विश्व प्रसिद्ध कहानीकार अंतोन चेखव की कहानी - भिखारी Anton Chekhov's Story - The Beggar
विश्व प्रसिद्ध कहानीकार अंतोन चेखव की कहानी - भिखारी
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अनुवाद : अनिल जनविजय
‘ओ साहिब जी, एक भूखे बेचारे पर दया कीजिए। तीन दिन का भूखा हूं। रात बिताने के लिए जेब में एक पैसा भी नहीं। पूरे आठ साल तक गांव के एक स्कूल में मास्टर रहा। बड़े लोगों की बदमाशी से नौकरी चली गई। जुल्म का शिकार बना हूं। अभी साल पूरा हुआ है बेरोजगार भटकते फिरते हुए।’
बैरिस्टर स्क्वार्त्सोफ़ ने भिखारी के मैले-कुचैले कोट, नशे से गंदली आंखें, गालों पर लगे हुए लाल धब्बे देखे। उन्हें लगा कि इस आदमी को कहीं पहले देखा है।
‘अभी मुझे कलूगा जिले में नौकरी मिलने ही वाली है’, भिखारी आगे बोलता गया, ‘पर उधर जाने के लिए पैसे नहीं हैं। कृपा करके मदद कीजिए साहिब। भीख मांगना शर्म का काम है, पर क्या करूं, मजबूर हूं।’ स्क्वार्त्सोफ़ ने उसके रबर के जूतों पर नजर डाली जिन में से एक नाप में छोटा और एक बड़ा था तो उन्हें एकदम याद आया, ‘सुनिए, तीन दिन पहले मैं ने आपको सदोवाया सड़क पर देखा था’, बैरिस्टर बोले, ‘आप ही थे न ? पर उस वक़्त आपने मुझे बताया था आप स्कूल मास्टर नहीं, बल्कि छात्र हैं जिसे कॉलेज से निकाल दिया गया है। याद आया?’
‘न...नहीं... यह नहीं हो सकता’, भिखारी घबराकर बुदबुदाया। ‘मैं गांव में मास्टर ही था। चाहें तो कागज़ात दिखा दूं।’
‘झूठ मत बोलो। तुमने मुझे बताया था कि तुम एक छात्र हो, कॉलेज छूटने की कहानी भी सुनाई थी मुझे। याद आया?’
स्क्वार्त्सोफ साहब का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। घृणा से मुंह बिचकाकर वह भिखारी से दो कदम पीछे हट गए। फिर क्रोध भरे स्वर में चिल्लाए, ‘कितने नीच हो तुम। बदमाश कहीं के। मैं तुम्हें पुलिस के हवाले कर दूंगा। भूखे हो, ग़रीब हो, यह ठीक है, पर इस बेशर्मी से झूठ क्यों बोलते हो?’
भिखारी ने दरवाजे के हत्थे पर अपना हाथ रखकर पकड़े गए चोर की तरह नजर दौडाई।
‘मैं...मैं झूठ नहीं बोलता।’ वह बुदबुदाया, ‘मैं कागजात...’
