इन्साफ़पसन्द लोगों को इज़रायल का विरोध और फ़िलिस्तीन का समर्थन क्यों करना चाहिए?
इन्साफ़पसन्द लोगों को इज़रायल का विरोध और फ़िलिस्तीन का समर्थन क्यों करना चाहिए?
आनन्द सिंह
हम इन्साफ़पसन्द लोगों से मुख़ातिब हैं। जो लोग न्याय और अन्याय
के बीच की लड़ाई में ताक़त के हिसाब से या समाज और मीडिया में प्रचलित धारणाओं के
अुनसार आँखें और दिमाग़ बन्द करके अपना पक्ष चुनते हैं वे इस पोस्ट को न पढ़ें।
आज हमसे हज़ारों
मील दूर ग़ाज़ा में ज़ायनवादी इज़रायल इस सदी के सबसे बर्बर क़िस्म के जनसंहार को अंजाम दे रहा है। इस वीभत्स नरसंहार पर ख़ामोश रहकर या दोनो पक्षों को बराबर का
ज़िम्मेदार ठहराकर हम इसे बढ़ावा देने का ही काम
करेंगे।
जो लोग इज़रायल और फ़िलिस्तीन के विवाद के इतिहास को ढंग से नहीं जानते वही लोग दोनो पक्षों को बराबर का ज़िम्मेदार ठहराकर दोनों से हिंसा छोड़ने का आग्रह करते हैं। अगर वे संज़ीदगी से इतिहास पढ़ें तो पायेंगे कि 1948 में इज़रायल नामक राष्ट्र का जन्म ही फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करके, उनको उनकी ही ज़मीन से बेदख़ल करके और बड़े पैमान पर क़त्लेआम को अंजाम देकर हुआ था। उसके बाद से क़ब्ज़े, बेदख़ली और क़त्लेआम का यह सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है।
दुनिया की सबसे
घनी आबादी वाली जगह, या दुनिया की सबसे बड़ी जेल – गाज़ा का तीन
चौथाई आज इज़रायली बमों ने तबाह कर दिया है। क़रीब 45,000 लोग
मारे जा चुके हैं। इनमें लगभग 20,000
बच्चे हैं! कितने लोग
मलबे में दबे हैं इसका पता शायद कभी नहीं चल पायेगा। अस्पताल, स्कूल,
राहत शिविर, कुछ भी इज़रायली हत्यारे बमों से नहीं बचे हैं!
एम्बुलेंस और राहत कर्मियों की गाड़ियों तक को निशाना साधकर मारा गया है। खाने के
लिए कतार में खड़े लोगों पर गोलियाँ बरसाई गई हैं! गाज़ा की हालत दिखाने वाले
दर्जनों पत्रकारों तक को मार दिया गया है। डॉक्टरों और नर्सों को निशाना बनाया गया
है।
फिर भी
“अन्तरराष्ट्रीय समुदाय” के लिए इज़रायल आतंकवादी नहीं है। इज़रायली के हाथों हर
बर्बर क़त्लेआम के बाद पश्चिमी दुनिया के शासक बेशर्मी से दोहराने लगते हैं कि
“इज़रायल को आत्मरक्षा का अधिकार है!” लेकिन 75 साल
से ज़ुल्म और तबाही का सामना कर रहे फ़िलिस्तीन के लोग अगर अपनी रक्षा के लिए कोई
कार्रवाई करते हैं तो सारा अन्तरराष्ट्रीय मीडिया आतंकवाद का शोर मचाने लगता है।
इज़रायल के झूठों और तथ्यहीन दावों को दैवी सच्चाई की तरह पेश किया जाने लगता है।
फ़िलिस्तीन के लोग वेस्ट
बैंक और ग़ाज़ा के दो छोटे-से हिस्सों में समेट दिये गये हैं और इज़रायल वहाँ
भी उन्हें नेस्तनाबूद करने पर आमादा है। तमाम अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनों को धता बताकर इज़रायल वेस्ट बैंक में यहूदियों की अवैध बस्तियाँ बसाता रहा है। ये
वे यहूदी हैं जो कभी उस धरती के निवासी नहीं थे, बल्कि
यूरोप और दूसरी जगहों से आकर बस रहे हैं। वहाँ चप्पे-चप्पे पर फ़ौजी चेकपोस्ट मौजूद हैं जहाँ इज़रायली फ़ौजी फ़िलिस्तीन के लोगों से उनके अपने ही देश में अपराधियों जैसा
सलूक़ करते हैं। वेस्ट बैंक में ही इज़रायल ने एक नस्लभेदी दीवार बनायी है जो फ़िलिस्तीन के खेतों से होकर गुज़रती है और जिसकी वजह से लोगों
का जीवनयापन और एक जगह से दूसरी जगह आना-जाना दुश्वार हो गया है।
ग़ाज़ा पर पिछले
एक साल से जारी इज़रायली हमला पहला नहीं है। पिछले दस वर्षों में कई बार इज़रायल
वहाँ भयानक बमबारी कर चुका है। ज़मीन और समुद्र हर तरफ़ से इज़रायल ने ग़ाज़ा की
घेरेबन्दी कर रखी है और वहाँ के लोग खाने-पीने व
दवाओं तक के लिए जूझते रहे हैं। वहाँ का 95
फ़ीसदी पानी बिना साफ़
किये पीने योग्य नहीं रह गया है।
फ़िलिस्तीन के लोगों के पास कोई फ़ौज, नौसेना या वायुसेना नहीं है। उनके पास जो कुछ है उसी से
वे अपनी आज़ादी के लिए लड़ते रहे हैं। अपनी क़ौम को नेस्तनाबूद होने से बचाने की इस लड़ाई में फ़िलिस्तीन का बच्चा-बच्चा शामिल हे। वे पत्थर से लड़ रहे हैं, गुलेल
से लड़ रहे हैं, कविता और कैमरे से लड़ रहे हैं और रॉकेटों
से भी लड़ रहे हैं।
डेविड और गोलियथ
के बीच जारी इस जंग में वे दुनियाभर के इन्साफ़पसन्द लोगों का आह्वान भी कर रहे हैं कि वे ताक़तवर का नहीं
बल्कि इंसाफ़ का पक्ष चुनें। हमास की विचारधारा से इत्तेफ़ाक़ न रखते हुए भी अपनी क़ौम पर हो रहे बर्बर हमले
की जवाबी कार्रवाई करने के उनके हक़ की मुख़ालफ़त आप भला क्यों करेंगे?
