प्रेमचंद की कहानी - इस्तीफा
कहानी - इस्तीफा
दफ्तर का बाबू एक बेजुबान जीव है। मजदूरों को आंखें दिखाओ तो वह
त्यौरियां बदलकर खड़ा हो जायेगा। कुली को एक डांट बताओ, तो सिर से बोझ
फेंककर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारो, तो तुम्हारी ओर
गुस्से की निगाह से देखकर चला जायेगा। यहां तक कि गधा भी कभी-कभी तकलीफ पाकर
दुलत्ती झाड़ने लगता है, मगर बेचारे दफ्तर के बाबू को आप चाहे आंखें दिखाएं, डांट
बताएं, दुत्कारें या ठोकरें मारें, उसके माथे पर बल न आएगा। उसे अपने
विकारों पर जो आधिपत्य होता है, वह शायद किसी संयमी साधु में भी न हो।
संतोष का पुतला, सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी, गरज,
उसमें
तमाम मानवी अच्छाईयां मौजूद होती हैं। खंडहर के भी एक दिन भाग्य जगते हैं। दीवाली
के दिन उस पर भी रोशनी होती है, बरसात में उस पर हरियाली छाती है,
प्रकृति
की दिलचस्पियों में उसका भी हिस्सा है। मगर इस गरीब बाबू के नसीब कभी नहीं जागते।
इसकी अंधेरी तकदीर में रोशनी का जलवा कभी नहीं दिखाई देता। इसके पीले चेहरे पर कभी
मुस्कुराहट की रोशनी नजर नहीं आती। इसके लिए सूखा सावन है, कभी हरा भादों
नहीं। लाला फतेहचंद ऐसे ही एक बेजुबान जीव थे।
कहते हैं, मनुष्य पर उसके नाम का भी कुछ असर पड़ता है। फतेहचंद की दशा में यह बात यथार्थ सिद्ध न हो सकी। यदि उन्हें ‘हारचंद’ कहा जाय, तो कदाचित् यह अत्युक्ति न होगी। दफ्तर में हार, जिन्दगी में हार, मित्रों में हार, जीवन में उनके लिए चारों ओर हार और निराशा ही थी। लड़का एक भी नहीं, लड़कियां तीन, भाई एक भी नहीं भौजाइयां दो, गांठ में कौड़ी नहीं, मगर दिल में दया और मुरव्वत। सच्चा मित्र एक भी नहीं – बत्तीस साल की अवस्था में बाल खिचड़ी हो गए थे। आंखों में ज्योति नहीं, हाजमा चौपट, चेहरा पीला, गाल पिचके, कमर झुकी हुई, न दिल में हिम्मत, न कलेजे में ताकत। नौ बजे दफ्तर जाते और छह बजे शाम को लौटकर घर आते। फिर घर से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती। दुनिया में क्या होता है, इसकी उन्हें बिलकुल खबर न थी। उनकी दुनिया, लोक-परलोक जो कुछ था, दफ्तर था। नौकरी की खैर मनाते और जिन्दगी के दिन पूरे करते थे। न धर्म से वास्ता था न, दीन से नाता। न कोई मनोरंजन था, न खेल। ताश खेले हुए भी शायद एक मुद्दत गुजर गई थी।
जाड़ों के दिन थे। आकाश पर कुछ बादल थे। फतेहचंद साढ़े-पांच बजे दफ्तर
से लौटे तो चिराग जल गए थे। दफ्तर से आकर वह किसी से कुछ न बोलते, चुपके
से चारपाई पर लेट जाते और पंद्रह-बीस मिनट तक बिना हिले-डुले पड़े रहते। तब कहीं
जाकर उनके मुंह से आवाज निकलती। आज भी प्रतिदिन की तरह वे चुपचाप पड़े थे कि एक ही
मिनट में बाहर से किसी ने पुकारा। छोटी लड़की ने जाकर पूछा, तो मालूम हुआ कि
दफ्तर का चपरासी है। शारदा पति के मुंह-हाथ धोने के लिए लोटा-गिलास मांज रही थी।
बोली – ‘उससे कह दे, क्या काम है, अभी तो दफ्तर से आये ही हैं, और
अभी फिर बुलावा आ गया।’
चपरासी ने कहा – ‘साहब ने कहा है, अभी बुला लाओ।
कोई बड़ा जरूरी काम है।’ फतेहचंद को खामोशी छा गई। उन्होंने सिर उठकर पूछा – ‘क्या
बात है?’
