नागार्जुन की कविता - उनको प्रणाम!
नागार्जुन की कविता - उनको प्रणाम!
कविता से पहले की ये प्रासंगिक टिप्पणी कविता कृष्णपल्लवी ने लिखी है और उसे हम यहां यथावत दे रहे हैं।
कुछ दिनों पहले एक
धुरंधर विद्वान मिले। बोले,'देखो, कुछ करना तभी चाहिए जब क़ामयाबी पक्की हो! यूँ ही धूल में लट्ठ
क्यों मारते रहें और अपना सुख-चैन भी हराम करें! भगतसिंह के फाँसी चढ़ जाने से क्या
मिला? कम्युनिस्ट मूवमेंट में पहले लोगों ने इतनी कुर्बानियाँ दीं और
आज देखो, आज के कम्युनिस्ट नेता क्या कर रहे हैं और मूवमेंट किसतरह तबाह
हो चुका है!'
मैंने धुरंधरजी को
समझाने या उनसे बहस करने की कोई कोशिश नहीं की। मेरा ख़याल है कि नासमझ को समझाया जा सकता है और एक जेनुइनली
निराश व्यक्ति से उम्मीद की बातें की जा सकती हैं, पर जो व्यक्ति अपनी कायरता और स्वार्थपरता को छुपाने के लिए
तर्क गढ़ रहा हो, उससे कत्तई बहस की कोशिश नहीं करना चाहिए। उसे
चुपचाप मुस्कुराते हुए थोड़ी देर देखना चाहिए और फिर हँसते हुए वहाँ से उठ जाना
चाहिए!
फ़िलहाल जो लड़ते हुए
असफल रहे, उसूलों की खातिर जिन लोगों ने हारी हुई लडाइयाँ लड़ीं और खुद
गुमनामी के अँधेरे में खोकर आने वाली पीढ़ियों को राह दिखाई, उन्हें
मैं महाकवि वाल्ट व्हिटमैन की इन पंक्तियों के साथ याद करती हूँ और सलामी देती हूँ
:
'ढेरों सलाम उनको जो असफल हुए
और उनको जिनके
युद्ध-पोत समंदर में डूब गये
और उनको जो खुद सागर
की गहराइयों में समा गये
और उन सभी सेनापतियों
को जो युद्ध हार गये और सभी पराजित नायकों को
और उन अनगिन अज्ञात
नायकों को जो महानतम ज्ञात नायकों के बराबर हैं।'
.
एकदम इसी भावभूमि पर
नागार्जुन की भी एक कविता है जो मुझे बहुत प्रिय है :
'जो नहीं हो सके पूर्ण-काम
मैं उनको करता हूँ
प्रणाम।
कुछ कुण्ठित औ' कुछ
लक्ष्य-भ्रष्ट
जिनके अभिमन्त्रित तीर
हुए;
रण की समाप्ति के पहले
ही
जो वीर रिक्त तूणीर
हुए!
उनको प्रणाम!
जो छोटी-सी नैया लेकर
उतरे करने को उदधि-पार;
मन की मन में ही रही¸ स्वयँ
हो गए उसी में निराकार!
उनको प्रणाम!
जो उच्च शिखर की ओर
बढ़े
रह-रह नव-नव उत्साह
भरे;
पर कुछ ने ले ली
हिम-समाधि
कुछ असफल ही नीचे उतरे!
उनको प्रणाम!
एकाकी और अकिंचन हो
जो भू-परिक्रमा को
निकले;
हो गए पँगु, प्रति-पद
जिनके
इतने अदृष्ट के दाव
चले!
उनको प्रणाम!
कृत-कृत नहीं जो हो
पाए;
प्रत्युत फाँसी पर गए
झूल
कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी
यह दुनिया जिनको गई
भूल!
उनको प्रणाम!
थी उम्र साधना, पर जिनका
जीवन नाटक दुखान्त हुआ;
या जन्म-काल में सिंह
लग्न
पर कुसमय ही देहान्त
हुआ!
उनको प्रणाम!
दृढ़ व्रत औ' दुर्दम
साहस के
जो उदाहरण थे
मूर्ति-मन्त?
पर निरवधि बन्दी जीवन
ने
जिनकी धुन का कर दिया
अन्त!
उनको प्रणाम!
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय
पर विज्ञापन से रहे
दूर
प्रतिकूल परिस्थिति ने
जिनके
कर दिए मनोरथ चूर-चूर!
उनको प्रणाम!'
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