अगर किसी की ज़मीन पर कोई
बाहर से आकर क़ब्ज़ा कर ले और मारकाट मचाये तो क्या आप उस व्यक्ति
को यह नैतिक उपदेश देंगे कि वह चुपचाप शान्तिपूर्वक सबकुछ सह ले? वैसे हमें यह भी जानना चाहिए कि इज़रायल के ख़िलाफ़
अकेले हमास ही नहीं लड़ रहा है। उसमें अनेक संगठन शामिल हैं जिनमें पीएफ़एलपी जैसे
लेफ़्ट संगठन भी हैं।
बहुत से लोग इसे
मज़हब के चश्मे से देखते हुए इस्लाम बनाम यहूदी टकराव के तौर पर पेश करते हैं और उसके
आधार पर इज़रायल या फ़िलिस्तीन का पक्ष चुनते हैं। हिन्दुत्ववादी इसलिए इज़रायल के
पक्ष में उछल रहे हैं कि वह “मुसलमानों को मार रहा है”। गुजरात के हत्यारों और
ग़ाज़ा के हत्यारों का याराना स्वाभाविक ही है।
लेकिन अगर फ़िलिस्तीन का समर्थन भी मज़हब के आधार पर किया
जाये तो यह आज़ादी की इस शानदार बहादुराना लड़ाई का अपमान ही है। ऐसा करना उस
लड़ाई को कमज़ोर ही करता है। अगर वाक़ई यह मज़हबों की जंग होती तो अरब जगत के इस्लामी देशों के हुक्मरान भला फ़िलिस्तीन के साथ क्यों
नहीं आते? सऊदी अरब, जहाँ
मक्का स्थित है, इज़रायल
और अमेरिका का सबसे दुलारा दोस्त क्यों है?
हमें यह भी जानना
चाहिए कि फ़िलिस्तीन में सिर्फ़ मुसलमान नहीं रहते। उनमें ईसाई भी हैं। इज़रायल
बनने से पहले एक बड़ी यहूदी आबादी भी फ़िलिस्तीन में ही रहती थी। आज भी यहूदियों
की एक अच्छी-ख़ासी आबादी इज़रायली क़ब्ज़े का विरोध और फ़िलिस्तीन की आज़ादी का
समर्थन करती है।
अगर आप थोड़ी देर
के लिए मज़हब का चश्मा उतारकर इस समस्या को समझने की कोशिश करेंगे तो पायेंगे कि इस समस्या के तार मध्यपूर्व
में अमेरिकी साम्राज्यवादी दख़ल से जुड़े हैं। तेल व गैस जैसे
अमूल्य संसाधनों वाले इस भूराजनीतिक रूप से अहम
इलाक़े में इज़रायल अमेरिकी साम्राज्यवाद
के हितों के लिए एक लठैत की भूमिका निभाता आया है। यही वजह है कि अमेरिका में
रिपब्लिकन और डेमोक्रैट दोनों पार्टियों के नेता इज़रायल का खुलकर समर्थन करते हैं
और उसकी फ़ौजी ताक़त बढ़ाने के लिए हर साल अरबों डॉलर के हथियार और सहायता भेजते
हैं।
हम भारत के लोगों ने उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई लड़कर विदेशी ग़ुलामी से अपनी आज़ादी पायी। ऐसे में हम आज इतिहास की सबसे बर्बर फ़ौजी और सेटलर उपनिवेशी ताक़त द्वारा ढाये जा रहे अकथनीय ज़ुल्म पर ख़ामोश कैसे रह सकते हैं? आज हमारे हुक्मरान तो फ़िलिस्तीनियों के जायज़ संघर्ष से मुँह मोड़कर इज़रायल के साथ गलबहियाँ कर रहे हैं। उनका ज़ायनवाद से बिरादाराना नाता है। हत्यारों की आपसी एकता तो समझ में आती है। लेकिन हिन्दुस्तान के आम अवाम को तो फ़िलिस्तीनियों के पक्ष में आवाज़ उठानी ही चाहिए और इज़रायल के हाथों इन्सानियत के ख़िलाफ़ किये जा रहे अपराध का पर्दाफ़ाश करना ही चाहिए। इन्सानियत और इंसाफ़ का तकाज़ा तो यही है।
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