हरिशंकर परसाई का निबंध - आवारा भीड़ के खतरे The Dangers of a Restless Mob / Harishankar Parsai
हरिशंकर परसाई का
निबंध - आवारा भीड़ के खतरे
एक अंतरंग गोष्ठी
सी हो रही थी युवा असंतोष पर। इलाहाबाद के लक्ष्मीकान्त वर्मा ने बताया-पिछली
दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर काँच के केस में सुंदर साड़ी से सजी एक सुंदर
मॉडल खड़ी थी। एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा। काँच टूट गया। आसपास
के लोगों ने पूछा कि तुमने ऐसा क्यों किया?
उसने तमतमाए चेहरे से
जवाब दिया-हरामजादी बहुत खूबसूरत है।
हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण
है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह
मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ये सवाल
दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं-पश्चिम से संपन्न देशों में भी और
तीसरी दुनियाँ के गरीब देशों में भी। अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम और हरे
कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित
रहता है कि चाहे चपरासी का नाम मिले,
अमेरिका में रहूँ।
‘स्टेट्स’ जाना यानि चौबीस घंटे गंगा नहाना है। ये अपवाद हैं। भीड़-की-भीड़ उन
युवकों की है जो हताश,
बेकार और क्रुद्ध हैं।
संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार के कारण भिन्न हैं।
सवाल है-उस युवक ने सुंदर
मॉडल पर पत्थर क्यों फेंका?
हरामजादी बहुत खूबसूरत
है-यह उस गुस्से का कारण क्यों?
वाह, कितनी सुंदर है-ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?
युवक साधारण कुरता पाजामा
पहिने था। चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त।
शिक्षित था। बेकार था। नौकरी के लिए भटकता रहा था। धंधा कोई नहीं। घर की हालत
खराब। घर में अपमान, बाहर अवहेलना। वह आत्म ग्लानि से क्षुब्ध।
घुटन और गुस्सा एक नकारात्क भावना। सबसे शिकायत। ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर
चिढ़ होती है। खिले फूल बुरे लगते हैं। किसी के अच्छे घर से घृणा होती है। सुंदर
कार पर थूकने का मन होता है। मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है। अच्छे कपड़े पहिने
खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है। जिस भी चीज से, खुशी, सुंदरता,
संपन्नता, सफलता,
प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है।
बूढ़े-सयाने स्कूल का
लड़का अब मिडिल स्कूल में होता है तभी से शिकायत होने लगती है। वे कहते हैं-ये
लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था। हम पिता, गुरु,
समाज के आदरणीयों की बात
सिर झुकाकर मानते थे। अब ये लड़के बहस करते हैं। किसी को नहीं मानते। मैं याद करता
हूँ कि जब मैं छात्र था,
तब मुझे पिता की बात गलत
तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था। गुरु का भी
प्रतिवाद नहीं करता था। समाज के नेताओं का भी नहीं। मगर तब हम छात्रों को जो
किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी? हमारे कस्बे में कुल दस-बारह अखबार आते थे। रेडियो
नहीं। स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था। सब नेता हमारे हीरो थे-स्थानीय भी और जवाहर
लाला नेहरू भी। हम पिता,
गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियाँ नहीं जानते थे। मुझे बाद
में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण
करते थे।
पर अब मेरा ग्यारह साल का
नाती पाँचवी कक्षा का छात्र है। वह सवेरे अखबार पढ़ता है, टेलीवीजन देखता है, रेडियो
सुनता है। वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है। देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की
आलोचना करता है। घर में उससे कुछ ऐसा करने को कहो तो वह प्रतिरोध करता है। मेरी
बात भी तो सुनो। दिन भर पढ़कर आया हूँ। अब फिर कहते ही कि पढ़ने बैठ जाऊँ।
थोड़ी देर खेलूँगा
तो पढ़ाई भी नहीं होगी। हमारी पुस्तक में लिखा है। वह जानता है घर में बड़े कब-कब
झूठ बोलते हैं।
ऊँची पढ़ाईवाले
विश्वविद्यालय के छात्र सवेरे अखबार पढ़ते हैं, तो
तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता
के किस्से पढ़ते हैं। अखबार देश को चलानेवालों और समाज के नियामकों के छल, कपट,
प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं। धर्माचार्यों की
चरित्र हीनता उजागर होती है। यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते
हैं-युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि
हमने नाश कर दिया है) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं)
शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है,
नैतिक चरित्र को ग्रहण
करना है-(हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर
छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे?
