देशी-विदेशी हथियार सौदागरों के पौ बारह और आम सैनिकों के लिए खाना, वर्दी, जूते भी नदारद!

'राष्ट्रवाद' का असली बदरंग घिनौना चेहरा - देशी-विदेशी हथियार सौदागरों के पौ बारह और आम सैनिकों के लिए खाना, वर्दी, जूते भी नदारद!

मुकेश असीम

आज के इकनॉमिक टाइम्स की खबर है कि लड़ाकू हथियार खरीदने के लिए होने वाले भारी खर्च के चलते सरकार ने ओर्डनेंस कारखानों से होने वाली ख़रीदारी को उनके कुल उत्पादन के 94% से घटाकर 50% कर दिया है। यही कारखाने सैनिकों के लिए जरूरी अधिकांश साजो-सामान - वर्दी, जूते, बेल्ट, टोपी, आदि मुहैया कराते हैं। हालत यहाँ तक आ पहुंची है कि अब सैनिकों को इन सामानों की ख़रीदारी खुद बाजार से करना मजबूरी बन जाने वाली है। 
इसके पहले ही फौज से लेकर अर्धसैनिक बलों के जवानों की खराब भोजन की बहुतेरी शिकायतें, वीडियो सहित, सामने आईं थीं जिन्हें बाद में फौज ने सख्त पाबंदी और सजाओं द्वारा दबा दिया था। हमेशा सेना के सम्मान की बातें बघारने वाले भक्तों ने इन जवानों के खिलाफ भी गालियों का मोर्चा खोल दिया था। पर अब सच्चाई सामने है कि हथियार बेचने वाले देशी-विदेशी पूँजीपतियों से ऊंची कीमतों पर की जा रही भारी ख़रीदारी और बड़े अफसरों के ऐशो आराम पर बड़े खर्च के चलते आम जवानों की ज़िंदगी लगातार मुश्किल होती जा रही है।
यही अंधराष्ट्रवाद का असली चेहरा है जिसका बड़ा मकसद युद्धोन्माद पैदा कर अति उत्पादन के संकट से जूझ रहे पूँजीपतियों को राहत पहुंचाने के लिए उच्च मुनाफे देने वाले अस्त्र-शस्त्र की भारी खरीद करना है, युद्धोन्माद से होने वाला राजनीतिक फायदा और जनवादी अधिकारों-आंदोलनों के दमन का माहौल तैयार करना तो साथ में है ही। 
वहीं आम सैनिक तो अधिकांश गरीब-मध्य किसान तबके से आते हैं, उनमें व्याप्त भयंकर बेरोजगारी-कंगाली के माहौल के कारण जो नौकरी मिले, जिस कीमत पर मिले, जितने वेतन वाली मिले, तोप-बंदूक का चारा बनने वाली ही क्यों न हो, अपने मेहनतकश वर्ग बंधुओं पर गोली-लाठी चलाने वाली ही क्यों न हो, उसके लिए ही एक की जगह पर हजारों हाथ फैलाये मौजूद हैं। पर इससे मांग-पूर्ति के नियम से उनका खुद का बाजार मूल्य गिर गया है, अब उन्हें भी विशेष सुविधाएं देने की कोई वास्तविक आवश्यकता न रही - घटिया खाना है तो चुपचाप खाओ, वर्दी चाहिए तो खुद खरीद लाओ।
इसका दूसरा पक्ष लाखों रोजगार वाले ओर्डनेंस कारखानों को घाटे में पहुंचाकर तालाबंदी, निजी मुनाफे के लिए कौड़ियों के दाम बिक्री, छंटनी, बेरोजगारी तो है ही।

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