देश-दुनिया के प्रसिद्ध 18 कवियों की 18 कविताएं

देश-दुनिया के प्रसिद्ध 18 कवियों की 18 कविताएं

(1) अवतार सिंह पाश (सबसे खतरनाक)
मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता
कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना
सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती।



(2) केदारनाथ अग्रवाल (जीवन की धूल)
जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है,
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है,
जिसने सोने को खोदा, लोहा मोड़ा है,
जो रवि के रथ का घोड़ा है,
वह जन मारे नहीं मरेगा,
नहीं मरेगा।

जो जीवन की आग जलाकर आग बना है
फ़ौलादी पंजे फैलाये नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा, शासन मोड़ा है,
जो युग के रथ का घोड़ा है
वह जन मारे नहीं मरेगा,
नहीं मरेगा।


(3) नाज़िम हिकमत (कचोटती स्वतन्त्रता)
तुम खर्च करते हो अपनी आँखों का शऊर,
अपने हाथों की जगमगाती मेहनत,
और गूँधते हो आटा दर्जनों रोटियों के लिए काफी
मगर ख़ुद एक भी कौर नहीं चख पाते;
तुम स्वतंत्र हो दूसरों के वास्ते खटने के लिए
अमीरों को और अमीर बनाने के लिए
तुम स्वतंत्र हो।

जन्म लेते ही तुम्हारे चारों ओर
वे गाड़ देते हैं झूठ कातने वाली तकलियाँ
जो जीवनभर के लिए लपेट देती हैं
तुम्हें झूठों के जाल में।
अपनी महान स्वतंत्रता के साथ
सिर पर हाथ धरे सोचते हो तुम
ज़मीर की आज़ादी के लिए तुम स्वतंत्र हो।

तुम्हारा सिर झुका हुआ मानो आधा कटा हो
गर्दन से,
लुंज-पुंज लटकती हैं बाँहें,
यहाँ-वहाँ भटकते हो तुम
अपनी महान स्वतंत्रता में:
बेरोज़गार रहने की आज़ादी के साथ
तुम स्वतंत्र हो।

तुम प्यार करते हो देश को
सबसे करीबी, सबसे क़ीमती चीज़ के समान।
लेकिन एक दिन, वे उसे बेच देंगे,
उदाहरण के लिए अमेरिका को
साथ में तुम्हें भी, तुम्हारी महान आज़ादी समेत
सैनिक अड्डा बन जाने के लिए तुम स्वतंत्र हो।
तुम दावा कर सकते हो कि तुम नहीं हो
महज़ एक औज़ार, एक संख्या या एक कड़ी
बल्कि एक जीता-जागता इंसान
वे फौरन हथकड़ियाँ जड़ देंगे
तुम्हारी कलाइयों पर।
गिरफ्तार होने, जेल जाने
या फिर फाँसी चढ़ जाने के लिए
तुम स्वतंत्र हो।

नहीं है तुम्हारे जीवन में लोहे, काठ
या टाट का भी परदा;
स्वतंत्रता का वरण करने की कोई ज़रूरत नहीं :
तुम तो हो ही स्वतंत्र।
मगर तारों की छाँह के नीचे
इस किस्‍म की स्वतंत्रता कचोटती है।



(4) सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (देश काग़ज़ पर बना नक्शा नहीं होता)
यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो ?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो ?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है ।
देश काग़ज़ पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें ।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है ।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
काग़ज़ पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और ज़मीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अन्धा है
जो शासन
चल रहा हो बन्दूक की नली से
हत्यारों का धन्धा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है ।
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन ।
ऐसा ख़ून बहकर
धरती में जज़्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है ।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे ख़ून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो –
तुम्हें यहाँ साँस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।
आख़ि‍री बात
बिल्कुल साफ़
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ़
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार ,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।


(5) फैज़ अहमद फैज़ (इन्तिसाब1)
(इस कविता में आये शब्‍दों के अर्थ नीचे दिये गये हैं)

