कहानी - कायापलट / मोवसेस अराजी Story - Comrade Mukuch / Movses Arazi

कहानी - कायापलट

मोवसेस अराजी (हिन्‍दी अनुवाद - राय गणेश चन्‍द्र )

“हम पर्वतवासी (उन्‍नीस आर्मिनियायी कहानियां)” संग्रह से 

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1

हर चीज बदलती थी, सिर्फ़ मुकुच नहीं बदलता।

पिछले दस वर्षों से वह चर्मशोधनालय में पहरेदार का काम कर रहा है। इस अवधि में शासन में दो बार तब्दीली आयी और चर्मशोधनालय में पाँच बार प्रबन्धक बदले गये। इसके बावजूद, मुकुच पर इन सब बातों का कोई भी प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगोचर न होता। चाहे आप किसी से पूछें, जवाब एक ही होगा : हमेशा की तरह फटा-चीटा पहने मुकुच जहाँ पहले था, वहीं है।

जो भी नया प्रबन्धक आता, पहले दिन ही निरीक्षण के दौरान मुकुच को देखता। और हर बार, औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद नया प्रबन्धक बड़ी अर्थपूर्ण आवाज में मुकुच को सम्बोधित करता,

ठीक है, मेरे निर्देश तक अपनी जगह पर बरक़रार रहो।” मगर ऐसा निर्देश कभी नहीं आता और मुकुच अपने स्थान पर बरक़रार रहता उन शब्दों का अर्थ उसकी समझ के बाहर था। फिर उसे एकदम भुला दिया जाता या दूसरे शब्दों में उसकी उपस्थिति नज़र अन्दाज़ कर दी जाती। कुछ ही दिनों में नया प्रबन्धक उसे देखते रहने का श्रादी हो जाता कि उसे कारख़ाने का प्रभिन्न अंग समझने लगता।

मुकुच की शकल सूरत में भी कोई फेर-बदल नहीं दिखाई देता। वह अधेड़ उम्र का था और इस अवस्था में लोग लम्बे समय तक ज्यों के त्यों ही लगते हैं। चौड़ी नाक और घनी दाढ़ीवाला उसका भोंडा चेहरा सूजा सूजा लगता। ध्यान से देखने पर ही उसकी बड़ी-बड़ी स्थिर श्राँखों में अनवरत चिन्ता व दुख के भाव देखे जा सकते थे।

जाड़ा हो या गरमी, मुकुच गंदले धूसर रंग के एक ही कपड़े हमेशा पहने रहता। सेना के ओवरकोट के चिथड़ों से बना उसका जैकेट समय बीतने के साथ अपना वास्तविक रँग गँवा चुका था। तुर्रा यह कि उसके नीचे इतनी सारी गुदड़ियाँ होतीं कि मुकुच दूर से किसी चलती-फिरती बोरी की तरह दिखाई देता। भेड़ की खालवाला ख़स्ताहाल उसका काला टोप तो ऐसा लगता मानो उसके सिर से उग आया हो, क्योंकि बालों से उसकी कोई भिन्नता न रह गयी थी।

लेकिन मुकुच के जूते, कुछ न पूछिये - उसके पूरे स्वरूप के सबसे लाजवाब पहलू थे। किसी जमाने में वे सेना के बूट थे। अपने मालिक की सेवा पूरी कर वे मुकुच के पास आ गये थे। उस पर इतने पैवन्द, इतनी पिच्चियाँ थीं कि असली शकल की पहचान असंभव थी। पिच्चियों को यथास्थान ताँत, कीलों या तार से जोड़ रखा गया था!

हर नया प्रबन्धक पहले दिन काम पर आते ही गोल-माल हालत देखताः चर्मशोधनालय का पहरेदार ऐसे गये गुजरे जूते पहने है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। और हर बार नया प्रबन्धक उसके जूतों के लिए चमड़ा दिये जाने का आदेश देता। लेकिन कुछ दिन बाद मुकुच उस चमड़े को बेचकर आटा ख़रीद लेता - पुराने जूते ज्यों के त्यों उसके पैरों में चस्पाँ रहते। सच कहा जाये तो मुकुच को इससे ज्यादा निराशा भी न होती थी। उसने यह सचाई गाँठ बाँध रखी थी कि चमड़े से नया जूता बना लेने पर भी वह दूसरे जूतों की तरह घिस जायेगा, नष्ट हो जायेगा जबकि पुराना हमेशा-हमेशा बरक़रार रहेगा।

2

पहली बार मिलने पर कोई भी मुकुच को रेफूजी कहेगा। और अगर आपने उससे पूछा तो वह बतायेगा कि बचपन में वह अपने पिता के साथ फलां-फलाँ गाँव गया - कभी यहाँ कभी वहाँ। इस प्रकार, इस घुमन्तू आर्मीनियाई के असली ठिकाने के बारे में कोई कुछ नहीं बता सकता।

मुकुच का रेफूजीपन इस बात से और भी बढ़ जाता कि उसकी मिल्कियत बस एक गुदड़ीदार बिस्तर और एक पुराना-सा काँसे का लोटा था - वह जहाँ भी जाता इन दोनों को अपने साथ रखता। मुकुच के लिए यह ठीक ही था क्योंकि वह ऐसे ज़माने में रह रहा था जब अधिकांश आर्मीनियाई रेफूजी ही माने जाते थे।

“जब तक रोटी मुयस्सर है, किसी दूसरी चीज़ की कोई भी फ़िकर नहीं,” यह उसका तकियाकलाम बन गया था।

मुकुच मय बीवी व चार बच्चों के चर्मशोधनालय के पास ही एक टूटे फूटे मकान में टिक गया था। अगर यह बिन बुलाये मेहमान न आते तो वह मकान शायद हमेशा भाँय-भायें ही करता रहता। बायीं ओर की छत कुछ इस अन्दाज़ से धंस गयी थी कि अब या तब गिरने का भय होता।

बच्चों में सबसे बड़ा सात साल का था। वे दिन भर यूँ मेमियाते-पेपियाते रहते कि मार्जार-शिशुओं के म्याऊँ म्याऊँ का भ्रम होता। मुकुच इस विचित्र आवाज़ का आदी कब का हो चुका था। इसका मतलब था :“भूख लगी है, रोटी दो!"

