रवि कुमार की चुनिन्‍दा कविताएं


रवि कुमार की चुनिन्‍दा कविताएं

कल 13 सितंबर के दिन हमने एक बेहद प्‍यारे साथी रवि को खो दिया। राजस्थान के कोटा से अपनी कलम और अपने ब्रश से देशभर के प्रगतिशील खेमे में रवि एक अलग आवाज बने हुए थे। कल हार्ट अटैक ने उन्हें हमसे छीन लिया। यह एक दुखद त्रासदी है कि आज से 8 साल पहले उनके पिताजी (प्रसिद्ध नुक्कड़ नाटक 'जनता पागल हो गई है' को लिखने वाले) शिवराम का निधन भी हार्टअटैक से ही हुआ था। रवि और शिवराम दोनों ने ही अपना जीवन जनता को जागृत करने के नाम कर दिया था। ऐसे साथियों को खोने का गम उनकी कृतियों को आगे बढ़ाकर ही हम कम कर सकते हैं। रवि ने इतने सारे कविता पोस्टर बनाए हैं कि वह ब्‍लॉग या फेसबुक पर एक जगह आना असंभव है पर अगर आप उनके ब्लॉग ( https://ravikumarswarnkar.wordpress.com ) या फेसबुक पेज (https://www.facebook.com/ravikumarswarnkar) पर जाएं तो आपको वह सारे कविता पोस्टर व साथ ही रवि की अन्‍य रचनाएं आपको मिल जाएंगे। उनकी लेखनी और उनकी पेंटिंग दोनों ही लाजवाब थी। हम यहां उनकी कुछ कविताएं दे रहे हैं एक इंकलाबी साथी को हमारी यही श्रद्धांजलि है।

फिर से लौटेंगे भेड़‍िए



अंधेरा ही उनकी ताकत है
और छटा नहीं है अभी अंधेरा
वे लौटते रहेंगे रौशनी होने तक

हर बार और उतावले
और खूंखार होकर

उनका और खूंखार हो जाना ही
उनकी कमजोरी का परिचायक होगा

तब कहीं जाकर शाम ढ़लती है


हम तड़के से ही
सुलगते सूरज को अपनी पीठ पर लादे
पर्वतों को लांघते हैं
समन्दरों को पाटते हैं

और जब थककर चूर होकर
पसीने में भीगे गमछे में
सूरज को लपेटकर निचोड़ते हैं
उससे दो जून रोटी टपकती है

तब कहीं जाकर शाम ढ़लती है
आप कहते हैं बाबू
दिन यूं ही निकल जाता है
शाम यूं ही खलती है


कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

आओ मेरे बच्चों कि ये रात बहुत भारी है
आओ मेरे बच्चों कि बेकार परदादारी है
मैं हार गया हूं अब ये साफ़ कह देना चाहता हूं
सीने से तुमको लिपटा कर सो जाना चाहता हूं

मेरी बेबसी, बेचारगी, ये मेरे डर हैं
कि हर हत्या का गुनाह मेरे सर है
मेरी आंखों में अटके आंसुओं को अब बह जाने दो
उफ़ तुम्हारी आंखों में बसे सपने, अब रह जाने दो
आओ कि आख़िरी सुक़ून भरी नींद में डूब जाएं
आओ कि इस ख़ूं-आलूदा जहां से बहुत दूर जाएं

काश कि यह हमारी आख़िरी रात हो जाए
काश कि यह हमारा आख़िरी साथ हो जाए

कि ऐसी सुब‍हे नहीं चाहिए हमें
कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

जहां कि नफ़रत ही जीने का तरीक़ा हो
जहां कि मारना ही जीने का सलीका हो
इंसानों के ख़ून से ही जहां क़ौमें सींची जाती हैं
लाशों पर जहां राष्ट्र की बुनियादें रखी जाती हैं

ये दुनिया को बाज़ार बनाने की कवायदें
इंसानियत को बेज़ार बनाने की रवायतें
ये हथियारों के ज़खीरे, ये वहशत के मंज़र
ये हैवानियत से भरेये दहशत के मंज़र

