महान लेखक लेव तोल्‍स्‍तोय के उपन्‍यास कज्‍़ज़ाक की पीडीएफ फाइल

 महान लेखक लेव तोल्‍स्‍तोय के उपन्‍यास कज्‍़ज़ाक की पीडीएफ फाइल

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ईमानदारी से जीने के लिए आदमी को कुछ करने को लालायित होनाछटपटाना चाहिएभटकना और गलतियां करनी चाहिएशुरू करना और छोड़ना चाहिएफिर से शुरू करना और फिर से छोड़ना चाहिए और निरंतर संघर्ष करना चाहिए। इत्मीनान और चैन तो मानसिक अधमता हैलेव तोलस्तोय (1828 - 1910) के ये शब्द उनके सृजन में हमारे लिए बहुत कुछ स्पष्ट करते हैं।

कज़्ज़ाक उपन्यास पर तोलस्तोय ने 1852 से 1862 तक काम किया। काकेशिया में बिताये वर्षों का उनका अनुभव इसमें प्रतिबिंबित हुआ है। इस उपन्यास में लेखक ने मानव जीवन के मूल्य के बारे में अपने विचार व्यक्त किये हैं, जन-जीवन का सौंदर्य और निश्छलता तथा कुलीन समाज का झूठ और पाखंड दिखाया है।


तोल्‍स्‍तोय एक पूरा जगत हैं। ... उन्होंने सचमुच एक विराट कार्य किया है : पूरी शताब्दी के जीवन का निचोड़ पेश किया है, आश्चर्यजनक सच्चाई के साथ यह जीवंत और अनुपम निचोड़ पेश किया है।”

- मक्सिम गोर्की

तोल्‍स्‍तोय की आरंभिक रचनाओं में 'कज़्ज़ाक' के स्थान की चर्चा करते हुए रोमां रोलां ने लिखा: तोल्‍स्‍तोय का सर्वश्रेष्ठ काव्यमय उपन्यास, उनके यौवन का गीत, काकेशियाई काव्य - 'कज़्ज़ाक ' - पर्वत श्रेणी में सबसे ऊंचे शिखर सरीखा इन सभी रचनाओं से ऊपर उठा हुआ है। चकाचौंध करते आकाश की पृष्ठभूमि में सगर्व सिर उठाये हिमाच्छादित पर्वतों का गरिमामय सौंदर्य सारी पुस्तक में व्याप्त है। यह रचना अद्वितीय है, क्योंकि इसमें पहली बार तोल्‍स्‍तोय की मेधा प्रकट हुई है।”

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प्रकाशकीय

रूसी साहित्य में प्रायः कज़्ज़ाकों का उल्लेख आता है। कौन हैं ये कज़्ज़ाक ?

कज़्ज़ाक का शाब्दिक अर्थ है - आज़ाद आदमी। रूसी भाषा में यह शब्द 14 वीं सदी से प्रचलित हुआ। उन दिनों नगरों और सीमावर्ती चौकियों में प्रहरियों का काम करने के लिए जो वैतनिक सिपाही रखे जाते थे, वे ही कज़्ज़ाक कहलाते थे। सीमावर्ती चौकियों में उन्हें अपने परिवार के लिए थोड़ी-थोड़ी ज़मीन भी दी जाने लगी। उधर 15वीं-16वीं सदियों में रूस में सामंतवादी शोषण बढ़ा और भूदास प्रथा का तीव्र विकास हुआ जिसके फलस्वरूप काफ़ी बड़ी संख्या में किसान और कारीगर रूस से भागने लगे और उसकी सीमाओं के पार दोन, द्नेप्र, याइक और उनकी सहायक नदियों के तटों पर खाली पड़ी ज़मीनों पर बसने लगे। ये लोग भी कज़्ज़ाक कहलाये। कालांतर में ये सैनिक समुदायों में गठित हुए। रूस के साथ अपने संपर्क इन्होंने बनाये रखे। 16वीं-17वीं सदियों में इन्होंने रूस के सीमावर्ती भागों में - दक्षिण में और साइबेरिया में नये स्थानों पर बसकर रूसी राज्य का विस्तार किया। जारशाही सरकार कज़्ज़ाकों को भांति- भांति के पुरस्कार और अनाज देकर अपनी सीमाओं की रक्षा के लिए इनका उपयोग करती थी। इसके लिए इन्हें नये सीमावर्ती स्थानों पर बसाती भी थी। इन दिनों कज़्ज़ाकों को प्रशासन न्यायपालन और दूसरे राज्यों के साथ संबंधों के मामले में स्वतंत्रता प्राप्त थी। कज़्ज़ाक समुदाय अपनी पंचायत में अपने मामलों का निबटारा करता था, अपने सरदार चुनता था। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में रूसी चर्च में कुछ सुधार किये गये, जिन्हें इस चर्च के अनुयायी कई संप्रदायों ने स्वीकार नहीं किया और वे पुरातनपंथी कहलाने लगे। कज्ज़ाकों ने भी ये सुधार नहीं माने। पुरातन-पंथी अधिकृत रूसी चर्च के अनुयायियों को "दुनियावी" अधर्मी कहते थे उनके साथ उठना-बैठना, खाना-पीना पाप समझते थे।