इसलिए जब-जब शासन में तब्दीली आती, मुकुच के दिमाग़ में बस एक ही सवाल अहम होता- रोटी का सवाल। न जाने कितने लोगों से वह दिन भर पूछता रहता: "क्या यह सच है? लोगों का कहना है, अब रोटी की क़ीमत कम हो गयी है। "

किसने कहा था वैसा? कहाँ? सच तो यह था कि किसी ने कुछ भी नहीं कहा था। बस प्रचंड लालसा के वशीभूत मुकुच ऐसी ख़बरें फैलाने को विवश होता।

सोवियत सत्ता की स्थापना के पहले वर्ष, जब उसे कारखाने में रोटी लाकर देने का काम सौंपा गया तो उत्तेजना के कारण वह बहुत ज्यादा बक-बक करने लगा। कोई देखे तो यही सोचे कि सारी राशन की रोटियाँ उसी के लिए थीं। जो मिलता, उसी को रोककर वह कहता, "मैं मज़दूरों को रोटी लाकर दूँगा।”

इस काम में उसका उत्साह देखते बनता! कन्धे पर रोटियों का बोरा उठाये वह खाद्य डिपो से कारखाने के चक्कर लगाता दौड़ता रहता। रोटी की निकटता और उसकी मादक खुशबू इतनी प्रलोभनकारी थी कि वह बोरे से चेहरा सटाकर जोरों की साँस लेने से खुद को नहीं रोक पाता। वह सपना देखा करता कि एक दिन वे उसे एक बड़ी-सी रोटी देकर कहेंगे, "लो, यह लो मुकुच!”

लेकिन राशन बँट जाने और बोरे के ख़ाली हो जाने के बाद उसके सपने भी गायब हो जाते। कड़ाई से राशन में मिलती रोटी का बहुत थोड़ा-सा हिस्सा ही उसके पेट में पहुँच पाता।

किसी ऐसे दिन जब बेकरी में रोटी तैयार होने में देर हो जाती और खाद्य डिपो में मुकुच को घंटों प्रतीक्षा करनी पड़ती, उसके प्राण सूखने लगते। उसे लगता अब कोई बाहर आयेगा और कह देगा,

“रोटी ख़त्म हो गयी। अब प्रतीक्षा करने से कोई लाभ नहीं।”

लेकिन फिर खुद ही अपने आप से कहता, चर्मशोधनालय के मज़दूर और प्रबन्धक दोनों ही अपने राशन यहाँ से पाते हैं। इसलिए, स्वभावतया, कोई भी प्रबन्धकों को बिना रोटी के रखने की हिम्मत नहीं करेगा। हाँ, अगर सब मुकुच जैसे ग़रीब लोग होते तो फिर कोई उम्मीद न थी लेकिन चूँकि प्रबन्धक और उस जैसे महत्वपूर्ण लोग भी कारखाने में काम करते हैं, उन्हें खाद्य डिपोवाले रोटी का राशन नहीं रोक पायेंगे।

मुकुच दिन में कई बार घर आता। हर बार मुकुच और उसकी बीवी के बीच बड़ी गड़बड़ी मचती : पेट की भूख इस उम्मीद में उसे घर ले आती कि शायद बीवी ने सब्जियों से कुछ खाने को तैयार किया हो और, दूसरी ओर, उसकी बीवी सोचती, शायद शौहर रोटी लाने में सफल रहा है। निराशा चिड़चिड़ी बीवी की जिह्वा पर चढ़कर बोल उठती, उसका रोज़ का झगड़ा शुरू हो जाता,

“तो जनाब, घर आ गये हैं, क्यों? बहुत खूब! यूँ ख़ाली हाथ दौड़े चले आते हैं मानो जनाब को मालूम ही न हो कि उनका भी कोई परिवार है!” उसकी आवाज ऊँची हो उठती जाती और मुकुच के कानों में भिनभिनाहट होने लगती। धीरजवाला होने के बावजूद वह चीख पड़ता :

“अपनी जबान फिर चलानी शुरू कर दी! बहुत हुआ!” फिर जल्दी- जल्दी बाहर निकल जाता और उसके पीछे-पीछे, कारख़ाने तक बीवी को कोसती आवाजें चली आतीं।

3

सोवियत सत्ता की स्थापना से सब पर बड़ा असर पड़ा। कुछ ने खुशियाँ मनायीं और जिनकी सम्पदाएँ व सामाजिक प्रतिष्ठा छिन गयी थीं, उन्होंने इसे लानतें भेजीं।

नयी सरकार के पहले दिनों की गहमागहमी, जोशीले भाषणों और लाल पताका लिए मार्च करते लोगों ने मुकुच को भी आकृष्ट किया। वह इस तरह के कई मार्चों में गया, कई सभाओं में शामिल हुआ। वह सब से आख़िर में खड़ा होता और दत्त-चित्त सुनता रहता। कभी-कभी उसे ऐसा लगता मानो जो कुछ कहा जा रहा है, सब उसकी समझ में आने- वाली बातें हैं - आख़िर वे लोग उसी जैसे ग़रीबों के हक़ों के बारे में तो बोल रहे थे।

बहुत सारे दिन गुजर गये। फिर रोटी की तंगी उसे पीड़ित करने लगी। उसके विचार उलझकर रह गये। सुने गये भाषण उसे समझ में न आनेवाले प्रतीत हुए।

और इस प्रकार नयी सरकार के दिनों पुराना सवाल फिर से उभरकर सामने आने लगा और मुकुच यह कहने का मौक़ा कभी नहीं चूकता,

“क्या यह सच है? सुना है, रोटी का राशन बढ़नेवाला है।”

किसने कहा था ऐसा? किससे यह बात कही गयी थी? पहले की तरह यह अब भी रहस्य बना था।

रोटी के अलावा हर बात को, सारे भाषणों को मुकुच बेकार की बकवास समझता। उसके मुताबिक ये सारी चीजें “ऊँचे ओहदे” वालों के लिए अच्छे भोजन के बाद मनबहलाव के अच्छे साधन थीं।

