धर्म के बारे में महान लोगों के विचार / भगतसिंह, राहुल सांकृत्यायन, मार्क्स, लेनिन, वैज्ञानिक मेघनाद साहा आदि
धर्म के बारे में महान लोगों के विचार / भगतसिंह, राहुल सांकृत्यायन, मार्क्स, लेनिन, वैज्ञानिक मेघनाद साहा आदि
राहुल सांकृत्यायन
हमारे सामने जो मार्ग है, उसका कितना ही भाग बीत चुका है, कुछ हमारे सामने है और अधिक आगे आने वाला है।
बीते हुए से हम सहायता लेते हैं, आत्मविश्वास
प्राप्त करते हैं, लेकिन बीते की ओर लौटना –यह प्रगति
नहीं, प्रतिगति – पीछे लौटना – होगी। हम
लौट तो सकते नहीं, क्योंकि अतीत को वर्तमान बनाना
प्रकृति ने हमारे हाथ में नहीं दे रखा है। फिर जो कुछ आज इस क्षण हमारे सामने
कर्मपथ है, यदि केवल उस पर ही डटे रहना हम चाहते
हैं तो यह प्रतिगति नहीं है, यह ठीक
है, किन्तु यह प्रगति भी नहीं हो सकती यह
होगी सहगति – लग्गू–भग्गू होकर चलना – जो कि जीवन का चिह्न नहीं है। लहरों के
थपेड़ों के साथ बहने वाला सूखा काष्ठ जीवन वाला नहीं कहा जा सकता। मनुष्य होने से,
चेतनावान समाज होने से, हमारा कर्तव्य है कि हम सूखे काष्ठ की तरह बहने का ख्याल छोड़ दें और
अपने अतीत और वर्तमान को देखते हुए भविष्य के रास्ते को साफ करें जिससे हमारी आगे
आने वाली सन्तानों का रास्ता ज्यादा सुगम रहे और हम उनके शाप नहीं, आशीर्वाद के भागी हों।
महान वैज्ञानिक डॉ. मेघनाद साहा (विज्ञान और धर्म)
धार्मिक दृष्टिकोण के आधार पर विश्व
के किसी भी भाग में आन्दोलन हो सकता है। किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि इससे
कोई बहुमुखी विकास होगा। जीवन हम सबको प्रिय है और हम सब जीवन की पहेलियों को
अनावृत्त करने के लिए उत्सुक हैं। प्राचीन काल में विज्ञान की सीमाबद्धताओं के
फलस्वरूप एक कल्पित ईश्वर के चरणों में दया की भीख माँगने के सिवा हमारे पास कोई
दूसरा रास्ता नहीं था, जिसे प्रकृति के रहस्यमय नियमों का
नियन्ता माना गया। प्राक् वैज्ञानिक युग के मानव ने अपने को अत्यन्त असहाय महसूस
किया और धर्म का आविर्भाव शायद इसी मानसिकता से हो सका। प्रकृति-सम्बन्धी विचार
प्राचीन धर्मों में शायद ही सुपरिभाषित है। इसके अतिरिक्त इनकी प्रकृति आत्मनिष्ठ
है, अतः ये आधुनिक युग की माँगों को पूरा
नहीं कर सकते।
कार्ल मार्क्स (हेगेल
के विधि के दर्शन की आलोचना में योगदान)
धार्मिक व्यथा वास्तविक व्यथा की अभिव्यक्ति है और इसके साथ ही साथ,
वास्तविक व्यथा का प्रतिवाद भी है।
धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है, एक
हृदयहीन विश्व का हृदय है, ठीक
उसीतरह, जिसतरह कि यह आत्माविहीन स्थितियों
की आत्मा है। यह जनता की अफ़ीम है।
जनता के आभासी (या भ्रामक -अनु.) सुख के रूप में धर्म के उन्मूलन का मतलब है उसके वास्तविक सुख की माँग करना। मौजूद जीवन-स्थिति के बारे में विभ्रमों को
तिलांजलि देने की माँग करने का मतलब है उस जीवन-स्थिति को तिलांजलि देने की माँग करना जिसे विभ्रमों की आवश्यकता
होती है। इसलिए धर्म की आलोचना भ्रूण
रूप में आँसुओं की घाटी की आलोचना है, धर्म
जिसका प्रभामण्डल है।
भगतसिंह (धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम; मई, 1928)
बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतन्त्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतन्त्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमाग़ी ग़ुलामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि – ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है – बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो भी हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने से इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की क़सम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिए, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत ख़ूब! छूत-अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा ही। गुरुद्वारे जाकर जो सिख ‘राज करेगा खालसा’ गायें और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?
