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Showing posts from August, 2024

कविता - मरने के सपने / कात्‍यायनी

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कविता -  मरने के सपने कात्‍यायनी आज दोपहर एक अजीब सपना देखा जैसा पहले कभी नहीं देखा। देखा कि मरी पड़ी हूँ बिस्तर पर और आसपास बैठे लोग चाय पीते चेहरों पर मातम और सरोकार लिए हुए अंतिम संस्कार की तैयारियों पर गुफ़्तगू में मशग़ूल हैं। जाहिर है कि कोई भी धार्मिक रवायत का हामी नहीं था वहाँ। ज़ेरेबहस मसअला यह था कि किसी मेडिकल कॉलेज को दे दिया जाये पार्थिव शरीर या विद्युतशवदाहगृह ले जाया जाये। ताज्जुब की बात यह थी कि मैं भी शामिल थी इस बहस में जो दूर पहाड़ों में कहीं किसी बर्फ़ानी दरिया के पास दफ़ना दिया जाना चाहती थी तक़ल्लुफ़-बरतरफ़, बिना किसी शोरगुल के। और शोकसभा जैसी कोई रस्मी चीज़ तो क़तई नहीं। लेकिन सपने में भी जो सवाल मेरे दिलो-दिमाग़ को लगातार मथ रहा था वह यह कि जब मैं मर चुकी हूँ तो फिर भला कैसे इस बातचीत में शामिल हूँ! सपने का यह अंतरविरोध अजीबोग़रीब था। सपने में मुझे अपने मरने का पता था और इस बात पर बेहद हैरानी भी थी कि मरकर भी मैं ख़ुद ही अपने अंतिम संस्कार के इन्तज़ामात की बातों और बहसों में भला कैसे शामिल हूँ! फिर सपने में ही मैं यह सोचकर मन ही मन हँस भी रही थी कि मरने के बाद जब

भारत के बहुलांश बौद्धिकों की नीचतापूर्ण कायरता

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भारत के बहुलांश बौद्धिकों की नीचतापूर्ण कायरता कविता कृष्‍णपल्‍लवी ये प्रोफेसर टाइप बौद्धिक जंतु अक्सर ऐसे क्यों होते हैं ? सोचा है कभी ? भारत के उच्च शिक्षा संस्थान मूलतः और मुख्यतः अकादमीशियनों (इनमें साहित्य , समाज विज्ञान और प्रकृति विज्ञान -- तीनों क्षेत्रों के लोग शामिल हैं) को समाज-विमुख , कूपमंडूक , ऐंठी गर्दनों वाले घमण्डी , नौकरशाह प्रवृत्ति वाला , ग़ैर-जनवादी , कायर , सुविधाभोगी , क्रूर और निर्लज्ज कैरियरवादी और सत्ताधर्मी बनाते हैं। अगर कोई ऐसा नहीं है तो एक विरल अपवाद है। इसमें व्यक्तिगत रूप से किसी का दोष नहीं है। शिक्षा तंत्र संस्कृति और संचार के तंत्र के अतिरिक्त , आज्ञाकारी नागरिक पैदा करने वाला सबसे महत्वपूर्ण ' आइडियोलॉजिकल स्टेट ऑपरेटस ' है। छात्र के रूप में ऐसा आज्ञाकारी , अनुशासित नागरिक पैदा करने वाले शिक्षक इसकी रीढ़ हैं। इनपर निगाह रखने और स्वयं इनके बीच के बेकाबू तत्वों पर चौकसी और नियंत्रण बरतने के लिए शिक्षा क्षेत्र की बेहद घाघ और दूरदर्शी किस्म की नौकरशाही होती है। चूँकि यहाँ मामला ज्ञान-विज्ञान और युवाओं और बौद्धिकों का होता है , इसलिए

कहानी - हिरनौटा / मीत्री मामिन-सिबिर्याक

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कहानी - हिरनौटा मीत्री मामिन-सिबिर्याक 1884 में लिखी गई कहानी ' हिरनौटा ' के लेखक मीत्री मामिन-सिबिर्याक का जन्म उराल में हुआ और यहीं उन्होंने जीवन के अधिकांश वर्ष बिताए। उराल पहाड़ों और जंगलों का इलाक़ा है , जहां 18 वीं सदी के आरम्भ में ज़ार प्योत्र प्रथम के ज़माने में रूसी सौदागरों ने लोहे के कारखाने बनाये थे। लेखक ने अपने संस्मरणों में लिखा था : “ अभी तक मेरी आंखों के आगे लकड़ी का वह पुराना घर है , जिसकी पांच खिड़कियां चौक पर खुलती थीं। उसकी खूबी यह थी कि एक ओर उसकी खिड़कियां यूरोप में खुलती थीं और दूसरी ओर – एशिया में। मेरे पिता मुझे दूर की पहाड़ियां दिखाते हुए बताया करते थे : ' वह देखो , वे पहाड़ एशिया में हैं , हम यूरोप और एशिया की सीमा रेखा पर रहते हैं... ’” लेखक के पिता एक कारखाने के पादरी थे और कोई खास अमीर आदमी नहीं थे , लेकिन उन्हें किताबों का बड़ा शौक़ था। वह अपनी आमदनी का बड़ा भाग किताबें खरीदने पर खर्च करते थे। बेटे को पिता से यह साहित्य-प्रेम विरासत में मिला। मामिन- सिबिर्याक उराल के सौदागरों , कारखानेदारों और आम लोगों के बारे में उपन्यास लिखते थे। उन द