उसके मुताबिक़ “ऊँचे ओहदे” वाले वे लोग थे जो शहरी कपड़े पहनते थे और थोड़ा बहुत पढ़ सकते थे। सोवियत कार्यालय अधिकारियों को वह इसी तरह अभिहित करता। हालांकि उसकी आँखों के सामने ही उन्हें रोटी व खाने-पीने के सामानों का राशन मिलता था, तनख्वाह भी उन्हें उसकी मौजूदगी में मिलती थी लेकिन मुकुच को पूरा यकीन था कि उन्हें कहीं दूसरी जगह अतिरिक्त तनख्वाह राशन की अदायगी को जाती थी।

“ग़रीब लोग खाये बिना रह सकते हैं लेकिन ऊँचे ओहदेवालों को फाकामस्ती की आदत नहीं,” मुकुच अपने मन में कहता।

बचपन से ही मुकुच इन सारी दुनियावी बातों का आदी हो चुका था और इन पुरानी धारणाओं ने उसके मन में गहरी जड़ें जमा ली थीं। उन्हें दूर करना कठिन था।

4

फिर भी दुनिया कितनी बदल गयी थी! मुकुच की बहुत सारी आँखों देखी और कानों सुनी बातें थीं। जो पहले राजे बने थे, अब रंक हो गये थे और ऊँचे ओहदों पर अब नीचे तबक़ों के लोग आ गये थे। चाहे जो भी हो, हर चीज़ के बारे में मुकुच की अपनी ही राय थी।

“इसमें तो कोई सवाल ही नहीं उठता,” वह मन ही मन कहता। “सब का एक-दूसरे को 'कॉमरेड' कहना, सुनने में अच्छा लगता है।” यह शब्द मुकुच को पसन्द था। लेकिन फिर सब उसे पहले की तरह सिर्फ़ मुकुच कहने पर क्यों श्रामादा थे? कोई भी उसे इस तरह पुकारने में तनिक भी अनुचित नहीं महसूस करता : “क्या हाल है, मुकुच?

बेशक, इस बात से उसे कोई शिकायत न थी क्योंकि कारखाने में सबका व्यवहार उसके प्रति अच्छा था लेकिन चूँकि यही रिवाज चल पड़ा था, उसे भी "कॉमरेडकहकर बुलाया जाना चाहिए। मुकुच के दिल को ठेस लगी थी।

फिर कारखाने का हज्जाम हमेशा उससे पिण्ड छुड़ाने की कोशिश में क्यों लगा रहता है? जब भी वह उसकी दुकान में दाढ़ी बनाने और बाल कटाने जाता, उसे बस यही सुनने को मिलता :

“तुम बाद में क्यों नहीं आते, मुकुच? इन सब के बाल काट लेने के बाद तुम्हारे लिए ज्यादा समय मिल जायेगा।”

न जाने कितनी बार वह उसकी दुकान के पास आकर रुका था और हर बार उसे यही शब्द सुनने को मिले थे। आख़िरकार पूरी तरह निराश होकर, उसने वहाँ जाना ही छोड़ दिया था। झाड़ू जैसी उसकी दाढ़ी उसके आधे चेहरे पर फैली थी।

मुकुच भली-भाँति जान चुका था, हज्जाम उसकी दाढ़ी बनाने की जहमत नहीं करना चाहता। लेकिन मुकुच अन्धा न था। वह जानता था, यह चोर हज्जाम पुराने घिसे उस्तरों को नयों से बदल रहा था। तौलियों व एप्रनों के लिए मिले नये कपड़ों को चुरा रहा था, वह भी ऐसी महँगाई के समय में। जैसे मुकुच जानता ही न हो कि उजड्ड चोर ने कारख़ाने की नाई - दुकान में जल्दी से जल्दी पैसे बनाने के लिए नौकरी की थी जिससे वह खुद अपनी दुकान खोल ले।

मुकुच यह सब जानता था लेकिन कुछ बोलता न था क्योंकि वह बुरा आदमी बनकर हज्जाम की रोटी का टुकड़ा छीन नहीं लेना चाहता था। लेकिन अगर मुकुच को उसके बारे में फ़ैसला करने का मौका दिया जाता तो वह जानता था, इस बेशर्म चोर से कैसे पेश आया जाये, जिसने उसे अपमानित किया था।

जाहिर था, मुकुच को लोगों की बातों में कोई भी अच्छाई नज़र नहीं आती थी। आती भी कैसे, अगर हज्जाम जैसे लोगों को टाँग अड़ाने का मौक़ा मिला हुआ था। मुकुच गरीब है और ग़रीब रहेगा। दुनिया में कोई तब्दीली नहीं आयी है।

लेकिन सचमुच, मुकुच के अलावा सब कुछ बदल रहा था।

5

मकुच के सिर सनीचर हो चढ़ा था!

अब एक नये प्रबन्धक ने कार्यभार संभाला था। वह नाटा, दुबला-पतला, चश्माधारी और जिद्दी आदमी था। दूसरे प्रबन्धकों के विपरीत, वह हमेशा मुकुच पर ध्यान रखता और हर दिन किसी न किसी चीज़ के कोने लिए उसे फटकार बताता। वह हमेशा इधर-उधर दौड़ता फिरता, कोने में झाँकता। मुकुच उसकी नीति तनिक नहीं समझ पाता था। परेशानी के मारे उसे पता ही नहीं लग रहा था, इस आदमी की कृपादृष्टि पाये तो कैसे। पूरा एक महीना इसी तरह बीत गया और मुकुच निराश हो चला। उसने मन में तय कर लिया, बस और कोई बात नहीं, प्रबन्धक उसे निकाल बाहर करने का बहाना भर ढूँढ़ रहा है। फिर भी, सब कुछ सहन कर लेनेवाला मुकुच शायद इस परीक्षा से भी, सही-सलामत निकल आता लेकिन बदकिस्मती को क्या कहिये! एक दिन सुबह में ओसारे से एक गट्ठर चमड़े की चोरी का पता चला। मुकुच की हालत उस समय कैसी रही होगी, यह बताने की जरूरत नहीं। प्रबन्धक दिन भर उससे पूछ-ताछ करता रहा। फिर उसे पुलिस में ले जाया गया। वहाँ भी उससे खोद-खोदकर पूछा गया। हर बार प्रबन्धक यही कहता, “तुम पहरेदार हो, यानी दोष तुम्हारा है।"

सनीचर पर साढ़ेसाती। बीवी उसके पीछे पड़ गयी।

"किसी निर्दोष आदमी को इस तरह बेइज्जत करके उसके परिवार का सत्यानाश करते कभी किसी ने सुना है! क्या इस बदकिस्मती से बचानेवाला, हमारी हिफ़ाज़त करनेवाला कोई भी नहीं! क्या उन्हें दिखाई नहीं देता, यह सब गढ़ी-गढ़ायी बात है, चालबाजी है?

