ूर?’
"तो देखा तुमने, रोमान चौधरी को उसी तरह जवाब नहीं दे सका जैसे देना चाहिए था। चौधरी के हँकवों को हँसी आ गयी और चौधरी भी हँस दिया।
"‘अरे भाई, ज़िन्दगी की गाड़ी।’
"‘सो तो ठीक चल रही है, हुज़ूर!’
"‘शुक्र है भगवान का,’ चौधरी ने कहा। ‘कहाँ है तेरी बीवी?’
"‘कहाँ होगी बीवी? वहीं है, जहाँ उसे होना चाहिए। घर में...’ "‘ठीक है, हम घर में चलेंगे,’ चौधरी ने कहा, ‘और देखो तुम लोग तब तक घास पर कालीन बिछा दो और बाक़ी सब चीज़ें तैयार कर लो। पहली बार आज हम इस जवान जोड़े को बधाई देंगे।’
"इतना कहकर वे चल दिये घर के भीतर - चौधरी और ओपानास, उनके पीछे-पीछे नंगे सिर रोमान और फिर बोगदान। बोगदान - यह था बड़ा हँकवा और चौधरी का सबसे अधिक भरोसे का नौकर। ऐसे नौकर भी अब इस धरती पर नहीं रहे। वह बूढ़ा आदमी था, नौकरों-चाकरों से बहुत कड़ाई से पेश आता और चौधरी के आगे-पीछे कुत्ते की तरह दुम हिलाता-फिरता। चौधरी के सिवा कोई नहीं था बोगदान का इस दुनिया में। सुनने में आया था कि जब बोगदान के माँ-बाप चल बसे थे, तो उसने बड़े चौधरी से कहा था, ‘हुज़ूर, मुझे अपना असामी बना लो, मैं अपना शादी-ब्याह करना चाहता हूँ।’ बड़े चौधरी नहीं माने। उसे अपनी ड्योढ़ी में रख लिया बेटे की सेवा करने के लिए और कहा, ‘बस, यहीं अपनी माँ, बाप और बीवी समझो’। बोगदान ने चौधरी के बेटे की जी-जान से सेवा की, उसे घुड़सवारी सिखा दी, बन्दूक़ चलाने में उस्ताद बना दिया। चौधरी का बेटा बड़ा हुआ और ख़ुद चौधरी बन गया। बूढ़ा बोगदान तब भी चौधरी के पीछे-पीछे कुत्ते की तरह लगा रहा। ओह, तुम्हें बताता हूँ, बहुत कुछ भला-बुरा कहा लोगों ने बोगदान को, बहुत लोगों को रुलाया-सताया उसने... सब इसी चौधरी के लिए। चौधरी के मुँह से जो निकलता, वही बोगदान पूरा करता। सच तो यह है कि अगर चौधरी हुक्म देता, तो वह आव देखता न ताव, सगे बाप के भी टुकड़े-टुकड़े कर डालता...
"हाँ तो मैं था छोकरा-सा, उनके पीछे-पीछे चल दिया झोपड़े में। बस, योंही मन में जिज्ञासा। जिधर को चौधरी जाये, मैं भी इधर ही उसके पीछे-पीछे।
"देखता क्या हूँ कि चौधरी झोपड़े के बीचोबीच जाकर खड़ा हो गया है, मूँछों पर ताव देता हुआ, मुस्कुरा रहा है। रोमान भी उसके पीछे खड़ा था टोपी को हाथों से मलता हुआ। पर ओपानास दीवार के साथ पीठ लगाये अकेला खड़ा था, लुटा-लुटा-सा, बुरे मौसम में बलूत के पेड़ की तरह। हवाइयाँ उड़ रही थीं उसके चेहरे पर, मुरझाया-मुरझाया-सा था वह...
"वे तीनों ओक्साना की ओर घूमे। सिर्फ़ अकेला बूढ़ा बोगदान एक कोने में एक तख़्ते पर बैठ गया, बाल नीचे को गिराकर। वह चौधरी के हुक्म के इन्तज़ार में था। ओक्साना कोने में चूल्हे के पास खड़ी थी, आँखें झुकी हुई थीं उसकी और उसके गाल ऐसे लाल थे जैसे जई के पौधों के बीच पोस्त का लाल फूल। ओह, वह तो जैसे साफ़ तौर पर यह समझ रही थी कि उसके कारण कोई न कोई मुसीबत आयेगी। देखो प्यारे, यह भी मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ कि अगर तीन आदमी एक ही औरत की ओर देखने लगते हैं, तो समझ लो ज़रूर कोई न कोई आफ़त आयेगी। अगर और अधिक बुरा नहीं होगा, तो हाथापाई तो होगी ही। मैं अच्छी तरह जानता हूँ यह, ख़ुद अपनी आँखों से देख चुका हूँ।
"चौधरी ने हँसकर कहा,
"‘रोमान बता तो, अच्छी बीवी दिलवायी है न मैंने तुझे?’
"‘ठीक है, औरत जैसी औरत है, ख़ासी है, सरकार।’
"ओपानास ने ये शब्द सुने, तो कन्धे उचकाये, नज़र ऊपर की और ओक्साना की ओर देखकर अपने आपसे कहा -
"हाँ, बीवी तो है! काश किसी इस जैसे बुद्धू के पल्ले न पड़ती।’
"रोमान के कानों में पड़ गये ये शब्द, ओपानास की ओर मुड़ा और बोला -
"‘ओपानास मियाँ, किसलिए आपको मैं बुद्धू नज़र आता हूँ, ज़रा बताइये तो...’
"‘इसलिए हो तुम बुद्धू कि अपनी बीवी की रखवाली नहीं कर सकते हो।’
"देखा कैसी बात कही उससे ओपानास ने! चौधरी ने पाँव पटका, बोगदान ने सिर झटका। रोमान घड़ी-भर को सोच में पड़ गया। फिर उसने सिर ऊपर उठाया और चौधरी की ओर देखते हुए कहा -
"‘किससे रखवाली करनी है मुझे उसकी,’ ओपानास से कहते और चौधरी की ओर देखते हुए उसने पूछा। ‘जंगली जानवरों के सिवा यहाँ है ही कौन, आदमी तो आदमी, शैतान भी नहीं। ले-देकर कभी-कभार चौधरी आ जाते हैं। किससे बचाना है मुझे उसे। देख रे कज़्ज़ाक बच्चे, मुझे ग़ुस्सा मत दिला, वरना ऐसे झोंटे खींचूँगा कि अक्ल ठिकाने आ जायेगी।’
"मार-पिटाई की नौबत बस आ ही जाती। वह तो चौधरी बीच में आ गया, उसने पाँव पटका और वे ठण्डे हो गये।
"‘चुप हो जाओ, शैतान के बच्चो!’ चौधरी ने कहा। ‘लड़ने-भिड़ने थोड़े ही आये हैं हम यहाँ। इस जवान जोड़े को बधाई देनी है हमें तो। और रात को शिकार के लिए जाना है दलदल में। चलो, आओ मेरे पीछे!’
"चौधरी मुड़ा और झोपडे़ से बाहर चला। इसी बीच हँकवों ने वृक्षों के नीचे खाने-पीने की सारी तैयारी कर दी थी। चौधरी के पीछे-पीछे बोगदान था। ओपानास ने रोमान को ड्योढ़ी में रोक लिया।
"‘मुझसे नाराज़ मत हो, मेरे भाई,’ कज़्ज़ाक ने कहा। ‘जो कुछ ओपानास तुझसे कहता है, उसे ध्यान से सुन। देखा था न तूने कि कैसे मैं चौधरी के पैरों में लोटा था, उसके जूते चूमे थे मैंने कि वह ओक्साना का हाथ मेरे हाथ में दे दे? भगवान तेरा भला करे, भले आदमी... पादरी ने तुम दोनों की शादी करवायी है, शायद ऐसा ही लिखा था क़िस्मत में! मगर अब मेरा दिल यह बरदाश्त नहीं कर सकता कि यह जानी दुश्मन, यह चौधरी उस तेरी बीवी की और तेरी खिल्ली उड़ाये। हाय, कोई नहीं जानता कि क्या गुज़रती है मेरे दिल पर... जी में आता है कि इस चौधरी के बच्चे और उस लौण्डिया को बिस्तर के बजाय गीली मिट्टी में सुला दूँ...’
"रोमान ने ध्यान से उसकी तरफ़ देखा और पूछा -
"‘ए कज़्ज़ाक, कहीं सचमुच तेरा दिमाग़ तो नहीं चल निकला?’
"ओपानास ने बहुत धीमे-से इसका जवाब दिया, जो मैं नहीं सुन सका। वे ड्योढ़ी में खुसुर-फुसुर करते रहे। फिर रोमान ने उसका कन्धा थपथपाकर कहा -
"‘ओह ओपानास, ओपानास! कैसे-कैसे दुष्ट और मक्कार लोग पड़े हैं इस दुनिया में! मुझे कुछ ख़बर ही नहीं। मैं जंगल का वासी, कैसे जान पाता यह सब। ऐ चौधरी, तेरी मौत ही तुझे यहाँ खींच लायी है!...’
"‘अच्छा अब तू जा और देख किसी को कानोकान ख़बर नहीं होनी चाहिए इस बात की। बोगदान से तो बहुत ही सँभलकर रहना। तू आदमी है कम-समझ और चौधरी का वह कुत्ता है बड़ा धूत्र्त! और सुन चौधरी की वोद्का कहीं बहुत मत पी जाना। अगर वह तुझे अपने हँकवों के साथ दलदल की तरफ़ भेजे और ख़ुद यहाँ ठहरना चाहे, तो तू पुराने बलूत तक उन्हें ले जाकर दलदल की फेर वाली डगर की तरफ़ इशारा करके कहना - तुम लोग इधर से जाओ और मैं जंगल के बीच से, सीधे रास्ते से आऊँगा। फिर झटपट यहाँ लौट आना।’
"‘ठीक है,’ रोमान ने जवाब दिया। ‘शिकार की तैयारी कर लूँ। बन्दूक़ में छर्रे नहीं, गोली भर लेता हूँ - परिन्दों का नहीं, मोटे भालू का शिकार जो करना है मुझे।’
"तो वे बाहर आये। चौधरी तो पहले से ही कालीन पर डटा हुआ था। हुक्म दिया उसने कि बोतल और प्याली बढ़ायी जाये। उसने वोद्का प्याली में डाली और रोमान के सामने कर दी। बहुत कमाल की थी चौधरी की बोतल और प्याली! और वोद्का - वह उनसे भी कहीं बढ़-चढ़कर। एक प्याली गले से नीचे उतरी नहीं कि जी बाग़-बाग़। दूसरी प्याली पी, तो दिल उछलकर सीने में। आदमी को पीने की आदत न हो, तो तीसरी प्याली पीते ही ज़मीन पर लोट-पोट होता फिरे, अगर औरत उठाकर तख़्ते पर न लिटा दे।
"देखो, तुम्हें बताता हूँ, बहुत चालाक था चौधरी! यह थी उसकी चाल कि रोमान को पिला-पिलाकर बेसुध कर दे। मगर ऐसी वोद्का कहाँ से आती, जो रोमान पर अपना जादू चला पाती। वह चौधरी के हाथ से प्याली ले-लेकर पीता जाता था - एक प्याली पी उसने, दूसरी पी, तीसरी पी। आँखें ऐसी हो गयीं जैसे कि भेड़िये की, अँगारे जैसी लाल। और हाँ, अपनी काली-काली मूँछों को ताव देता रहा। चौधरी तो झल्ला उठा -
"‘ले और पी कमीने! कैसे मज़े से प्याली पर प्याली चढ़ाता जा रहा है, पलक तक नहीं झपकता है! कोई दूसरा होता, तो कभी का चीं बोल गया होता, रो दिया होता। और यह, देखो तो इसे, भले लोगो, ऊपर से हँस रहा है...’
