कविता - फसल / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


कविता - फसल

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूं कलम तो
फिर भी फसल काटने
मिलेगी नहीं हम को।


हम तो ज़मीन ही तैयार कर पाएंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आएंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को।


कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी

जिन्होंने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोएंगे।





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