“तुम किस लिए इधर-उधर चीखे फिर रही हो? " अपने मर्दाने ढंग से उसे सान्त्वना देते हुए मुकुच ने कहा। "जरा मेरे बारे में भी सोचो। तुम्हारे ख्याल से मुझे कैसा महसूस हो रहा होगा?

लेकिन उसकी बीवी ने अपनी क़िस्मत का रोना जारी रखा। वह खुद पर नियंत्रण न रख सकी। रोती रही, पड़ोसनों की दुहाई दी और उसे इस हालत में देखकर बच्चे भय से जोर-शोर से क्रन्दन कर उठते।

झुटपुटा होने को था। दुख से सुकुच का दिल भी बैठा था। कारखाने के अहाते में बने सीलन भरे, खिड़की रहित ओसारे में वह घुसा। एक शिलाखण्ड पर बैठकर वह जमीन की ओर घूरने लगा।

"तो, मेरा खात्मा हुआ," वह सोचने लगा। जरूर ही मुझे गिरफ़्तार किया जायेगा... वे लोग मुझे छोड़ने को नहीं... और फिर मेरा बचाव भी कौन करेगा? ठीक है, मान लो वे मुझे गिरफ्तार कर लेते हैं। लेकिन बच्चों का क्या होगा? चमड़े को चुराया किसने? सच कहा जाये तो यह काम बस वही हरामजादा हज्जाम कर सकता। क़िस्मत की ही बात है! कैसी स्थिति आ गयी है : उस जैसे झूठे इनसान की बात सुनने को प्रबन्धक तक तैयार है, मैं जानता हूँ, उसी ने प्रबन्धक से कहा होगा, चोरी पहरेदार ने की है।"

दिन रात में बदल रहा था और मुकुच के हृदय में भी अंधेरा छाता जा रहा था।

सहसा उसे अपने पीछे से एक आवाज सुनाई दी:

“तुम कहाँ हो, मुकुच?

मुकुच उठ खड़ा हुआ और रास्ता टटोलता बाहर निकल आया।

यह मार्गार था, मज़दूरों में एक।

“तुम कहाँ थे, मुकुच? मैं घंटे भर से तुम्हें ढूँढ़ रहा हूँ। चले आओ”

मुकुच ख़ामोशी से उसके पीछे चल पड़ा।

6

“अब शायद कुछ और भी गढ़ लिया है,” मुकुच ने सोचा। तिस पर क़िस्मत की मार, मार्गार ने उसे अगली क़तार में बैठा दिया था। जाहिरी तौर पर मार्गार पहले से ही ऐसी व्यवस्था कर डालना चाहता था जिससे सब उसे देखें, अपमानित करें।

कितने सारे लोग थे वहाँ! और सब के सब क्रुद्ध थे। इन सब की हँसी का पात्र बनने से तो अच्छा होता कि वह मर जाता या जमीन फट पड़ती और वह उसमें समा जाता।

लाल मेजपोशवाली मेज मंच पर रख दी गयी थी। मेज़ के साथ छह लोग बैठे थे। वह उन सब को जानता था लेकिन इस समय वे सब उसे अजनबी लग रहे थे। काश, उनसे कोई यह कहनेवाला तो होता, “मुकुच ने आपका क्या बिगाड़ा है जो उसे इतनी नफ़रत भरी नजरों से देख रहे हैं?”

वह डरा था और शर्मिन्दा भी हुआ। मुकुच खुद को जहन्नुम में महसूस कर रहा था। बाहर खुशगवार वसन्त की शाम थी लेकिन उसकी हड्डी तक ठिठुर गयी थी।

बग़ल में बैठे मज़दूरों ने उससे बातें कीं, उन्होंने उस को ढाढ़स देने की कोशिश की लेकिन उसे उनके शब्द ही नहीं सुनाई दे रहे थे। उसके ख्यालात कोसों दूर भटक रहे थे।

यही बात थी... उसका खात्मा... इतने लोगों से खुद को बचाने के लिए वह क्या कर सकता था और फिर, इनमें से हरेक कितनी आसानी से, कितनी विद्वता से बोल सकता था। स्वाभाविक रूप से वे प्रबन्धक के पक्ष में बोलेंगे। आखि़र वह ऊँचे ओहदेवाला था, मुकुच की तरह कोई मामूली आदमी नहीं। ज़रा देखो तो उसकी ओर, वहाँ बैठा है, चश्मे के नीचे नाक-भौंह चढ़ाये।

और मुकुच क्या कह सकता था? जैसे, “मैं एक ग़रीब आदमी और मैं क्या जानूँ, किसने चोरी की? मैं कुछ भी नहीं जानता। मैं क़सम खाकर कहता हूँ, मुझे इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं मालूम।”

मुकुच की आँखें दीवार पर टंगी लेनिन की एक बड़ी-सी तस्वीर पर टिक गयीं।

“लोग उसे भला आदमी बताते हैं। काश, वह यहाँ होता तो मैं कभी ऐसे गड़बड़झाला में न पड़ता।”

बैठक की शुरुआत के लिए एक घंटी बजी। लोग उठ उठकर बोलने को जा रहे थे लेकिन मुकुच उनकी बातें नहीं समझ पाया। वह उस समय चौंका जब साप्राक नामक एक मजदूर बोलने आया। साप्राक की आवाज़ ऊँची थी और उसके शब्द समझने में आसान थे। आज वह कितने गुस्से में था। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह आग उगल रहा हो। जरूर ही मुकुच से क्रुद्ध था... फिर भी यह बात कितनी अजीब थी : साप्राक भी अभी बोला था, " कॉमरेड मुकुच। " अगर वह उस पर क्रुद्ध था तो फिर उसे "कॉमरेड मुकुच" कहकर क्यों सम्बोधित कर रहा था? यह तो एक आदरणीय शब्द था।

