अवतार सिंह पाश की सात कविताएं Seven Poems of Pash


अवतार सिंह पाश की सात कविताएं
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1⃣ सपने
सपने हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोयी आग को सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुई हथेली पर आये
पसीने को सपने नहीं आते
शैल्फ़ों में पड़े इतिहास के ग्रन्थों को
सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाजिमी है
सहनशील दिलों का होना
सपनों के लिए नींद की नज़र होनी लाजिमी है
सपने इसीलिए सभी को नहीं आते
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2⃣ सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी-लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-सोए पकड़े जाना – बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
किसी जुगनू की लौ में पढ़ने लग जाना – बुरा तो है
भींचकर जबड़े बस वक्‍त काट लेना – बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शान्ति से भर जाना
न होना तड़प का, सब सहन कर जाना,
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वह घड़ी होती है
तुम्हारी कलाई पर चलती हुई भी जो
तुम्हारी नज़र के लिए रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वह आँख होती है
जो सबकुछ देखती हुई भी ठण्डी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को
मुहब्बत से चूमना भूल जाती है
जो चीज़ों से उठती अन्धेपन की
भाप पर मोहित हो जाती है
जो रोज़मर्रा की साधारणतया को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दोहराव के दुष्चक्र में ही गुम जाती है

सबसे ख़तरनाक वह चाँद होता है
जो हर कत्ल-काण्ड के बाद
वीरान हुए आँगनों में चढ़ता है
लेकिन तुम्हारी आँखों में मिर्चों की तरह नहीं लड़ता है

सबसे ख़तरनाक वह गीत होता है
तुम्हारे कान तक पहुंचने के लिए
जो विलाप को लाँघता है
डरे हुए लोगों के दरवाज़े पर जो
गुण्डे की तरह हुँकारता है
सबसे ख़तरनाक वह रात होती है
जो उतरती है जीवित रूह के आकाशों पर
जिसमें सिर्फ उल्लू बोलते गीदड़ हुआते
चिपक जाता सदैवी अँधेरा बन्द दरवाज़ों की चैगाठों पर

सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है
जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाये
और उसकी मुर्दा धूप की कोई फांस
तुम्हारे जिस्म के पूरब में चुभ जाये

श्रम की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

(पाश की पंजाबी में प्रकाशित अन्तिम कविता, जनवरी, 1988)
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3⃣ अपनी असुरक्षा से

यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना ज़मीर होना ज़िन्दगी के लिए शर्त बन जाये
आँख की पुतली में ‘हाँ’ के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दण्डवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज़
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूँज की तरह गलियों में बहता है
गेहूँ की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है

हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझे थे क़ुर्बानी-सी वफ़ा
लेकिन ’गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
’गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे ख़तरा है

’गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज़ के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख़्वाहों के मुँह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हँसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से ख़तरा है

’गर देश की सुरक्षा ऐसी होती है
कि हर हड़ताल को कुचलकर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मरकर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक़्ल, हुक़्म के कुएँ पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
मेहनत, राजमहलों के दर पर बुहारी ही बनेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से ख़तरा है।
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4⃣ दो और दो तीन

मैं प्रमाणित कर सकता हूँ -
कि दो और दो तीन होते हैं।
वर्तमान मिथिहास होता है।
मनुष्य की शक्ल चमचे जैसी होती है।
तुम जानते हो -
कचहरियों, बस-अड्डों और पार्कों में
सौ-सौ के नोट घूमते फिरते हैं।
डायरियाँ लिखते, तस्वीरें खींचते
और रिपोर्टें भरते हैं।
‘कानून रक्षा केन्द्र’ में
बेटे को माँ पर चढ़ाया जाता है।
खेतों में ‘डाकू’ मज़दूरी करते हैं।
माँगें माने जाने का ऐलान
बमों से किया जाता है।
अपने लोगों से प्यार का अर्थ
‘दुश्मन देश’ की एजेण्टी होता है।
और
बड़ी से बड़ी ग़द्दारी का तमग़ा
बड़े से बड़ा रुतबा हो सकता है
तो -
दो और दो तीन भी हो सकते हैं।
वर्तमान मिथिहास हो सकता है।
मनुष्य की शक्ल भी चमचे जैसी हो सकती है।
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5⃣ सच