अठारहवीं सदी से रूस की केंद्रीय सरकार एक ओर कज़्ज़ाकों की स्वतंत्रता सीमित करने लगी, दूसरी ओर उन्हें ज़मीन, आदि के मामले में विशेषाधिकार देने लगी। कज़्ज़ाक सैनिक समुदाय सीमा के जिस भाग की रक्षा करता था, वहां की ज़मीन उसे सौंप दी जाती थी। इस ज़मीन का एक भाग कज़्ज़ाकों में बांट दिया जाता था। इस प्रकार उन्नीसवीं सदी के आरंभ तक कज्ज़ाकों की एक विशेषाधिकारसंपन्न सैनिक श्रेणी बन गयी। रूसी होते हुए भी कज़्ज़ाक आम रूसियों से भिन्न था। प्रायः सभी कज़्ज़ाकों के पास अपनी थोड़ी-बहुत ज़मीन होती थी, जबकि “ख़ास” रूस में सारे किसान भूदास होते थे। इसका अर्थ यह था कि वे अपने स्वामी ज़मींदार की संपत्ति होते थे, वह उन्हें बेच-ख़रीद तक सकता था। उन्नीसवीं सदी में भूदास प्रथा के अंतर्गत शोषण और उत्पीड़न अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया था। देश की बहुसंख्य आबादी भूदासता की बेड़ियों में छटपटा रही थी। कहना न होगा कि सचेतन संपन्न लोग भी जनता की इस पीड़ा से अछूते न रह सकते थे। ज़मींदारों और भूदासता के बंधनों से मुक्त, स्वतंत्र कज़्ज़ाकों का जीवन उनके हृदय पर गहरी छाप छोड़ता था। संक्षेप में यही तोल्‍स्‍तोय के उपन्यास 'कज़्ज़ाक' की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है।

अंत में इतना और बता दें कि इस उपन्यास में जिन कज़्ज़ाकों की चर्चा है उनके पूर्वज सोलहवीं शताब्दी में दोन से आकर उत्तरी काकेशिया में बसे थे। ज़ार प्योत्र महान के ज़माने में, अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में तेरेक नदी पर सीमा चौकियां बनायी गयीं और इन कज्ज़ाकों को यहां नदी के रूसी तट पर ज़मीनें देकर बसाया गया। यह ऐतिहासिक घटना कज्ज़ाकों की एक किंवदंती में प्रतिबिंबित हुई जिसका उल्लेख तोल्‍स्‍तोय ने किया है। लेकिन जैसा कि किंवदंतियों में प्रायः होता है, यहां भी इस घटना को अधिक पुराना दिखाने के लिए इसका संबंध सोलहवीं सदी के ज़ार इवान रौद्र से जोड़ दिया गया।