"दुष्ट चौधरी अच्छी तरह जानता था कि अगर कोई आदमी उसकी वोद्का पीकर रो पड़ता है, तो घड़ी-भर में वह अपनी खोपड़ी मेज़ पर पटक देता है। पर इस बार उसे जिस पट्ठे से पाला पड़ा, वह दूसरी ही मिट्टी का निकला। "‘मैं भला क्यों रोने लगा?’ रोमान ने कहा। ‘यह तो अच्छा भी न होता। मेरे मेहरबान चौधरी, आप तो मुझे बधाई देने आये हैं और मैं क्या औरतों की तरह रोने बैठ जाता। शुक्र है भगवान का कि ऐसी कोई बात ही नहीं कि मैं आँसू बहाऊँ। मैं क्यों रोऊँ, अच्छा है रोयें मेरे दुश्मन।’
"‘इसका मतलब है कि तुम ख़ुश हो?’ चौधरी ने पूछा।
"‘बेशक! न ख़ुश होने की वजह ही क्या हो सकती है?’
"‘याद है कि कैसे कोड़ों की मदद से तुम्हारी शादी की थी?’
"‘वह भला कैसे भूल सकता हूँ! इसीलिए तो कहता हूँ कि बेसमझ था, नहीं जानता था कि क्या मीठा है और क्या कड़वा है। कोड़ों की मार कड़वी थी, मगर मैंने उसे औरत से बेहतर समझा। बहुत-बहुत धन्यवाद देता हूँ आपको, मेरे कृपालु चौधरी, कि आपने मुझे, उल्टी खोपड़ी के आदमी को शहद चाटना सिखा दिया।’
"‘ठीक है, ठीक है,’ चौधरी ने उसे कहा। ‘इसलिए अब तू भी मेरा एक काम कर - मेरे हँकवों के साथ दलदल में जा और बहुत-से परिन्दे मार ला। शिकार का मज़ा तो यह है कि तू जंगली तीतर मार लाये।’
"‘कब आप हमें भेजना चाहते हैं दलदल में?’ रोमान ने पूछा।
"‘बस, यही थोड़ी और पीते हैं, ओपानास का गाना-बजाना होगा और फिर तुम लोग चल देना भगवान का नाम लेकर।’
"रोमान ने चौधरी की ओर देखते हुए कहा -
"‘यह तो आपने बड़ी मुश्किल कर दी - देर हो चुकी है, दलदल दूर है, फिर जंगल में ज़ोर की हवा चल रही है और रात को आयेगा तूफ़ान। ऐसा होशियार परिन्दा अब कहाँ से आयेगा कि जिसका शिकार हो सके?’
"चौधरी को इस बीच चढ़ गयी थी और वह बुरी तरह चिढ़ गया। चौधरी के हँकवे भी कानाफूसी करने लगे कि ‘रोमान ठीक तो कहता है, जल्द तूफ़ान आने वाला है’। चौधरी के कान में भी भनक पड़ गयी और बस क्या था - आगबबूला हो उठा, प्याली फेंक दी और जैसे ही उसने सबको एक नज़र घूरा कि सब ठण्डे पड़ गये।
"नहीं डरा तो अकेला ओपानास! चौधरी के कहने पर वह बन्दूरा हाथ में थामे गाने-बजाने के लिए सामने आया। वह बन्दूरा के तार कसने लगा। चौधरी को बग़ल से झाँकते हुए उसने कहा -
"मेहरबान चौधरी! ज़रा सोचिये तो सही! कभी कहीं ऐसा देखा-सुना है कि रात को, और सो भी आँधी-पानी के समय और ऐसे जंगल में जहाँ हाथ को हाथ सुझायी न दे, कोई पक्षियों का शिकार करने गया है?’
"ऐसा दिलेर था ओपानास! ज़ाहिर था कि बाक़ी थे चौधरी के दास, जान निकलती थी उनकी उसके सामने, और वह था आज़ाद आदमी, कज़्ज़ाक बच्चा। छोटा-सा ही था कि बन्दूरा बजाने वाला एक बूढ़ा कज़्ज़ाक उसे अपने साथ ले आया था उक्रइना से। वहाँ एक नगर है ऊमान, जहाँ कोई गड़बड़ हो गयी थी। उसी गड़बड़ में भाग लेने के लिए बूढ़े कज़्ज़ाक की आँखें निकाल ली गयी थीं, कान काट दिये गये थे और उस हालत में ही उसे वहाँ से चलता कर दिया गया था। इसी छोकरे ओपानास की उँगली पकड़े-पकड़े वह नगर-नगर, गाँव-गाँव घूमता रहा और फिर हमारे देश में आ निकला। बूढ़े चौधरी को गाने सुनने का शौक़ था, उसने उसे अपने पास रख लिया। बूढ़ा कज़्ज़ाक चल बसा और ओपानास चौधरी की ड्योढ़ी पर ही रहा, वहीं बड़ा हुआ। वह नये चौधरी को भी अच्छा लगा और इसलिए कभी-कभार उसकी चुभती हुई बात भी सह जाता था। कोई और ऐसी बात कह देता, तो वह उसकी खाल खिंचवाकर उसमें भुस भरवा देता। "इस बार भी ऐसा ही हुआ। शुरू में तो चौधरी का पारा चढ़ा। ऐसा लगा कि वह कज़्ज़ाक की मरम्मत कर डालेगा, मगर नहीं, उसने झल्लाकर ओपानास से कहा -
"‘अरे ओपानास, ओपानास, तू आदमी तो है समझदार, मगर इतना नहीं जानता कि दरवाज़े के बीच नाक नहीं डालनी चाहिए। अगर किसी ने दरवाज़ा बन्द कर दिया तो...’
"देखा तुमने कैसी पहेली बुझवायी चौधरी ने उससे! कज़्ज़ाक फ़ौरन बात समझ गया और उसने जवाब दिया एक गाने में। अगर कज़्ज़ाक के गाने का मतलब चौधरी की समझ में आ जाता, तो बाद में शायद उसकी बीवी को उसकी लाश पर आठ-आठ आँसू न बहाने पड़ते।
"‘धन्यवाद तुम्हारा चौधरी कि तुमने अक्ल सिखायी,’ ओपानास ने कहा।
‘अब मैं सुनाता हूँ तुम्हें गाना, तुम सुनो उसे।’
"इतना कहकर उसने बन्दूरे के तार छेड़े।
"फिर उसने सिर ऊपर उठाकर आकाश को देखा कि कैसे वहाँ बाज़ पंख फैलाता है, कैसे वहाँ हवा बादलों को इधर-उधर भगाती है, उनसे खिलवाड़ करती है। उसने कान खड़े किये और सुना कि सनोबर के वृक्ष कैसे ज़ोर से साँय-साँय करते हैं।
"फिर से उसने बन्दूरे के तार झनझनाये।
"प्यारे, तुमने नहीं सुना कैसे बजाता था ओपानास श्वीद्की बन्दूरा! अब कहाँ सुन पाओगे तुम ऐसा बन्दूरा! वैसे बाजा-वाजा तो वह कुछ ख़ास नहीं है, पर जब किसी उस्ताद के हाथ में आ जाता है, तो समाँ बाँध देता है। होता यह था कि जब ओपानास की उँगलियाँ बन्दूरे के तारों पर दौड़ती थीं, तो वे बता देते थे कि बुरे मौसम में कैसे अँधेरा जंगल साँय-साँय करता है, स्तेपी के ख़ाली समतल मैदानों में हवा कैसे चीख़ती-दहाड़ती है और टीले पर बनी कज़्ज़ाक की क़ब्र पर कैसे सूखी घास सरसराती है।
नहीं मियाँ, नहीं रहे अब असली बन्दूरा बजाने वाले! आजकल यहाँ सभी तरह के लोग आते हैं। ऐसे कि जो सिर्फ़ पोलेस्ये ही नहीं, और भी बहुत-सी जगहों पर घूम चुके हैं। वे पूरा उक्रइना देख पाये हैं - चिगीरिनो, पोल्तावा, कीयेव और चेर्कासी का चक्कर लगा आये हैं। वे कहते हैं कि बन्दूरा बजाने वाले अब नहीं रहे, मेलों-ठेलों और बाज़ार-मण्डियों में भी अब उनका बन्दूरा सुनायी नहीं देता। भीतर घर में मेरे पास एक पुराना बन्दूरा अभी तक दीवार से लटका हुआ है। ओपानास ने इसी पर मुझे बजाना सिखाया था। मगर मुझसे किसी ने नहीं सीखी यह उस्तादी। अपने तो चलाचली के दिन हैं और जैसे ही साँस बन्द होगी, वैसे ही बन्दूरे की झंकार भी हमेशा के लिए सो जायेगी। ढूँढ़े से भी नहीं मिलेगा दुनिया में कोई बन्दूरा बजाने वाला। यह है असली बात!