आज के नाम
और
आज के ग़म के नाम
आज का ग़म केः है जिन्दगी के भरे गुलसिताँ से ख़फा2
ज़र्द पत्तों का बन जो मेरा देस है
दर्द की अंजुमन3 जो मेरा देस है
किलर्कों की अफसुर्दा4 जानों के नाम
किर्मखुर्दा5 दिलों और ज़बानों के नाम
पोस्टमैनों के नाम
तांगेवालों के नाम
रेलबानों के नाम
कारखानों के भोले जियालों के नाम
बादशाह-ए-जहाँ, वाली-ए-मासिवा6, नायबुल्लाह-ए-फिल-अ़र्ज7,दहकाँ8 के नाम
जिसके ढोरों को ज़ालिम हँका ले गये
जिसकी बेटी को डाकू उठा ले गये
हाथ भर खेत से एक अंगुश्तं9 पटवार ने काट ली है
दूसरी मालिये10 के बहाने से सरकार ने काट ली है
जिसकी पग ज़ोर वालों के पावों तले
धज्जियाँ हो गई है

उन दुखी माओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए ब़ाजुओं से संभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों11 से बहलते नहीं

उन हसीनाओं के नाम
जिनकी आँखों के गुल
चिलमनों12 और दरीचों13 की बेलों पे बेकार खिलखिल के
मुर्झा गये हैं
उन ब्याहताओं के नाम
जिनके बदन
बे-मुहब्बत रियाकार14 सेजों पे सज-सज के उकता गये है
बेवाओं के नाम
कटड़ियों15 और गलियों, मुहल्लों के नाम
जिनकी नापाक ख़ाशाँक16 से चाँद रातों
को आ-आ के करता है अक्सर वज़ू
जिनकी सायों में करती है आह-ओ-बुक़ा17
आँचलों की हिना
चूड़ियों की खनक
काकुलों18 की महक
आरज़ूमंद सीनों की अपने पसीने में जलने की बू
तालिब इल्मों19 के नाम
वो जो असहाब-ए-तब्ल-ओ-अलम20
के दरों पर किताब और क़लम
का तकाज़ा लिये, हाथ फैलाये
पहुँचे, मगर लौटकर घर न आये
वोःमासूम जो भोलपन में
वहाँ अपने नन्हे चिरागों में लौ की लगन
ले के पहुँचे, जहाँ
बँटे रहे थे घटाटोप, बेअंत रातों के साये

उन असीरों के नाम
जिनके सीनों में फर्दा21 के शहताब गौहर22
जेलखानों की शोरीदा23 रातों की सरसर में
जल-जल के अंजुम-नुमा24 हो गये हैं

आने वाले दिनों के सफीरों25 के नाम
वोः जो खुशबू-ए-गुल26 की तरह
अपने पैग़ाम27 पर ख़ुद फिदा हो गये हैं।

1-रचना का समर्पण 2-खिन्न 3- सभा 4- उदास 5- कीड़ों का खाया हुआ 6- सर्वोच्च स्वामी 7- धरती पर स्वर्ग का प्रतिनिधित्व 8- किसान 9- उँगली भर 10- लगान 11- रोना 12- परदों 13- झरोखों 14- दुष्टतापूर्ण 15- मकान के समूह (पंजाबी) 16-कूड़ा-करकट 17- बैन 18- जुल्फों 19- छात्रों 20- नगाड़े व पताका के मालिक 21- भविष्य 22- रात को चमकने वाल हीरे 23- परेशान 24- सितारों जैसे 25-दूनों 26-फूल की महक 27- संदेश



(6) पाब्लो नेरूदा (मैं सज़ा की माँग करता हूँ)
अपने इन्हीं दिवंगतों के नाम पर
मैं सज़ा की माँग करता हूँ

जिन्होंने हमारे वतन को ख़ून से छिड़का, उनके लिए
मैं सज़ा की माँग करता हूँ
उसके लिए जिसके हुक़्म पर यह जुर्म किया गया
मैं माँगता हूँ सज़ा
उस ग़द्दार के लिए जो इन देहों पर कदम रखता
सत्ता में आया, मैं सज़ा की माँग करता हूँ
उन क्षमाशील लोगों के लिए जिन्होंने इस जुर्म को माफ़ किया
मैं सज़ा की माँग करता हूँ

मैं नहीं चाहता हर तरफ़ हाथ मिलाना और भूल जाना,
मैं उनके ख़ून सने हाथ नहीं छूना चाहता।
मैं सज़ा की माँग करता हूँ।
मैं नहीं चाहता वे कहीं राजदूत बना कर भेज दिये जायें,
न यहाँ देश में ढँके-छुपे रह जायें
जब तक कि यह सब गुज़र नहीं जाता।
मैं चाहता हूँ न्याय हो
यहाँ खुली हवा में ठीक इसी जगह।

मैं उन्हें सज़ा दिये जाने की माँग करता हूँ।



(7) बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (एस.ए. सैनिक का गीत)
भूख से बेहाल मैं सो गया
लिये पेट में दर्द।
कि तभी सुनाई पड़ी आवाज़ें
उठ, जर्मनी जाग!