'कज़्ज़ाक उपन्यास तोल्‍स्‍तोय ने अपने निजी अनुभव के आधार पर लिखा। 1851 में बाईस वर्षीय तोल्‍स्‍तोय अपने बड़े भाई निकोलाई के साथ काकेशिया गये। यहां तेरेक नदी के बायें तट पर स्थित स्तारोग्लाद्कोव्स्काया नामक कज़्ज़ाक गांव में तोल्‍स्‍तोय लगभग तीन वर्ष तक रहे। काकेशिया में हुई सैनिक कार्रवाइयों में उन्होंने भाग लिया। तोल्‍स्‍तोय ने स्वयं यह लिखा कि वह अपना साहस परखने और यह देखने कि लड़ाई क्या होती है, काकेशिया आये हैं।

काकेशिया में ही वह लेखक बने। वैसे लेखन कार्य उन्होंने यहां आने से पहले मास्को में ही शुरू कर दिया था। यह उनका लघु-उपन्यास बचपनथा, जिसे उन्होंने काकेशिया में पूरा किया। सेंट पीटर्सबर्ग से छपनेवाली पत्रिका 'सोव्रेमेन्निक' ( समसामयिक ) के संपादक विलक्षण रूसी कवि निकोलाई नेक्रासोव को जब यह रचना प्रकाशनार्थ मिली तो वह इससे इतने प्रभावित हुए कि इसके लेखक का असली नाम जाने बिना ही उन्होंने इसे छाप दिया।

काकेशिया की भव्य प्रकृति और उसके साथ पूर्ण सामंजस्य में जीते सुंदर, स्वतंत्रताप्रिय लोग, जो भूदासता के अंकुश से अपरिचित थे, इन सब ने युवा तोल्‍स्‍तोय को मोहित कर लिया।

'कज्जाक' उपन्यास का नायक प्रोलेनिन बहुत हद तक आत्मचरित्रात्मक है। प्रोलेनिन कुलीन समाज की आलोचना और भर्त्सना ही नहीं करता, वह उससे नाता तोड़ने को भी तत्पर है, ताकि साधारण लोगों के समीप आ सके, उनका जीवन अपना सके।

लेकिन बांके कज़्ज़ाक लुकाश्का, गर्वीली सुंदरी मर्यान्का और दानिशमंद बढ़े शिकारी येरोका और उसके बीच अलंघनीय खाई है, जिसे पाटने के प्रोलेनिन के प्रयास निष्फल रहते हैं।

कज़्ज़ाकों का गांव प्रोलेनिन के लिए परदेस है और वह इस गांव के लिए परदेसी है। प्रसंगत:, इस अर्थ में उपन्यास का नायक उसके लेखक से भिन्न है। तोल्‍स्‍तोय ने कज़्ज़ाकों के साथ बड़े अच्छे संबंध स्थापित कर लिये थे।

उन दिनों के अपने एक पत्र में तोल्‍स्‍तोय ने लिखा कि काकेशिया में उन्होंने जीवन की शिक्षा पायी। सैनिक सेवा के लिए दूसरे स्थान पर जाते हुए उन्होंने अपनी डायरी में लिखा : "काकेशिया से मुझे गहरा अनुराग हो गया है।.. यह बीहड़ इलाक़ा सचमुच अनुपम है। यहां दो विपरीत बातों - युद्ध और स्वतंत्रता - का इतना विचित्र और काव्यमय संयोजन हुआ है।"

'कज्जाक' उपन्यास के साथ तोल्‍स्‍तोय के लेखन कार्य का पहला दशक पूरा हुआ। उनके सृजन में यह उपन्यास एक सीमा का महत्त्व रखता है : लेखक की खोजों का अत्यंत तनावपूर्ण काल पूरा हुआ और उन्होंने अपने सृजन के परिपक्व काल में पदार्पण किया, जिसके परिणाम थे उनके विश्वविख्यात उपन्यास 'युद्ध और शांति', 'आन्ना करेनिना', 'पुनरुत्थान'


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