शारदा – ‘कोई नहीं, दफ्तर का चपरासी है।’
फतेहचंद ने सहमकर कहा – ‘दफ्तर का चपरासी! क्या साहब ने बुलाया है?’
शारदा – ‘हां, कहता है, साहब बुला रहे
हैं। यह कैसा साहब है तुम्हारा, जब देखो, बुलाया करता है?
सबेरे
के गये-गये अभी मकान लौटे हो, फिर भी बुलावा आ गया।’
फतेहचंद ने संभल कर कहा – ‘जरा सुन लूं किस लिए बुलाया है। मैंने सब
काम खत्म कर दिया था, अभी आता हूं।’
शारदा – ‘जरा जलपान तो करते जाओ, चपरासी से बातें
करने लगोगे, तो तुम्हें अन्दर आने की याद भी न रहेगी।’
यह कहकर वह एक प्याली में थोड़ी-सी दालमोट और सेव लायी। फतेहचंद उठकर
खड़े हो गए, किन्तु खाने की चीजें देखकर चारपाई पर बैठ गए और प्याली की ओर चाव से
देखकर डरते हुए बोले – ‘लड़कियों को दे दिया है न?’
शारदा ने आंखें चढ़ाकर कहा – ‘हां-हां, दे दिया है,
तुम
तो खाओ।’
उतने में छोटी लड़की आकर सामने खड़ी हो गई। शारदा ने उसकी ओर क्रोध से
देखकर कहा – ‘तू क्यों आकर सिर पर सवार हो गई, जा बाहर खेल।’
फतेहचंद रहने दो, क्यों डांटती हो? यहां
आओ चुन्नी, यह लो, दालमोट ले जाओ! चुन्नी मां की ओर देखकर डरती हुई बाहर भाग गई!
फतेहचंद ने कहा – ‘क्यों बेचारी को भगा दिया? दो-चार दाने दे
देता, तो खुश हो जाती।’ इतने में चपरासी ने फिर पुकारा – ‘बाबूजी, हमें
बड़ी देर हो रही है।’
शारदा – ‘कह क्यों नहीं देते कि इस वक्त न आएंगे।’
फतेहचंद – ‘ऐसा कैसे कह दूं भाई, रोजी का मामला
है।’
शारदा – ‘तो क्या प्राण देकर काम करोगे? सूरत नहीं देखते
अपनी? मालूम होता है, छह महीने के बीमार हो।’
फतेहचंद ने जल्दी-जल्दी दालमोट की दो-तीन फंकिया लगायी, एक
गिलास पानी पिया और बाहर की तरफ दौड़े। शारदा पान बनाती ही रह गई।
चपरासी ने कहा – ‘बाबूजी! अपने बड़ी देर कर दी। अब जरा लपके चलिए,
नहीं
तो जाते ही डांट बताएगा।’
फतेहचंद ने दो कदम दौड़कर कहा – ‘चलेंगे तो भाई, आदमी
ही की तरह, चाहे डांट बताएं या दांत दिखाए। हमसे दौड़ा नहीं जाता। बंगले ही पर है
न?’
चपरासी – ‘भला, वह दफ्तर क्यों आने लगा? बादशाह
है कि दिल्लगी?
चपरासी तेज चलने का आदी था। बेचारे बाबू फतेहचंद धीरे-धीरे जाते थे।
थोड़ी ही दूर चलकर हांफ उठे। मगर मर्द तो थे ही, यह कैसे कहते कि
भाई जरा और धीरे चलो। हिम्मत करके कदम उठते जाते थे, यहां तक कि
जांघों में दर्द होने लगा और आधा खत्म होते-होते पैरों ने उठने से इनकार कर दिया।
सारा शरीर पसीने में तर हो गया। सिर में चक्कर आ गया। आंखों के सामने तितलियां
उड़ने लगीं।
चपरासी ने ललकारा – ‘जरा कदम बढ़ाए चलो, बाबू।’
फतेहचंद बड़ी मुश्किल से बोले – ‘तुम जाओ, मैं आता हूं।’
वे सड़क के किनारे पटरी पर बैठ गए और सिर को दोनों हाथों से थाम कर दम
मारने लगे। चपरासी ने इनकी यह दशा देखी, तो आगे बढ़ा। फतेहचंद डरे कि शैतान जाकर
न जाने साहब से क्या कह दे, तो गजब ही हो जायेगा। जमीन पर हाथ
टेककर उठे और फिर चले। मगर कमजोरी से शरीर हांफ रहा था। इस समय कोई बल्ला भी
उन्हें जमीन पर गिरा सकता था। बेचारे किसी तरह गिरते-पड़ते साहब के बंगले पर
पहुंचे। साहब बंगले पर टहल के थे। बार-बार फाटक की तरफ देखते थे और किसी को आते न
देखकर मन-ही-मन में झल्लाते थे। चपरासी को देखते ही आंखें निकालकर बोले – ‘इतनी
देर कहा था।?