एक बात और, साप्राक जब तक बोलता रहा, प्रबन्धक को जैसे बिच्छू काटते रहे थे। वह बार-बार उठ खड़ा होता, जवाब देने के लिए अपने हाथ ऊपर उठाता और जब उससे नहीं रहा गया, तमतमाये चेहरे से वह अपने आप से बड़बड़ाता, बाहर चला गया। हालाँकि अभी साम्राक ने अपना भाषण ख़त्म भी नहीं किया था।

सब कोई उसे जाते देखते रहे। मुकुच की ठीक बग़ल में बैठे मजदूर सेर्गों ने उस के कानों में कहा,

“देखा मुकुच, कैसे प्रबन्धक की सिट्टी-पिट्टी गुम कर दी है?” उलझन के मारे मुकुच को कोई जवाब ही नहीं सूझा।

हालात अप्रत्याशित मोड़ ले रहे थे... अब फिर किसी ने उसे कॉमरेड मुकुच के नाम से पुकारा था। हाँ, वे लोग उसकी प्रशंसा कर रहे थे।भूख और ठंड के बावजूद, मुकुच अपने काम पर हमेशा डटा रहा, मोर्चे के सैनिक की तरह... अगर प्रबन्धक तनिक भी भला आदमी होता तो कम से कम मुकुच के ठौर-ठिकाने के बारे में उससे कभी कुछ पूछता तो...

नहीं, सन्देह की कोई गुंजाइश न थी। वे सब उसकी मदद कर रहे थे, वे सब उसकी रक्षा कर रहे थे! दिल से पत्थर हट गया। इमारत के अन्दर आते समय वह अपनी बेबसी पर जड़ीभूत हो रहा था लेकिन अब उत्साह से भर उठा था।

साँस रोककर वह हर वक्ता की बातें सुनता, उत्तेजित-सा इधर-उधर देख रहा था। बड़ी अजीब बात थी, अब हर कही बात उसे समझ में आ रही थी। वह अपनी जगह से उठकर दिल में दबी हर चीज़ उंडेल डालना चाहता था।

अचानक मार्गार ने उसकी आस्तीन खींची।

“अगला वक्ता, कॉमरेड मुकुच हैं,” अध्यक्ष ने दुहराया।

“जो दिल में है उन्हें सब कुछ बता डालो,” मार्गार फुसफुसाया। उलझन में पड़ा मुकुच उठ खड़ा हुआ। हिम्मत बटोरता, वह कुछ पलों तक ख़ामोश रहा, फिर हल्के से मोटी आवाज़ में बोलना शुरू किया। सब चुप थे। वे उसकी बातें ध्यान से सुन रहे थे।

“कॉमरेडो, हालाँकि मैं ग़रीब आदमी हूँ, मैं कभी अपनी इज्ज़त नहीं बेचूँगा। मुझे इस चोरी के बारे में कुछ भी नहीं मालूम... मैं बस इतना ही कह सकता हूँ, मुझे फँसाया गया है। मैं आपसे, आपके ज़मीर से मदद का अनुरोध करता हूँ।”

बोलते समय वह भारी-भारी साँसें ले रहा था। अध्यक्ष ने कुछ और शब्द कहे, फिर दो-तीन अन्य व्यक्तियों ने संक्षेप में भाषण दिया। इसके बाद बैठक ख़त्म कर दी गयी।

मज़दूरों ने उसे घेर लिया।

“चिन्ता न करो, कॉमरेड मुकुच, हम तुम्हें शर्मिन्दा नहीं होने देंगे!”

वे उसकी पीठ थपथपाते, उससे बातें कर रहे थे। हर कोई उसे “कॉमरेड” कहकर सम्बोधित कर रहा था...

मुकुच बाहर सड़क पर आ गया। भावावेश के मारे उसे पता ही नहीं लग रहा था, वह आ रहा है या जा रहा है। दौड़ता हुआ घर चल पड़े या कारखाने में ही रह जाये, वह निर्णय नहीं कर पा रहा था। कितने सारे लोग उसके पक्ष में उठ खड़े हुए थे! और ऐसा भी हो सकता है,

कभी वह महसूस कैसे नहीं कर पाया था? ऐसा प्रतीत हुआ था जैसे हजारों आवाजें एक होकर बोल रही थीं, सब कह रही थीं, “कॉमरेड मुकुच...” मुकुच का दिल इस तरह भर उठा कि हमेशा बना रहनेवाला रोटी का ख्याल भी जाता रहा। अब अगर उसे जिन्दगी भी देनी पड़ी तो वह खुशी-खुशी दे देगा।

7

तीन साल बाद मैं अपने शहर लौटा।

एक दिन शाम को मजदूरों की एक बैठक में शामिल हुआ। मैं वक्ताओं को सुन रहा था और मेरी आँखें चुस्त क़तारों पर भटक रही थीं। अनचाहे मैं इन सब की तुलना निकट अतीत से कर रहा था। कितना परिवर्तन हो चुका था!