फिर दिखी लोगों की भीड़ मार्च करते हुएः
थर्ड राइख़** की ओर, उन्हें कहते सुना मैंने।
मैंने सोचा मेरे पास जीने को कुछ है नहीं
तो मैं भी क्यों न चल दूँ इनके साथ।

और मार्च करते हुए मेरे साथ था शामिल
जो था उनमें सबसे मोटा
और जब मैं चिल्लाया ‘रोटी दो काम दो’
तो मोटा भी चिल्लाया।

टुकड़ी के नेता के पैरों पर थे बूट
जबकि मेरे पैर थे गीले
मगर हम दोनों मार्च कर रहे थे
कदम मिलाकर जोशीले।
मैंने सोचा बायाँ रास्ता ले जायेगा आगे
उसने कहा मैं था ग़लत
मैंने माना उसका आदेश
और आँखें मूँदे चलता रहा पीछे।

और जो थे भूख से कमज़ोर
पीले-ज़र्द चेहरे लिये चलते रहे
भरे पेटवालों से क़दम मिलाकर
थर्ड राइख़ की ओर।

अब मैं जानता हूँ वहाँ खड़ा है मेरा भाई
भूख ही है जो हमें जोड़ती है
जबकि मैं मार्च करता हूँ उनके साथ
जो दुश्मन हैं मेरे और मेरे भाई के भी।

और अब मर रहा है मेरा भाई
मेरे ही हाथों ने मारा उसे
गोकि जानता हूँ मैं कि गर कुचला गया है वो
तो नहीं बचूँगा मैं भी।

*एस.ए. – जर्मनी में नाज़ी पार्टी द्वारा खड़ी किये गये फासिस्ट बल का संक्षिप्त नाम। उग्र फासिस्ट प्रचार के ज़रिये इसमें काफ़ी संख्या में  बेरोज़गार नौजवानों और मज़दूरों को भर्ती किया गया था। इसका मुख्य काम था यहूदियों और विरोधी पार्टियों, ख़ासकर कम्युनिस्टों पर हमले करना और आतंक फैलाना।
**थर्ड राइख़ – 1933 से 1945 के बीच नाज़ी पार्टी शासित जर्मनी को ही थर्ड राइख़ कहा जाता था।


(8) एर्नेस्तो कार्देनाल (सेलफ़ोन)
आप अपने सेलफ़ोन पर बात करते हैं
करते रहते हैं,
करते जाते हैं
और हँसते हैं अपने सेलफ़ोन पर
यह न जानते हुए कि वह कैसे बना था
और यह तो और भी नहीं कि वह कैसे काम करता है
लेकिन इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है
परेशानी की बात यह कि
आप नहीं जानते
जैसे मैं भी नहीं जानता था
कि कांगो में मौत के शिकार होते हैं बहुत से लोग
हज़ारों हज़ार
इस सेलफ़ोन की वजह से
वे मौत के मुँह में जाते हैं कांगो में
उसके पहाड़ों में कोल्टन होता है
(सोने और हीरे के अलावा)
जो काम आता है सेलफ़ोन के
कण्डेंसरों में
खनिजों पर क़ब्ज़ा करने के लिए
बहुराष्ट्रीय निगम
छेड़े रहते हैं एक अन्तहीन जंग
15 साल में 50 लाख मृतक
और वे नहीं चाहते कि यह बात
लोगों को पता चले
विशाल सम्पदा वाला देश
जिसकी आबादी त्रस्त है ग़रीबी से
दुनिया के 80 प्रतिशत कोल्टन के
भण्डार हैं कांगो में
कोल्टन वहाँ छिपा हुआ है
तीस हज़ार लाख वर्षों से
नोकिया, मोटरोला, कम्पाक, सोनी
ख़रीदते हैं कोल्टन
और पेंटागन भी, न्यूयॉर्क टाइम्स
कारपोरेशन भी,
और वे इसका पता नहीं चलने देना चाहते
वे नहीं चाहते कि युद्ध ख़त्म हो
ताकि कोल्टन को हथियाया जाना जारी रह सके
7 से 10 साल तक के बच्चे निकालते हैं कोल्टन
क्योंकि छोटे छेदों में आसानी से
समा जाते हैं
उनके छोटे शरीर
25 सेण्ट रोज़ाना की मजूरी पर
और झुण्ड के झुण्ड बच्चे मर जाते हैं
कोल्टन पाउडर के कारण
या चट्टानों पर चोट करने की वजह से
जो गिर पड़ती है उनके ऊपर
न्यूयॉर्क टाइम्स भी
नहीं चाहता कि यह बात पता चले
और इस तरह अज्ञात ही रहता है
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का
यह संगठित अपराध
बाइबिल में पहचाना गया है
सत्य और न्याय
और प्रेम और सत्य
तब उस सत्य की अहमियत में
जो हमें मुक्त करेगा
शामिल है कोल्टन का सत्य भी
कोल्टन जो आपके सेलफ़ोन के भीतर है
जिस पर आप बात करते हैं करते जाते हैं
और हँसते हैं सेलफ़ोन पर बात करते हुए
💢💢💢💢💢💢💢💢