"ओपानास ने धीमी-धीमी आवाज़ में गीत गाया। ओपानास की आवाज़ ऊँची नहीं थी और वह गाता था दर्द और सोच में डूब-डूबकर। उसका गीत दिल पर मानो चोट करता था। और प्यारे, कज़्ज़ाक ने वह गाना चौधरी के लिए अपने मन से ही गढ़ा था। फिर कभी सुनायी नहीं पड़ा वह गाना। बाद में कई बार जब मैंने ओपानास से कहा कि गुरु वह गाना सुना दो, वह राजी नहीं हुआ।
"‘जिसके लिए था गाना, वही अब दुनिया में नहीं रहा,’ वह कहता।
"उस गाने में कज़्ज़ाक ने चौधरी को सब कुछ सही-सही बता दिया था कि उसके साथ क्या बीतने वाली है। चौधरी सुनता रहा, रोता रहा, आँसू बह-बहकर मूँछों तक आते रहे, पर ज़ाहिर है कि कुछ नहीं समझा वह उसका मतलब।
"वह गाना तो मुझे याद नहीं, योंही कुछ पंक्तियाँ अटकी रह गयी हैं दिमाग़ में। कज़्ज़ाक ने इवान नाम के किसी चौधरी को सम्बोधित करके वह गाना गाया था।
"कुछ इसी तरह से आगे था वह गाना। मुझे लगता है कि मानो अभी भी मैं सुन रहा हूँ यही गाना और देख रहा हूँ उन लोगों को अपने सामने। मैं देखता हूँ कि कज़्ज़ाक बन्दूरा लिये सामने खड़ा है, चौधरी कालीन पर बैठा है, गर्दन झुकाये और रो रहा है। उसके नौकर-चाकर सभी ओर से उसे घेरे हुए हैं, एक-दूसरे को कोहनियाँ मार रहे हैं, बूढ़ा बोगदान सिर झुला रहा है... जंगल जैसे इस समय है वैसे ही तब भी साँय-साँय कर रहा था, धीरे-धीरे और दर्द पैदा करते हुए बज रहा था बन्दूरा और कज़्ज़ाक गा रहा था कि कैसे चौधरी की बीवी, इवान की बीवी उसकी लाश पर बिलख-बिलखकर रो रही है -
"चौधरी नहीं समझा, तो नहीं समझा इसका मतलब। उसने आँसू पोंछे और कहा -
"‘रोमान, हो जाओ तैयार! ए छोकरो, हो जाओ घोड़ों पर सवार! और ओपानास तू भी इनके साथ जायेगा - बस, काफ़ी हो गया गाना-बजाना!.. अच्छा है तेरा गाना, मगर जो कुछ गीतों-गानों में गाया जाता है, वह दुनिया में सचमुच कभी नहीं होता।’
"उधर कज़्ज़ाक का यह हाल था कि दिल पिघलकर मोम हो गया था, आँखों में कुहासा-सा छा गया था।
"‘ओह चौधरी, चौधरी,’ ओपानास ने कहा, ‘हमारे यहाँ के बड़े-बूढ़े कहते हैं कि कहानी में भी सच होता है, गाने में भी सच होता है। मगर कहानी का सच होता है लोहे के समान। बार-बार लोगों के हाथों में घूमता रहता है, तो ज़ंग लग जाता है उसे... मगर गाने का सच है सोने के समान। कितना ही बेशक घूमे लोगों के हाथों में, कभी ज़ंग नहीं लगता उसे... हाँ, तो ऐसा कहते हैं बड़े-बूढ़े!’
"चौधरी ने हाथ झटक दिया -
"‘कहते होंगे ऐसा तुम्हारे देश में, मगर हमारे यहाँ नहीं कहते ऐसा... अच्छा अब तू चलता-फिरता नज़र आ - कान खा गया है।’
"कज़्ज़ाक घड़ी-भर तो चुप रहा और फिर अचानक चौधरी के पैरों पर गिर पड़ा ज़मीन पर। मिन्नत करते हुए बोला -
"मेरी मानो, चौधरी! घोड़े पर सवार होकर अपनी बीवी के पास चले जाओ। बहुत बुरे-बुरे ख़याल आ रहे हैं मेरे मन में।’
"अब क्या था, चौधरी लाल-पीला हो गया। उसने कज़्ज़ाक को ठोकर मारकर कुत्ते की तरह दुत्कार दिया -
"‘दूर हो जा मेरी आँखों के सामने से! तू कज़्ज़ाक नहीं, औरत है, औरत! चला जा यहाँ से, वरना समझ ले कि तेरी शामत आयी... अरे कमीनो, तुम क्या मुँह ताक रहे हो खड़े-खड़े? या फिर यह कि मैं अब तुम्हारा चौधरी नहीं रहा? ऐसी ख़बर लूँगा तुम्हारी कि जैसी मेरे बाप-दादा ने कभी तुम्हारे बाप-दादा की भी न ली होगी!...’
"ओपानास ऐसे उठकर खड़ा हुआ मानो उमड़ता-घुमड़ता काला बादल हो। उसने रोमान की आँखों में झाँका। रोमान एक तरफ़ को खडा था बन्दूक़ पर कोहनियाँ टिकाये जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
"कज़्ज़ाक ने अपना बन्दूरा ज़ोर से पेड़ पर दे मारा! टुकड़े-टुकड़े हो गये बन्दूरे के। जंगल-भर में उसकी आह-कराह गूँज उठी।
"‘तो जाये जहन्नुम में, मेरी बला से! जो आदमी अक्ल की बात पर कान नहीं देता, उसका वहाँ, दूसरी दुनिया में दिमाग़ ठिकाने कर दिया जायेगा... चौधरी, मुझे लगता है कि तुम्हें वफ़ादार नौकर की ज़रूरत नहीं।’
"चौधरी उसकी बात का जवाब भी नहीं दे पाया कि ओपानास कूदकर जा बैठा अपने घोड़े पर और चल दिया। हँकवे भी घोड़ों पर सवार हो गये। रोमान ने बन्दूक़ कन्धे पर लटकायी और वह भी जा चढ़ा अपने घोड़े पर। हाँ, मगर घर के पास से जाते हुए उसने पुकारकर ओक्साना से कहा -
"‘छोकरे को सुला दे, ओक्साना! उसके सोने का वक़्त हो गया। हाँ, और सुनो, चौधरी के लिए भी बिस्तर लगा दो।’
"बस, क्या था, झटपट सब एक ही रास्ते से जंगल की ओर चल दिये। चौधरी घर के अन्दर गया। बाहर सिर्फ़ पेड़ के साथ उसका घोड़ा बँधा रह गया। अँधेरा गहराने लगा था, जंगल शोर मचा रहा था और बारिश अपना टपाटप का गीत अलाप रही थी, ठीक वैसे ही जैसे कि इस समय... ओक्साना ने मुझे घास-फूस की कोठरी में लिटा दिया, मुझ पर सलीब का निशान बनाया... कुछ देर बाद मैंने ओक्साना के रोने की आवाज़ सुनी।
"ओह, मैं तब बिल्कुल छोटा-सा था, छोकरा-सा। कुछ भी तो समझ नहीं पर रहा था कि मेरे इर्द-गिर्द यह क्या गड़बड़-घोटाला हो रहा है! कोठरी में सिकुड़ा-सिमटा पड़ा रहा, जंगल में तूफ़ान का गीत सुनता रहा और मेरी आँख लगी झपकने।
"ओह, अचानक मुझे घर के क़रीब किसी के पैरों की आहट सुनायी दी... कोई पेड़ के पास पहुँचा और उसने चौधरी का घोड़ा खोल लिया। घोड़ा हिनहिनाया, उसने पाँव पटका। वह घोड़े को ले भागा जंगल में, घोड़े की टापें सुनायी देती रहीं और फिर बन्द हो गयीं... फिर कोई घोड़ा दौड़ाता हुआ आया, और इस बार घर के क़रीब आ पहुँचा। वह घोड़े से कूदा और सीधे खिड़की की तरफ़ लपका।
"‘ओ चौधरी, ओ चौधरी!..’ बूढ़ा बोगदान ऊँची आवाज़ में चिल्लाया। ‘अरे चौधरी, जल्दी से उठ बैठो! नीच कज़्ज़ाक के मन में खोट है। उसी ने तुम्हारा घोड़ा जंगल में डाल दिया है।’
"बूढ़ा बोगदान अपनी बात कह भी नहीं पाया था कि किसी ने उसे पीछे से आ दबाया। फिर जैसे कोई भारी-भरकम चीज़ गिरती है, ऐसा धमाका हुआ। मेरा तो दम निकल गया...
"चौधरी ने दरवाज़ा खोला, बन्दूक़ लिये हुए बाहर निकला। ड्योढ़ी में ही रोमान ने उसे धर लिया, सीधा झोंटों पर हाथ मारा और धड़ाम से पटक दिया ज़मीन पर...
"चौधरी ने समझ लिया कि अब मारे गये। लगा गिड़गिड़ाने -
"‘अरे रोमान! छोड़े दे मुझे। मेरी नेकी का यही बदला दे रहा है तू मुझे?’
"रोमान ने जवाब दिया,
"‘अच्छी तरह याद है मुझे, दुष्ट चौधरी! तूने जो नेकी की है मेरे साथ और मेरी बीवी के साथ। अब मैं तुझे तेरे एहसान का पूरा-पूरा बदला दूँगा...’
"तब चौधरी ने ओपानास की दुहाई दी -
"‘अब तू ही मेरी मदद को आ, मेरे वफ़ादार सेवक! मैं तो तुझे बेटे की तरह मानता हूँ।’
"ओपानास ने जवाब दिया -
"‘तूने अपने वफ़ादार सेवक को कुत्ते की तरह दुत्कार दिया था। तू मुझे ऐसे प्यार करता था जैसे लाठी पीठ से प्यार करती है और अब ऐसे जैसे कि पीठ लाठी से... मैंने तो तेरे सामने नाक रगड़ी, तेरी मिन्नत-समाजत की - मगर तूने कान ही नहीं दिया...’
"अब चौधरी ने ओक्साना की दुहाई दी -
"‘मेरी ओक्साना, अब तू ही आगे आ, मुझे बचा। तू दिल की बहुत भली है।’
"ओक्साना आगे आयी तो, पर हाथ फैलाकर रह गयी -
"‘चौधरी, मैं तुम्हारे सामने गिड़गिड़ायी, हाथ-पाँव जोड़े - तुमसे कहा कि मेरी जवानी पर रहम करो, मेरी आबरू नहीं लूटो, मैं विवाहिता नारी हूँ। पर नहीं, तुम्हें दया नहीं आयी मुझ पर और अब ख़ुद मेरी दुहाई देते हो... मैं भला कर ही क्या सकती हूँ, बेबस नारी?’
"‘छोड़ दो मुझे,’ चौधरी फिर चिल्लाया, ‘मेरी वजह से तुम सब साइबेरिया में पड़े सड़ोगे...’
"‘हमारी चिन्ता नहीं करो, चौधरी,’ ओपानास ने कहा, ‘रोमान तो तुम्हारे हँकवों से पहले दलदल में जा पहुँचेगा। रही मेरी बात तो तुम्हारी कृपा से मैं दम का दम हूँ, अपने सिर की फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं मुझे। बन्दूक़ कन्धे पर लटकाऊँगा और जंगल में जा पहुँचूँगा... तगड़े और मज़बूत कुछ छोकरे अपने साथ मिला लूँगा और बस, जंगल में मंगल रहेगा... रात को जंगल से बाहर सड़क पर पहुँच जाया करेंगे और जैसे ही कोई गाँव नज़र आयेगा, सीधे चौधरी की हवेली पर धावा बोलेंगे। ए रोमान, ज़रा उठाना भई चौधरी मेहरबान को, बाहर बारिश दिखा दें।’
"चौधरी की जब एक न चली तो लगा ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने। रोमान था कि अपने आप भालू की तरह गुर्रा रहा था और कज़्ज़ाक उड़ा रहा था मज़ाक़। तो इस तरह वे बाहर निकले।
"मुझे तो डर ने आ दबोचा। मैं घर के अन्दर भागा और सीधा पहुँचा ओक्साना के पास। मेरी ओक्साना बेचारी बैठी थी तख़्ते पर - उसका रंग एकदम ऐसे सफ़ेद हुआ पड़ा था जैसे कि दीवार...