जब तक लोग अपनी स्वतन्त्रता का
इस्तेमाल करने की ज़हमत नहीं उठाते, तब तक
तानाशाहों का राज चलता रहेगा, क्योंकि
तानाशाह सक्रिय और जोशीले होते है, और वे
नींद में डूबे हुए लोगों को ज़ंजीरों में जकड़ने के लिए, ईश्वर, धर्म या किसी भी दूसरी चीज़ का सहारा
लेने में नहीं हिचकेंगे।
जब भी नैतिकता धर्मशास्त्र पर आधारित
होगी, जब भी अधिकार किसी दैवी सत्ता पर
निर्भर होंगे, तो सबसे अनैतिक, अन्यायपूर्ण, कुख्यात चीज़ें सही ठहरायी जा सकती हैं और स्थापित की जा सकती हैं।
फ्रांसिस्को द गोया (प्रख्यात स्पेनी चित्रकार, 1746-1828)
जब विवेक सो जाता है, तब राक्षस पैदा होते हैं।
बैरन द’होल्बाख (प्रबोधनकालीन फ्रांसीसी दार्शनिक)
अगर हम मानव इतिहास के आरम्भ में
जायें तो हम पायेंगे कि अज्ञान और भय ने देवताओं को जन्म दिया; कि कल्पना, उत्साह या छल ने उन्हें महिमामण्डित या लांछित किया; कि कमजोरी उनकी पूजा करती है; कि अन्धविश्वास उन्हें संरक्षित रखता है, और प्रथाएँ, आस्था और निरंकुशता उनका समर्थन करती हैं ताकि मनुष्य के अन्धेपन का
लाभ अपने हितों की पूर्ति के लिए उठाया जा सके।
भगतसिंह (साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज जून, 1928)
हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत
अन्धकारमय नज़र आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और
अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार
की नज़रों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के
बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो
अपना दिमाग़ ठण्डा रखता है, बाक़ी
सब के सब धर्म के ये नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रोब को कायम रखने के लिए
डण्डे-लाठियाँ, तलवारें, छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सिर फोड़-फोड़कर मर जाते हैं।
बाकी बचे कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं।
व्ला.इ. लेनिन (धर्म के बारे में मजदूरों की पार्टी
का रुख)
…“मार्क्सवाद भौतिकवाद है। इस कारण यह
धर्म का उतना ही निर्मम शत्रु है जितना कि अठारहवीं सदी के विश्वकोषवादी पण्डितों
का भौतिकवाद या फ़ायरबाख का भौतिकवाद था, इसमें
सन्देह की गुंजाइश नहीं है। लेकिन मार्क्स और एंगेल्स का द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
विश्व कोषवादियों और फ़ायरबाख से आगे निकल जाता है, क्योंकि यह भौतिकवादी दर्शन को इतिहास के क्षेत्र में, सामाजिक विज्ञानों के भी क्षेत्र में, लागू करता है। हमें धर्म के विरुद्ध लड़ाई लड़नी
चाहिए-यह समस्त भौतिकवाद का क ख ग है, और
फ़लस्वरूप मार्क्सवाद का भी। लेकिन मार्क्सवाद ऐसा भौतिकवाद नहीं है, जो क ख ग पर ही रुक गया। वह आगे जाता है। वह कहता
हैः हमें यह भी जानना चाहिये कि धर्म के विरुद्ध कैसे लड़ाई लड़ी जाये, और यह करने के लिये जनता के बीच हमें ईश्वर और
धर्म के मूल की व्याख्या भी भौतिकवादी पद्धति से करनी होगी। धर्म पर प्रहार अमूर्त
