कश्मीर,कर्फ़्यू और कोहराम - निदा नवाज़ की डायरी के झरोखे से
कश्मीर,कर्फ़्यू और कोहराम
दिनाक 22 अगस्त 2016- निदा नवाज़
निदा नवाज कश्मीर के रहने वाले हैं और रचनाओं के माध्यम से कश्मीरी जनता के हालात को हमारे बीच लाते हैं। उनकी कुछ कविताएं भी हमने पहले शेयर की थी। आज उनकी 2016 की डायरी के दो पन्ने शेयर कर रहे हैं। वहां वर्तमान में जो हालात हैं उसका अंदाजा लगाने के लिए यह दो रचनाएं ही काफी है। उनके ब्लॉग https://nidanawaz.blogspot.com पर उनकी अन्य रचनायें भी पढ़ी जा सकती हैं।
इस दुनिया में इंसान को अपने पेट की समस्या से
बढ़कर और कोई बड़ी समस्या नहीं। इंसान ज़िंदा रहने के लिए कोई भी समझौता करने पर मजबूर
हो जाता है। बात परसों रात की है। अँधेरा फैल चुका था। मैं अपने कमरे में एक बार फिर
ख़लील जिब्रान की रचना “The Prophet” पढ़ रहा था। किसी ने हमारे घर के लोहे से बने
मुख्य द्वार को खटखटाना शरु किया। सारे परिवार जनों की दिल की धड़कनें तेज़ होने
लगीं। मन में ढेर सारी शंकाओं ने सिर निकालना आरम्भ किया। हम सब घर के ड्राइंग-रूम
में जमा हुए। कोई सोच रहा था कि कहीं सुरक्षाकर्मी तो नहीं हैं, तो कोई सोच रहा था
कि कहीं कोई मनचला पत्थरबाज़ न हो? मैं सोचने लगा कि कहीं कोई नक़ाबपोश तो नहीं है? हम यह भी सोच रहे
थे कि रात के समय इस कर्फ़्यू में आख़िर कौन हो सकता है। जब कुछ देर तक हमने दरवाज़ा
नहीं खोला तो आवाज़ आई, "मैं अब्दुल करीम हूँ, अब्दुल करीम, आपका पड़ाैैसी" हमने आवाज़
पहचानी।हमारे ही मुहल्ले के दूसरे छोर पर रहता है। म्युनिसपुल्टी में सफाई कर्मचारी
है। मेरे छोटे बेटे नीरज ने दरवाज़ा खोला और अब्दुल करीम दाख़िल हुआ। उसके बगल में एक
पोटली थी और वह डर से थर्रा रहा था। हमने उसको कमरे के कोने की तरफ़ इशारा करके
बैठने को कहा। बैठते ही वह कहने लगा, "आपके यहां कुछ काम था, सोचा अँधेरे की ओट में उस तंग गली से
आजाऊंगा। वहां फ़ौजी तैनात नहीं होते हैं। कुत्तों का डर था। इसलिए नहीं कि वे काटने
को दौड़ते। नहीं मुझे अपने मुहल्ले का एक एक कुत्ता पहचान लेता है। दिन भर गन्दगी के
ढेर साफ़ करता रहता हूँ। ये सभी कुत्ते उन्ही पर तो बैठे होते हैं। डर था कि कुत्ते
भोंकेगे तो कर्फ़्यू ड्यूटी पर तैनात सुरक्षाकर्मी सतर्क हो जायेंगे। गोली भी चल
सकती थी। नीरज ने उसको पानी का गिलास थमा दिया। उसने एक ही घूंट में पूरा गिलास गले
से नीचे उतारा। अपनी उखड़ती सांसें संभालने के बाद उसने पोटली फर्श पर रखकर खोली। हम
देख रहे थे। पोटली में एक मोबाईल, एक पुराना रेडियो सेट और सोने का एक कंगन
था। मैंने अब्दुल करीम से कहा, "करीम इस पोटली को क्यों खोला है, ये क्या है। इन चीज़ों
को कहाँ से लाये हो"? उसने मेरी बात काटते हुए एक सर्द आह भर ली और
कहने लगा, "नवाज़ साहब मैंने कोई चोरी नहीं की है, ये चीज़ें मेरी अपनी हैं। यह रेडियो सेट
अपने पहले वेतन से लाया था। यह मोबाइल पिछले वर्ष ही ख़रीदा है, मामूली कॉलोटि का है
लेकिन चलता अच्छा है, इसमें कैमरा भी है और यह कंगन मेरी स्वर्गीय माँ का है। उसी ने मरते
समय मेरे हाथ में यह कहते थमा दिया था कि यह अर्जु बेटी की शादी पर काम
आयेगा"। मैँने फिर से कहा, "वह तो ठीक है करीम लेकिन इन चीज़ों को यहां क्यों
लाये हो"। उसने उत्तर दिया, "नवाज़ साहब जब खाने के लाले पड़े हों तो फिर इन
चीज़ों का क्या करना। चावल और आटा एक दुकानदार से मिल रहा है, लेकिन बहुत महंगा दे
रहा है। मालूम नहीं कर्फ़्यू कब तक रहे और तनखाह देंगे भी या नहीं। इन चीज़ों को रखकर
कुछ पैसे देते तो मैं आभारी रहता"।
मेरा दिल छलनी हो रहा था। हाथ में थामी ख़लील जिब्रान की “The
Prophet” को देख