तुम्हारे मानने या न मानने से
सच को कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
इन दुखते अंगों पर सच ने एक उम्र भोगी है।
और हर सच उम्र भोगने के बाद,
युग में बदल जाता है,
और यह युग अब खेतों और मिलों में ही नहीं,
फ़ौजों की कतारों में विचर रहा है।
कल जब यह युग
लाल किले पर बालियों का ताज पहने
समय की सलामी लेगा
तो तुम्हें सच के असली अर्थ समझ आयेंगे।
अब हमारी उपद्रवी जाति को
इस युग की फितरत तो चाहे कह लेना,
लेकिन यह कह छोड़ना,
कि झोंपड़ियों में फैला सच,
कोई चीज़ नहीं।
कितना सच है?
तुम्हारे मानने या न मानने से,
सच को कोई़ फ़र्क नहीं पड़ता।
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6⃣ भारत

भारत -
मेरे आदर का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयुक्त किया जाये
शेष सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं।
इस शब्द का अभिप्राय
खेतों के उन बेटों से है
जो आज भी पेड़ों की परछाइयों से
वक़्त मापते हैं।
उनकी पेट के बिना, कोई समस्या नहीं
और भूख लगने पर
वे अपने अंग भी चबा सकते हैं।
उनके लिए जि‍न्दगी एक परम्परा है,
और मौत का अर्थ है मुक्ति।
जब भी कोई पूरे भारत की,
‘राष्ट्रीय एकता’ की बात करता है
तो मेरा दिल करता है -
उसकी टोपी हवा में उछाल दूँ,
उसे बताऊँ
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यन्त से सम्बन्धित नहीं
बल्कि खेतों में दायर हैं
जहाँ अनाज पैदा होता है
जहाँ सेंधें लगती हैं---
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7⃣ बेदख़ली के लिए विनय-पत्र
(इन्दिरा गाँधी की मृत्यु तथा इसके पश्चात सिखों के कत्ले-आम पर एक प्रतिक्रिया)

मैंने उम्र भर उसके खि़ला़फ़ सोचा और लिखा है
अगर उसके शोक में सारा ही देश शामिल है
तो इस देश में से मेरा नाम काट दो

मैं ख़ूब जानता हूँ नीले सागरों तक फैले हुए
इस खेतों, खदानों और भट्ठों के भारत को
वह ठीक इसी का साधारण-सा कोई कोना था
जहाँ पहली बार
जब मज़दूर पर उठा थप्पड़ मरोड़ा गया
किसी के खुरदुरे बेनाम हाथों में
ठीक वही वक़्त था
जब इस कत्ल की साज़ि‍श रची गयी
कोई भी पुलिस नहीं ढूँढ़ सकेगी इस साज़ि‍श की जगह
क्योंकि ट्यूबें केवल राजधानी में जगती हैं
और खेतों, खदानों, भट्ठों का भारत
बहुत अँधेरा है

और ठीक इसी सर्द-अँधेरे में होश सँभालने पर
जीने के साथ-साथ
जब पहली बार इस जि‍न्दगी के बारे में सोचना शुरू किया
मैंने ख़ुद को इसके कत्ल की साज़ि‍श में शामिल पाया
जब भी भयावह शोर के पदचिह्न देख-देख कर
मैंने ढूँढ़ना चाहा टर्रा-र्रा-ते हुए टिड्डे को
शामिल पाया है, अपनी पूरी दुनिया को
मैंने सदा ही उसे कत्ल किया है
हर परिचित व्यक्ति की छाती में से ढूँढ़कर
अगर उसके कातिलों के साथ यूँ ही सड़कों पर निपटना है
तो मेरे हिस्से की सज़ा मुझे भी मिले
मैं नहीं चाहता कि केवल इसलिए बचता रहूँ
कि मेरा पता नहीं है भजन लाल बिश्नोई को -
इसका जो भी नाम है - गुण्डों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूँ
मैं उस पायलट की
कपटी आँखों में चुभता भारत हूँ
हाँ, मैं भारत हूँ चुभता हुआ उसकी आँखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें भी अभी काट दो

* भजन लाल बिश्नोई - हरियाणा का तत्‍कालीन मुख्‍यमंत्री (नवम्‍बर 1984)

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