‘अरे कौन विश्वास करेगा,’ स्क्वार्त्सोफ साहिब का क्रोध बढ़ता गया। गांव के मास्टरों और गरीब विद्यार्थियों पर समाज जो सहानुभूति दिखाता आया है, उस से लाभ उठाना कितना गंदा, नीच और घिनौना काम है।
स्क्वार्त्सोफ़ साहब क्रोध से आग बबूला हो उठे और भिखारी को बुरी तरह कोसने लगे। अपनी इस निर्लज्ज धोखेबाजी से उस आवारा आदमी ने उनके मन में घृणा पैदा कर दी थी और उन भावनाओं का अपमान किया था जो स्क्वार्त्सोफ साहब को अपने चरित्र में सब से मूल्यवान लगती थीं। उनकी उदारता, भावुकता, गरीबों पर दया, वह भीख जो वह खुले दिल से मांगनेवालों को दिया करते थे, सब कुछ अपवित्र करके मिट्टी में मिला दिया इस बदमाश ने। भिखारी भगवान् का नाम लेकर अपनी सफाई देता रहा, फिर चुप हो गया और उसने शर्म से सर झुका लिया। फिर दिल पर हाथ रखकर बोला, ‘साहिब, मैं सचमुच झूठ बोल रहा था। न मैं छात्र हूं न मास्टर। मैं एक संगीत मंडली में था। फिर शराब पीने लगा और अपनी नौकरी खो बैठा। अब क्या करूं? भगवान ही मेरा साक्षी है, बिना झूठ बोले काम नहीं चलता। जब सच बोलता हूं तो कोई भीख भी नहीं देता। सच को लेकर भूखों मरना होगा या सर्दी में बेघर जम जाना होगा, बस। कहते तो आप सही हैं, यह में भी समझता हूं, पर क्या करूं?’
‘करना क्या है? तुम पूछ रहे हो कि करना क्या है।’ स्क्वार्त्सोफ साहब उसके निकट आकर बोले, ‘काम करना चाहिए। काम करना चाहिए और क्या।’
‘काम करना चाहिए, यह तो मैं भी समझता हूं। नौकरी कहां मिलेगी?’
‘क्या बकवास है। जवान हो, ताकतवर हो, चाहो तो नौकरी क्यों नहीं मिलेगी? पर तुम तो सुस्त हो, निकम्मे हो, शराबी हो! तुम्हारे मुंह से वोदका की बदबू आ रही है जैसे किसी शराब की दूकान से आती है। झूठ, शराब और आरामतलबी तुम्हारे खून की बूंद-बूंद पहुंच चुके हैं। भीख मांगने और झूठ बोलने के अलावा तुम और कुछ जानते ही नहीं। कभी नौकरी कर लेने का कष्ट उठा भी लेंगे जनाब तो बस किसी दफ्तर में या संगीत मंडली में या किसी और जगह जहां मक्खी मारते-मारते पैसे कमा लें। मेहनत-मजदूरी क्यों नहीं करते? भंगी या कुली क्यों नहीं बन जाते? ख़ुद को बहुत ऊंचा समझते हो।’
‘कैसी बात कर रहे हैं आप?’ भिखारी बोला। मुंह पर एक तिक्त मुस्कान उभरी। मेहनत-मजदूरी कहां से मिलेगी? किसी दुकान में नौकरी नहीं कर सकता, क्योंकि व्यापार बचपन से ही सीखा जाता है। भंगी भी कैसे बनूं, कुलीन घर का हूं। फ़ैक्टरी में भी काम करने के लिए कोई पेशा तो आना चाहिए, मैं तो कुछ नहीं जानता।’
‘बकवास कर रहे हो! कोई न कोई कारण ढूंढ़ ही लोगे। क्यों जनाब, लकडी फाड़ोगे?’
‘मैंने कब इनकार किया है। पर आज लकड़ी फाड़ने वाले मज़दूर भी तो बेकार बैठे हैं।’
‘सभी निकम्मे लोगों का यही गाना है। मैं मजदूरी दिलवाता तो मुंह फेरकर भागोगे। क्या मेरे घर में लकड़ी फाड़ोगे?’
‘आप चाहें तो क्यों नहीं करूंगा।’
‘वाह रे। देखें तो सही!’