चपरासी ने बरामदे की सीढ़ी पर खड़े-खड़े कहा – ‘हुजूर! जब वह आयें तब तो,
मैं
दौड़ा चला आ रहा हूं।’
साहब ने पैर फटक कर कहा – ‘बाबू क्या बोला?’
इतने में फतेहचंद अहाते के तार के अंदर से निकलकर वहां पहुंचे और
साहब को सिर झुकाकर सलाम किया।
साहब ने कड़ककर कहा – ‘अब तक कहां था?’
चपरासी – ‘आ रहे हैं हुजूर, घंटा-भर में तो घर में से निकले।’
फतेहचंद ने साहब का तमतमाया चेहरा देखा, तो उनका खून सूख
गया। बोले – ‘हुजूर, अभी-अभी तो दफ्तर से गया हूं। ज्यों ही चपरासी ने आवाज दी, हाजिर
हुआ।’
साहब – ‘झूठ बोलता है, हम घंटे भर से खड़ा है।’
फतेहचंद – ‘हुजूर, मैं झूठ नहीं बोलता। आने में जितनी देर
हो गई हो, मगर घर से चलने में मुझे बिलकुल देर नहीं हुई।’
साहब ने हाथ की छड़ी घुमाकर कहा – ‘चुप रह सुअर, हम
घंटा-भर से खड़ा है, अपना कान पकड़ो।’
फतेहचंद ने खून का घूंट पीकर कहा – ‘हुजूर, मुझे दस साल काम
करते हो गए, कभी…’
साहब – ‘चुप रह, सुअर, हम कहता है कि
अपना कान पकड़ो।’
फतेहचंद – ‘जब मैंने कोई कसूर किया हो?’
साहब – ‘चपरासी! इस सुअर का कान पकड़ो।’
चपरासी ने दबी जबान से कहा – ‘हुजूर, यह मेरे अफसर
हैं, मैं इनका कान कैसे पकड़ू?’
साहब – ‘हम कहता है, इनका कान पकड़ो नहीं हम तुमको हंटरों
से मारेगा।’
चपरासी – ‘हुजूर, मैं यहां नौकरी करने आया हूं, मार
खाने नहीं। मैं भी इज्जतदार आदमी हूं। हुजूर अपनी नौकरी ले लें। आप जो हुक्म दें,
वह
बजा लाने को हाजिर हूं लेकिन किसी की इज्जत नहीं बिगाड़ सकता। नौकरी तो चार दिन की
है। चार दिन के लिए क्यों जमाने-भर से बिगाड़ करें?’
साहब अब क्रोध को बर्दाश्त न कर सके। हंटर लेकर दौड़े, चपरासी
ने देखा, यहां खड़े रहने में खैरियत नहीं है, तो भाग खड़ा हुआ।
फतेहचंद अभी तक चुपचाप खड़े थे। साहब, चपरासी को न पाकर उनके पास आया और उनके
दोनों कान पकड़कर हिला दिए।
बोला – ‘तुम सुअर, गुस्ताख़ी करता है? जाकर
ऑफिस से फाइल लाओ।’
फतेहचंद ने कान हिलाते हुए कहा – ‘कौन-सी फाइल लाऊं, हुजूर?’
साहब – ‘फाइल-फाइल, और कौन-सी फाइल? तुम बहरा है,
सुनता
नहीं? हम फाइल मांगता है?’
फतेहचंद ने किसी तरह दिलेर होकर कहा – ‘आप कौन-सा फाइल मांगते हैं?’