"इस बीच जंगल में सचमुच ही ज़ोर का तूफ़ान आ गया था - तरह-तरह की आवाज़ों में चीख़-चिल्ला रहा था जंगल, हवा रो रही थी, विलाप कर रही थी और रह-रहकर बिजली कड़क रही थी। हम दोनों - मैं और ओक्साना - अलावघर पर बैठे थे। अचानक मुझे जंगल से किसी की कराह सुनायी दी। ओह, कितना दर्द था उस कराह में! अभी तक भी जब उसकी याद आ जाती है, तो दिल तड़प उठता है। वैसे देखो तो कितने अधिक बरस बीत गये हैं...
"‘ओक्साना,’ मैंने पूछा, ‘मेरी प्यारी ओक्साना, कौन है, जो इस तरह जंगल में कराह रहा है?’
"ओक्साना मुझे बाँहों में लेकर झुलाने लगी।
"सो जा, बेटे, सो जा, मेरे बच्चे,’ उसने कहा, ‘कुछ नहीं, यह तो योंही जंगल शोर मचा रहा है।’
"जंगल तो सचमुच ही शोर मचा रहा था। ओह, कैसा भयानक शोर था वह! "हम इसी तरह कुछ देर तक और बैठे रहे। अचानक मुझे सुनायी दिया कि किसी ने जंगल में गोली दाग़ी है।
"‘ओक्साना, मेरी प्यारी ओक्साना,’ मैंने कहा, ‘किसने यह गोली चलायी है जंगल में?’
"मगर वह मुझे पहले की तरह ही बाँहों में झुलाती रही। फिर बोली -
"‘चुप रह, चुप रह, मेरे बच्चे। यह तो बिजली कड़की है जंगल में।’
"मगर उसकी अपनी आँखों से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। मुझे वह कसकर छाती से चिपटाती गयी और यह लोरी गाती रही - ‘शोर मचाये, शोर मचाये, जंगल शोर मचाये, मेरे बच्चे...’
"इस तरह उसकी बाँहों में झूलता हुआ ही मैं सो गया...
"सुबह हुई तो मैं उछलकर खड़ा हुआ, प्यारे। देखता क्या हूँ कि सूरज चमक रहा है। घर में अकेली ओक्साना ही सोयी पड़ी है, कपड़े पहने हुए। मुझे पिछली रात की बातें याद आयीं, तो मैंने सोचा कि कोई सपना देखा होगा मैंने।
"पर नहीं, वह सपना नहीं था। ओह, वह सपना नहीं था! वह हक़ीक़त थी। मैं भागकर घर से बाहर आया, जंगल में पहुँचा। जंगल में चिड़ियाँ चहचहा रही थीं और पत्तों पर ओस की बूँदें चमक रही थीं। मैं भागकर झाड़ियों की तरफ़ गया। वहाँ क्या देखा कि चौधरी और उसका वफ़ादार नौकर बोगदान एक-दूसरे के क़रीब पड़े हैं। चौधरी शान्त नज़र आ रहा था और उसमें मानो ख़ून का तो नाम ही नहीं था। बोगदान के बाल कबूतर के समान सफ़ेद थे और उसकी ऐंठ और अकड़ वैसे ही थी, मानो ज़िन्दा हो। और चौधरी तथा नौकर, दोनों की छाती पर ख़ून ही ख़ून था।"
... ... ...
इतना कहकर बूढ़े बाबा ने गर्दन झुका दी और चुप्पी साध ली। यह देखकर मैंने पूछा -
"यह तो तुमने बताया नहीं बाबा, कि बाक़ी लोगों का क्या हुआ?"
"ओह! हुआ क्या, वही कुछ जो कज़्ज़ाक ओपानास ने कहा था। बरसों तक भटकता रहा वह जंगल में, छोकरों के साथ रास्तों पर निकलता और चौधरियों की हवेलियों पर टूटता। जन्म से ही क़िस्मत में यही कुछ लिखा था उसकी। बाप-दादों ने भी यही कुछ किया था और जो उसकी क़िस्मत में था, वह भी सामने आया। कई बार वह हमारे इस घर में भी आया। मगर प्रायः वह तभी आता, जब रोमान घर पर न होता। वह आता, बैठता, गाने गाता और बन्दूरा बजाता। जब उसके साथी साथ होते, तो ओक्साना और रोमान उनकी ख़ूब आवभगत करते। ओह, सच बात कहूँ तुमसे, प्यारे - दाल में कुछ काला था, कुछ गड़बड़ मामला था। जल्द ही मक्सिम और ज़ख़ार जंगल से आने वाले हैं। तुम ग़ौर से देखना उन दोनों को। मैं तो उनसे कुछ कहता-वहता नहीं हूँ, पर जो रोमान और ओपानास को जानते थे, उन्हें तो पहली ही नज़र में यह बात साफ़ हो जाती है कि कौन शक्ल-सूरत में किससे मिलता-जुलता है। बेशक यह सही है कि ये बेटे नहीं, पोते हैं... तो देख लो, मियाँ, कैसी-कैसी बातें हो चुकी हैं मेरी आँखों के सामने इस जंगल में...
"बहुत ज़ोर से शोर मचा रहा है जंगल - तूफ़ान आयेगा!"
3
बूढ़े बाबा ने अन्तिम शब्द इस तरह कहे, मानो थक गया हो। सम्भवतः उसके विचारों की ज्वार अब उतार पर थी और वह मन मारकर ऊबे-ऊबे अपनी कहानी जारी रख रहा था। ज़ुबान उसकी लड़खड़ाने लगी थी, सिर उसका काँप रहा था और आँखों में आँसू झलक रहे थे।
धरती पर शाम उतर आयी थी। जंगल में अँधेरा गहरा चुका था। घर के चारों ओर वन ऐसे झोंके खा रहा था, मानो समुद्र में ज्वार-भाटे आ रहे हों। वृक्षों की काली-काली चोटियाँ ऐसे झूम रही थीं, मानो बुरे मौसम में समुद्र में उठने-गिरने वाली लहरें हों।
कुत्तों को मालिकों के पैरों की आहट मिली, तो लगे ख़ुशी से भाैंकने। दोनों वन-रक्षक घर की ओर जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ा रहे थे। उनके पीछे-पीछे हाँफती हुई मोत्रया उस गाय को हाँकती ला रही थी, जो खो गयी थी। अब हम सब इकट्ठा हो गये।
कुछ क्षण बाद हम घर के अन्दर जा बैठे। तन्दूर में आग जल रही थी और मोत्रया दावत का इन्तज़ाम करने में जुटी थी।
मैंने ज़ख़ार और मक्सिम को यों तो अनेक बार देखा था। मगर आज देखा तो ख़ास ध्यान से। ज़ख़ार का चेहरा साँवला और माथा झुका हुआ था, भाैंहें गोल थीं, माथे पर जुड़ी हुईं। उसकी आँखों में कठोरता थी, लेकिन चेहरे पर पैदाइशी नेक स्वभाव की झलक साफ़ दिखायी दे रही थी। मक्सिम की आँखों में मस्ती थी, मानो उसकी भूरी-भूरी आँखें स्नेह से उमड़ी पड़ती हों। अपने घुँघराले बालों को वह बार-बार पीछे की ओर झटकता। उसकी हँसी में तो निराली गूँज थी। दूसरों को भी इस हँसी की छूत लग जाती थी।
"कहिये, बूढ़े बाबा ने आपको कोई क़िस्सा-विस्सा नहीं सुनाया, हमारे दादा की आपबीती?" मक्सिम ने पूछा।
"हाँ सुनायी तो है," मैंने जवाब दिया।
"हमेशा बस, ऐसा ही होता है! जंगल जब ज़ोर से शोर मचाता है, तो पुरानी स्मृतियाँ उसे परेशान करने लगती हैं। अब क्या मजाल कि रात-भर इसकी आँख लग जाये।"
"बिल्कुल छोटे बच्चे के समान है," बूढ़े बाबा के लिए शोरबा डालते हुए मोल्या ने कहा।
बूढ़ा बाबा मानो यह समझ ही नहीं पा रहा था कि उसकी चर्चा हो रही है। वह बिल्कुल ढलक गया था, अपने ही में डूब गया था। कभी-कभी उसके चेहरे पर बेमानी-सी, खोयी-सी मुस्कान झलक उठती और वह सिर हिलाने लगता। जब जंगल के तूफ़ानी झँझावात का कोई तेज़ झोंका झोपड़े को झकझोरता, तो वह चौंक उठता और उसके कान खड़े हो जाते। डरे-डरे, सहमे-सहमे चेहरे से वह कुछ सुनने की कोशिश करता।
कुछ ही देर बाद जंगल के इस झोपड़े में ख़ामोशी छा गयी। केवल दीपक की मद्धिम-सी लौ टिमटिमाती रह गयी। हाँ, झींगुर अपना झीं-झीं का एकसुरा राग अलापता जा रहा था... ऐसा लगता था मानो जंगल में हज़ारों ज़ोरदार और अस्पष्ट आवाज़ें एक-दूसरी में गड्डमड्ड हो गयी हैं। घुप अँधेरे में ये आवाज़ें मानो किसी अनजाने ख़तरे की ओर संकेत कर रही थीं। ऐसे मालूम पड़ता था मानो अँधेरे में कोई तूफ़ानी शक्ति शोर-शराबे की मज़लिस लगाये बैठी थी। इसमें हिस्सा लेने वाले सभी दिशाओं से आये हुए थे। उन्होंने मानो जंगल के इस झोपड़े पर चारों तरफ़ से धावा बोलने की ठान ली थी। बीच-बीच में यह अनबूझ-सा शोर और बढ़ जाता, उग्र हो उठता और हवा के झोंके की तरह बह जाता। उस वक़्त दरवाज़ा चरचरा उठता। तब बिल्कुल ऐसे लगता कि मानो कोई ग़ुस्से से फुँकारता हुआ दरवाज़े पर पिल पड़ा है। रात के इस तूफ़ान में चिमनी से ऐसी दर्दभरी और कराहती आवाज़ें निकल रही थीं कि सुनने वाले का दिल डूब-डूब जाये। फिर थोड़ी देर को तूफ़ानी झोंके रुक जाते। जानलेवा गहरा सन्नाटा डरे-सहमे दिल पर बहुत भारी गुज़रता। फिर वही ग़ुल-गपाड़ा शुरू हो जाता। ऐसा महसूस होता मानो बरसों पुराने सनोबरों ने रात की इस तूफ़ानी हलचल के साथ अपनी जगहों से उड़कर अचानक अनजाने विस्तारों में जा पहुँचने का इरादा बना लिया है।
कुछ मिनट के लिए मुझे झपकी-सी आ गयी। बहुत ही थोड़ी देर को। जंगल में तूफ़ान गूँज रहा था, तरह-तरह के सुरों में, तरह-तरह की आवाज़ों में। रह-रहकर दीप की लौ फड़फड़ा उठती, झोपड़ी को जगमगा देती। बूढ़ा बाबा अपने तख़्ते पर बैठा था, हाथ फैलाकर अपने चारों ओर कुछ टटोल रहा था। उसे मानो इस बात की आशा बँधी थी कि कोई उसके क़रीब ही मौजूद है। इस बेचारे बूढ़े बाबा के चेहरे पर भय और बाल-सुलभ बेबसी और लाचारी का भाव झलक रहा था। मुझे उसकी दर्दभरी आवाज़ सुनायी दी -
"ओक्साना, मेरी प्यारी ओक्साना, कौन यह जंगल में कराह रहा है?"