छात्र अपने प्रोफेसरों के
बारे सब जानते हैं। उनका ऊँचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं। उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टाँग खींचना, नीच
कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात,
छात्रों का गुटबंदी में
उपयोग। छात्रों से कुछ नहीं छिपा रहता अब। वे घरेलू मामले जानते हैं। ऐसे गुरुओं
पर छात्र कैसे आस्था जमाएँ। ये गुरु कहते हैं छात्रों को क्रांति करना है। वे
क्रांति करने लगे, तो पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे। अधिकतर
छात्र अपने गुरु से नफरत करते हैं।
बड़े लड़के अपने पिता को
भी जानते हैं। वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो सात हजार है, पर घर का ठाठ आठ हजार रुपयों का है। मेरा बाप घूस खाता
है। मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है। हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और
जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं,
कि वे सब क्षेत्रों में
अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं। इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों तक से
पहले की तरह की अंध भक्ति और अंध आज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती। हमारे यहाँ
ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था-
प्राप्तेषु षोडसे वर्षे
पुत्र मित्र समाचरेत।
उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है। कल परसों मेरा बारह साल का
नाती बाहर खेल रहा था। उसकी परीक्षा हो चुकी है और एक लंबी छुट्टी है। उससे घर आने
के लिए उसके चाचा ने दो-तीन बार कहा। डाँटा। वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया हम
क्या करें? ऐसी तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी।
छुट्टी काटना उसकी समस्या है। वह कुछ तो करेगा ही। दबाओगे तो विद्रोह कर देगा। जब
बच्चे का यह हाल है तो किशोरों और तरुणों की प्रतिक्रियाएँ क्या होंगी।
युवक-युवतियों के सामने
आस्था का संकट है। सब बड़े उनके सामने नंगे हैं। आदर्शों, सिद्धांतों,
नैतिकताओं की धज्जियाँ
उड़ते वे देखते हैं। वे धूर्तता,
अनैतिकता, बेईमानी,
नीचता को अपने सामने सफल
एवं सार्थक होते देखते हैं। मूल्यों का संकट भी उनके सामने है। सब तरफ मूल्यहीनता
उन्हें दिखती है। बाजार से लेकर धर्मस्थल तक। वे किस पर आस्था जमाएँ और किस के पद
चिन्हों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?
यूरोप में दूसरे महायुद्ध
के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे ‘लास्ट जनरेशन’ (खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है।
युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा
चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं। युद्ध में सब बड़े लगे हैं, तो बच्चों की परवाह करने वाले नहीं। बच्चों के बाप और
बड़े भाई युद्ध में मारे गए। घर का,
संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ। जीवन मूल्यों का नाश हुआ। ऐसे में
बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन
कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीज जो पीढ़ी बनकर जवान हुई, तो खोई हुई पीढ़ी इसके पास निराशा, अंधकार,
असुरक्षा, अभाव,
मूल्यहीनता के सिवाय कुछ
नहीं था। विश्वास टूट गए थे। यह पीढ़ी निराश,
विध्वंसवादी, अराजक,
उपद्रवी, नकारवादी हुई। अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध
पीढ़ी पर नाटक लिखा था जो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी। नाटक का नाम ‘लुक
बैक इन एंगर’। मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से
व्यवस्थित और संपन्न होने पर भी चलता रहा। कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए। ‘वीट
जनरेशन’ हुई। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है। ब्रिटेन में
अठारह प्रतिशत बेकारी है। अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा। मगर व्यवस्था से असंतोष
वहाँ पैदा हो हुआ। अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है। वहाँ एक ओर बेकारी
से पीड़ित युवक है, तो दूसरी ओर अतिशय संपन्नता से पीड़ित युवक
भी। जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों,
युवतियों का असंतोष, विद्रोह,
नशेबाजी, यौन स्वच्छंदता और विध्वंसवादिता में प्रगट हुआ। जहाँ
तक नशीली वस्तुओं के सेवन के सवाल है,
यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है। दिल्ली विश्वविद्यालय के
पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले सत्तावन फीसदी छात्र और पैंतीस फीसदी छात्र नशे
के आदी बन गए। दिल्ली तो महानगर है। छोटे शहरों में, कस्बों
में नशे आ गए हैं। किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर जगह मिल जाता है। ‘स्मैक’ और
‘पॉट’ टॉफी की तरह उपलब्ध हैं।
छात्रों-युवकों को
क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं। सही
मानते हैं। अगर छात्रों युवकों में विचार हो,
दिशा हो संगठन हो और
साकारात्मक उत्साह हो। वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराईयों को समझें तो उन्हीं
बुराईयों के उत्तराधिकारी न बने,
उनमें अपनी ओर से दूसरी
बुराईयाँ मिलाकर पतन की परंपरा को आगे न बढ़ाएँ। सिर्फ आक्रोश तो आत्म क्षय करता
है। एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं,
जो सदी के छठवें दशक में
बहुत लोकप्रिय हो गए थे। वे ‘स्टूडेंट पावर’ में विश्वास करते थे। मानते हैं कि
छात्र क्रांति कर सकते हैं। वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर
सकते। उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ
लाना होगा। लक्ष्य निर्धारित करना होगा। आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो। अमेरिका
में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए। हो ची मिन्ह और चे
गुएवारा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी ,भौंड़ी,
अश्लील हरकतें करना।
अमेरिकी विश्विद्यालय की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी। फ्रांस
के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे। राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन
विश्वविद्यायल में आंदोलन किया। लेखक ज्यां पाल सार्त्र ने उनका समर्थन किया। उनका
नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था। उनके लिए राजनैतिक क्रांति करना संभव
नहीं था। फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया। पर उनकी माँगें ठोस थी
जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन। अपने यहाँ जैसी नकल करने की छूट की
क्रांतिकारी मांग उनकी नहीं थी। पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने
क्रांति की धूम मचाई। फिर वह लंदन चला गया।
युवकों का यह तर्क सही
नहीं है कि जब सभी पतित हैं,
तो हम क्यों नहीं हों। सब
दलदल में फँसे हैं, तो जो नए लोग हैं, उन्हें उन लोगों को वहाँ से निकालना चाहिए। यह नहीं कि
वे भी उसी दलदल में फँस जाएँ। दुनिया में जो क्रांतियाँ हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है। मगर जो पीढ़ी ऊपर
की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है तो वह
पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। ऐसे युवक हैं, जो
क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं,
पर दहेज भरपूर ले लेते
हैं। कारण बताते हैं-मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूँ। पर पिताजी के सामने झुकना
पड़ा। यदि युवकों के पास दिशा हो,
संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वह परिवर्तन ला सकते हैं।
पर मैं देख रहा हूं एक नई
पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूसी हो गई है। यह शायद हताशा से
उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है। अपने पिता से तत्ववादी, बुनियाद परस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है।
दिशाहीन, बेकार,
हताश, नकारवादी,
विध्वंसवादी बेकार युवकों
की यह भीड़ खतरनाक होती है। इसका प्रयोग महत्वाकांक्षी खतरनाक विचारधारावाले
व्यक्ति और समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक
उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो
उनमें उन्माद और तनाव पैदा कर दे। फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं।
यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है। हमारे देश में यह भीड़ ब़ढ़ रही है। इसका
उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के
विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।
जून 1991
The Dangers of a Restless Mob
Harishankar Parsai
Within
our group of four or five writers, we were talking about the growing
disillusionment of youth. Lakshmikant Verma, who is from Allahabad, narrated an
incident that took place last Diwali. A sari shop had placed a beautiful
mannequin in its window. All of a sudden, a youth picked up a stone and hurled
it at the model. The glass shattered. When bystanders asked him why he did what
he did, his face flushed with anger and he snapped back – “she is too damn
beautiful”.
We
debated the reason behind the young man’s action. What does it mean? What kind
of a mentality does it highlight? How and why did this mentality come into
being? In the latter half of the 20th century, this question is being
raised all over the world, from the developed nations of the west to the poor
nations of the third world.
From
America, vagabond hippies as well as youths make their way to India, the latter
chanting ‘hare Rama hare Krishna’ to show their disillusionment with their
system. India’s youth nurses a perennial thirst to live in America, even if it
means taking up menial jobs there. Going to the USA is like bathing in the
Ganga all 24 hours – so goes the script.
But this
scenario is an exception. The crowds that mill are of youngsters who are
dejected, jobless and angry. There’s a world of a difference between the youth
of the prosperous west and India.
The
question remains – why did the youth throw the stone at the face of the
beautiful mannequin, saying, “she is too damn beautiful”. Why should the
mannequin’s beauty be a cause for anger? Why doesn’t a response such as “Wow!
How beautiful” escape the lips of such youths?
The young
man in question was wearing an ordinary kurta pyjama. Listlessness was
writ large on his face. The only time his face had lit up momentarily, like a
spark from a dying ember, was when he hurled the stone. Educated and jobless,
he was thrashing around in search of a job. He had absolutely nothing to occupy
him.
The young
man’s family was going through hard times. Facing insults at home and
indifference outside, he was full of angst, suffocating anger and negativity –
nursing a grievance against the whole world.