स्क्वार्त्सोफ़ साहब ने जल्दी से अपनी रसोई से अपनी बावरचिन को बुलाया और नाराजगी से बोले, ‘ओल्गा, इन साहब को जलाऊ लकडी की कोठरी में ले जाओ। इनको लकडी फाड़ने के लिए दे दो।’
भिखारी अनमना-सा कंधे हिलाकर बावरचिन के पीछे-पीछे चल पड़ा। उसके चाल-चलन से यह साफ दिखाई दे रहा था कि वह भूख और बेकारी के कारण नहीं, बस अपने स्वाभिमान की वजह से ही यह काम करने के लिए मान गया है। यह भी लग रहा था कि शराब पीते-पीते वह कमजोर और अस्वस्थ हो चुका है। काम करने की कोई भी इच्छा नहीं है उस की।
स्क्वार्त्सोफ साहब अपने डाइनिंग-रूम पहुंचे जहां से आंगन और कोठरी आसानी से दिखाई दे रहे थे। खिड़की के पास खड़े होकर उन्होंने देखा कि बावरचिन भिखारी को पीछे के दरवाजे से आंगन में ले आई है। गंदी-मैली बर्फ को रौंदते हुए वे दोनों कोठरी की ओर बढ़े। भिखारी को क्रोध भरी आंखों से देखती ओल्गा ने कोठरी के कपाट खोल दिए और फिर धड़ाम से दीवार से भिड़ा दिए।
‘लगता है हमने ओल्गा को कॉफी नहीं पीने दी,’ स्क्वार्त्सोफ साहब ने सोचा। ‘कितनी जहरीली औरत है।’ फिर उन्होंने देखा कि झूठा मास्टर लकड़ी के एक मोटे कुंदे पर बैठ गया और अपने लाल गालों को अपनी मुट्ठियों में दबोचकर किसी सोच-विचार में डूब गया। ओल्गा ने उसके पैरों के पास कुल्हाड़ी फेंककर नफरत से थूक दिया और गालियां बकने लगी। भिखारी ने डरते-डरते लकड़ी का एक कुंदा अपनी ओर खींचा और उसे अपने पैरों के बीच रखकर कुल्हाड़ी का एक कमजोर-सा वार किया। कुंदा गिर गया। भिखारी ने उसे दुबारा थामकर और सर्दी से जमे हुए अपने हाथों पर फूंक मारकर कुल्हाड़ी इस तरह चलाई जैसे वह डर रहा हो कि कहीं अपने घुटने या पैरों की ऊंगलियों पर ही प्रहार न हो जाए। लकड़ी का कुंदा फिर गिर गया।
स्क्वार्त्सोफ साहब का क्रोध टल चुका था। उन्हें खुद पर कुछ-कुछ शर्म आने लगी कि इस निकम्मे, शराबी और शायद बीमार आदमी से सर्दी में भारी मेहनत-मजदूरी किसलिए करवाई।
‘चलो, कोई बात नहीं’, अपने लिखने-पढ़ने के कमरे में जाते समय उन्होंने सोचा, उसकी भलाई ही होगी। एक घंटे बाद ओल्गा ने अपने मालिक को सूचित किया कि काम पूरा हो गया है।
‘लो, उसे पचास कोपेक दे दो’, स्क्वार्त्सोफ साहब ने कहा, ‘चाहो तो हर पहली तारीख को लकड़ी फाड़ने आ जाया करो। काम मिल जाएगा।’
अगले महीने की पहली तारीख को भिखारी फिर आ गया। शराब के नशे में लड़खड़ाने पर भी उसने पचास कोपेक कमा ही लिए। उस दिन से वह जब-तब आया ही करता था। हर बार कोई न कोई काम कर ही लेता। कभी आंगन से बर्फ हटाता था, कभी कोठरी साफ करता था, कभी कालीनों और मेट्रेसों से धूल निकालता था। हर बार वह बीस-चालीस कोपेक कमाता था और एक बार स्क्वार्त्सोफ साहब ने उसे अपने पुराने पतलून भी भिजवाए थे।
नए फ्लैट में जाते समय स्क्वार्त्सोफ साहब ने उसे फर्नीचर बांधने और उठाकर ले जाने में कुलियों की मदद करने को कहा। उस दिन भिखारी संजीदा, उदास और चुप्पा था। फर्नीचर पर हाथ बहुत कम रखता था, सर झुकाए इधर-उधर मंडरा रहा था। काम करने का बहाना भी नहीं कर रहा था, बस सर्दी से सिकुड़ता रहा था और जब दूसरे कुली उसकी सुस्ती, कमजोरी और फटे-पुराने, ‘साहब किस्म के’ ओवरकोट का मजाक उड़ाते थे तो शरमाता रहा था। काम पूरा हुआ तो स्क्वार्त्सोफ साहब ने उसे अपने पास बुला भेजा।
‘लगता है, तुम पर मेरी बातों का कुछ असर पड़ा है’, भिखारी के हाथ में एक रूबल पकडाते हुए उन्होंने कहा, ‘यह लो अपनी कमाई। देखता हूं तुमने पीना छोड़ दिया है और मेहनत के लिए तैयार हो। हां, नाम क्या है तुम्हारा?’