उसने चौंककर हाथ फैलाया और कान लगाकर कुछ सुना।
"ओह!" वह फिर बड़बड़ाया, "कोई भी तो नहीं कराह रहा। वह तो तूफ़ान का शोर है जंगल में... और कुछ भी तो नहीं, जंगल शोर मचा रहा है, जंगल शोर..."
इसी तरह कुछ मिनट और गुज़र गये। छोटी-छोटी खिड़कियों में जब-तब बिजली की नीलिमा कौंध जाती, ऊँचे-ऊँचे वृक्ष घड़ी-भर को खिड़कियों के बाहर झलक उठते और फिर तूफ़ान के भयानक शोर के बीच अँधेरे में डूब जाते। मगर तभी बहुत तेज़ रोशनी हुई, दीप की टिमटिमाती लौ एकदम अन्धी हो गयी और कहीं पास में ही कड़कड़ाकर जंगल में बिजली गिरी।
बूढ़ा बाबा फिर परेशान हो उठा -
"ओक्साना, मेरी प्यारी ओक्साना, किसने यह गोली चलायी है जंगल में?"
"सो जाओ, बूढ़े बाबा, सो जाओ," तन्दूर की छत पर से मोल्या का शान्त स्वर सुनायी दिया। "जब तूफ़ान आता है, तो हमेशा ऐसा ही होता है। रात-रात-भर ये ओक्साना को पुकारते रहते हैं। इतना भी भूल जाते हैं कि एक ज़माना हो गया ओक्साना को दूसरी दुनिया में पहुँचे। ओह!"
मोत्रया ने जम्हाई ली, भगवान को याद किया और झोपड़े में फिर से सन्नाटा छा गया। इस सन्नाटे को बेधता था जंगल का शोर और बूढ़े बाबा का चौंक-चौंककर बड़बड़ाना -
"जंगल गूँज रहा है, जंगल शोर मचा रहा... ओक्साना, मेरी प्यारी ओक्साना..."
कुछ ही देर बाद मूसलाधार बारिश फट पड़ी। वह शोर मचाया बारिश ने कि तेज़ हवा के झोंकों की साँय-साँय और सनोबर के वृक्षों की आहें-कराहें उसमें डूबकर रह गयीं।
1886
Story - The Murmuring Forest
Korolenko Vladimir Galaktionovich
A LEGEND OF THE POLYESIE (The Polyesie (The Woods), a district in southwestern or Little Russia.)
I
The forest was murmuring.
There was always a murmuring in this forest, long-drawn, monotonous, like the undertones of a distant bell, like a faint song without words, like vague memories of the past. There was always a murmuring in the forest because it was a dense wood of ancient pines, untouched as yet by the axe and saw of the timber merchant. The tall, century-old trees with their mighty red-brown trunks stood in frowning ranks, proudly thrusting their green, interwoven tops aloft. The air under them was still and sweet with resin; bright ferns pierced the carpet of needles with which the ground was clothed, and superbly displayed their motionless, fringed foliage. Tall, green grass-blades had shot upward in the moist places, and there, too, white clover-heads drooped heavily, as if overcome with gentle languor. And always overhead, without a pause and without an end, droned the voice of the forest, the low sighing of the ancient pines.
But now these sighs had grown deeper and louder. I was riding along a woodland path, and although the sky was invisible, I knew, under the darkly frowning trees, that a storm was gathering overhead. The hour was late. A few last rays of sunlight were still filtering in here and there between the tree-trunks, but misty shadows had already begun to gather in the thickets. A thunder-storm was brewing for the night. I was forced to abandon all idea of continuing the chase that day, and could only think of reaching a night’s lodging before the storm broke. My horse struck his hoof against a bare root, snorted, and pricked his ears, harkening to the muffled impacts of the forest echo. Then of his own accord he turned his steps into the well-known path that led to the hut of the forest guard.
A dog barked. White plastered walls gleamed among the thinning tree-trunks, a blue wisp of smoke appeared, curling upward under the overshadowing branches, and a lop-sided cottage with a dilapidated roof stood before me, sheltering under a wall of ruddy tree-trunks. It seemed to have sunk down upon the ground, while the proud graceful pines nodded their heads, high, high above it. In the centre of the clearing stood two oak trees, huddling close to one another.
Here lived the foresters Zakhar and Maksim, the invariable companions of my hunting expeditions. But now they were evidently away from home, for no one came out of the house at the barking of the great collie. Only their old grandfather with his bald head and his grey whiskers was sitting on a bench outside the door, braiding shoes of bast. The old man’s beard swept almost to his belt; his eyes were vague as if he were trying in vain to remember something.
“Good evening, daddy! Is any one at home?”
“Eh, hey,” mumbled the old man, shaking his head; “neither Zakhar nor Maksim is here and Motria has gone into the wood for the cow. The cow has run away; perhaps the bears have eaten her. And so there is no one in the cottage.”
“Well, well, never mind. I’ll sit here with you and wait.”
“Yes, sit down and wait!” the old man nodded, and watched me with dim, watery eyes as I tied my horse to the branch of one of the oaks. The old man was failing fast. He was nearly blind and his hands trembled.
“And who are you, lad?” he asked, as I sat down on the bench.
I was accustomed to hearing this question at every visit.
“Eh, hey; now I know, now I know,” said the old man, resuming his work on the shoe. “My old head is like a sieve; nothing stays in it now. I remember people who died a long time ago, oh, I remember them well! But I forget new people. I have lived in this world a long time.”
“Have you lived in this forest long, daddy?”
“Eh, hey; a long time! When the Frenchmen came into the Tsar’s country I was here.”
“You have seen much in your day. You must have many stories to tell.”
The old man looked at me with surprise.
“And what would I have seen, lad? I have seen the forest. The forest murmurs night and day, winter and summer. One hundred years have I lived in this forest like that tree there without heeding the passage of time. And now I must go to my grave, and sometimes I can’t tell, myself, whether I have lived in this world or not. Eh, hey; yes, yes. Perhaps, after all, I have not lived at all.”
A corner of the dark cloud moved out over the clearing from behind the close-growing tree-tops, and the pines that stood about the clearing rocked in the first gusts of wind. The murmur of the forest swelled into a great resonant chord. The old man raised his head and listened.
“A storm is coming,” he said after a pause. “I know. Oi, oi! A storm will howl to-night, and will break the pines and tear them up by the roots. The Master of the forest will come out.”
“How do you know that, daddy?”
“Eh, hey; I know it! I know what the trees are saying. Trees know what fear is as well as we do. There’s the aspen, a worthless tree that’s always getting broken to pieces. It trembles even when there is no wind. The pines in the forest sing and play, but if the wind rises ever so little they raise their voices and groan. This is nothing yet. There, listen to that! Although my eyes see badly, my ears can hear: that was an oak tree rustling. The oaks have been touched in the clearing. The storm is coming.”
And, as a matter of fact, the pair of low, gnarled oak trees that stood in the centre of the clearing, protected by the high wall of the forest, now waved their strong branches and gave forth a muffled rustling easily distinguishable from the clear, resonant notes of the pines.
“Eh, hey; do you hear that, lad?” asked the old man with a childishly cunning smile. “When the oak trees mutter like that, it means that the Master is coming out at night to break them. But no, he won’t break them! The oak is a strong tree, too strong even for the Master. Yes indeed!”
“What Master, daddy? You say yourself it is the storm that breaks them.”
The old man nodded his head with a crafty look.
“Eh, hey; I know that! They tell me there are some people in the world these days who don’t believe in anything. Yes indeed! But I have seen him as plainly as I see you now, and better, because my eyes are old now, and they were young then. Oi, oi! How well I could see when I was young!”
“When did you see him, daddy? Tell me, do!”
“It was an evening just like this. The pines began to groan in the forest. First they sang and then they groaned: oh-ah-o-oh-a-h! And then they stopped, and then they began again louder and more pitifully than ever. Eh, hey; they groaned because they knew that the Master would throw down many of them that night! And then the oak trees began to talk. And toward evening things grew worse until he came whirling along with the night. He ran through the forest laughing and crying, dancing and spinning, and always swooping down on those oak trees and trying to tear them up by the roots. And once in the Autumn I looked out of the window, and he didn’t like that. He came rushing up to the window and, bang-bang, he broke it with a pine knot. He nearly hit my face, bad luck to him! But I’m no fool. I jumped back. Eh, hey; lad, that’s the sort of a quarrelsome fellow he is!”
“But what does he look like?”
“He looks exactly like an old willow tree in a marsh. Just exactly! His hair is like dry mistletoe on a tree, and his beard too; but his nose is like a big fat pine knot and his mouth is as twisted as if it were all overgrown with lichen. Bah, how ugly he is! God pity any Christian that looks like him! Yes indeed! I saw him once quite close, in a swamp. If you’ll come here in the winter you can see him for yourself. You must go in that direction, up that hill—it is covered with woods—and climb to the very top of the highest tree. He can sometimes be seen from there racing along over the tree-tops, carrying a white staff in his hand, and whirling, whirling until he whirls down the hill into the valley. Then he runs away and disappears into the forest. Eh, hey! And wherever he steps he leaves a foot-print of white snow. If you don’t believe an old man come and see for yourself.”
The old man babbled on; the excited, anxious voices of the forest and the impending storm seemed to have set his old blood racing. The aged gaffer laughed and blinked his faded eyes.
But suddenly a shadow flitted across his high, wrinkled forehead. He nudged me with his elbow and said with a mysterious look:
“Let me tell you something, lad. Of course the Master of the forest is a worthless, good-for-nothing creature, that is true. It disgusts a Christian to see an ugly face like his, but let me tell you the truth about him: he never does any one any harm. He plays jokes on people, of course, but as for hurting them, he never would do that!”
“But you said yourself, daddy, that he tried to hit you with a pine knot.”
“Eh, hey; he tried to! But he was angry then because I was looking at him through the window; yes indeed! But if you don’t go poking your nose into his affairs he’ll never play you a dirty trick. That’s what he’s like. Worse things have been done by men than by him in this forest. Eh, hey; they have indeed!”
The old man’s head dropped forward on to his breast and he sat silent for several minutes. Then he looked at me, and a ray of awakening memory seemed to gleam through the film that fogged his eyes.
“I’ll tell you an old story of our forest, lad. It happened here in this very place, a long, long time ago. Almost always I remember it as in a dream. But when the forest begins to talk more loudly, I remember it well. Shall I tell it to you?”