In such a
frame of mind, the mere sight of beauty is a sore irritant. Flowers in bloom
seem obnoxious. Someone’s beautiful house becomes an object of hatred. A
stylish car makes you want to spit on it. Hearing a melodious song is to suffer
distress. One feels alienated from friends who are well-turned out and
well-to-do. Anything that carries an echo of happiness, beauty, prosperity,
success or prestige triggers rage.
The
complaints start from the time when the son of mature, aged parents reaches
middle school. They ask in bewilderment, “What have these boys become? It
wasn’t so in our time. We used to bow before the wishes of our fathers, guru and
venerable members of society. Now all these boys do is argue, engage in
contestation. They don’t care two hoots for anybody.”
I recall
instances when I thought my father was wrong, but I never argued with him. I
did not argue with my gurus or the upholders of society either. We were
adolescents then, we didn’t know any better.
Our town
used to get 10-12 newspapers. There was no radio, though. It was the time of
the freedom struggle. We hero-worshipped all our political leaders – the local
ones as well as Jawaharlal Nehru.
We had no
idea about the weaknesses of our fathers, gurus and leaders of society. I came
to know much later that my father used to exploit the Gond labourers who worked
in the coal mines.
But now,
my grandson, who studies in the fifth standard, reads the morning papers,
watches television and listens to the radio. He is aware of the skeletons
rattling in every politician’s closet.
He
critiques Devi Lal and Chautala and argues in the same tone if you tell him to
do something at home: “You must hear me out. Having spent the entire day
studying I have just returned (from school) and you want me to bury my nose in
textbooks again. If I don’t play for a while, I won’t be able to study either.
That is what out textbook says.” He knows exactly when the elders of the house
resort to lies.
When
university students pursuing higher studies scan the morning papers, they
devour every story of corruption and degeneration there is to read about
leaders in politics and society. The newspapers are bursting with stories about
the hypocrisy, skullduggery and depravity of people who run the country and are
pillars of the society.
The lack
of character that afflicts these so-called upholders of morality and duty is
highlighted in other ways as well. In every speech, every sermon they deliver
to the students, these leaders pontificate: ‘It is your task to build this
nation (because we have destroyed it); it is you who must be morally upright
(because we are depraved); the end goal of education is not to make money but
to develop an ethical character (because we learnt how to be unethical and make
money out of education and ignorance). How can students be expected to believe
in them, look up to them?
Students
know everything about their professors – the fact that they take home high
salaries without teaching, indulge in factionalism, pull one another down, act
mean, fail students out of spite, play favourites and make use of students in
their factional spats.
Nothing
remains hidden from students these days. They even know how teachers conduct
their private lives. In such a situation how can students have firm belief in
them? The gurus drone on that the students must engage in revolution. If they
do that, their first move will be to do away with their teachers. A majority of
students despise their teachers.
The older
ones know their parents well too. They can see that the father’s salary is all
of Rs 3000, but the comforts in the house bespeaks an income closer to Rs 8000.
The son thinks, my father takes bribes but teaches me lessons in honesty.
Our young
boys and girls have access to so many avenues of information and knowledge that
they know the truth about their elders in every walk of life. Hence, to expect
unquestioning obedience not just from the youth but even from children would be
unrealistic. There’s an old Sanskrit saying that when your child turns 16, stop
being their parents and start being their friends.
At most,
one can talk to them, reason with them. A couple of days ago, my 12-year-old
grandson was playing outside. His exams are over and the long vacation has
started. His uncle called out to him a couple of times to return home, giving
the boy an earful.
The boy
came home. Sobbing angrily he shouted, ‘What are we to do? Blast the government
for giving such long vacations ’. How to spend the vacation poses a genuine
problem for the boy; he is bound to do something after all. Come down on him
heavily and he will rebel. If this is how a child responds, imagine how youths
would react?
What
young men and women are facing is a crisis of faith. Their elders stand
thoroughly exposed before them. They see ideals, principles and ethics being
thrown to the wind. They see deceit, unethical conduct, dishonesty and base
behaviour succeeding, being profitable.
The young
are also facing a crisis of values. They see a lack of values everywhere, from
the marketplace to sacred sites. Whom should they believe in? In whose
footsteps should they follow? Which values should they invoke?
The
generation that was born during World War II was called the lost
generation. There was scarcity and hunger, lack of proper education and
healthcare systems. When adults are consumed by war, there’s nobody to look
after the children.