तीसरे वक्ता के बैठने के बाद मैंने अध्यक्ष साचाक की आवाज़ सुनी,

“अब कॉमरेड मुकुच भाषण देंगे।”

सुथरे ढंग से बाल कटाये, सफाचट दाढ़ीवाला एक मज़दूर मंच पर आया। थोड़ा झेंपता-सा वह कुछ पलों तक चुपचाप खड़ा रहा। फिर ऐसी भावावेशपूर्ण आवाज़ में बोलना शुरू किया जो क्रान्ति के प्रेमी मज़दूरों की ख़ासियत थी।

“कॉमरेडो, हमारे दुश्मन हमें बहुत वर्षों तक घेरे रहे हैं और अब वे हमारा गला घोंट देना चाहते हैं। भुखमरी से वे हमारा दम तोड़ डालना चाहते थे लेकिन वैसा कुछ भी न हुआ, वे नाकामयाब रहे। बलपूर्वक उन्होंने ऐसा करना चाहा लेकिन उसमें भी असफल रहे... हमारे दुश्मनों ने महसूस कर लिया है, वे दिन अब लद चुके हैं। हम अपनी आस-पास की स्थिति समझने लगे हैं। हमारी आँखें खुल चुकी हैं। श्रौर अब हमें किसी भी बात का कोई डर नहीं।”

हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। वक्ता का चेहरा मुझे जा- ना-पहचाना सा लगा। बग़ल में बैठे मज़दूर से मैं पूछना ही चाहता था कि वह बोल उठा,

“तुम जानते हो, यह कौन है? यह हमारा मुकुच है।”

“नहीं! उसके ऐतिहासिक जूते और बेतरतीब दाढ़ी कहाँ हैं?” मार्गार हँस पड़ा।

“पुराने शासन के कपड़े वह उतार चुका है। उसके जूतों और रोटी के बोरे को हम संग्रहालय रवाना कर चुके हैं। और जैसा कि तुम देख ही रहे हो, उसकी दाढ़ी उस्तरे का शिकार बन गयी है। अगर बीवी न मना करती, वह अपनी मूंछें भी सफ़ाचट करा चुका होता।”

" चोरी गये चमड़े के मामले का क्या बना?

“भला हम लोग अपने मुकुच को किसी के जाल में फँसने छोड़ देते?” सफाचट दाढ़ी और नये जूतों व कपड़ों में मुकुच को देखकर मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना न था। लेकिन सबसे ज्यादा आश्चर्य उसे मंच से बोलते देखकर हुआ! मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था, कहीं मैं सपना तो नहीं देख रहा।

विचारों में खोया मैं घर लौट रहा था। मैं अतीत की याद में लगा था। मैं सोच रहा था, हमारे मशहूर मुकुच का, जीवित स्मारक का, हमारे शहर की जीती-जागती प्रतिमा का क्या से क्या हो गया था। मैं चलते-चलते अतीत के बारे में सोच रहा था और साप्राक की आवाज़ मेरे कानों में लगातार गूँज रही थी : “अब कॉमरेड मुकुच बोलेंगे।”



Story - Comrade Mukuch

Movses Arazi (English translation - F. Glagoleva)

From the collection “We Of The Mountains - Armenian Short Stories”

1

Everything changed; Mukuch alone did not change.

For the past ten years he had served as a watchman at the tannery. During this time the regime had changed twice, and five managers had been replaced at the tannery. And yet, none of this had any visible effect on Mukuch. No matter whom you asked, the answer would be the same: Mukuch was at his usual post, dressed in the same rags as always.

Each new manager noticed Mukuch the first day he arrived, when he was on his first round of inspection. And each time, having done with the official part of his new job, the new manager would address Mukuch in a significant tone of voice, saying, "You might as well stay on until further notice."

Further notice was never forthcoming, and so Mukuch, who didn't quite grasp the meaning of the words anyway, would stay on at the job. Then he would be completely forgotten or, rather, his presence would no longer be noticed. In a few weeks the new manager would become so used to the sight of him that he would begin to consider Mukuch a factory fixture.

Mukuch's appearance was just as fixed. He was a man of forty-odd years, of an age when people seem to remain unchanged for a long period of time. His coarse face with its broad nose and heavy beard seemed swollen. Only an observant person would notice the expression of constant concern and sadness in his large, motionless eyes.

Summer and winter Mukuch wore the same grey clothes. His jacket had been made over from an army greatcoat that had lost its original colour from age, and he wore so many tattered garments under it that he resembled a shapeless sack from afar. His tattered black sheepskin hat seemed to have sprouted from his head, becoming a part of his hair.

However, his shoes were the most remarkable aspect of his appearance. At one time they had been a pair of army boots which, having served their term, had come down to Mukuch. There were so many patches on them that it was impossible to discover their original shape. The patches were held in place with bits of string, nails or wire.

It should be noted that each manager in turn would notice the ambiguous situation his very first day on the job: the tannery watchman wore shoes that were beyond description. And each in turn would sign an order for a piece of leather for a pair of shoes to be issued to him. However, Mukuch would trade the leather for flour, while he continued wearing his old shoes.

To tell the truth, Mukuch wasn't too disappointed. He knew for a fact that even if he ordered himself a new pair of shoes they would eventually wear out, as shoes usually do, while his old ones, and he was certain of this, would last forever.

2

Anyone who came upon Mukuch for the first time would say he was a refugee. And if you asked him he would say that in his childhood he and his father had moved to such-and-such village and from there to another, and to a third, and so on. Still, no one could say where this wandering Armenian had come from.

Mukuch's resemblance to a refugee was heightened by the fact that all his possessions consisted of a bed of rags and an old copper pot, both of which he could take along on all his wanderings. This did not bother Mukuch either, for he lived at a time when most of the Armenian people were considered refugees.

"As long as there's bread, nothing else matters," he was wont to say.

Mukuch, his wife and four children settled down in a ramshackle house near the tannery. If not for these unexpected residents, the house would never have seen a human face again. The roof over the right balcony had settled at such a crazy angle that it seemed ready to topple at any moment.

The children, the eldest of whom was seven, whimpered and whined all day long, and their whining sounded like kittens miaowing. Mukuch had long since become accustomed to this strange sound. It meant: "We're hungry! Give us some bread!"

That was why, each time the regime changed, the most pressing question, to Mukuch's mind, was the question of bread. He would ask various people throughout the day: "Is it true? They say that bread will be cheaper now.”

Who had said that? Where had it been said? Actually, no one had said anything. It was simply Mukuch's fervent hopes that had prompted him to spread the news.

When Mukuch was given the job of delivering bread to the factory during the first year of Soviet power the excitement made him talkative. One would think all the rationed bread was for him. There was not a person he did not stop to tell, "I'll be delivering bread to the workers now.”

With what ardour he set about the job! He raced back and forth from the food depot to the factory carrying a large sack of bread over his shoulder. The closeness of the bread and its heady aroma were so tantalising that he would press his face against the sack and breathe it in. He dreamed that one day they would hand him one of the large loaves and say, "Here, Mukuch, take it!"

