उपेन्द्रनाथ अश्क की कहानी डाची
उपेन्द्रनाथ अश्क की कहानी डाची
काट (काट - दस-बीस सिरकियों के खैमों का छोटा-सा गाँव) 'पी सिकंदर' के मुसलमान जाट बाकर
को अपने माल की ओर लालचभरी निगाहों से तकते देख कर चौधरी नंदू वृक्ष की छाँह में
बैठे-बैठे अपनी ऊँची घरघराती आवाज में ललकार उठा, 'रे-रे अठे के करे है (अरे तू यहाँ क्या कर
रहा है?)?' - और उस की छह फुट लंबी सुगठित देह, जो वृक्ष के तने के साथ आराम कर रही थी,
तन गई और बटन टूटे
होने के कारण, मोटी खादी के कुर्ते से उसका विशाल वक्षस्थल और उसकी बलिष्ठ भुजाएँ
दृष्टिगोचर हो उठीं।
बाकर तनिक समीप आ गया। गर्द से भरी हुई छोटी-नुकीली दाढ़ी और शरअई
मूँछों के ऊपर गढ़ों में धँसी हुई दो आँखों में निमिष मात्र के लिए चमक पैदा हुई
और जरा मुस्करा कर उसने कहा, 'डाची (साँड़नी) देख रहा था चौधरी, कैसी खूबसूरत और
जवान है, देख कर
आँखों की भूख मिटती है।'
अपने माल की प्रशंसा सुन कर चौधरी नंदू का तनाव कुछ कम हुआ; प्रसन्न हो कर बोला,
'किसी साँड़ (कौन-सी
डाची)?'
'वह, परली तरफ से चौथी।' बाकर ने संकेत करते हुए कहा।
ओकाँह (एक वृक्ष-विशेष) के एक घने पेड़ की छाया में आठ-दस ऊँट बँधे थे,
उन्हीं में एक जवान
साँड़नी अपनी लंबी, सुंदर और सुडौल गर्दन बढ़ाए घने पत्तों में मुँह मार रही थी माल मंडी
में, दूर
जहाँ तक नजर जाती थी, बड़े-बड़े ऊँचे ऊँटों, सुंदर साँड़नियों, काली-मोटी बेडौल भैंसों, सुंदर नगौरी
सींगोंवाले बैलों और गायों के सिवा कुछ न दिखाई देता था। गधे भी थे, पर न होने के बराबर
अधिकांश तो ऊँट ही थे। बहावल नगर के मरुस्थल में होनेवाली माल मंडी में उनका
आधिक्य था भी स्वाभाविक। ऊँट रेगिस्तान का जानवर है। इस रेतीले इलाके में आमदरफ्त,
खेती-बाड़ी और
बारबरदारी का काम उसी से होता है। पुराने समय में गायें दस-दस और बैल
पंद्रह-पंद्रह रुपए में मिल जाते थे, तब भी अच्छा ऊँट पचास से कम में हाथ न आता था और
अब भी जब इस इलाके में नहर आ गई है, पानी की इतनी किल्लत नहीं रही, ऊँट का महत्व कम
नहीं हुआ, बल्कि
बढ़ा ही है। सवारी के ऊँट दो-दो सौ से तीन-तीन सौ तक में पाए जाते हैं और बाही तथा
बारबरदारी के भी अस्सी सौ से कम में हाथ नहीं आते।
तनिक और आगे बढ़ कर बाकर ने कहा, 'सच कहता हूँ चौधरी, इस जैसी सुंदरी साँड़नी मुझे सारी मंडी
में दिखाई नहीं दी।'
हर्ष से नंदू का सीना दुगुना हो गया बोला, 'आ एक ही के, इह तो सगली फूटरी हैं। हूँ तो इन्हें चारा
फलूँसी निरिया करूँ (यह एक ही क्या, यह तो सब ही सुंदर है, मैं इन्हें चारा और फलूँसी (ज्वार और मोठ]
देता हूँ)।'
धीरे से बाकर ने पूछा, 'बेचोगे इसे?'
नंदू ने कहा, 'इठई बेचने लई तो लाया हूँ।'
'तो फिर बताओ, कितने की दोगे?'
नंदू ने नख से शिख तक बाकर पर एक दृष्टि डाली और हँसते हुए बोला,
'तन्ने चाही जै का
तेरे धनी बेई मोल लेसी (तुझे चाहिए, या तू अपने मालिक के लिए मोल ले रहा है?)?'
'मुझे चाहिए।' बाकर ने दृढ़ता से कहा।
नंदू ने उपेक्षा से सिर हिलाया। इस मजदूर की यह बिसात कि ऐसी सुंदर
साँड़नी मोल ले। बोला, 'तूँ की लेसी?'