जिन्हें यही चाहिए, उन्हें अपने-अपने ख़ुदा मुबारक हों
जिन्हें यही चाहिए. उन्हें ये रक्तरंजित गर्व मुबारक हों
जिन्हें ऐसी ही चाहिए दुनिया वे शौक से बना लें
अपने स्वर्ग, अपनी जन्नत वे ज़ौक़ से बना लें

इस दुनिया को बदल देने के सपने, अब जाने दो
मेरे बच्चों, मुझे सीने से लिपट कर सो जाने दो

कि ऐसी सुब‍हे नहीं चाहिए हमे
कि ऐसी दुनिया नहीं चाहिए हमें

  

उम्म्मीद अभी बाकी है



तपती हुई लंबी दोपहरों में
कुदालें खोदती हैं हथौड़ा दनदनाता है
गर्म लू के थपेड़ों को
पसीना अभी भी शीतल बनाता है

पेड़ों के पत्ते सरसराते हैं
उनके तले अभी छाया मचलती है
घर लौटती पगडंडियों पर
अभी भी हलचल फुदकती है

चूल्हों के धुंए की रंगत में
अभी भी शाम ढलती है
मचलते हैं अभी गीत होठों पर
कानों में शहनाई सी घुलती है

परिन्दों का कारवां अभी
अपने बसेरों तक पहुंचता है
आंगन में रातरानी का पौधा
अभी भी ख़ूब महकता है

दूर किसी बस्ती में
एक दिये की लौ थिरकती है
एक मायूसी भरी आंख में
जुगनु सी चमक चिलकती है

लंबी रात के बाद अभी भी
क्षितिज पर लालिमा खिलती है
धरती अभी भी अलसाई सी
आसमां के आगोश में करवट बदलती है

मां के आंचल से निकलकर
एक बच्चा खिलखिलाता है
अपने पिता की हंसी को पकड़ने
उसके पीछे दौड़ता है
एक कुत्ता भौंकता है
एक तितली पंख टटोलती है
एक मुस्कुराहट लब खोलती है

अभी भी आवाज़ लरजती है
अभी भी दिल घड़कता है
आंखों की कोर पर
अभी भी एक आंसू ठहरता है

माना चौतरफ़
नाउम्मीदियां ही हावी हैं
पर फिर भी मेरे यार
उम्म्मीद अभी बाकी है

चीखों में लाचारगी नहीं
जूझती तड़प अभी बाकी है
मुद्राओं में समर्पण नहीं
लड़ पाने की जुंबिश अभी बाकी है

उम्म्मीद अभी बाकी है


लडे बिना जीना मुहाल नहीं है

लोग लड रहे हैं
लडे बिना जीना मुहाल नहीं है
गा रही थी एक बया
घौंसला बुनते हुए

कुछ चींटियां फुसफुसा रही थीं आपस में
कि जितने लोग होते है
गोलियां अक्सर उतनी नहीं हुआ करतीं

जब-जब ठानी है हवाओं ने
गगनचुंबी क़िले ज़मींदोज़ होते रहे हैं
एक बुजुर्ग की झुर्रियों में
यह तहरीर आसानी से पढ़ी जा सकती है

लड़ कर ही आदमी यहां तक पहुंचा है
लड़ कर ही आगे जाया जा सकता है
यह अब कोई छुपाया जा सकने वाला राज़ नहीं रहा

लोग लड़ेंगे
लड़ेंगे और सीखेंगे
लड़कर ही यह सीखा जा सकता है
कि सिर्फ़ पत्तियां नोंचने से नहीं बदलती तस्वीर

लोग लड़ेंगे
और ख़ुद से सीखेंगे
झुर्रियों में तहरीर की हुई हर बात

जैसे कि
जहरीली घास को
समूल नष्ट करने के अलावा
कोई और विकल्प नहीं होता


( तहरीर – लिखावट, लिखना, लिखाई )




एक ऐसे समय में



एक ऐसे समय में
जब काला सूरज ड़ूबता नहीं दिख रहा है
और सुर्ख़ सूरज के निकलने की अभी उम्मीद नहीं है

एक ऐसे समय में
जब यथार्थ गले से नीचे नहीं उतर रहा है
और आस्थाएं थूकी न जा पा रही हैं

एक ऐसे समय में
जब अतीत की श्रेष्ठता का ढ़ोल पीटा जा रहा है
और भविष्य अनिश्चित और असुरक्षित दिख रहा है

