दिल्ली के पुस्तक बाजार को बन्द करवाने का तुगलकी फरमान - ज्ञान व विवेक के दुश्मन हुक्मरान
दिल्ली के पुस्तक बाजार को बन्द करवाने का तुगलकी फरमान - ज्ञान व विवेक के दुश्मन हुक्मरान
कविता कृष्णपल्लवी
भारतीय न्यायपालिका नीचे से ऊपर तक भ्रष्टाचार की शिकार, लालफीताशाही की
शिकार और कार्यपालिका (सरकार) की टट्टू तो है ही, यह न्यूनतम सांस्कृतिक चेतना, इतिहास-बोध और
नागरिकता-बोध से भी रिक्त है, इसका एक और प्रमाण तीन सप्ताह पहले तब मिला जब
दिल्ली हाई कोर्ट ने दरियागंज के फुटपाथ पर हर रविवार को लगने वाले पुस्तकों के
साप्ताहिक बाज़ार को यह कहते हुए बंद कर दिया कि यह पूरा इलाका 'नो हाकिंग जोन'
है! ज्यादातर
सेकंड-हैण्ड किताबों और पुरानी किताबों का यह बाज़ार पचासों साल पुराना था और सिर्फ़
दिल्ली के ही नहीं बल्कि पूरे देश से दिल्ली आने-जाने वाले पुस्तक-प्रेमी इसे
जानते थे। इसमें गरीब छात्रों को पाठ्यक्रम और प्रतियोगिता
की पुरानी किताबें तो मिल ही जाती थीं, विश्व-प्रसिद्ध क्लासिक्स के 70-80 साल पुराने संस्करण
मिल जाते थे -- ऐसी-ऐसी दुर्लभ किताबें हाथ लग जाती थीं कि आदमी कई दिनों तक हर्ष,
आश्चर्य और रोमांच
में डूबा रहता था!
मेरी अपनी लाइब्रेरी का 50 प्रतिशत हिस्सा -- जो सबसे बहुमूल्य किताबों का
है और जिन्हें मैं किसी को छूने-देखने तक नहीं देती, वह दरियागंज फुटपाथ के सन्डे बाज़ार से ही
बटोरा गया है। दिल्ली में रहते हुए मैं बरसों इस बाज़ार की खाक
छानती रही। तमाम दुकानदारों से मेरा दुआ-सलाम वाला अच्छा
परिचय हुआ करता था।
अगर हमारे देश के हुक्मरान इस क़दर असभ्य और कुसंस्कृत और ज्ञान एवं
विवेक के शत्रु नहीं होते तो 70-80 वर्षों से चल रहे इस फुटपाथी पुस्तक बाज़ार को एक
सांस्कृतिक धरोहर घोषित कर देते, लेकिन उसे बंद कर देने का तुगलकी फरमान कोर्ट ने
जारी कर दिया! यह भी नहीं सोचा गया कि कलम के एक झटके से कई सौ परिवारों की
रोजी-रोटी छीन ली गयी और गरीब छात्रों के लिए जो नई परेशानी पैदा हुई वह अलग! रही
बात साहित्य और मानविकी के पुस्तकों के दीवानों की, तो वह तो वैसे ही एक दुर्लभ प्रजाति होती
जा रही है! अब तो प्रोफ़ेसर और पत्रकार भी अपने निजी पुस्तकालय घरों में नहीं बनाते,
कई तो अखबार-पत्रिका
तक नहीं खरीदते। यह भी नहीं कि सार्वजनिक या
विश्वविद्यालयों-कालेजों के पुस्तकालयों में जाते हों! वे बस टी.वी. देखते हैं,
शेयर और बचत के
तरीकों की जानकारियाँ इकट्ठी करते हैं, दारू-पानी की महफिलें जमाते हैं, या रिश्तेदारों के
वहाँ आने-जाने में समय खर्च करते हैं! और अगर पुस्तकालय जाते भी तो पाते क्या!