कर सोच रहा था कि संसार की सब से बड़ी दार्शनिकता, सबसे बड़ी राजनीति, सबसे बड़ा धर्म, सबसे बड़े सिद्धांत, सबसे बड़े नियम और नीतियां तो जीवन स्वयं ही
निर्धारित करता है। मैं यह भी सोच रहा था कि महीनों पर फैले इस कर्फ़्यू में मेरी
कश्मीर घाटी के लाखों परिवार न जाने कौन कौन सी जान से भी प्यारी चीज़ें बेचने या
गिरवी रखने पर मजबूर हो गए होंगे।
अस्पतालों में घायलों और मृतकों की तलाश
दिनाक 23 जुलाई 2016 -
निदा नवाज़
मैं कश्मीर घाटी के बड़े अस्पताल शेर-ए-कश्मीर इंस्टिट्यूट आफ मेडिकल
साइंस सोवोर में खड़ा था।इस अस्पताल को कश्मीर घाटी में सोवुर अस्पताल कहा जाता
है। आज दोपहर को कर्फ़्यू में चार घण्टे की डील दी गई थी। मैं पिछले कही दिनों से
कश्मीर घाटी के इस मशहूर अस्पताल के बारे में सोच रहा था। इस अस्पताल में आम दिनों
में भी बीमारों की बहुत ही ज़्यादा भीड़ रहती है। इसके ऑवटडोर पेशंट हिस्से में हर दिन हज़ारों बीमार
पहुंच जाते हैं। पिछले लगभग 46 दिनों से श्रीनगर के दो बड़े अस्पताल, एसएमएचएस और यह
मेडिकल इंस्टिट्यूट बहुत ज़्यादा सुर्ख़ियों में रहे। इस दौरान घाटी के केवल इन दो
बड़े अस्पतालों में पत्थरबाजियों ,प्रदर्शनों,हड़तालों की आड़ में घायल हुए लगभग 6
हज़ार लोगों को
ऐडमिट किया गया। श्रीनगर में स्थित मेडिकल इंस्टिट्यूट के मुख्यद्वार पर पहुंच कर
मेरे सामने अतिदुखद और अतिसंवेदनशील दृश्य था। बहुत दिनों के बाद कश्मीर की राजधानी
के इस क्षेत्र में कर्फ़्यू में पूरे चार घण्टे की डील दी गई थी। दूर दूर के गांव से
आये बीमारों और उन्हें देखने वालों का तांता बंधा था। मुख्य द्वार के बाएं तरफ़ एक
बूढ़ा फुटपाथ पर बैठा रो रहा था। मैं उसके पास गया और पूछ बैठा, "बूढ़े बाबा आप क्यों
रो रहे हैं, आपको किस वार्ड में जाना है"। बूढ़ा बाबा हसरत भरी निगाहों से मुझे
देखने लगा और कहने लगा, “ क्या बताऊँ बेटे मैं झील-आंचार के उस किनारे पर
स्थित एक गाँव वनिगाम में रहता हूँ। कल ही सुना था कि आज कर्फ़्यू में चार घण्टे की
डील दी जायेगी। रात को ही घर से पैदल निकला हूँ। ठीक 20 दिन पहले प्रदर्शनों में मेरा पोता फ़राज़, यह क्या कहते किसी
पल्टग्न से घायल हुआ, वहां ही अपने गांव में। फिर कुछ गांव वालों ने बांडीपोरा के
डिस्ट्रिक्ट अस्पताल लिया था, फिर सुना कि वहां से श्रीनगर के इस बड़े अस्पताल
में रेफ़र किया गया। तब से बेटे हमें कुछ नहीं मालूम, मेरा पोता ज़िंदा भी है या चला
गया अपने बाप सुर्गीय मजीद के पास। मेरे बेटे और इस फ़राज़ के पिता मजीद को भी लगभग 12
वर्ष पूर्व कुछ
नक़ाबपोशों ने घर से उठाकर गोलियों से छलनी किया था। तब से इस अनाथ को मैं ही पाल
रहा हूँ। अब बताओ बेटा मैं बूढ़ा अपने इस पोते को इतने बड़े अस्पताल में कहाँ कहाँ
ढूंढूूं, मैं
ठहरा गाँव का एक अनपढ़ किसान। तब से आज तक पूरे 20 दिन कर्फ़्यू में कोई डील भी नहीं दी गई। उधर कहते हैं कि फोन भी बन्द हैं"। बूढ़ा बाबा फिर रोने लगा। अस्पताल के सहन
और कम्पाउंड में मैंने सैंकड़ों मर्द, औरतें और बूढ़े बुजर्ग देखे जो कर्फ़्यू में दी गई
ढील की वजह से अस्पताल में उमड़ आये थे। किसी का बेटा घायल हुआ था तो किसी के भाई को
चोट आई थी। हफ्तों हुए थे लेकिन आये दिन के कर्फ़्यू, हड़तालों और सड़कों के बीच खड़ा की गईं
रुकावटों के कारण कोई घर से नहीं निकल सका था, कोई अपने घायल हुए बेटे, अपने भाई, अपनी माँ, अपनी बहन आदि को इस
अस्पताल में खोजने आये थे।
मैं कश्मीर घाटी के इस बड़े अस्पताल के विशाल सहन में बीमारों और
घायलों को ढोंढने आये एक बड़े हजूम के बीच अपनी कश्मीर घाटी की दहलीज़ पर खड़ा हुए ऐसे महाप्रलय को देखकर काँप रहा था।
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