The
fathers and elder brothers of these children died in the war. Homes, properties
and jobs were destroyed, so were values of life. In such circumstances, the
children who grew up without proper education, refinement, nutrition, clothing
and values became youths of the lost generation. Other than despair, darkness,
insecurity, dearth and lack of values, they had nothing to hold on to. Their
beliefs lay in tatters. The lost generation was disillusioned, destructive,
anarchic, disaffected and nihilistic.
George
Osborne wrote a play on the angry generation which was much read and also made
into a film. The play was titled Look back in anger. This state of
affairs continued even as Europe regained order and prosperity. A section of
youths dropped out of society. The beat generation was born.
Industrialised
Europe continues to face high unemployment; in Britain alone, unemployment has
touched 18%. The United States of America may not have suffered World War
II (in the manner of other Allies) but it too could not remain untouched
by youth disillusionment with the system.
The USA
has an unemployment rate of about 20%. On one hand are youngsters affected by
unemployment, and on the other hand are youths affected by problems of plenty
or excessive prosperity. In the US, as in Europe, the discontentment of young
men and women expressed itself through rebellion, drug use, free sex and
destructiveness.
Drug
consumption in the West is a known fact, but it is widespread in India too.
According to a Delhi University survey conducted two years ago, in 1989, 57%
male students and 35% female students were used to taking drugs.
Fine,
Delhi is a metro. But drugs have reached small cities and towns as well. In
several places, paan shops are well stacked with all kinds of drugs.
Smack and ‘pot’ are as easily available as toffee.
Students
and youth are considered the force of revolution and social transformation and
for good reason. If they have the strength of ideas, a sense of direction,
organisation and positive energy, and they are able to comprehend the ills of
the older generation, then they would neither inherit the weaknesses of their
elders nor add some of their own to take the tradition of degeneration forward.
Mere angst is self-destructive.
The ideas
of noted thinker Herbert Marcuse were hugely popular and influential in the
1960s. He had great faith in the idea of ‘student power’. He was of the firm
belief that students can bring about a revolution. The truth, however, is that
by themselves, students cannot bring about a revolution. They need to educate
other sections of society, conscientise them, include them in the struggle, set
a purpose and a goal.
Most
importantly, what needs to be changed has to be decided first and foremost. In
the US, students influenced by Marcuse engaged more in dramatics – taking out
marches armed with huge posters of Ho Chinh Minh and Che Guevara, and indulging
in acts perceived as indecent, unrefined and uncouth, in order to be
provocative.
The
education of French university students inclined them towards a more serious
and thoughtful response. They started a movement in Sorbonne University during
the time of President Charles de Gaulle. Writer, philosopher and political
activist, Jean-Paul Sartre supported them. Student leader Daniel Cohn Bendit
was a serious intellectual.
To bring
about a political revolution was not possible for the students; they were not
supported by workers’ organisations. But the demands they put forth, such as
for a fundamental change in the education system, were sound, unlike our
students’ revolutionary demand that copying be allowed. In Pakistan too, a
young student leader, Tariq Ali, created an uproar by raising the cry of
revolution. Then he went to London.
The
reasoning employed by youth that ‘when everybody else is degraded, why not us
too’, is fallacious. If people are mired in quicksand, then those from the new
generation should be to trying to pull them out of it, not get caught in the
quicksand themselves.
In all
the revolutions and social transformations that have taken place in the world,
the youth have played a big role. However, a generation that is content to
adopt or embrace the degradation of their elders, because it is convenient and
offers pleasurable comforts will never be able to bring about any change.
Then
there are youths who stage plays with a revolutionary message ad nauseum but
take humungous dowries without fail. They are ready with a reason too – “I
couldn’t care less about dowry but what to do, I had to bow before my father’s
wishes.” If youngsters have a sense of direction, ideology and resolve, as well
as the ability for organised struggle, then they can surely bring about change.
What I am
seeing is something else – a new generation that is even more inert and
conservative than the older generation. Maybe it has something to do with
fatalism born of frustration that the son has turned out to be more of an
essentialist and fundamentalist than his father.
A crowd
made up of aimless, frustrated, nihilistic, destructive and jobless youths is
dangerous. They can be mobilised by people or groups sworn to dangerous
ideologies. Napoleon, Hitler, Mussolini – they all made use of this crowd.
This
crowd starts following religious fanatics. It is prone to becoming part of any
organisation that whips up fundamentalism and discord. Then this crowd can be
made to indulge in all kinds of destructive acts.
This
crowd can easily become the weapon of fascists. It is this very crowd which is
on the rise in our country. It is being readied as well. In the times ahead,
this crowd could be marshalled to crush and destroy all national, humane and
democratic values.
Translated
from the Hindi original by Chitra
Padmanabhan.
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