(9) अली सरदार जाफ़री (कौन आज़ाद हुआ ?)
किसके माथे से गुलामी की सियाही छुटी ?
मेरे सीने मे दर्द है महकुमी का
मादरे हिंद के चेहरे पे उदासी है वही
कौन आज़ाद हुआ ?

खंजर आज़ाद है सीने मे उतरने के लिए
वर्दी आज़ाद है वेगुनाहो पर जुल्मो सितम के लिए
मौत आज़ाद है लाशो पर गुजरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ ?

काले बाज़ार मे बदशक्ल चुदैलों की तरह
कीमते काली दुकानों पर खड़ी रहती है
हर खरीदार की जेबो को कतरने के लिए
कौन आज़ाद हुआ ?

कारखानों मे लगा रहता है
साँस लेती हुयी लाशो का हुजूम
बीच मे उनके फिरा करती है बेकारी भी
अपने खूंखार दहन खोले हुए
कौन आज़ाद हुआ ?

रोटियाँ चकलो की कहवाये है
जिनको सरमाये के द्ल्लालो ने
नफाखोरी के झरोखों मे सजा रखा है
बालियाँ धान की गेंहूँ के सुनहरे गोशे
मिस्रो यूनान के मजबूर गुलामो की तरह
अजबनी देश के बाजारों मे बिक जाते है
और बदबख्त किसानो की तडपती हुयी रूह
अपने अल्फाज मे मुंह ढांप के सो जाती है
कौन आजाद हुआ ?



(10) गोरख पांडे (उसको फांसी दे दो)
वह कहता है उसको रोटी-कपड़ा चाहिए
बस इतना ही नहीं, उसे न्‍याय भी चाहिए
इस पर से उसको सचमुच आजादी चाहिए
उसको फांसी दे दो।

वह कहता है उसे हमेशा काम चाहिए
सिर्फ काम ही नहीं, काम का फल भी चाहिए
काम और फल पर बेरोक दखल भी चाहिए
उसको फांसी दे दो।

वह कहता है कोरा भाषण नहीं चाहिए
झूठे वादे हिंसक शासन नहीं चाहिए
भूखे-नंगे लोगों की जलती छाती पर
नकली जनतंत्री सिंहासन नहीं चाहिए
उसको फांसी दे दो।

वह कहता है अब वह सबके साथ चलेगा
वह शोषण पर टिकी व्‍यवस्‍था को बदलेगा
किसी विदेशी ताकत से वह मिला हुआ है
उसकी इस ग़द्दारी का फल तुरत मिलेगा
आओ देशभक्‍त जल्‍लादो
पूंजी के विश्‍वस्‍त पियादो
उसको फांसी दे दो।


(11) शशिप्रकाश (अगर तुम युवा हो)
ग़रीबों-मज़लूमों के नौजवान सपूतो !
उन्हें कहने दो कि क्राँतियाँ मर गईं
जिनका स्वर्ग है इसी व्यवस्था के भीतर ।