‘जी, लुश्कोफ।’
‘तो, लुश्कोफ अब मैं तुम्हें कोई दूसरा और साफ-सुथरा काम दिलवा सकता हूं। पढ़ना-लिखना जानते हो?’
‘जी हां।’
‘तो यह चिट्ठी लेकर कल मेरे एक दोस्त के यहां चले जाना। कागजातों की नक़ल करने की नौकरी है। सच्चे मन से काम करना, शराब मत पीना, मेरा कहना मत भूलना। जाओ।’
एक पापी को सही रास्ता दिखाकर स्क्वार्त्सोफ साहब बहुत प्रसन्न थे। उन्होंने लुश्कोफ के कंधे पर एक प्यार की थपकी दी और उसे छोड़ने बाहर दरवाज़े तक आए फिर उससे हाथ भी मिलाया। लुश्कोफ वह चिट्ठी लेकर चला गया और उस दिन के बाद फिर कभी नहीं आया।
***
दो साल बीत गए। एक दिन थिएटर की टिकट-खिड़की के पास स्क्वार्त्सोफ साहब को छोटे कद का एक आदमी दिखाई दिया। वह भेड़ के चमड़े की गरदनी वाला ओवरकोट और एक पुरानी-सी पोस्तीन की टोपी पहने हुए था। उसने डरते-डरते सब से सस्ता टिकट मांगा और पांच-पांच कोपेक के सिक्के दे दिए।
‘अरे, लुश्कोफ़, तुम।’ स्क्वार्त्सोफ ने अपने उस मजदूर को पहचान लिया, ‘कैसे हो? क्या करते हो? जिंदगी ठीक-ठाक है न?’
‘जी हां, ठीक-ठाक है, साहिब जी। अब मैं उसी नोटरी के यहां काम करता हूं, पैंतीस रूबल कमाता हूं।’
‘कृपा है भगवान की। वाह, भाई, वाह। बड़ी खुशी की बात है! बहुत प्रसन्न हूं। सच पूछो तो तुम मेरे शिष्य जैसे हो न। मैंने तुम्हे एक सच्चा रास्ता दिखाया था। याद है, कितना कोसा था तुमको? कान गर्म हुए होंगे मेरी बातें सुनकर। धन्य हो, भाई, कि मेरे वचनों को तुम भूले नहीं।’
‘धन्य हैं आप भी,’ लुश्कोफ बोला, ‘आपके पास न आता तो अब तक खुद को मास्टर या छात्र बतलाकर धोखेबाजी करता फिरता। आपने मुझे खाई से निकालकर डूबने से बचाया है।’
‘बहुत, बहुत खुशी की बात है।’
‘आपने बहुत अच्छा कहा भी और किया भी। मैं आपका आभारी हूं और आपकी बावरचिन का भी, भगवान उस दयालु उदार औरत की भलाई करे। आपने उस समय बहुत सही और अच्छी बातें की थी, मैं उम्र भर आपका आभारी रहूंगा। पर सच पूछिए तो आपकी बावरचिन ओल्गा ही ने मुझे बचाया है।’
‘वह कैसे?’