शिक्षा-संस्थानों से लेकर पुराने ऐतिहासिक सार्वजनिक पुस्तकालय तक -- सबके सब तो
तबाह होते जा रहे हैं।
पूँजीवादी समाज जैसे-जैसे रुग्ण और बूढ़ा होता गया है, वैसे-वैसे पतित,
असभ्य, बर्बर भी होता चला
गया है, घोर
मानव-द्रोही होता चला गया है! इस बुर्जुआ समाज का औसत नागरिक ज्ञान, विवेक और तर्कणा से
ज्यादा से ज्यादा घृणा करने लगा है। उसे लोभ-लाभ की, आने-पाई के इर्द-गिर्द घूमती दुनिया में
जीने के लिए ये चीज़ें न सिर्फ़ अनुपयोगी लगती हैं, बल्कि नुकसानदेह लगती हैं! आश्चर्य नहीं
कि किताबों और ज्ञान से घृणा करने वाले धुर-दक्षिणपन्थी बर्बरों और फासिस्टों का
तथाकथित पढ़ा-लिखा असभ्य और कूपमंडूक तबका बढ़-चढ़कर और जोशो-खरोश के साथ समर्थन करता
है! जो आम बौद्धिक लोग दुनियादारी के चरखे में लगे हुए, ज्यादा से ज्यादा सुविधाएं बटोरने के लिए
चकरघिन्नी की तरह नाचते हुए पुस्तकों की दुनिया से, विचार और संस्कृति से दूर होते चले गए,
वे फासिस्टों द्वारा
शासित होने, निराशा में कुछ भुनभुनाते रहने और यदा-कदा सड़कों पर गुंडों-लफंगों के
गिरोहों द्वारा रगेदे और लतियाए जाने के लिए अभिशप्त हैं!
मैं तो कई ऐसे पुराने कामरेडों को जानती हूँ, जो खुद तो कामरेड बने रहे पर अपने घर के
एक भी सदस्य को कामरेड नहीं बना पाए! उनकी पत्नी और बेटे-बेटियों को मैंने उनके विचारों
और उनकी किताबों से नफ़रत करते ही पाया। एक कामरेड मेडिकल
चेक-अप के लिए दिल्ली गए तो उनकी पत्नी और बेटे ने उनकी सारी किताबें कबाड़ी को
बेंच दीं! एक दूसरे कामरेड की पत्नी ने उनकी गैर-हाजिरी में उनकी सारी किताबें
बाँट दीं! एक बूढ़े कामरेड की पत्नी जब अपने पति को उनके किताबों के अम्बार के लिए
बहुत गाली दे रही थीं तो मैंने अनुरोध किया कि किताबें मुझे दे दीजिये! पत्नी ने
तत्क्षण हस्तक्षेप करते हुए कहा कि 'आग लगा दूँगी पर तुम्हें नहीं देने दूँगी। तुम तो
इन जैसी निठल्ली भी नहीं हो, कई घर बर्बाद कर दोगी।' कम से कम ऐसे दस-बारह मामले तो मैं जानती
ही हूँ जब कामरेडों के मरते ही घरवालों ने अगली ही फुर्सत में कबाड़ी बुलाकर कामरेड
की किताबों को ठिकाने लगा दिया! दरियागंज के फुटपाथ पर कई बार मुझे कई ऐसी किताबें
हाथ लगीं जिनपर किसी जाने-माने कम्युनिस्ट के या प्रसिद्ध लेखक के हस्ताक्षर थे!
इसतरह के बहुत दिलचस्प किस्से मेरे पास हैं, जो कभी फुरसत से सुनाऊंगी! फिलहाल काम की
बात यह है कि आप यदि अपनी किताबों और पत्रिकाओं के संकलन की साज-सम्हार नहीं कर पा
रहे हैं, और उनको
लेकर घरवालों ने आपका जीना दूभर कर दिया है, तो अपनी यह अनमोल विरासत हमें सौंप दीजिये!
हमलोग कई शहरों और कई गाँवों में मज़दूर बस्तियों से लेकर मध्यवर्गीय नागरिकों की
बस्तियों तक में पुस्तकालय बना और चला रहे हैं, कई सांस्कृतिक केंद्र विकसित कर रहे हैं!
पुस्तकों की संस्कृति विकसित करने की मुहिम को हम व्यापक सामाजिक बदलाव के
प्रोजेक्ट का ज़रूरी अंग मानते हैं! आपकी पुस्तकों का इस मुहिम में उपयोग हो,
इससे अच्छी बात भला
और क्या होगी ?
Its a shocking news. I am disappointed.
ReplyDeleteKavita krishnapallavi ji ka " hardik shubheksha "ek ek shabd se aapki satya aadharit bateein dhanyawad,jai 🇮🇳 .
ReplyDeletehttps://safihasannaqvi.blogspot.com/2020/06/blog-post_3.html
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