सैद्धान्तिक शिक्षाओं तक ही सीमित नहीं कर देना चाहिए। उसे वर्ग आन्दोलन के ठोस
व्यवहार के साथ जोड़ना चाहिए जिसका उद्देश्य धर्म के सामाजिक मूल का उन्मूलन करना
है। शहरी सर्वहारा के पिछडे़ हिस्सों, अर्धसर्वहारा
के व्यापक हिस्सों और किसान अवाम पर धर्म का प्रभाव क्यों बना रहता है बुर्जुआ
प्रगतिशील, उग्रवादी या बुर्जुआ भौतिकवादी का एक
ही उत्तर होता है कि इसका कारण जनता का अज्ञान है। और इसलिए “धर्म मुर्दाबाद और
नास्तिकवाद ज़िन्दाबाद, नास्तिकता
के विचारों का प्रचार हमारा मुख्य कर्तव्य हो जाता है।” मार्क्सवाद कहता है कि यह
सही नहीं है, यह एक कृत्रिम दृष्टिकोण है, संकीर्ण बुर्जुआ सुधारकों का दृष्टिकोण। यह धर्म
के मूल की पर्याप्त व्याख्या नहीं करता, यह
उसकी भौतिकवादी नहीं, बल्कि आदर्शवादी व्याख्या करता है।
आधुनिक पूँजीवादी देशों में धर्म की ये जड़ें मूलतः सामाजिक हैं। आज
धर्म की सबसे गहरी जड़ मेहनतकश अवाम की सामाजिक रूप से पददलित स्थिति और पूँजीवाद
की अन्धी शक्तियों के समक्ष उसकी प्रकटतः पूर्ण असहाय स्थिति है, जो हर रोज और हर घण्टे सामान्य मेहनतकश जनता को
सर्वाधिक भयंकर कष्टों और सर्वाधिक असभ्य अत्याचारों से संत्रस्त करती है, और ये कष्ट और अत्याचार असामान्य घटनाओं-जैसे
युद्धों, भूचालों, आदि-से उत्पन्न कष्टों से हजारों गुना अधिक कठोर हैं। “भय ने देवताओं
को जन्म दिया।” पूँजी की अन्धी शक्तियों का भय-अन्धी इसलिये कि उन्हें सर्वसाधारण
अवाम सामान्यतः देख नहीं पाता-एक ऐसी शक्ति है जो सर्वहारा वर्ग और छोटे मालिकों
की जिन्दगी में हर कदम पर “अचानक,” अप्रत्याशित,
आकस्मिक, तबाही-बरबादी,
गरीबी, वेश्यावृत्ति,
भूख से मृत्यु का खतरा ही नहीं उत्पन्न करती,
बल्कि इनसे अभिशप्त भी करती है। ऐसा है आधुनिक
धर्म का मूल, जिसे प्रत्येक भौतिकवादी को सबसे
पहले ध्यान में रखना चाहिए, यदि वह
बच्चों के स्कूल का भौतिकवादी नहीं बना रहना चाहता। जनता के दिमाग से, जो कठोर पूँजीवादी श्रमत द्वारा दबी-पिसी रहती है
और जो पूंजीवाद की अन्धी विनाशकारी शक्तियों की दया पर आश्रित रहती है, शिक्षा देने वाली कोई भी किताब धर्म का प्रभाव तब
तक नहीं मिटा सकती, जब तक कि जनता धर्म के इस मूल से,
स्वयं संघर्ष करना, पूँजी के शासन के सभी रूपों के खिलाफ़ ऐक्यबद्ध, संगठित, सुनियोजित
और सचेत ढंग से संघर्ष करना नहीं सीख लेती है।
तो क्या इसका यह अर्थ है कि धर्म के
विरुद्ध शिक्षा देने वाली किताबें हानिकारक या अनावश्यक हैं? नहीं, ऐसी
कोई बात नहीं है। इसका अर्थ यह है कि सोशल डेमाक्रेसी (कम्युनिज्म) का नास्तिकवादी
प्रचार उसके बुनियादी कर्तव्य के अधीन होना चाहिए। यह बुनियादी कर्तव्य है,
शोषकों के विरुद्ध शोषित जनता के वर्ग संघर्ष का
विकास।“
गढवाझारखण्ड
ReplyDeleteरूबी गढवा झारखण्ड कृपया मुझे ग्रूप से जोड़ए
ReplyDeleteAnil Kumar please add my
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