साहब – ‘वही फाइल, जो हम मांगता है। वही फाइल लाओ। अभी
लाओ।’
बेचारे फतेहचंद को अब कुछ पूछने की हिम्मत न हुई। साहब बहादुर एक तो
यों ही तेज-मिज़ाज थे, इस पर हुकूमत का घमंड और सबसे बढ़कर शराब का नशा। हंटर लेकर पिल पड़ते,
तो
बेचारे क्या कर लेते? चुपके से दफ्तर की तरफ चल पड़े।
साहब ने कहा – ‘दौड़कर जाओ.. दौड़ो।’
फतेहचंद ने कहा – ‘हुजूर, मुझसे दौड़ा नहीं जाता।’
साहब – ‘ओह, तुम बहुत सुस्त हो गया है। हम तुमको
दौड़ना सिखाएगा। दौड़ो… (पीछे से धक्का देकर)… तुम अब भी नहीं दौड़ेगा।’
यह कहकर साहब हंटर लेने चले। फतेहचंद दफ्तर के बाबू होने पर भी
मनुष्य ही थे। यदि वह बलवान् होते, तो उस बदमाश का खून पी जाते। अगर उनके
पास कोई हथियार होता, तो उस पर जरूर चला देते, लेकिन उस हालत में तो मार खाना ही उनकी
तकदीर में लिखा था। वे बेतहाशा भागे और फाटक से बाहर निकलकर सड़क पर आ गए।
फतेहचंद दफ्तर न गए। जाकर करते ही क्या! साहब ने फाइल का नाम तक न
बताया। शायद नशे में भूल गया। धीरे-धीरे घर की ओर चले, मगर इस बेइज्जती
ने पैरों में बेड़ियां-सी डाल दी थी। माना कि वह शारीरिक बल में साहब से कम थे,
एक
हाथ में कोई चीज भी न थी, लेकिन क्या वह उसकी बातों का जवाब न दे
सकते थे? उनके पैरों में जूते तो थे। क्या वह जूते से काम न ले सकते थे?
फिर
क्यों उन्होंने इतनी जिल्लत बर्दाश्त की?
मगर इलाज ही क्या था? यदि वह क्रोध में उन्हें गोली मार देता,
तो
उसका क्या बिगाड़ता? शायद एक-दो महीने की सादी कैद हो जाती। सम्भव है, दो-चार
सौ रुपये जुर्माना हो जाता। मगर इनका परिवार तो मिट्टी में मिल जाता। संसार में
कौन था, जो इनके स्त्री-बच्चों की खबर लेता? वह किसके दरवाजे
हाथ फैलाते? यदि उनके पास इतने रुपये होते, जिनसे उनके
कुटुम्ब का पालन हो जाता, तो वह आज इतनी जिल्लत न सहते। या तो मर
ही जाते, या उस शैतान को कुछ सबक ही दे देते। अपनी जान का इन्हें डर न था।
जिंदगी में ऐसा कौन सुख था, जिसके लिए वह इस तरह डरते? खयाल
था सिर्फ परिवार के बरबाद हो जाने का।
आज फतेहचंद को अपनी शारीरिक कमजोरी पर जितना दुःख हुआ, उतना
और कभी न हुआ था। अगर उन्होंने शुरू ही से तंदुरुस्ती का ख्याल रखा होता, कुछ
कसरत करते रहते, लकड़ी चलाना जानते होते, तो क्या इस शैतान की इतनी हिम्मत होती
कि वह उसका कान पकड़ता? उसकी आंखें निकाल लेते। कम-से-कम इन्हें घर से एक छुरी लेकर चलना था!
और न होता, तो दो-चार हाथ जमाते ही – पीछे देखा जाता, जेलखाना ही तो
होता या और कुछ।
वे ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, त्यों-त्यों उनकी तबीयत अपनी कायरता और
बांदेपन पर और भी झल्लाती थी। अगर वह उचक कर दो-चार थप्पड़ लगा देते, तो
क्या होता – यही न कि साहब के खानसामा, बैरे सब उन पर पिल पड़ते और मारते-मारते
बेदम कर देते। बाल-बच्चों के सिर पर जो कुछ पड़ती – पड़ती। साहब को इतना तो मालूम हो
जाता कि किसी गरीब को बेगुनाह जलील करना आसान नहीं। आखिर, आज मैं मर जाऊं
तो क्या हो? तब कौन मेरे बच्चों का पालन करेगा? तब उनके सिर जो
कुछ पड़ेगी, वह आज ही पड़ जाती, तो क्या हर्ज था?