तुम्हें तो इस नरक से बाहर
निकलने के लिए
बंद दरवाज़ों को तोड़ना ही होगा,
आवाज़ उठानी ही होगी
इस निज़ामे-कोहना के खिलाफ़ ।

यदि तुम चाहते हो
आज़ादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सुंदरता से भरी ज़िन्दगी
तो तुम्हें उठाना ही होगा
नए इन्क़लाब का परचम फिर से ।

उन्हें करने दो "इतिहास के अंत"
और "विचारधारा के अंत" की अंतहीन बकवास ।
उन्हें पीने दो पेप्सी और कोक और
थिरकने दो माइकल जैक्सन की
उन्मादी धुनों पर ।

तुम गाओ
प्रकृति की लय पर ज़िंदगी के गीत ।
तुम पसीने और खून और
मिट्टी और रौशनी की बातें करो ।
तुम बगावत की धुनें रचो ।
तुम इतिहास के रंगमंच पर
एक नए महाकाव्यात्मक नाटक की
तैयारी करो ।

तुम उठो,
एक प्रबल वेगवाही
प्रचंड झंझावात बन जाओ ।

(12) सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’  (तोड़ती पत्थर)
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
“मैं तोड़ती पत्थर।”


(13) शंकर शैलेन्‍द्र (भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की)
भगतसिंह, इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की!

यदि जनता की बात करोगे, तुम गद्दार कहाओगे
बम्ब-सम्ब की छोड़ो, भाषण दिया तो पकडे जाओगे
निकला है क़ानून नया, चुटकी बजाते बांध जाओगे
न्याय अदालत की मत पूछो, सीधे मुक्ति पाओगे

कांग्रेस का हुक्म, जरूरत क्या वारंट तलाशी की!
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की!

मत समझो पूजे जाओगे, क्योंकि लड़े थे दुश्मन से
रुत ऐसी है, अब दिल्ली की आँख लड़ी है लन्दन से
कामनवेल्थ कुटुंब देश को, खींच रहा है मंतर से
प्रेम विभोर हुए नेतागण, रस बरसा है अम्बर से

योगी हुए वियोगी, दुनिया बदल गयी बनवासी की!
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की!

गढ़वाली, जिसने अंगरेजी शासन में विद्रोह किया
वीर क्रान्ति के दूत, जिन्होंने नहीं जान का मोह किया
अब भी जेलों में सड़ते हैं, न्यू माडल आज़ादी है
बैठ गए हैं काले, पर गोरे जुल्मों की गादी है

वही रीत है, वही नीत है, गोरे सत्यानाशी की!
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की!

सत्य-अहिंसा का शासन है, रामराज्य फिर आया है
भेड़-भेड़िये एक घाट हैं, सब ईश्वर की माया है
दुश्मन ही जज अपना, टीपू जैसों का क्या करना है
शान्ति-सुरक्षा की खातिर, हर हिम्मतवर से डरना है

पहनेगी हथकड़ी, भवानी रानी लक्ष्मी झांसी की!
देशभक्ति के लिए आज भी, सज़ा मिलेगी फांसी की!


(14) मुक्तिबोध - अब तक क्या किया (‘अँधेरे में कविता का एक अंश)
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया ?
जीवन क्या जिया !!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में कनात–से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,

दु:खों के दागों को तमगों–सा पहना
अपने ही ख़्यालों में दिन–रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
जिन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!

बताओ तो किस–किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत–बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत–बहुत कम,
मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम!!
लोक–हित–पिता को घर से निकाल दिया,
जन–मन–करुणा–सी माँ को हँकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य–त्याग दिये,

हृदय के मन्तव्य-मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत–बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम….