‘बात ऐसी है साहिब जी। जब-जब मैं लकड़ी फाड़ने आया करता था वह मुझे कोसती रहती, ‘अरे शराबी। तुझ पर जरूर कोई शाप लग गया है। मर क्यों नहीं जाता।’ फिर मेरे सामने उदास बैठ जाती और मेरा मुंह देखते-देखते रो पड़ती, ‘हाय बेचारा’ इस लोक में कोई भी ख़ुशी नहीं देख पाया और परलोक में भी नरक की आग में ही जाएगा। हाय बेचारा, दुखियारा।’ वह बस इसी ढंग की बातें किया करती थी। उसने अपना कितना खून जलाया मेरे कारण, कितने आंसू बहाए, मैं आपको बता नहीं सकता। पर सब से बड़ी बात यह हुई कि वह ही मेरा सारा काम पूरा करती रहती थी। सच कहता हूं साहिब, आपके यहां मैंने एक भी लकड़ी नहीं फाड़ी, सब कुछ वही करती थी। उसने मुझे कैसे बचाया, उसको देखकर मैंने पीना क्यों छोड़ दिया, क्यों बदल गया मैं, आपको कैसे समझाऊं। इतना ही जानता हूं कि उसके वचनों और उदारता की वजह से मैं सुधर गया और मैं यह कभी नहीं भूलूंगा। हां साहिब जी, अब जाना है, नाटक शुरू होने की घंटी बज रही है।
लुश्कोफ सर झुकाकर अपनी सीट की ओर बढ़ गया।
Anton Chekhov's Story - The Beggar
“KIND
sir, be so good as to notice a poor, hungry man. I have not tasted food for
three days. I have not a five-kopeck piece for a night’s lodging. I swear by
God! For five years I was a village schoolmaster and lost my post through the
intrigues of the Zemstvo. I was the victim of false witness. I have been out of
a place for a year now.”
Skvortsov,
a Petersburg lawyer, looked at the speaker’s tattered dark blue overcoat, at
his muddy, drunken eyes, at the red patches on his cheeks, and it seemed to him
that he had seen the man before.
“And
now I am offered a post in the Kaluga province,” the beggar continued, “but I
have not the means for the journey there. Graciously help me! I am ashamed to
ask, but . . . I am compelled by circumstances.”
Skvortsov
looked at his goloshes, of which one was shallow like a shoe, while the other
came high up the leg like a boot, and suddenly remembered.
“Listen,
the day before yesterday I met you in Sadovoy Street,” he said, “and then you
told me, not that you were a village schoolmaster, but that you were a student
who had been expelled. Do you remember?”
“N-o.
No, that cannot be so!” the beggar muttered in confusion. “I am a village
schoolmaster, and if you wish it I can show you documents to prove it.”
“That’s
enough lies! You called yourself a student, and even told me what you were
expelled for. Do you remember?”
Skvortsov
flushed, and with a look of disgust on his face turned away from the ragged
figure.
“It’s
contemptible, sir!” he cried angrily. “It’s a swindle! I’ll hand you over to
the police, damn you! You are poor and hungry, but that does not give you the
right to lie so shamelessly!”
The
ragged figure took hold of the door-handle and, like a bird in a snare, looked
round the hall desperately.
“I
. . . I am not lying,” he muttered. “I can show documents.”
“Who
can believe you?” Skvortsov went on, still indignant. “To exploit the sympathy
of the public for village schoolmasters and students — it’s so low, so mean, so
dirty! It’s revolting!”
Skvortsov
flew into a rage and gave the beggar a merciless scolding. The ragged fellow’s
insolent lying aroused his disgust and aversion, was an offence against what
he, Skvortsov, loved and prized in himself: kindliness, a feeling heart,
sympathy for the unhappy. By his lying, by his treacherous assault upon
compassion, the individual had, as it were, defiled the charity which he liked
to give to the poor with no misgivings in his heart. The beggar at first
defended himself, protested with oaths, then he sank into silence and hung his
head, overcome with shame.