इस अंतिम विचार ने फतेहचंद के हृदय में इतना जोश भर दिया कि वह लौट
पड़े और साहब से जिल्लत का बदला लेने के लिए दो-चार कदम चले, मगर फिर ख्याल
आया, आखिर जो कुछ जिल्लत होनी थी, वह तो हो ली। कौन जाने, बंगले
पर हो या क्लब चला गया हो। उसी समय उन्हें शारदा की बेकसी और बच्चों को बिना बाप
के हो जाने का खयाल भी आ गया। फिर लौटे और घर चले।
घर में जाते ही शारदा ने पूछा – ‘किस लिए बुलाया था, बड़ी
देर हो गई?’
फतेहचंद ने चारपाई पर लेटते हुए कहा – ‘नशे की सनक थी, और
क्या शैतान ने मुझे गालियां दी, जलील किया। बस, यही रट लगाए हुए
था कि देर क्यों की? निर्दयी ने चपरासी से मेरा कान पकड़ने को कहा।’
शारदा ने गुस्से में आकर कहा – ‘तुमने एक जूता उतारकर दिया नहीं सूअर
को?’ फतेहचंद – ‘चपरासी बहुत शरीफ है। उसने साफ कह दिया, हुजूर,
मुझसे
यह काम न होगा। मैंने भले आदमियों की इज्जत उतारने के लिए नौकरी नहीं की थी। बस
उसी वक्त सलाम करके चला गया।’
शारदा – ‘यही बहादुरी है। तुमने उस साहब को क्यों नहीं फटकारा।’
फतेहचंद – ‘फटकारा क्यों नहीं – मैंने भी खूब सुनायी। वह छड़ी लेकर
दौड़ा, मैंने भी जूता संभाला। उसने मुझे कई छड़ियां जमाई, मैंने
भी कई जूते लगाए।’
शारदा ने खुश होकर कहा – ‘सच? इतना-सा मुंह हो
गया होगा उसका।’
फतेहचंद – ‘चेहरे पर झाडू-सी फिरी हुई थी।’
शारदा – ‘बड़ा अच्छा किया तुमने। और मारना चाहिए था। मैं होती,
तो
बिना जान लिये न छोड़ती।’
फतेहचंद – ‘मार तो आया हूं लेकिन अब खैरियत नहीं है। देखो, क्या
नतीजा होता है? नौकरी तो जायेगी ही, शायद सजा भी काटनी पड़े।’
शारदा – ‘सजा क्यों काटनी पड़ेगी? क्या कोई इंसाफ
करने वाला नहीं है? उसने क्यों गालियां दी, क्यों झड़ी जमायी?’
फतेहचंद – ‘उसके सामने मेरी कौन सुनेगा? अदालत भी उसी की
तरफ हो जायेगी।’
शारदा – ‘हो जायेगी, हो जाय, मगर देख लेना,
अब
किसी साहब की यह हिम्मत न होगी कि किसी बाबू को गालियां दे बैठे। तुम्हें चाहिए था
कि ज्यों ही उसके मुंह से गालियां निकली, लपक कर एक जूता रसीद कर देते।’
फतेहचंद – ‘तो फिर इस वक्त जिंदा भी न बच सकता। जरूर मुझे गोली मार
देता।’
शारदा – ‘देखी जाती।’
फतेहचंद ने मुस्कराकर कहा – ‘फिर तुम लोग कहां जाती?’
शारदा – ‘जहां ईश्वर की मर्जी होती। आदमी के लिए सबसे बड़ी चीज इज्जत
है। इज्जत गंवाकर बाल-बलों की परवरिश नहीं की जाती। तुम उस शैतान को मारकर आये
होते तो मैं गुरूर से फूली नहीं समाती। मार खाकर आते, तो शायद मैं
तुम्हारी सूरत से भी घृणा करती। यों जबान से चाहे कुछ न कहती, मगर
दिल से तुम्हारी इज्जत जाती रहती। अब जो कुछ सिर पर आएगी, खुशी से झेल
लूंगी और अब कहां जाते हो, सुनो-सुनो, कहां जाते हो?’