“Yes, do, daddy! Tell me!”
“Very well, I’ll tell you; eh, hey! Listen!”
II
My father and mother died, you know, a long time ago when I was only a little lad. They left me in the world alone. That’s what happened to me, eh, hey! Well, the village warden looked at me and thought: “What shall we do with this boy?” And the lord of the manor thought the same thing. And at that time Raman, the forest guard, came out of the forest, and he said to the warden: “Let me have that boy to take back to my cottage with me. I’ll take good care of him. It will be company for me in the forest and he will be fed.” That’s what he said, and the warden answered: “Take him!” So he took me. And I have lived in the forest ever since.
Raman brought me up here. God forbid that any one should look as terrible as he did! His eyes were black, his hair was black, and a dark soul looked out of his eyes because the man had lived alone in the forest all his life. The bears, people said, were his brothers and the wolves were his nephews. He knew all the wild animals and was afraid of none, but he kept away from people and wouldn’t even look at them. That’s what he was like. It’s the honest truth. When he looked at me I felt as if a cat were tickling my back with its tail. But he was a good man all the same, and I must say he fed me well. We always had buckwheat porridge with grease, and a duck if he happened to kill one. Yes, he fed me well; it’s the truth and I must say it.
So we two lived together. Raman used to go out into the forest every day and lock me up in the cottage so that the wild animals shouldn’t eat me. Then they gave him a wife called Aksana.
The Count, who was the lord of the manor, gave him his wife. He called Raman to the village and said to him:
“Come, Raman, you must marry.”
“How can I marry? What should I do with a wife in the forest when I already have a boy there? I don’t want to marry!” he said.
He wasn’t used to girls, that’s what the matter was. But the Count was sly. When I remember him, lad, I think to myself: there are no men like him now, they are all gone. Take yourself, for instance. They say you are a Count’s son too. That may be true, but you haven’t got the—well the real thing, in you. You’re a miserable little snip of a boy, that’s all you are.
But he was a real one, just as they used to be. You may think it a funny thing that a hundred men should tremble before one, but look at the falcon, boy, and the chicken! Both are hatched out of an egg, but the falcon longs to soar as soon as his wings are strong. Then, when he screams in the sky, how not only the little chickens but the old cocks run! The noble is a falcon, the peasant is a hen.
I remember when I was a little boy seeing thirty peasants hauling heavy logs out of the forest and the Count riding along alone on his horse, twirling his whiskers. The horse under him was prancing, but he kept looking from side to side. Oi, oi! When the peasants met the Count, how they got out of his way, turning their horses aside into the snow, and how they took off their caps! They had heavy work afterwards pulling the logs out of the snow back on to the road while the Count galloped away. The road had been too narrow for him to pass the peasants of course! Whenever the Count moved an eyebrow the peasants trembled. When he laughed, they laughed; when he frowned, they cried. No one ever opposed the Count; it had never been done.
But Raman had grown up in the forest and did not know the ways of the world, so the Count was not very angry when he refused the girl.
“I want you to marry,” the Count said. “Why I want you to do it is my business. Take Aksana.”
“I don’t want to,” answered Raman. “I don’t want her. Let the Devil marry her, I won’t! There now!”
The Count ordered a knout to be brought. They stretched Raman out, and the Count asked him:
“Will you marry, Raman?”
“No,” he answered, “I won’t.”
“Then give it to him on the back,” commanded the Count, “as hard as you can lay it on.”
They gave it to him good and hard. Raman was a strong man, but he got tired of it at last.
“All right, stop!” he cried. “That’s enough. May all the devils in hell take her! I won’t suffer this torture for any woman! Give her to me; I’ll marry her!”
Now there lived at the Count’s castle a huntsman named Opanas. Opanas came riding in from the fields just as they were persuading Raman to be married. He heard Raman’s trouble and fell at the Count’s feet. He fell down and kissed them.
“What’s the use of thrashing that man, kind master?” he asked. “Better let me marry Aksana with a free will.”
Eh, hey; he wanted to marry her himself. That’s what he wanted, yes indeed!
So Raman was pleased and grew happy again. He got up and tied up his breeches and said:
“That’s splendid!” says he. “But why couldn’t you have come a little sooner, man? And the Count too—that’s how it always is! Wouldn’t it have been better to have found out first who wanted to marry her? Instead of that they grab the first man that comes along and begin flogging him! Do you think that is Christian?” he asked. “Bah!”
Eh, hey; he didn’t have any mercy on the Count, that’s the sort of man Raman was. When he got angry it was safest to keep out of his way, even for a Count. But the Count was sly! You see he was after something. He ordered Raman to be stretched out on the grass.
“I want to make you happy, fool!” he cried. “And you turn up your nose at me! You are living alone now like a bear in his den; it is dull for me when I come to see you. Lay it on to the fool until he says he has had enough! As for you Opanas, go to the devil! You weren’t asked to this party,” he said. “So don’t sit down at the table unless you want to be entertained like Raman.”
But Raman’s anger had gone beyond joking by that time, eh, hey! They tickled him well, and, you know, people in those days could take a man’s hide off beautifully with a knout, but he lay quite still and never said: that’s enough! He endured it a long time, but at last he spat and cried:
“It’s not right to baste a Christian like this for a woman without even counting the stripes! That’s enough! And may your hands shrivel and drop off, you accursed servants! The devil himself must have taught you to use the knout. Do you think I’m a bundle of wheat on a threshing floor that you beat me like this? If that’s your idea, I’m going to get married.”
Then the Count laughed.
“That’s splendid!” he cried. “Though you won’t be able to sit down at your wedding, you will dance all the livelier.”
The Count was a jolly man, indeed he was, eh, hey! Something bad happened to him afterwards though; God forbid that anything like that should ever happen to any Christian! I wouldn’t wish it for any one. It wouldn’t be right to wish it even for a Jew. That’s what I think about it.
Well, they got Raman married. He brought his young wife to this cottage, and at first he did nothing but scold her and blame her for his thrashing.
“You’re not worth a thrashing to any man!” he used to say.
As soon as he came home out of the forest he would chase her out of the house shouting:
“Away with you! I don’t want a woman in my house! Don’t let me see you here again! I don’t like to have a woman sleeping here. I don’t like the smell.”
Eh, hey!
But later he got used to her. Aksana swept out the hut and painted it to look nice and clean, and put the china neatly away, and at last everything shone so brightly that one’s heart grew merry at the sight of it. Raman saw what a good woman she was, and little by little he got used to her. Yes, he not only got used to her, lad, he began to love her. Yes indeed, I am telling you the truth. That’s what happened to Raman. When he found out what the woman was like he said:
“Thanks to the Count I have learnt what a good thing is. What a fool I was! How many stripes I took, and now I see that it isn’t so bad after all! It is even good. That’s the truth!”
And so some time passed, I don’t know exactly how much. Then one day Aksana lay down on a bench and began to groan. That evening she was ill, and when I woke up in the morning I heard a shrill little voice squeaking. Eh, hey, I thought to myself, I know what has happened, a baby has been born! And so it had.
The baby did not stay long in this world. Only from that morning until night. It stopped squeaking in the evening. Aksana cried, but Raman said:
“The child has gone, so now we won’t call in the priest. We can bury it ourselves under a pine tree.”
That’s what Raman said. And he not only said it, he did it. He dug a little grave under a tree and buried the child. There stands the old stump of the tree to this day. It has been split by lightning. Yes, that is the same pine tree under which Raman buried the child. And I’ll tell you something, boy: to this day when the sun goes down and the stars shine out over the forest a little bird comes flying to that tree and cries. It pipes so sadly, poor little bird, that one’s heart aches to hear it. It is the little unchristened soul crying for a cross. A learned man, they say, who knows things out of books, could give it a cross and then it would not fly about any more. But we live here in the forest and don’t know anything. It comes flying up begging for help and all we can say is: “You poor, poor little soul, we can’t do anything for you!” So then it cries and flies away, and next day it comes back again. Ah, boy, I’m sorry for the poor little soul!
Well, when Aksana got well again she was always going to the grave. She would sit on the grave and cry; sometimes she would cry so loudly that her voice could be heard through the whole forest. She was grieving for her baby, but Raman did not grieve for the baby, he grieved for her. He used to come back out of the forest and stand by Aksana and say:
“Be quiet, silly woman! What is there to cry for? One child has died but there may be another. And a better one, perhaps! Because that one may not have been mine, I don’t know whether it was or not, but the next one will be mine!”
Aksana did not like it when he talked like that. She would stop crying and begin to howl at him with bad words. Then Raman would get angry.
“What are you howling for?” he would ask. “I didn’t say anything of the kind. I only said I didn’t know. And the reason I don’t know is because you were living in the world among men then, and not in the forest. So how can I be sure? Now you are living in the forest; now it is all right. Old granny Feodosia said when I went to the village to fetch her: ‘Your baby came very quickly, Raman.’ And I said to the old woman: ‘How do I know whether it came quickly or not?’ But come now, stop bawling or I’ll get angry, and might even beat you.”
Well, Aksana would shout at him for a while and then she would stop. She would scold him and hit him on the back, but when Raman began to get angry himself she would grow quiet. She would be frightened. She used to embrace him then, and kiss him, and look into his eyes. Then my Raman would grow quiet again. Because, you know, lad—but you probably don’t know, though I do, even if I have never married, because I’m an old man—I know that a young woman is so sweet to kiss that she can twist any man around her finger at will no matter how angry he is. Oi, oi, I know what these women are! And Aksana was a tidy young thing; one doesn’t see her like now-a-days. I’ll tell you, lad, women are not what they were.
Well, one day a horn blew in the forest: tara-tara-ta-ta! That’s how it echoed through the forest, clearly and gaily. I was a little fellow then and didn’t know what it was. I saw the birds rising from their nests and flapping their wings and screaming, and I saw the hares skipping over the ground with their ears laid back, as fast as they could scamper. I thought perhaps it was some unknown wild animal making that pretty noise. But it was not a wild animal, it was the Count trotting through the forest on his horse and blowing his horn. Behind him came his huntsmen leading their hounds on the leash. The handsomest of all the huntsmen was Opanas, caracoling behind the Count dressed in a long blue Cossack coat. Opanas’ cap had a peaked golden crown, his horse was capering under him, his carbine was glistening on his back, and his bandura was slung across his shoulder by a strap. The Count liked Opanas because he played well on the bandura and was an expert at singing songs. Ah, this lad Opanas was handsome, terribly handsome! The Count simply didn’t compare with Opanas. The Count was bald and his nose was red and his eyes, though they were merry, were not like those of Opanas! When Opanas looked at me—at me, a little whipper-snapper—I couldn’t help laughing, and I wasn’t a young girl! People said that Opanas’ father was a Cossack from beyond the Dnieper; every one there is handsome and nimble and sleek. And think, boy, the difference there is between flying across the plains like a bird with a horse and a lance, and chopping wood with an axe!