“Sir!”
he said, laying his hand on his heart, “I really was . . . lying! I am not a
student and not a village schoolmaster. All that’s mere invention! I used to be
in the Russian choir, and I was turned out of it for drunkenness. But what can
I do? Believe me, in God’s name, I can’t get on without lying — when I tell the
truth no one will give me anything. With the truth one may die of hunger and
freeze without a night’s lodging! What you say is true, I understand that, but
. . . what am I to do?”
“What
are you to do? You ask what are you to do?” cried Skvortsov, going close up to
him. “Work — that’s what you must do! You must work!”
“Work.
. . . I know that myself, but where can I get work?”
“Nonsense.
You are young, strong, and healthy, and could always find work if you wanted
to. But you know you are lazy, pampered, drunken! You reek of vodka like a
pothouse! You have become false and corrupt to the marrow of your bones and fit
for nothing but begging and lying! If you do graciously condescend to take
work, you must have a job in an office, in the Russian choir, or as a
billiard-marker, where you will have a salary and have nothing to do! But how
would you like to undertake manual labour? I’ll be bound, you wouldn’t be a
house porter or a factory hand! You are too genteel for that!”
“What
things you say, really . . .” said the beggar, and he gave a bitter smile. “How
can I get manual work? It’s rather late for me to be a shopman, for in trade
one has to begin from a boy; no one would take me as a house porter, because I
am not of that class. . . . And I could not get work in a factory; one must
know a trade, and I know nothing.”
“Nonsense!
You always find some justification! Wouldn’t you like to chop wood?”
“I
would not refuse to, but the regular woodchoppers are out of work now.”
“Oh,
all idlers argue like that! As soon as you are offered anything you refuse it.
Would you care to chop wood for me?”
“Certainly
I will. . .”
“Very
good, we shall see. . . . Excellent. We’ll see!” Skvortsov, in nervous haste;
and not without malignant pleasure, rubbing his hands, summoned his cook from
the kitchen.
“Here,
Olga,” he said to her, “take this gentleman to the shed and let him chop some
wood.”
The
beggar shrugged his shoulders as though puzzled, and irresolutely followed the
cook. It was evident from his demeanour that he had consented to go and chop
wood, not because he was hungry and wanted to earn money, but simply from shame
and amour propre, because he had been taken at his word. It was clear, too,
that he was suffering from the effects of vodka, that he was unwell, and felt
not the faintest inclination to work.
Skvortsov
hurried into the dining-room. There from the window which looked out into the
yard he could see the woodshed and everything that happened in the yard.
Standing at the window, Skvortsov saw the cook and the beggar come by the back
way into the yard and go through the muddy snow to the woodshed. Olga
scrutinized her companion angrily, and jerking her elbow unlocked the woodshed
and angrily banged the door open.
“Most
likely we interrupted the woman drinking her coffee,” thought Skvortsov. “What
a cross creature she is! ”
Then
he saw the pseudo-schoolmaster and pseudo-student seat himself on a block of
wood, and, leaning his red cheeks upon his fists, sink into thought. The cook
flung an axe at his feet, spat angrily on the ground, and, judging by the
expression of her lips, began abusing him. The beggar drew a log of wood
towards him irresolutely, set it up between his feet, and diffidently drew the
axe across it. The log toppled and fell over. The beggar drew it towards him,
breathed on his frozen hands, and again drew the axe along it as cautiously as
though he were afraid of its hitting his golosh or chopping off his fingers.
The log fell over again.
Skvortsov’s
wrath had passed off by now, he felt sore and ashamed at the thought that he
had forced a pampered, drunken, and perhaps sick man to do hard, rough work in
the cold.
