जीवित कविता की शर्तें / कात्‍यायनी

जीवित कविता की शर्तें / कात्‍यायनी
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आलोचक नहीं,
समय तय करता है
कविता की अंतर्वस्तु और उपयोगिता।
कविता लिखी जा सकती है
छोटे-छोटे रंगीन पंखों,
हवा में उड़ते रुई के फाहों जैसे
लगभग भारहीन ख़यालों,
या पत्ते की नोक पर टिकी
गिरने को उद्यत ओस की एक बूँद पर।
और खदानों से निकले खनिजों,
सागर में आते जहाज़ के
दूर से दीखते मस्तूल,
फसल कट चुके खेतों के उचाटपन,
दर-बदर होते लोगों और कहीं न दीखने वाली उम्मीद के बारे में
और लड़ाई के बाद युद्ध के मैदान की
तस्वीर के बारे में भी
कविता लिखी जा सकती है।
नहीं दीखने वाली दुनिया और
नहीं देखे गए सपनों से लेकर
बेहद मामूली, ठोस और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में
बरती जाने वाली चीज़ों
और अपरिचित लोगों को भी
कविता में लाया जा सकता है।
पर कविता में
वह जादू तो होना ही चाहिए
जो ज़िंदगी में नहीं है
और ज़िंदगी जिस जादू से
चमत्कृत और तरोताज़ा होना चाहती है।
कविता में वह सपना तो होना ही चाहिए
जिसे लोग भूल चुके हैं,
वह उम्मीद, जिसे लोग
लगभग छोड़ चुके हैं
और वह संकल्प
जो अरसे से ढीला, लस्त-पस्त पड़ा हुआ है।
कविता में ज़िंदगी की चीज़ें
होने का कोई मतलब नहीं,
अगर उसमें ऐसी चीज़ें भी न हों
जो फ़िलवक़्त हमारी ज़िंदगी में नहीं हैं।
हमारे समय में मौजूद चीज़ों को
नई पहचान देती है
और खोई हुई चीज़ों को
फिर से पा लेने की
तड़प पैदा करती है कविता।
जो चीज़ें कभी हमारे पास नहीं रहीं,
जिन्हें हमने देखा तक नहीं,
उनको भी पा लेने और रच देने की
एक दुर्निवार ललक दे जो कविता,
उसे नहीं चाहिए
कूपमंडूक आलोचकों से प्रमाणपत्र
और प्रतिष्ठानों से प्रतिष्ठा।
स्वयं सतत अपनी ही आलोचना होगी
वह कविता,
वह अपने समय की आलोचना होगी
और आने वाले समय का एक मानचित्र।



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