However, when the rations were handed out and the sack was empty again his sweet dreams would vanish. Very little of the strictly rationed bread reached his stomach.

On the days when the bakery was late and Mukuch was forced to wait for hours on end for the bread at the food depot, his heart would falter. It seemed to him then that someone would come out and say, "There's no more bread. There's no use waiting."

But then he would say to himself that both the tannery workers and the management got their rations here. And, naturally, no one would ever dare to leave the management without bread. If everyone was poor like himself, there'd be no hope, but since the manager and other important people were on the factory staff, they simply couldn't stop rationing out bread to them.

Mukuch would come home several times during the day.

Each time both he and his wife were puzzled: his hungry stomach would lead him to believe that perhaps his wife had cooked up something from vegetables, while she, in turn, hoped that her husband had somehow managed to get them some bread.

Disappointment would loosen the tongue of his irritable wife, and she would begin her daily harangue, “So you've come home, have you? That's a nice how d'you do! He comes crashing in here empty-handed as if he didn't know he had a family!"

Her voice would rise higher and higher and then turn into a buzzing in his ears. Despite his being a patient man, he would shout: "There you go again! That's enough!" He would hurry out, with his wife's voice trailing curses at him all the way back to the factory.

3

The advent of Soviet power stirred and excited everyone. Some rejoiced, while others, who had lost their riches and social standing, cursed it.

The excitement of the first days of a new government, the inspired speeches and the people marching with red banners caught Mukuch up. He joined several marches and attended several meetings. He would stand in the last row, listening intently. At times he felt he understood everything that was being said, for they were speaking about the rights of poor people like him.

Several days passed. Then the lack of bread once again began to torment him. His thoughts became confused. The speeches he had heard seemed incomprehensible.

During the first days of the new government the old question surfaced again, and Mukuch never missed an opportunity to say, "Is it true? They say they're going to increase the bread ration.”

Who had said that? Whom had it been said to? It was a mystery, as before.

Mukuch considered all else that had nothing to do with bread, the talk and the speeches, idle chatter which those inhabitants whom he termed the "higher-ups" could enjoy as a diversion after a good meal.

To him "higher-ups" were people who wore city clothes and "could tell black from white". He bunched the Soviet office personnel with the above. Despite the fact that they received their bread and food rations and their salaries in his presence, Mukuch was certain that they all received extra rations someplace else.

"Poor people can go without eating, but the higher-ups aren't hardened to starving," Mukuch would say to himself.

From childhood on Mukuch had become accustomed to the ways of the world, and these old concepts were as firmly entrenched in his head as a wild nut is in its shell: no matter how hard you strike it, you'll never reach the kernel.

4

Yet how this world had changed! There was a lot that Mukuch saw for himself, and a lot that he heard about. Those who had been at the top were now at the bottom, while those now at the top had come from the bottom. However, Mukuch had his own opinion about everything.

"There's no question about it," he said to himself. "It's good to hear everyone calling each other 'comrade'." It was a word to his liking. But why then did everyone persist in calling him just plain old Mukuch? Anyone at all felt it quite proper to address him thus: "How are things, Mukuch?"

Naturally, he wasn't complaining, for everyone at the factory was good to him, but since that was the new way of things, he, too, should be called "comrade". Mukuch was offended.

Then again, why was the factory barber always trying to brush him off? Whenever he'd go to the barbershop for a haircut he'd hear the same thing: "Why don't you come by later on, Mukuch? I'll have more time after I see to all these people."

He had forgotten how many times he had stopped by, only to hear the same words. Finally, he became thoroughly disgusted and had stopped going there. His beard, which now resembled a broom, covered half his face.

Mukuch knew only too well that the barber didn't want to bother with him. But Mukuch wasn't blind. He knew that the thief of a barber was exchanging his old, worn razors for newly-issued ones. He was stealing the cloth issued to him for towels and smocks, and this at a time when everything was so dear. As if Mukuch didn't know that the slack mouthed thief had taken the job at the factory barbershop to make some quick money and then open a place of his own.

Though Mukuch knew all this, he said nothing, for he wasn't looking for trouble. But if he were given the chance to judge him, he knew what he'd do with that brazen thief who had insulted him so!

It was obvious that Mukuch would see none of the good things they were talking about if people like the barber got their fingers in the pie. Mukuch was a poor man, and he would remain so. Nothing had changed in the state of the world.

Actually, everything was changing except Mukuch.

5

Mukuch had the devil's own luck!

A new manager now took over. He was a short, skinny, bespectacled, stubborn man. Unlike the other managers, he always noticed Mukuch and reprimanded him for one thing or another every single day. He kept rushing about, peering in every nook and cranny. Mukuch couldn't understand what his policy was. He was so much at a loss that he didn't even know what to do to get in the man's good favour. After a solid month of this Mukuch became desperate. He thought that the manager had decided to fire him and was simply looking for an excuse.

However, the all-patient Mukuch would have weathered this trial as well, if not for the misfortune that befell him. One morning some leather was found to have been stolen from the shed. There is no need to describe the state Mukuch was in. The manager kept questioning him all through the day. Then he was taken to the militia, where he was questioned again. Each time the manager said, "You're the watchman. That means you're to blame.”

As if that were not enough, his wife got after him. "Who ever heard of an innocent man being insulted so and his family ruined! Isn't there anyone to defend us, to protect us from this misfortune! Can't they see it's all a put-up job, a dirty trick?"

"What are you shouting about?" Mukuch said, trying in his own, masculine way to console her. "Think about me. How do you think I feel?"

But his wife continued to bemoan their fate. She couldn't control herself, she wept, she called in the neighbours, and the children, seeing her thus, were terrified and wailed at the tops of their voices.

Twilight was falling. Mukuch's heart was also sunk in gloom.

He entered the damp, windowless shed built into the factory fence, sat down on a rock and stared at the ground.

"Well, this is the end of me," he thought. "They're sure to arrest me. They're not going to spare me. And who'll defend me? All right, say they do arrest me. But what will happen to the children? Who could have stolen the accursed leather? To tell the truth, the only one who could have done it was that scoundrel of a barber. I sure have luck! See what things have come to: a faithless man like him has the manager listening to his lies. I know it's him who pointed the finger at me and said I stole the goods."