“Never
mind, let him go on . . .” he thought, going from the dining-room into his
study. “I am doing it for his good!”
An
hour later Olga appeared and announced that the wood had been chopped up.
“Here,
give him half a rouble,” said Skvortsov. “If he likes, let him come and chop
wood on the first of every month. . . . There will always be work for him.”
On
the first of the month the beggar turned up and again earned half a rouble,
though he could hardly stand. From that time forward he took to turning up
frequently, and work was always found for him: sometimes he would sweep the
snow into heaps, or clear up the shed, at another he used to beat the rugs and
the mattresses. He always received thirty to forty kopecks for his work, and on
one occasion an old pair of trousers was sent out to him.
When
he moved, Skvortsov engaged him to assist in packing and moving the furniture.
On this occasion the beggar was sober, gloomy, and silent; he scarcely touched
the furniture, walked with hanging head behind the furniture vans, and did not
even try to appear busy; he merely shivered with the cold, and was overcome
with confusion when the men with the vans laughed at his idleness, feebleness,
and ragged coat that had once been a gentleman’s. After the removal Skvortsov
sent for him.
“Well,
I see my words have had an effect upon you,” he said, giving him a rouble.
“This is for your work. I see that you are sober and not disinclined to work.
What is your name?”
“Lushkov.”
“I
can offer you better work, not so rough, Lushkov. Can you write?”
“Yes,
sir.”
“Then
go with this note to-morrow to my colleague and he will give you some copying
to do. Work, don’t drink, and don’t forget what I said to you. Good-bye.”
Skvortsov,
pleased that he had put a man in the path of rectitude, patted Lushkov genially
on the shoulder, and even shook hands with him at parting.
Lushkov
took the letter, departed, and from that time forward did not come to the
back-yard for work.
Two
years passed. One day as Skvortsov was standing at the ticket-office of a
theatre, paying for his ticket, he saw beside him a little man with a lambskin
collar and a shabby cat’s-skin cap. The man timidly asked the clerk for a
gallery ticket and paid for it with kopecks.
“Lushkov,
is it you?” asked Skvortsov, recognizing in the little man his former
woodchopper. “Well, what are you doing? Are you getting on all right?”
“Pretty
well. . . . I am in a notary’s office now. I earn thirty-five roubles.”
“Well,
thank God, that’s capital. I rejoice for you. I am very, very glad, Lushkov.
You know, in a way, you are my godson. It was I who shoved you into the right
way. Do you remember what a scolding I gave you, eh? You almost sank through
the floor that time. Well, thank you, my dear fellow, for remembering my
words.”
“Thank
you too,” said Lushkov. “If I had not come to you that day, maybe I should be
calling myself a schoolmaster or a student still. Yes, in your house I was
saved, and climbed out of the pit.”
“I
am very, very glad.”
“Thank
you for your kind words and deeds. What you said that day was excellent. I am
grateful to you and to your cook, God bless that kind, noble-hearted woman.
What you said that day was excellent; I am indebted to you as long as I live,
of course, but it was your cook, Olga, who really saved me.”
“How
was that?”
“Why,
it was like this. I used to come to you to chop wood and she would begin: ‘Ah,
you drunkard! You God-forsaken man! And yet death does not take you!’ and then
she would sit opposite me, lamenting, looking into my face and wailing: ‘You
unlucky fellow! You have no gladness in this world, and in the next you will
burn in hell, poor drunkard! You poor sorrowful creature!’ and she always went
on in that style, you know. How often she upset herself, and how many tears she
shed over me I can’t tell you. But what affected me most — she chopped the wood
for me! Do you know, sir, I never chopped a single log for you — she did it
all! How it was she saved me, how it was I changed, looking at her, and gave up
drinking, I can’t explain. I only know that what she said and the noble way she
behaved brought about a change in my soul, and I shall never forget it. It’s
time to go up, though, they are just going to ring the bell.”
Lushkov
bowed and went off to the gallery.
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