(15) समी अल कासिम (एक दिवालिये की रिपोर्ट)
अगर मुझे अपनी रोटी छोड़नी पड़े
अगर मुझे अपनी कमीज़ और अपना बिछौना बेचना पड़े
अगर मुझे पत्थर तोड़ने का काम करना पड़े
या कुली का
या मेहतर का
अगर मुझे तुम्हारा गोदाम साफ़ करना पड़े
या गोबर से खाना ढूँढ़ना पड़े
या भूखे रहना पड़े
और ख़ामोश
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
आखि़र तक मैं लड़ूँगा
जाओ मेरी ज़मीन का
आखि़री टुकड़ा भी चुरा लो
जेल की कोठरी में
मेरी जवानी झोंक दो
मेरी विरासत लूट लो
मेरी किताबें जला दो
मेरी थाली में अपने कुत्तों को खिलाओ
जाओ मेरे गाँव की छतों पर
अपने आतंक के जाल फैला दो
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखि़र तक मैं लड़ूँगा
अगर तुम मेरी आँखों में
सारी मोमबत्तियाँ पिघला दो
अगर तुम मेरे होंठों के
हर बोसे को जमा दो
अगर तुम मेरे माहौल को
गालियों से भर दो
या मेरे दुखों को दबा दो
मेरे साथ जालसाजी करो
मेरे बच्चों के चेहरे से हँसी उड़ा दो
और मेरी आँखों में अपमान की पीड़ा भर दो
इंसानियत के दुश्मन
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखि़र तक मैं लड़ूँगा
मैं लड़ूँगा
इंसानियत के दुश्मन
बन्दरगाहों पर सिगनल उठा दिये गये हैं
वातावरण में संकेत ही संकेत हैं
मैं उन्हें हर जगह देख रहा हूँ
क्षितिज पर नौकाओं के पाल नज़र आ रहे हैं
वे आ रहे हैं
विरोध करते हुए
यूलिसिस की नौकाएँ लौट रही हैं
खोये हुए लोगों के समुद्र से
सूर्योदय हो रहा है
आदमी आगे बढ़ रहा है
और इसके लिए
मैं क़सम खाता हूँ
मैं समझौता नहीं करूँगा
और आखि़र तक मैं लड़ूँगा
मैं लडूँगा


(16) कात्‍यायनी (गुजरात 2002)
भूतों के झुण्ड गुज़रते हैं
कुत्तों-भैसों पर हो सवार
जीवन जलता है कण्डों-सा
है गगन उगलता अन्धकार ।

यूँ हिन्दू राष्ट्र बनाने का
उन्माद जगाया जाता है
नरमेध यज्ञ में लाशों का
यूँ ढेर लगाया जाता है ।

यूँ संसद में आता बसन्त
यूँ सत्ता गाती है मल्हार
यूँ फासीवाद मचलता है
करता है जीवन पर प्रहार ।

इतिहास रचा यूँ जाता है
ज्यों हो हिटलर का अट्टाहास
यूँ धर्म चाकरी करता है
पूँजी करती वैभव-विलास।

(17) *मर्ज़ि‍एह ऑस्‍कोई (ईरानी क्रान्तिकारी कवयित्री जिनकी शाह-ईरान के एजेंटों ने हत्‍या कर दी थी) (लहर )*
मैं हुआ करती थी एक ठंडी, पतली धारा
बहती हुई जंगलों,
पर्वतों और वादियों में
मैंने जाना कि
ठहरा हुआ पानी भीतर से मर जाता है
मैने जाना कि
समुद्र की लहरों से मिलना
नन्‍ही धाराओं को नयी जिन्‍दगी देना है
न तो लम्‍बा रास्‍ता, न तो लम्‍बा खड्ड
न रूक जाने का लालच
रोक सके मुझे बहते जाने से
अब मैं जा मिली हूँ अन्‍तहीन लहरों से
संघर्ष में मेरा अस्तित्‍व है
और मेरा आराम है – मेरी मौत

(18) नागार्जुन (26 जनवरी, 15 अगस्त)
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है?
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है?

सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियाँ भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झुठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहाँ भी टिकट मिला

शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पन्द्रह अगस्त है
बाकी सब दुखी है, बाकी सब पस्त है…..

कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलन्द आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलन्द है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहाँ सुखी है, सेठ यहाँ मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है

पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज़ है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
फैशन की ओट है, सब कुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट पर पहाड़ है!

मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ्रिज़ है, सोफा है, बिजली का झाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में उखाड़ है, पछाड़ है
धत तेरी, धत तेरी, कुच्छों नहीं! कुछों नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं

पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छों नहीं, कुच्छों नहीं…..
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है

किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है


Comments

Popular posts from this blog

केदारनाथ अग्रवाल की आठ कविताएँ

कहानी - आखिरी पत्ता / ओ हेनरी Story - The Last Leaf / O. Henry

अवतार सिंह पाश की सात कविताएं Seven Poems of Pash