Well, I ran out of the hut and looked, and there came the Count and stopped right in front of the house, and the huntsmen stopped too. Raman ran out of the hut and held the Count’s stirrup and the Count climbed down from his horse. Raman bowed to him.
“Good day!” the Count says to Raman.
“Eh, hey,” answers Raman. “I’m very well, thanks, and how are you?”
You see, Raman didn’t know how to answer the Count as he ought to have done. The attendants all laughed at his words and the Count laughed too.
“I’m very glad you are well,” says the Count. “And where is your wife?”
“Where should my wife be? My wife is in the hut.”
“Then we’ll go into the hut,” says the Count. “And meanwhile light a fire, lads, and prepare something to eat, for we have come to congratulate the young couple.”
So they went into the hut; the Count, and Opanas, and Raman bareheaded behind them with Bogdan, the oldest of the huntsmen and the Count’s faithful servant. There are no servants like him in the world now.
Bogdan was old and ruled the other attendants sternly, but in the Count’s presence he was like that dog there. There was no one in the world for Bogdan except the Count. People said that when Bogdan’s father and mother had died he had asked the old Count for a house and land, for he wanted to marry. But the old Count would not allow it. He made him the young Count’s servant and said: “There are your mother and father and wife!” So Bogdan took the boy and taught him to ride and shoot. And the young Count grew up and began to rule in his father’s place, and old Bogdan still followed him like a dog.
Okh, I’ll tell you the truth. Many people have cursed Bogdan; many tears have fallen because of him, and all on account of the Count. At one word from the Count, Bogdan would have torn his own father to shreds.
Well, I was a little fellow, and I ran into the house behind the Count. I was curious to see what would happen. Wherever he went I went too.
Well, I looked, and there, standing in the middle of the hut, I saw the Count stroking his whiskers and laughing. And there was Raman standing first on one foot and then on another, crushing his hat in his hands, and there, too, was Opanas leaning against the wall, looking, poor fellow, like a young oak in a storm. He was frowning and sad.
All three were turned toward Aksana. Only old Bogdan was sitting on a bench in a corner with his top-knot hanging down, waiting for the Count to give him an order. Aksana was standing in a corner by the stove with her eyes on the floor, as crimson as that poppy there in the barley. Okh, it was plain the witch felt that something wicked was about to happen because of her. Let me tell you something, lad: if three men stand looking at one woman nothing good ever comes of it. Hair is sure to fly, if nothing worse. I know that, because I have seen it happen myself.
“How now, Raman, lad?” laughed the Count. “Did I give you a good wife or not?”
“Not bad,” answered Raman. “The woman will do.”
Here Opanas shrugged his shoulders, raised his eyes to Aksana, and muttered:
“What a woman she is! If only that goose hadn’t got her!”
Raman overheard the words and turned to Opanas and said:
“Why do I seem a goose to you, Lord Opanas? Eh, hey; tell me that!”
“Because you don’t know how to protect your wife; that’s why you’re a goose.”
That’s what Opanas said to him! The Count stamped his foot. Bogdan shook his head, but Raman thought a minute and then raised his head and looked at the Count.
“Why should I protect her?” he asked Opanas, but his eyes were fixed on the Count. “There’s no one here in the forest except wild beasts, unless it is our gracious Count when he comes. Whom should I protect her from? Look out, you misbegotten Cossack you, don’t provoke me, or before you know it I’ll have you by the forelock!”
And perhaps the business would have ended in a thrashing if the Count hadn’t interfered. He stamped his foot, and every one was silent.
“Gently there, you Devil’s spawn,” he said. “You didn’t come here to fight. Congratulate the young people first, and then in the evening we’ll go hunting on the marsh. Here, follow me!”
The Count turned on his heel and left the hut. The attendants had already spread a dinner under the trees. Bogdan followed the Count, but Opanas stayed with Raman in the front entry.
“Don’t be angry with me, brother,” said the Cossack. “Listen to what Opanas has to tell you. You saw how I rolled in the dust at the Count’s feet, and kissed his boots, and begged him to give me Aksana? Well, God bless you, man! The priest has tied you up; it’s your luck, I see, but my heart can’t stand that wicked fellow making sport of you and of her again. Hey ho, no one knows what I have in my heart! It would be well were I to lay him in the cold ground for a bed with the help of my gun!”
Raman stared at the Cossack and asked:
“Have you gone out of your head this hour, Cossack?”
I did not hear what Opanas began whispering to Raman in the front entry in answer to this; I only heard Raman clap him on the back.
“Okh, Opanas, Opanas! How wicked and cunning people are in this world! I knew nothing of this, living in the forest. Eh, hey, Count, Count, what evil you have brought on your head!”
“Come!” Opanas says to him. “Go now, and don’t show anything, especially before Bogdan. You’re a simple man and that hound of the Count’s is crafty. Be sure you don’t drink much of the Count’s wine; and if he sends you out on the marsh with the huntsmen and himself wants to stay behind, lead the huntsmen to the old oak tree, put them on a round-about road, and tell them that you are going to walk straight through the forest. Then come back here as quick as you can.”
“Good,” says Raman. “It’s hunting I shall go, though my gun won’t be loaded with bird-shot for little birds, but with a good stout bullet for a bear.”
Then they went out. The Count was sitting on a carpet on the ground. He ordered a flagon of wine and a goblet to be brought to him, filled a goblet full and passed it to Raman. Eh, hey; the Count’s flagon and goblet were fair to see and his wine was better still. One little goblet, and your heart would be full of happiness; another, and it would leap in your breast; if a man were not used to it he would roll under his seat after the third unless a woman were there to lay him on top of it.
Eh, hey; I tell you, the Count was clever. He wanted to make Raman drunk on his wine, but there was no wine in the world that could overpower Raman. He emptied one goblet from the Count’s hands and then another, and still another, until his eyes glowed like a wolf’s and his black whiskers began to twitch. The Count at last grew angry.
“How sturdily that Devil’s spawn can lap up the wine and never blink an eye! Any other fellow would have been blubbering by now, but look at him, lads; he is laughing still!”
The wicked Count well knew that if a man cried from wine his top-knot would soon be trailing on the table. But this time he had mistaken his man.
“And why should I cry?” asked Raman in return. “That would even be rude. The gracious Count comes to congratulate me on my marriage and I begin to howl like a woman! Thank God I have nothing to cry for yet; let my enemies do the crying!”
“That means you are contented?” asks the Count.
“Eh, hey! And why should I be discontented?”
“Do you remember how I betrothed you with the help of a knout?”
“How should I not remember? I was a foolish man then and didn’t know bitter from sweet. The knout was bitter, but I loved it better than a woman. Thanks to you, gracious Count, this fool has learned to eat honey.”
“All right, all right,” says the Count. “And now I want you to do me a good turn. Go out on the marsh with my huntsmen and shoot as many birds as you can, and especially do I want you to get me a blackcock.”
“And when does the Count send us out on the marsh?” asks Raman.
“When you have had one more drink. Opanas will sing us a song, and then go in God’s name.”
Raman fixes his eyes on the Count and says:
“That will not be easy. It is late, the marsh is far, and, besides, the forest is murmuring in the wind; there will be a storm to-night. How can one kill a shy bird on an evening like this?”
But the Count was drunk, and he was always powerfully bad-tempered in his cups. He heard his attendants whispering among themselves that “surely Raman was right, there would soon be a storm,” and he was very angry. He slammed down his goblet and glared about him. Every man held his tongue.
Only Opanas was not afraid; he stepped out as the Count had told him to do to sing his song with his bandura. He tuned it, glanced sideways at the Count, and said:
“Come to your senses, gracious Lord! When has it ever been known that men went hunting birds at night, in a dark forest, in the midst of a storm?”
That’s how bold he was! The other serfs of the Count were afraid, of course, but he was a free man of Cossack birth. An old Cossack player of the bandura had brought him as a youngster from the Ukraine. There, lad, the people had made trouble in the town of Uman. They had put out this old Cossack’s eyes, cut off his ears, and sent him out like that into the world. So he had walked and walked, from village to town, and wandered into our country with the little lad Opanas as his guide. The old Count took him into his house because he loved beautiful songs. So when the old man died, Opanas grew up in the palace. The young Count grew to like him, and would often endure speeches from him for which he would have flayed three skins off the back of another man.
So it was now. He was angry at first, and the men thought he was going to hit the Cossack, but he soon spoke to Opanas and said:
“Oi, Opanas, Opanas! You’re a clever lad, but it’s plain you don’t understand that no man should put his nose in the crack of a door for fear some one might slam it.”
That’s how he guessed the Cossack’s riddle! And the Cossack saw at once he had guessed it. And he answered the Count in a song. Oi, if the Count had been able to understand a Cossack song, his Countess might not have had to shed tears over him that night! “Thank you, Count, for your wisdom,” said Opanas. “Now in return I am going to sing to you. Listen well.”
Then he raised his head and looked up at the sky; he saw an eagle soaring there and the wind driving the dark clouds along. He listened and heard the tall pines murmuring.
And once more he struck the strings of his bandura.
Eh, lad, you never chanced to hear Opanas play, and now you will never hear it! The bandura is a simple trick, but oh, how well a man who knows it can make it talk! When Opanas ran his hand across the strings it told him everything: how the dark pine forest sings in a storm; how the wind hums through the sedge on the desert steppe; how the dry grass whispers on a high Cossack grave.
No, lad, you won’t hear such playing as that now-a-days!
All kinds of people come here now that have been not only in our Polyesie but in other countries as well: all over the Ukraine, in Chirigin and Poltava and Kiev. They say that players of the bandura are out of fashion now and that you never hear them at fairs and in the bazaars. I still have an old bandura hanging on the wall of the hut. Opanas taught me to play it, but no one has learnt to play it from me. When I die—and that will be soon—who knows, perhaps nobody in the wide world will ever hear the notes of a bandura again. No, indeed!
And Opanas began singing a song in a low voice. Opanas’ voice was not loud; it was brooding and sad, and went straight to the heart. And the song, lad, was made up for the Count by the Cossack himself. I have never heard it again, and when, later, I used to tease Opanas to sing it, he always refused.
“The man for whom that song was sung,” he would say, “is no longer in this world.”
The Cossack told the Count all the truth in that song, and what the Count’s fate would be, and the Count wept; the tears even trickled down his beard, and yet it was plain that not one word did he understand.
Okh, I can’t remember the song; I can only remember a few words. The Cossack sang about Count Ivan:
“Oi, Ivan! Alas, oi, Count!
The Count is clever and much he knows.
He knows that the falcon soars in the sky, and falls upon the crow.
Oi, Ivan! Alas, oi, Count!
But the Count does not know
How it is in this world,
That the crow will at last kill the falcon at its nest.”
There, lad! I seem to hear that song at this moment, and to see those men again. There stands the Cossack with his bandura; the Count is sitting on his carpet; his head is bowed, and he is weeping. The Count’s men are gathered about him and are nudging one another with their elbows, and old Bogdan is shaking his head. And the forest is murmuring, just as it is murmuring now, and the bandura is chiming softly, dreamily, while the Cossack sings of how the Countess wept over the grave of Count Ivan:
“She cries, the Countess cries,
While over the grave of Count Ivan a black crow flies.”
