लाओ श लिखित उपन्‍यास ‘रिक्‍शावाला’ की पीडीएफ फाइल PDF File of Lao She's Novel - Rickshaw Boy

लाओ श लिखित उपन्‍यास ‘रिक्‍शावाला’ की पीडीएफ फाइल


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पुस्‍तक का संक्षिप्‍त परिचय

रिक्शावाला चीन के बहुसर्जक आधुनिक लेखक लाओ श (1899–1966) का अत्यन्त हृदयस्पर्शी और सफल उपन्यास है। वह चरित्रों के जीते–जागते चित्रण और भाषा के संयत तथा जीवन्त प्रयोग के लिये सम्भवत: सर्वप्रसिद्ध हैं। यह उपन्यास अपने मुख्य पात्र रिक्शावाले की तरह के आम लोगों की दुखद हालत के बारे में लेखक की सीधी जानकारी पर आधारित है। 1936 में लिखा गया ‘रिक्शावाला’ उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है जो गाँव से शहर आये एक मेहनती रिक्शावाले की बर्बादी की दास्तान है। 
बचपन और किशोरावास्था में लाओ श के सभी पड़ोसी भी गरीब थे। वह उन्हें समझते थे और उनके बारे में सब कुछ जानते थे। ये पड़ोसी अलग–अलग धन्धों में लगे हुए थे। कुछ रिक्शा चलाते थे, अन्य कुछ कुली, रद्दी बटोरने वाले, कलाकार, ख़िदमतगार या फेरीवाले थे।... स्वयं लाओ श ने रिक्शा कभी नहीं चलाया, मगर उनके दोस्त रिक्शा चलाते थे और उन्हीं के साथ रहकर वह बड़े हुए थे। रिक्शावाला के सोलहवें अध्याय में उन्होंने विस्तार से उस चाल का वर्णन किया है जिसमें श्याङचि और बाघिन रहते थे। वह बताते हैं कि ईंटों के ठण्डे फ़र्श पर बूढ़े भूखे सो जाया करते थे, औरतें बूढ़ों और छोटों के सो जाने के बाद दूसरों के कपड़े धोने, सिलने और मरम्मत करने में मिट्टी के तेल की ढिबरी जलाकर बैठ जाया करती थीं। जवान लड़कियों के पास पायजामे नहीं होते थे जिससे उन्हें घर में बन्द रहना पड़ता था और वे अपने इस स्वाभाविक कारागार में चिथड़े लपेटे हुए माँओं का हाथ बँटाया करती थीं। इन सब व्यक्तियों को लाओ श ने अपने बचपन की स्मृतियों के आधार पर चित्रित किया है। एक लघु निबन्ध में उन्होंने बताया है कि नव वर्ष के उत्सव के आगमन पर उन्हें कभी खुशी नहीं होती थी क्योंकि यह उत्सव उन्हें बचपन के उन अनेक अवसरों की याद दिला जाता था जब घर में कुछ खाने को नहीं था और वह दूसरों के पटाखों का शोर सुनते–सुनते रात को जल्दी ही सो गये थे। 
लाओ श कभी विश्वविद्यालय पढ़ने नहीं गये। नार्मल स्कूल से उत्तीर्ण होने के बाद अध्यवसायी अध्ययन करके उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया था। कम उमर में ही उन्हें सारे परिवार के भरण–पोषण का भारी दायित्व सम्भालना पड़ा। एक घनिष्ठ मित्र ने याद किया है कि उसने एक बार उन्हें कड़ाके के जाड़े में नाकाफ़ी कपड़े पहने कमरे में बड़ी मेहनत से काम करते देखा, और वहाँ हवा के झोंके आ रहे थे। लाओ श ने पीड़ा को छिपाते हुए मुस्कराकर उसे बताया कि बूढ़ी माँ के वास्ते कुछ पैसे चाहिए थे, इसलिये उन्होंने अपना फ़र का लबादा गिरवी रख दिया था। निस्सन्देह ये सब अनुभव रिक्शावाला के लेखन में प्रचुर आधार–सामग्री बने परन्तु लाओ श इतने से ही सन्तुष्ट नहीं थे। पुस्तक लिखते समय उन्होंने अन्य सामग्री एकत्र करने में बहुत समय लिया। और अनेक मित्रों से अनुरोध भी किया कि पेइफिङ के रीति–रिवाज़ों के विषय में जो कुछ जानते हों समय–समय पर या बाक़ायदा बताते या लिखकर देते रहें। यह सारी जानकारी उन्होंने बड़ी सावधानी से एकत्र की, चाहे वह उनके लिये उपयोगी रही हो या न रही हो। 
रिक्शावाला के अन्तिम पैरा में लाओ श ने लिखा है, “श्याङचि, माननीय, उद्यमी, स्वप्नजीवी, स्वार्थी, विद्रोही, सशक्त, महा श्याङचि असंख्य अन्तिम संस्कारों में शोक मना चुका था। और उसे नहीं पता था कि वह पतित, आत्मकेन्द्रित, अभागा उस व्यक्तिवादी रुग्ण समाज में मरीज बन गया है तथा उसे स्वयं अपने को कब और कहाँ दफ़न करना होगा।” लाओ श ने श्याङचि के जीवन का अन्त दुखभरा दिखाया था। वह अन्त ठीक वैसा ही था जैसा बछेड़े के प्यारे बाबा ने कहा था, “अकेले अपना भाग्य बना पाना दुनिया में सबसे मुश्किल काम है। अकेले आदमी का भविष्य ही क्या है ? कभी टिड्डा देखा है ? वह अकेले बड़ी लम्बी छलाँग लगा लेता है, मगर किसी छोटे बच्चे को उसे पकड़ने और बाँधने दो और वह उड़ भी नहीं सकता। लेकिन उनका पूरा गिराह हो तो क्या कहने! वे कुछ दिनों में ही कई एकड़ फसल चाट जाते हैं और कोई कुछ नहीं कर पाता!’’ एक ही रास्ता है कि सैकड़ों और हज़ारों श्याङचि संगठित होकर एक साथ संघर्ष करें और मुक्ति पायें। श्याङचि के जीवन के दुखान्त का यही सामाजिक सन्देश है। 

संक्षिप्‍त परिचय साभार : दी गयी पुस्‍तक की प्रस्‍तावना से ही




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