बाकर की जेब में पड़े डेढ़ सौ के नोट जैसे बाहर उछल पड़ने के लिए
व्यग्र हो उठे। तनिक जोश के साथ उसने कहा, 'तुम्हें इससे क्या, कोई ले, तुम्हें तो अपनी कीमत से गरज है, तुम मोल बताओ?'
नंदू ने उसके जीर्ण-शीर्ण कपड़ों, घुटनों से उठे हुए तहमद और जैसे नूह के
वक्त से भी पुराने जूते को देखते हुए टालने के विचार से कहा, 'जा-जा, तू इशी-विशी ले आई,
इगो मोल तो आठ बीसी
सूँ घाट के नहीं (जा, जा, तू कोई ऐसी-वैसी साँड़नी खरीद ले, इसका मूल्य तो 160 से कम नही)।'
एक निमिष के लिए बाकर के थके हुए, व्यथित चेहरे पर आह्लाद की रेखा झलक उठी
उसे डर था कि चौधरी कहीं ऐसा मोल न बता दे, जो उसकी बिसात से ही बाहर हो; पर जब अपनी जबान से
ही उसने 160 जो बताए, तो उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। 150 तो उसके पास थे ही। यदि इतने पर भी
चौधरी न माना, तो दस रुपए वह उधार कर लेगा। भाव-ताव तो उसे करना आता न था। झट से
उसने डेढ़ सौ के नोट निकाले और नंदू के आगे फेंक दिए। बोला - 'गिन लो, इनसे अधिक मेरे पास
नहीं, अब आगे
तुम्हारी मर्जी।'
नंदू ने अन्यमनस्कता से नोट गिनने आरंभ कर दिए। पर गिनती खत्म करते ही
उसकी आँखें चमक उठीं। उसने तो बाकर को टालने के लिए ही मूल्य 160 बता दिया था,
नहीं तो मंडी में
अच्छी से अच्छी डाची डेढ़ सौ में मिल जाती। और इसके तो 140 पाने की भी कल्पना उसने
स्वप्न में न की थी। पर शीघ्र ही मन के भावों को छिपा कर और जैसे बाकर पर अहसान का
बोझ लादते हुए नंदू बोला, 'साँड़ तो मेरी दो सौ की है, पण जा सग्गी मोल
मिया तन्ने दस छाँड़िया (साँड़नी तो मेरी 200 की है, पर जा, सारी कीमत में से तुम्हें दस रुपए छोड़
दिए)।' और यह
कहते-कहते उठ कर उसने साँड़नी की रस्सी बाकर के हाथ में दे दी।
क्षण भर के लिए उस कठोर व्यक्ति का जी भर आया। यह साँड़नी उसके यहाँ
ही पैदा हुई और पली थी। आज पाल-पोस कर उसे दूसरे के हाथ में सौंपते हुए उसके मन की
कुछ ऐसी दशा हुई, जो लड़की को ससुराल भेजते समय पिता की होती है। जरा काँपती आवाज में,
स्वर को तनिक नर्म
करते हुए, उसने
कहा - 'आ साँड़
सोरी रहेड़ी तू इन्हें रेहड़ में गेर दई (यह साँड़नी अच्छी तरह रखी गई है, तू इसे यों ही
मिट्टी में न रोल लेना)।' ऐसे ही, जैसे ससुर दामाद से कह रहा हो - 'मेरी लड़की लाड़ों
पली है, देखना
इसे कष्ट न देना।'
आह्लाद के पंख पर उड़ते हुए बाकर ने कहा - 'तुम जरा भी चिंता न करो, जान दे कर पालूँगा।'
नंदू ने नोट अंटी में सँभालते हुए, जैसे सूखे हुए गले को जरा तर करने के लिए,
घड़े से मिट्टी का
प्याला भरा। मंडी में चारों ओर धूल उड़ रही थी। शहरों की माल-मंडियों में भी जहाँ
बीसियों अस्थायी नल लग जाते हैं और सारा-सारा दिन छिड़काव होता रहता है, धूल की कमी नहीं
होती, फिर
रेगिस्तान की मंडी पर तो धूल ही का साम्राज्य था। गन्नेवाले की गड़ेरियों पर,
हलवाई के हलवे और
जलेबियों पर और खोंचेवाले के दही-बड़े पर, सब जगह धूल का पूर्णाधिकार था। घड़े का पानी
टाँचियों द्वारा नहर से लाया गया था, पर यहाँ आते-आते वह कीचड़ जैसा गँदला हो जाता था।
नंदू का ख्याल था कि निथरने पर पिएगा, पर गला कुछ सूख रहा था। एक ही घूँट में प्याले को
खत्म करके नंदू ने बाकर से भी पानी पीने के लिए कहा। बाकर आया था, तो उसे गजब की प्यास