फतेहचंद
दीवाने होकर जोश में घर से निकल पड़े। शारदा पुकारती
रह गई। वह फिर साहब के बंगले की तरफ जा रहे थे। डर से सहमे हुए नहीं बल्कि गुरूर
से गर्दन उठाए हुए। पक्का इरादा उनके चेहरे से झलक रहा था। उनके पैरों में वह
कमजोरी, आंखों में वह बेकसी न थी। उनकी कायापलट-सी हो गयी थी। वह कमजोर बदन,
पीला
सुखता, दुबले बदन वाला, दफ्तर के बाबू की जगह अब मर्दाना चेहरा,
हिम्मत
से भरा हुआ, मजबूत गठा और जवान था। उन्होंने पहले एक दोस्त के घर जाकर उसका डंडा
लिया और अकड़ते हुए साहब के बंगले पर जा पहुंचे।
इस वक्त नौ बजे थे। साहब खाने की मेज़ पर थे मगर फतेहचंद ने आज उनके
मेज़ पर से उठ जाने का इन्तजार न किया। खानसामा कमरे से बाहर निकला और वह चिक उठाकर
अन्दर गये। कमरा प्रकाश से जगमगा रहा था। जमीन पर ऐसी कालीन बिछी हुई थी, जैसी
फतेहचंद की शादी में नहीं बिछी होगी। साहब बहादुर ने उसकी तरफ क्रोधित दृष्टि से
देखकर कहा – ‘तुम क्यों आया? बाहर जाओ, क्यों अंदर चला
आया?’
फतेहचंद ने खड़े-खड़े डंडा सँभालकर कहा – ‘तुमने अभी फाइल मांगा था,
वहीं
फाइल लेकर आया हूं। खाना खा लो, तो दिखाऊं। तब तक मैं बैठा हूं।
इत्मीनान से खाओ, शायद यह तुम्हारा आखिरी खाना होगा। इसी कारण खूब पेट भर खा लो।’
साहब सन्नाटे में आ गए। फतेहचंद की तरफ डर और क्रोध की दृष्टि से
देखकर कांप उठे। फतेहचंद के चेहरे पर पक्का इरादा झलक रहा था। साहब समझ गए,
यह
मनुष्य इस समय मरने-मारने के लिए तैयार होकर आया है। ताकत में फतेहचंद उनके पासंग
भी नहीं था। लेकिन यह निश्चय था कि वह ईंट का जवाब पत्थर से नहीं, बल्कि
लोहे से देने को तैयार हैं। यदि वह फतेहचंद को बुरा-भला कहते हैं, तो
क्या आश्चर्य है कि वह डंडा लेकर पिल पड़े। हाथापाई करने में यद्यपि उन्हें जीतने
में जरा भी संदेह नहीं था, लेकिन बैठे-बिठाए डंडे खाना भी तो कोई
बुद्धिमानी नहीं है। कुत्ते को आप डंडे से मारिए, ठुकराए जो चाहे
कीजिए, मगर उसी समय तक, जब तक वह गुर्राता नहीं। एक बार
गुर्राकर दौड़ पड़े, तो फिर देखें, आपकी हिम्मत कहां जाती है? यही
हाल उस वक्त साहब बहादुर का था। जब तक यकीन था कि फतेहचंद घुड़की, गाली,
हंटर,
ठोकर
सब कुछ खामोशी से सह लेगा, तब तक आप शेर थे। अब वह त्यौरियां बदले,
डंडा
संभाले, बिल्ली की तरह घात लगाए खड़ा है। जबान से कोई कड़ा शब्द निकला और उसने
डंडा चलाया। वह अधिक-से-अधिक उसे बरखास्त कर सकते हैं। अगर मारते हैं तो मार खाने
का भी डर। उस पर फौजदारी में मुकदमा दायर हो जाने का अंदेशा – मजा कि वह अपने
प्रभाव और ताकत से अंत में फतेहचंद को जेल में डलवा देंगे, परंतु परेशानी
और बदनामी से किसी तरह न बच सकते थे। एक बुद्धिमान और दूरदर्शी आदमी की तरह
उन्होंने कहा – ‘ओह, हम समझ गया, आप हमसे नाराज हैं। हमने क्या आपको कुछ
कहा – है? आप क्यों हमसे नाराज है?’
फतेहचंद ने तनकर कहा – ‘तुमने अभी आधा घंटा पहले मेरे कान पकड़ कर और
मुझे सैकड़ों ऊलजलूल बातें कही थी। क्या इतनी जल्दी भूल गए?’
