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Showing posts from August, 2019

कुछ बेतरतीब उद्धरण, कविताएं

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कुछ बेतरतीब उद्धरण, कविताएं  सरकार लोगों को विश्वास दिलाती है कि उनपर दूसरे राष्ट्र द्वारा हमले का खतरा मंडरा रहा है , या उनके बीच मौजूद दुश्मनों से उन्हें खतरा है , और इस खतरे से बचने का एकमात्र रास्ता यह है कि लोग गुलामों की तरह अपनी सरकार का आज्ञापालन करें। ✍   लेव तोल्स्तोय ________________________ जिन लोगों को हम प्यार करते हैं उनके प्यार को महसूस करना वह आग है जो हमारी ज़िन्दगी को ख़ुराक देती है। ✍   पाब्लो नेरूदा ________________________ अगर तुम सिर्फ़ तभी ऊँचे क़द के लगते हो क्योंकि कोई अपने घुटनों के बल खड़ा है , तो तुम्हारी समस्या गंभीर है। ✍   टोनी मॉरिसन ________________________ जब तक मैं जीवित हूं , जीवन का शासक रहूंगा , गुलाम नहीं , एक शक्तिशाली विजेता की तरह उससे मुलाक़ात करूंगा , और मुझसे बाहरी कोई भी चीज़ कभी मुझ पर काबू नहीं कर पायेगी - वाल्‍ट व्हिटमैन ________________________ '' आदमी सचेतन रूप से अपने लिए जीता है परन्‍तु अवचेतन मन से वह मानवजाति के ऐतिहासिक , सर्वव्‍यापी लक्ष्‍य सिद्धी का साधन बनता है .. '' ✍ लेव तोल्‍स

कविता - फसल / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

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कविता - फसल सर्वेश्वरदयाल सक्सेना हल की तरह कुदाल की तरह या खुरपी की तरह पकड़ भी लूं कलम तो फिर भी फसल काटने मिलेगी नहीं हम को। हम तो ज़मीन ही तैयार कर पाएंगे क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आएंगे हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को। कल जो भी फसल उगेगी , लहलहाएगी मेरे ना रहने पर भी हवा से इठलाएगी तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी जिन्होंने बीज बोए थे उन्हीं के चरण परसेगी काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोएंगे।

दिल्‍ली के पुस्‍तक बाजार को बन्‍द करवाने का तुगलकी फरमान - ज्ञान व विवेक के दुश्‍मन हुक्‍मरान

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दिल्‍ली के पुस्‍तक बाजार को बन्‍द करवाने का तुगलकी फरमान - ज्ञान व विवेक के दुश्‍मन हुक्‍मरान  कविता कृष्‍णपल्‍लवी भारतीय न्यायपालिका नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार की शिकार , लालफीताशाही की शिकार और कार्यपालिका (सरकार) की टट्टू तो है ही , यह न्यूनतम सांस्कृतिक चेतना , इतिहास-बोध और नागरिकता-बोध से भी रिक्त है , इसका एक और प्रमाण तीन सप्ताह पहले तब मिला जब दिल्ली हाई कोर्ट ने दरियागंज के फुटपाथ पर हर रविवार को लगने वाले पुस्तकों के साप्ताहिक बाज़ार को यह कहते हुए बंद कर दिया कि यह पूरा इलाका ' नो हाकिंग जोन ' है! ज्यादातर सेकंड-हैण्ड किताबों और पुरानी किताबों का यह बाज़ार पचासों साल पुराना था और सिर्फ़ दिल्ली के ही नहीं बल्कि पूरे देश से दिल्ली आने-जाने वाले पुस्तक-प्रेमी इसे जानते थे। इसमें गरीब छात्रों को पाठ्यक्रम और प्रतियोगिता की पुरानी किताबें तो मिल ही जाती थीं , विश्व-प्रसिद्ध क्लासिक्स के 70-80 साल पुराने संस्करण मिल जाते थे -- ऐसी-ऐसी दुर्लभ किताबें हाथ लग जाती थीं कि आदमी कई दिनों तक हर्ष , आश्चर्य और रोमांच में डूबा रहता था! मेरी अपनी लाइब्रेरी का 50 प्रति

नागार्जुन की कविता - उनको प्रणाम!

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नागार्जुन की कविता - उनको प्रणाम! कविता से पहले की ये प्रासंगिक टिप्‍पणी कविता कृष्‍णपल्‍लवी ने लिखी है और उसे हम यहां यथावत दे रहे हैं।  कुछ दिनों पहले एक धुरंधर विद्वान मिले।   बोले ,' देखो ,  कुछ करना तभी चाहिए जब क़ामयाबी पक्की हो! यूँ ही धूल में लट्ठ क्यों मारते रहें और अपना सुख-चैन भी हराम करें! भगतसिंह के फाँसी चढ़ जाने से क्या मिला ?   कम्युनिस्ट मूवमेंट में पहले लोगों ने इतनी कुर्बानियाँ दीं और आज देखो ,  आज के कम्युनिस्ट नेता क्या कर रहे हैं और मूवमेंट किसतरह तबाह हो चुका है! ' मैंने धुरंधरजी को समझाने या उनसे बहस करने की कोई कोशिश नहीं की।   मेरा ख़याल है कि नासमझ को समझाया जा सकता है और एक जेनुइनली निराश व्यक्ति से उम्मीद की बातें की जा सकती हैं ,  पर जो व्यक्ति अपनी कायरता और स्वार्थपरता को छुपाने के लिए तर्क गढ़ रहा हो ,  उससे कत्तई बहस की कोशिश नहीं करना चाहिए।   उसे चुपचाप मुस्कुराते हुए थोड़ी देर देखना चाहिए और फिर हँसते हुए वहाँ से उठ जाना चाहिए! फ़िलहाल जो लड़ते हुए असफल रहे ,  उसूलों की खातिर जिन लोगों ने हारी हुई लडाइयाँ लड़ीं और खुद गुमनामी के अँध