Day was turning into night, and Mukuch's heart was becoming just as dark.

Suddenly he heard a voice beside him, saying: "Where are you, Mukuch?"

Mukuch rose and felt his way out of the shed.

It was Margar, one of the workers. "Where were you. Mukuch? I've been looking for you for an hour. Come on. Mukuch followed him in silence.

6

"Now they've thought up something else," Mukuch decided. As luck would have it, Margar sat him down in the front row. Margar obviously wanted to fix things so that everyone could see him and disgrace him.

How many people there were! And all of them were angry. If only he could have suddenly died or dropped through the ground instead of becoming the laughing-stock for all of them.

A large table with a red cloth on it was placed on the stage. There were six people sitting at the table. He knew all of them, but they looked like strangers now. If only someone were to say to them, "What has Mukuch ever done to you to make you look at him so hatefully?"

He was both frightened and ashamed. Mukuch felt he was in hell. It was a warm spring evening outside, but he was chilled to the bone.

The workers sitting next to him spoke to him, they tried to cheer him up, but he didn't hear their words. His thoughts were miles away.

This was it. It was the end of him. What could he do to protect himself from so many people, all of whom spoke with such ease and were so learned? Naturally, they were going to defend the manager. After all, he was a higher-up, not a simple man like Mukuch. Look at him sitting there, scowling from under his glasses.

And what could Mukuch say? For instance, "I'm a poor man, and how do I know who stole it? I don't know nothing. I swear by all that's holy that I don't know nothing about it." Mukuch's eyes came to rest on a large portrait of Lenin on the wall.

"They say he's a good man. If only he was here now and could help me, I wouldn't be in such a mess."

A bell tinkled, bringing the meeting to order. People were getting up to speak, but Mukuch didn't follow their words. He came to with a start when a worker named Saak began to speak. Saak had a loud voice and his words were easy to understand. How angry he was today. It seemed that he was breathing fire. Naturally, he was angry at Mukuch. How strange, though: Saak had just said, "Comrade Mukuch". If he was angry at him, why did he call him "Comrade Mukuch"? That was a term of respect.

Moreover, the manager was on pins and needles all during Saak's speech. He kept jumping to his feet, raising his hand to reply, and finally stalked out, red in the face, and muttering to himself before Saak was even through speaking.

Everyone watched him go. Sergo, a worker who sat next to Mukuch, whispered, "Did you see them scare the manager, Mukuch?"

Mukuch was too confused to reply.

Things were taking an unexpected turn. Now again someone had referred to him as "Comrade Mukuch". Yes, they were praising him. "Despite the hunger and cold, Mukuch is always on the job, like a soldier at his post. ... If the manager were a good man, he'd have at least asked Mukuch where he sleeps at night and how things are at home."

No, there could be no doubt about it. They were all helping him, they were defending him! The chains that bound his heart burst. He had been frozen when he had entered the building, but now he felt warm all over.

He looked about excitedly, listening to each new speaker with bated breath. Strangely, he understood all that was being said. He wanted to rise from his seat and pour forth everything that had pressed upon his heart.

All of a sudden Margar tugged at his sleeve.

"The next speaker is Comrade Mukuch," the chairman repeated.

"Tell them everything," Margar whispered.

Mukuch rose to his feet in confusion. He was silent for some moments, gathering up his courage, and then began softly, in a hoarse voice. Everyone was quiet. They were listening intently.

"Comrades, even though I'm a poor man, I'll never sell my honour. I don't know anything about this theft. All I can say is that I'm the victim. I want to ask you and your conscience to help me.”

He breathed heavily as he spoke. The chairman said another few words, then two more people spoke briefly and the meeting was adjourned.

The workers surrounded him.

"Don't worry, Comrade Mukuch, we won't let you down!" They were speaking to him, slapping him on the back, and each one was calling him "comrade"

Mukuch went out into the street. His emotions were in such a turmoil that he didn't know whether he was coming or going. He couldn't decide whether to rush right home or to stay on at the tannery. How many persons had stood up to defend him! And how had he never realised it would be so? It seemed as if a thousand voices were all speaking in unison, saying, "Comrade Mukuch".

Mukuch's heart was so full he even forgot his ever-present thoughts about bread. If he had to give up his life now, he would gladly do so.

7

Three years passed before I returned to my native city again.

One evening I attended a workers' meeting. As I listened to the speakers my eyes roamed over the tight rows, and I involuntarily compared all this with the recent past. What a change had been wrought!

After the third speaker had sat down I heard Chairman Saak's voice saying, "The next speaker is Comrade Mukuch.'

A clean-shaven worker with a neat haircut appeared on the stage. He stood there silently for a few moments, feeling

a bit awkward, and then began to speak in that emotional voice that is peculiar to workers in love with the Revolution. "Comrades, our enemies have had us surrounded for many years, and now they want to strangle us. They tried to strangle us through starvation, but nothing came of that. They tried to do it by force, and nothing came of that. It's about time our enemies realised that those times are over. We've begun to understand what things are about now. Our eyes have been opened. And now we're not afraid of anything." The hall was rocked by applause.

I thought I recognised the speaker's face. I was just about to ask the worker sitting next to me who it was when he said, "Do you know who that is? That's our Mukuch.' "No! Where are his historic shoes and shaggy beard?" Margar laughed. "He's cast his old-regime clothes away. We sent his shoes and bread-sack to a museum. And his beard, as you see, fell a victim to a razor blade. If not for his wife, he would have shaved off his moustache as well." "How did that case about the stolen leather end?"

"You don't imagine we'd have let anyone hurt our Mukuch, do you?"

I was more than astonished to see Mukuch, clean-shaven, wearing new shoes, new clothes and, most amazing of all, speaking from the podium! It was hard to believe I wasn't dreaming.

I walked home, lost in thought. I was recalling the past. I was thinking about what had happened to our famous Mukuch, a living monument, a fixture in my native city. And as I walked along, thinking of the past, Šaak's voice rang in my ears: "The next speaker is Comrade Mukuch."


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