साहब – ‘मैंने आपका कान पकड़ा, आ-हा-हा-हा क्या
मजाक है? क्या मैं पागल हूं या दीवाना?’
फतेहचंद – ‘तो क्या मैं झूठ बोल रहा हूं?’ चपरासी गवाह है।
आपके नौकर-चाकर भी देख रहे थे।
साहब – ‘कब की बात है?’
फतह, – ‘अभी-अभी, कोई आधा घंटा हुआ, आपने मुझे बुलवाया था और बिना कारण
मेरे कान पकड़े और धक्के दिए थे।’
साहब – ‘ओ बाबूजी, उस वक्त हम नशा में था। बैरा ने हमको
बहुत दे दिया था। हमको कुछ खबर नहीं, क्या हुआ, माई गॉड?
हमको
कुछ खबर नहीं।’
फतेहचंद – ‘नशा में अगर तुमने मुझे गोली मार दी होती, तो
क्या मैं मर न जाता? अगर तुम्हें नशा था और नशा में सब कुछ माफ है, तो मैं भी नशे
में हूं। सुनो मेरा फैसला, या तो अपने कान पकड़ो कि फिर कमी किसी
भले आदमी के संग ऐसा बर्ताव न करोगे, या मैं उठकर तुम्हारे कान पकड़ेगा। समझ
गए कि नहीं? इधर-उधर हिलो नहीं, तुमने जगह छोड़ी और मैंने डंडा चलाया।
फिर खोपड़ी टूट जाय, तो मेरी खता नहीं। मैं जो कुछ कहता हूं वह करते चलो पकड़ो कान।’
साहब ने बनावटी हंसी-हंसकर कहा – ‘वेल बाबूजी, बाप बहुत
दिल्लगी करता है। अगर हमने आपको बुरा बात कहा है, तो हम आपसे माफी
मांगता है।’
फतेहचंद – (डंडा तौलकर) नहीं, कान पकड़ो।
साहब आसानी से इतनी जिल्लत न सह सके। लपक कर उठे और चाहा कि फतेहचंद
के हाथ से लकड़ी छीन लें लेकिन फतेहचंद गाफिल न थे। साहब मेज़ पर से उठने भी न पाए
थे कि उन्होंने डंडे का भरपूर और तुला हुआ हाथ चलाया। साहब तो नंगे सिर थे ही,
चोट
सिर पर पड़ गई। खोपड़ी भन्ना गई। एक मिनट तक सिर को पकड़ने के बाद बोले – ‘हम तुमको
बरखास्त कर देगा।’
फतेहचंद – ‘इसकी मुझे परवाह नहीं, मगर आज मैं
तुमसे बिना कान पकड़वाए नहीं जाऊंगा। कान पकड़कर वादा करो कि फिर किसी भले आदमी के
साथ ऐसी बेअदबी न करोगे, नहीं तो मेरा दूसरा हाथ पड़ना ही चाहता
है।’
यह कहकर फतेहचंद ने फिर डंडा उठाया। साहब को अभी तक पहली चोट न भूली
थी। अगर कहीं यह दूसरा हाथ पड़ गया, तो शायद खोपड़ी खुल जाय। गाल पर हाथ
रखकर बोले – ‘अब आप खुश हुआ?’
फिर तो कभी किसी को गाली न दोगे?’
‘कभी नहीं।’
‘अगर फिर कभी ऐसा किया, तो समझ लेना, मैं कहीं बहुत
दूर नहीं हूं।’
‘अब किसी को गाली न देगा।’
‘अच्छी बात है, अब मैं जाता हूं, आज
से मेरा इस्तीफा है। मैं कल इस्तीफा में यह लिखकर भेजूंगा कि तुमने मुझे गालियां
दी, इसलिए मैं नौकरी नहीं करना चाहता, समझ गए?’
साहब – ‘आप इस्तीफा क्यों देता है? हम तो बरखास्त
नहीं करता।’
फतेहचंद – ‘अब तुम जैसे पाजी आदमी की मातहती नहीं करूंगा।’
यह कहते हुए फतेहचंद कमरे से बाहर निकले और इत्मीनान से घर चले। आज उन्हें सच्ची विजय की प्रसन्नता का अनुभव हुआ। उन्हें ऐसी खुशी कभी नहीं प्राप्त हुई थी। यही उनके जीवन की पहली जीत थी।
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