एक ऐसे समय में
जब भ्रमित दिवाःस्वप्नों से हमारी झोली भरी है
और पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक रही है

एक ऐसे समय में
जब लग रहा है कि पूरी दुनिया हमारी पहुंच में है
और मुट्ठी से रेत का आख़िरी ज़र्रा भी सरकता सा लग रहा है

एक ऐसे समय में
जब सिद्ध किया जा रहा है
कि यह दुनिया निर्वैकल्पिक है
कि इस रात की कोई सुबह नहीं
और मुर्गों की बांगों की गूंज भी
लगातार माहौल को खदबदा रही हैं

एक ऐसे समय में
जब लगता है कि कुछ नहीं किया जा सकता
दरअसल
यही समय होता है
जब कुछ किया जा सकता है

जब कुछ जरूर किया जाना चाहिए


भूख एक बेबाक बयान है



भूख के बारे में शब्दों की जुगाली
साफ़बयानी नहीं हो सकती
भूख पर नहीं लिखी जा सकती
कोई शिष्ट कविता

भूख जो कि कविता नहीं कर सकती
उल्टी पडी डेगचियों
या ठण्डे़ चूल्हों की राख में कहीं
पैदा होती है शायद
फिर खाली डिब्बों को टटोलती हुई
दबे पांव/ पेट में उतर जाती है

भूख के बारे में कुछ खा़स नहीं कहा जा सकता
वह न्यूयार्क की
गगनचुंबी ईमारतों से भी ऊंची हो सकती है
विश्व बैंक के कर्ज़दारों की
फहरिस्त से भी लंबी
और पीठ से चिपके पेट से भी
गहरी हो सकती है

वह अमरीकी बाज़ की मानिंद
निरंकुश और क्रूर भी हो सकती है
और सोमालिया की मानिंद
निरीह और बेबस भी

निश्चित ही
भूख के बारे में कुछ ठोस नहीं कहा जा सकता
पर यह आसानी से जाना जा सकता है
कि पेट की भूख
रोटी की महक से ज़ियादा विस्तार नहीं रखती
और यह भी कि
दुनिया का अस्सी फीसदी
फिर भी इससे बेज़ार है

भूख एक बेबाक बयान है
अंधेरे और गंदे हिस्सों की धंसी आंखों का
मानवाधिकारों का
दम भरने वालों के खिलाफ़

दुनिया के बीस फीसदी को
यह आतिशी बयान
कभी भी कटघरे में खड़ा कर सकता है




Comments

  1. वाह रवि वाह
    तुम तो चले गए
    इस जहां को छोड़ कर
    लेकिन अपने पीछे छोड़ गए
    हर इंसान के लिए
    उम्मीद का एक सागर

    ReplyDelete
  2. कामरेड रवि जी हमारे बीच में नहीं रहे। ये दुखद हे।।आम जनता के सच्चे साथी को लाल सलाम।

    ReplyDelete
  3. Abhi beech me se achanak khule page se "ummed Abhi baki hai" Kavita se padhna shuru Kia tha aur akhiri Kavita tak padhta chala gaya. Bahut accha lag raha tha par ye jan lene ke lia ki kisne likhi hai ye kavitaye," jab page neeche khiskaya to pata chala ki hamara krantikari Sathi "Ravi"Achanak hamko chhorkar hamesha ke Lia chala gaya.
    Kamred Ravi Aapko Lal Salam.

    ReplyDelete
  4. Abhi beech me se achanak khule page se "ummed Abhi baki hai" Kavita se padhna shuru Kia tha aur akhiri Kavita tak padhta chala gaya. Bahut accha lag raha tha par ye jan lene ke lia ki kisne likhi hai ye kavitaye," jab page neeche khiskaya to pata chala ki hamara krantikari Sathi "Ravi"Achanak hamko chhorkar hamesha ke Lia chala gaya.
    Kamred Ravi Aapko Lal Salam.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

केदारनाथ अग्रवाल की आठ कविताएँ

कहानी - आखिरी पत्ता / ओ हेनरी Story - The Last Leaf / O. Henry

अवतार सिंह पाश की सात कविताएं Seven Poems of Pash