कविता - मरने के सपने / कात्यायनी
कविता - मरने के सपने कात्यायनी आज दोपहर एक अजीब सपना देखा जैसा पहले कभी नहीं देखा। देखा कि मरी पड़ी हूँ बिस्तर पर और आसपास बैठे लोग चाय पीते चेहरों पर मातम और सरोकार लिए हुए अंतिम संस्कार की तैयारियों पर गुफ़्तगू में मशग़ूल हैं। जाहिर है कि कोई भी धार्मिक रवायत का हामी नहीं था वहाँ। ज़ेरेबहस मसअला यह था कि किसी मेडिकल कॉलेज को दे दिया जाये पार्थिव शरीर या विद्युतशवदाहगृह ले जाया जाये। ताज्जुब की बात यह थी कि मैं भी शामिल थी इस बहस में जो दूर पहाड़ों में कहीं किसी बर्फ़ानी दरिया के पास दफ़ना दिया जाना चाहती थी तक़ल्लुफ़-बरतरफ़, बिना किसी शोरगुल के। और शोकसभा जैसी कोई रस्मी चीज़ तो क़तई नहीं। लेकिन सपने में भी जो सवाल मेरे दिलो-दिमाग़ को लगातार मथ रहा था वह यह कि जब मैं मर चुकी हूँ तो फिर भला कैसे इस बातचीत में शामिल हूँ! सपने का यह अंतरविरोध अजीबोग़रीब था। सपने में मुझे अपने मरने का पता था और इस बात पर बेहद हैरानी भी थी कि मरकर भी मैं ख़ुद ही अपने अंतिम संस्कार के इन्तज़ामात की बातों और बहसों में भला कैसे शामिल हूँ! फिर सपने में ही मैं यह सोचकर मन ही मन हँस भी रही थी कि मरने के बा...