Okh, the Count did not understand that song. He wiped his eyes and said:
“Come now, Raman! Come, lads, mount your horses! And you, Opanas, ride with them; I’ve had enough of your singing! That was a good song, only you sang of things that never happen in this world.”
But the Cossack’s heart was softened by his song and his eyes were dim.
“Okh, Count, Count,” says Opanas. “In my country the old men say that legends and songs contain the truth. But in legends the truth is like iron that has passed through the world from hand to hand for many years and has grown rusty. But the truth in songs is like gold that rust will never corrode. That’s what the old men say!”
But the Count waved his hand.
“It may be so in your country, but here it is not so. Go, go, Opanas; I am tired of listening to you.”
The Cossack stood still for a moment and then fell at the Count’s feet.
“Do as I beseech you, Count!” he cried. “Mount your horse and ride home to your Countess! My heart foretells disaster.”
At that the Count grew angry in earnest. He kicked the Cossack aside with his boot as if he had been a dog.
“Get out of my sight!” he shouted. “Now I see that you’re not a Cossack but an old woman! Leave me, or evil will befall you! What are you waiting for, hounds? Am I no longer your master? Here, I’ll show you something that your fathers never saw done by my father!”
Opanas rose like a dark thunder-cloud and exchanged glances with Raman. Raman was standing off at one side, leaning on his carbine as if nothing had happened.
The Cossack struck his bandura against a tree; the bandura flew to pieces and the sound of its groan echoed through the forest.
“Very well, then!” he cried. “Let the devils in the next world teach him who will not hear wise counsel in this! I see, Count, you have no need of a faithful servant!”
Before the Count could answer Opanas had jumped into his saddle and ridden away. The other attendants mounted their horses too. Raman shouldered his carbine and walked away; as he passed the hut he called out to Aksana:
“Put the boy to sleep, Aksana; it is time. And prepare a bed for the Count!”
They had soon all ridden away into the wood by that road there, and the Count went into the hut; only the Count’s horse was left standing outside, tied to a tree. Night was already falling; a murmur was going about the forest, and a few drops of rain were falling, just as they are now. Aksana laid me to sleep in the hayloft and made the sign of the cross over me for the night. I could hear my Aksana crying.
Okh, what could a little lad like me understand of all that was going on? I wrapped myself in the hay and lay listening to the storm singing its song in the forest until I began to fall asleep.
Eh, hey! Suddenly I heard footsteps outside the hut. They reached the tree, and some one untied the Count’s horse. The horse snorted and stamped and galloped away into the forest. The sound of its hoofs soon died away in the distance. But before long I heard galloping again; some one was coming down the road. This man rode up post haste, jumped down from his saddle, and rushed to the window of the hut.
“Count! Count!” cried the voice of old Bogdan. “Oi, Count! Open the door quickly! That devil of a Cossack means harm! He has let your horse loose in the forest!”
Before the old man had time to finish his sentence he was seized from behind. I was frightened, for I heard something fall.
The Count tore open the door and jumped out with his carbine in his hand, but Raman caught him in the front entry right by the top-knot as he had done the other, and flung him to the ground as well.
The Count saw that things were going badly for him and he cried:
“Oi, let me go, Raman, lad! Have you forgotten the good turn I did you?”
Raman answered:
“I remember, wicked Count, the good turn you did me and my wife. And now I shall pay you for it.”
But the Count cried again:
“Help me, help me, Opanas, my faithful servant! I have loved you as my own son!”
But Opanas answered:
“You drove your faithful servant away like a dog. You have loved me as a stick loves the back which it beats, and now you love me as the back loves the stick which beats it! I begged and implored you to listen to me. You wouldn’t!”
Then the Count began calling to Aksana for help.
“Intercede for me, Aksana; you have a kind heart!”
Aksana came running out, wringing her hands.
“I begged you on my knees, Count, at your feet I once begged you, to spare my maidenhood, and to-night I besought you not to defile me, a married woman. You would not spare me, and now you are asking mercy for yourself. Okh, do not ask it from me; what can I do?”
“Let me go!” cried the Count once more. “You will all go to Siberia because of me!”
“Do not grieve for us, Count,” answered Opanas. “Raman will be out on the marsh before your men get back, and, as for me, I am alone in the world, thanks to your kindness. I shan’t worry about myself. I shall shoulder my carbine and be off into the forest. I shall gather together a band of lusty lads and we shall roam through the country, coming forth out of the forest onto the highroads at night. When we reach a village we shall make straight for the Count’s domain. Come on, Raman, lad, raise up the Count and let us carry his honour out into the rain.”
Then the Count began to struggle and scream, but Raman only growled under his breath, and Opanas laughed. So they went out.
But I took fright. I rushed into the hut and ran straight to Aksana. My Aksana was sitting on a bench, as white as that plaster wall.
And the storm was raging in earnest through the forest by now; the pines were shouting with many voices, and the wind was howling, while from time to time a clap of thunder would rend the air. Aksana and I sat on a bench, and all at once I heard someone groan in the forest. Okh, he groaned so pitifully that to-day when I remember it my heart grows heavy, and yet it happened many years ago.
“Aksana,” I asked, “dear Aksana, who is that groaning in the forest?”
But she took me in her arms and rocked me and said:
“Go to sleep, little lad, it is nothing! It is only—the forest murmuring.”
And the forest was murmuring indeed! Oh, how loudly it was talking that night!
We sat there together a little while longer and then I heard what I thought was a shot in the forest.
“Aksana,” I asked, “dear Aksana, who is that shooting with a gun?”
But she only rocked me and answered:
“Be quiet, be quiet, little lad; that is God’s lightning striking in the forest.”
But she herself was crying, and holding me close to her breast. She rocked me to sleep, repeating softly:
“The forest is murmuring; the forest is murmuring, little lad.”
So I lay in her arms and went to sleep.
And when morning came, lad, I jumped up, and there was the sun shining and Aksana sitting all dressed in the hut. I remembered what had happened the night before and thought: “It was all a dream!”
But it was not a dream; oi, no, not a dream; it was true. I ran out of the hut into the forest. The birds were singing and the dew was shining on the grass. I ran into the thicket and there I saw the Count and a huntsman lying side by side. The Count was peaceful and pale, but the huntsman was grey, like a dove, and stern as if he had been alive. On the breasts of the Count and of the huntsman were bloody stains.
“Well, and what became of the others?” I asked, seeing that the old man had bowed his head and was silent.
“Eh, hey! That is all there is to the story, as Opanas the Cossack used to say. He lived long in the forest, roaming about the highroads and over the domains of the nobles with his lads. His fate had been written at his birth; his fathers had been robbers and a robber he had to be. He came here to this hut more than once, lad, most often when Raman was away. He would come and sit for a while and sing a song and play upon his bandura. But when he came with his comrades, Aksana and Raman would always be here together to greet him. Okh, to tell you the truth, lad, guilty deeds have been done here. Maksim and Zakhar will soon come back out of the forest—look well at them both. I say nothing to them about it, but any one who knew Raman and Opanas could tell at a glance which one of the boys looks like which, although they are not the sons but the grandsons of those men. That is what has been done here in this forest, lad, in my memory.
“And the forest is murmuring loudly to-night. There will be rain.”
III
The old man spoke the last words as if he were tired. His excitement had died out, his tongue was tripping, his head was shaking, and his eyes were full of tears.
Night had fallen; the forest was wrapped in darkness. The wind was thundering against the but like a rising tide. The black tree-tops were tossing like the crests of waves in a fierce gale.
Soon a merry barking announced the approach of the dogs and their masters. Both foresters appeared striding swiftly toward the hut, and behind them came the panting Motria, driving in her lost cow. Our company was now complete.
A few minutes later we were sitting in the hut. A cheerful fire was crackling in the stove; Motria was preparing our supper.
Although I had seen Zakhar and Maksim many times before, I now looked at them with especial interest. Zakhar’s face was dark. His eyebrows grew out from under a straight, low forehead, and his eyes were sombre, although a natural kindness and an inherent strength could also be read in his features. Maksim’s glance was frank and his grey eyes were caressing; he ruffled his fair curls now and then, and his laugh was peculiarly ringing and merry.
“And what has the old man been telling you?” asked Maksim. “That old legend about our grandfather?”
“Yes,” I answered.
“There now, he always does that! When the forest begins to murmur loudly he always remembers the past. Now he won’t be able to sleep all night.”
“He is like a little child,” added Motria, pouring out the old man’s tea.
The old man seemed not to know that they were talking of him. He had entirely collapsed, and was smiling vacantly from time to time and nodding his head. Only when the storm that was blustering through the forest shook the hut did he seem to grow anxious; then he would lend an ear to the noise, harkening to it with a frightened look on his face.
Soon all grew quiet in the hut. A tallow-dip flickered dimly and a cricket was chirping its monotonous song. In the forest a thousand mighty but muffled voices were talking together and calling fiercely to one another through the night. Terrible powers seemed to be holding a noisy conclave in the outer darkness. From time to time the tumultuous thunder would rise and swell and the door of the hut would quiver as if some one were leaning against it from the outside, hissing with rage, while the nocturnal tempest piped a piteous, heart-breaking note in the chimney. At moments the fury of the storm would abate and an ominous silence would fall and oppress the heart, until once more the thunder would rise, as if the ancient pines had plotted to suddenly tear themselves from their roots and fly away into an unknown land in the arms of the blast.
I lost myself for a few moments in a confused slumber, but it could not have been for long. The gale was howling through the forest in many tones and keys. The tallow-dip flared and lit up the hut. The old man was sitting on his bench feeling about him with his arms as if he expected to find somebody near him. A look of fear and almost of childish helplessness distorted the face of the poor old man.
“Aksana!” I heard his piteous whisper. “Dear Aksana, who is that groaning in the forest?”
His hands fluttered anxiously and he seemed to be listening for a reply.
“Eh, hey,” he spoke again. “No one is groaning; it is the noise of the storm in the forest. That is all; it is the forest murmuring, murmuring——”
A few minutes passed. Bluish flashes of lightning stared every second or two into the little window, and the tall, fantastic forms of the pines kept springing out of the darkness and vanishing again into the angry heart of the storm. Suddenly a brilliant light dimmed the pale flame of the tallow-dip and a sharp, near-by peal of thunder crashed over the forest.
The old man again moved anxiously on his bench.
“Aksana, dear Aksana, who is that shooting with a gun?”
“Go to sleep, grandfather, go to sleep,” I heard Motria’s quiet voice answer from her place on the stove. “It’s always like this. He always calls Aksana if there’s a storm at night. He forgets that Aksana has long been dead. Okh—ho!”
Motria yawned, whispered a prayer, and silence fell once more in the hut, broken only by the noise of the forest and the old man’s anxious whispering:
“The forest is murmuring, the forest is murmuring—dear Aksana——”
Soon a heavy rain began to fall, drowning with its descending torrents the groans of the pines.
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