एक नगर-राज्य की कथा

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एक नगर-राज्य की कथा कविता कृष्‍णपल्‍लवी   उस नगर-राज्य में राजा और उसके अमात्यों के मंडल और राज-परिषद के सदस्यों का निर्वाचन वास्तव में अर्द्ध-रात्रि में आयोजित नगर सेठों की परिषद की विशेष गुप्त सभा किया करती थी। फिर सैनिकों से घिरे कुछ राज-पुरुष सामान्य जनों को घर-घर जाकर बता देते थे कि किन जनों को राजा , अमात्य और राजपरिषद-सदस्य चुनना है। फिर एक दिन नगर-द्वार के निकट सैनिक लोगों को ठेलकर लाते थे। कोई प्रस्ताव रखता था , कोई समर्थन करता था और जैकारों के शोर से पूरा राज्य गूँज जाता था। इसतरह चुनाव संपन्न हो जाता था। इधर निकट कुछ वर्षों से राज्य का संकट दिन-प्रतिदिन गंभीर होता जा रहा था। नगर-सेठ भी आपस में कलहरत थे। जनता ' त्राहि-त्राहि ' कर रही थी। तब गहन मंत्रणा के बाद परिषद ने ऐसे राजा और ऐसे अमात्यों के मंडल का चुनाव किया जो दिखने में तो परम मूर्ख विदूषक लगते थे , पर वास्तव में कुशल हत्यारे , ठग और गिरहकट थे। उनमें से कुछ घाटों के पण्डे और कुछ सड़कों पर खेल दिखाने वाले मदारी भी थे। वे लोगों को ठगने , रिझाने और वक्तृत्व-कला में अति-कुशल थे। उनमें से

कश्मीर,कर्फ़्यू और कोहराम - निदा नवाज़ की डायरी के झरोखे से

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कश्मीर , कर्फ़्यू और कोहराम दिनाक 22 अगस्त 2016- निदा नवाज़ निदा नवाज कश्मीर के रहने वाले हैं और रचनाओं के माध्यम से कश्मीरी जनता के हालात को हमारे बीच लाते हैं। उनकी कुछ कविताएं भी हमने पहले शेयर की थी। आज उनकी 2016 की डायरी के दो पन्ने शेयर कर रहे हैं। वहां वर्तमान में जो हालात हैं उसका अंदाजा लगाने के लिए यह दो रचनाएं ही काफी है। उनके  ब्‍लॉग  https://nidanawaz.blogspot.com  पर उनकी अन्‍य  रचनायें भी पढ़ी जा सकती हैं।  इस दुनिया में इंसान को अपने पेट की समस्या से बढ़कर और कोई बड़ी समस्या नहीं। इंसान ज़िंदा रहने के लिए कोई भी समझौता करने पर मजबूर हो जाता है। बात परसों रात की है। अँधेरा फैल चुका था। मैं अपने कमरे में एक बार फिर ख़लील जिब्रान की रचना “The Prophet” पढ़ रहा था। किसी ने हमारे घर के लोहे से बने मुख्य द्वार को खटखटाना शरु किया। सारे परिवार जनों की दिल की धड़कनें तेज़ होने लगीं। मन में ढेर सारी शंकाओं ने सिर निकालना आरम्भ किया। हम सब घर के ड्राइंग-रूम में जमा हुए। कोई सोच रहा था कि कहीं सुरक्षाकर्मी तो नहीं हैं ,  तो कोई सोच रहा था कि कहीं कोई मनचला पत्थरबाज़ न हो ?

उपेन्द्रनाथ अश्क की कहानी डाची

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उपेन्द्रनाथ अश्क की कहानी डाची   काट (काट - दस-बीस सिरकियों के खैमों का छोटा-सा गाँव) ' पी सिकंदर ' के मुसलमान जाट बाकर को अपने माल की ओर लालचभरी निगाहों से तकते देख कर चौधरी नंदू वृक्ष की छाँह में बैठे-बैठे अपनी ऊँची घरघराती आवाज में ललकार उठा , ' रे-रे अठे के करे है (अरे तू यहाँ क्या कर रहा है ?)?' - और उस की छह फुट लंबी सुगठित देह , जो वृक्ष के तने के साथ आराम कर रही थी , तन गई और बटन टूटे होने के कारण , मोटी खादी के कुर्ते से उसका विशाल वक्षस्थल और उसकी बलिष्ठ भुजाएँ दृष्टिगोचर हो उठीं। बाकर तनिक समीप आ गया। गर्द से भरी हुई छोटी-नुकीली दाढ़ी और शरअई मूँछों के ऊपर गढ़ों में धँसी हुई दो आँखों में निमिष मात्र के लिए चमक पैदा हुई और जरा मुस्करा कर उसने कहा , ' डाची (साँड़नी) देख रहा था चौधरी , कैसी खूबसूरत और जवान है , देख कर आँखों की भूख मिटती है। ' अपने माल की प्रशंसा सुन कर चौधरी नंदू का तनाव कुछ कम हुआ ; प्रसन्न हो कर बोला , ' किसी साँड़ (कौन-सी डाची) ?' ' वह , परली तरफ से चौथी। ' बाकर ने संकेत करते हुए कहा। ओकाँह (एक वृक्ष-व