लगी हुई थी, पर अब उसे पानी पीने की फुर्सत कहाँ? वह रात होने से पहले-पहले गाँव पहुँचना
चाहता था। डाची की रस्सी पकड़े हुए धूल को चीरता हुआ-सा चल पड़ा।
बाकर के दिल में बड़ी देर से एक सुंदर और युवा डाची खरीदने की लालसा
थी। जाति से वह कमीन था। उसके पूर्वज कुम्हारों का काम करते थे, किंतु उसके पिता ने
अपना पैतृक काम छोड़ कर मजदूरी करना ही शुरू कर दिया था। उसके बाद बाकर भी इसी से
अपना और छोटे-से कुटुंब का पेट पालता आ रहा था। वह काम अधिक करता हो, यह बात न थी। काम से
उसने सदैव जी चुराया था। चुराता भी क्यों न, जब उसकी पत्नी उससे दुगुना काम करके उसके
भार को बँटाने और उसे आराम पहुँचाने के लिए मौजूद थी। कुटुंब बड़ा न था - वह एक,
एक उसकी पत्नी और एक
नन्हीं-सी बच्ची। फिर किसलिए वह जी हलकान करता! पर क्रूर और 'बेपीर' विधाता - उसने उसे
उस विस्मृति से, सुख की उस नींद से जगा कर अपना उत्तरदायित्व समझने पर बाध्य कर दिया।
उसे बता दिया कि जीवन में सुख ही नहीं, आराम ही नहीं, दुख भी है, परिश्रम भी है।
पाँच वर्ष हुए उसकी वही आराम देनेवाली प्यारी पत्नी सुंदर गुड़िया-सी
लड़की को छोड़ कर परलोक सिधार गई थी। मरते समय, अपनी सारी करुणा को अपनी फीकी और श्रीहीन
आँखों में बटोर कर उसने बाकर से कहा था - 'मेरी रजिया अब तुम्हारे हवाले है, इसे कष्ट न होने
देना!' इसी एक
वाक्य ने बाकर के समस्त जीवन के रुख को पलट दिया था। उसकी मृत्यु के बाद ही वह
अपनी विधवा बहिन को उसके गाँव से ले आया था और अपने आलस्य तथा प्रमाद को छोड़ कर
अपनी मृत पत्नी की अंतिम अभिलाषा को पूरा करने में संलग्न हो गया था।
वह दिन-रात काम करता था बल्कि अपनी मृत पत्नी की उस धरोहर को, अपनी उस नन्हीं-सी
गुड़िया को, भाँति-भाँति की चीजें ला कर प्रसन्न रख सके। जब भी कभी वह मंडी को आता,
तो नन्हीं-सी रजिया
उसकी टाँगों से लिपट जाती और अपनी बड़ी-बड़ी आँखें उसके गर्द से अटे हुए चेहरे पर
जमा कर पूछती - 'अब्बा, मेरे लिए क्या लाए हो?' तो वह उसे अपनी गोद में ले लेता और कभी मिठाई और
कभी खिलौनों से उसकी झोली भर देता। तब रजिया उसकी गोद से उतर जाती और अपनी
सहेलियों को अपने खिलौने या मिठाई दिखाने के लिए भाग जाती। यही गुड़िया जब आठ वर्ष
की हुई, तो एक
दिन मचल कर अपने अब्बा से कहने लगी - 'अब्बा, हम तो डाची लेंगे; अब्बा, हमें डाची ले दो।' भोली-भाली निरीह बालिका! उसे क्या मालूम
कि वह एक विपन्न साधनहीन मजदूर की बेटी है, जिसके लिए डाची खरीदना तो दूर रहा,
डाची की कल्पना भी
पाप है। रूखी हँसी हँस कर बाकर ने उसे अपनी गोद में लिया और बोला - 'रज्जो, तू तो खुद डाची है।'
पर रजिया न मानी। उस
दिन मशीरमाल अपनी साँड़नी पर चढ़ कर अपनी छोटी लड़की को अपने आगे बैठाए दो-चार
मजदूर लेने के लिए अपनी इसी काट में आए थे। तभी रजिया के नन्हें-से मन में डाची पर
सवार होने की प्रबल आकांक्षा पैदा हो उठी थी, और उसी दिन से बाकर की रही-सही अकर्मण्यता
भी दूर हो गई थी।
उसने रजिया को टाल तो दिया था, पर मन ही मन उसने प्रतिज्ञा कर ली थी कि
वह अवश्य रजिया के लिए एक सुंदर-सी डाची मोल लेगा। उसी इलाके में जहाँ उसकी आय की
औसत साल भर में तीन आने रोजाना भी न होती थी, अब आठ-दस आने हो गई। दूर-दूर के गाँवों
में अब वह मजदूरी करता। कटाई के दिनों में दिन-रात काम करता - फसल काटता; दाने निकालता;
खलिहानों में अनाज
भरता; नीरा
डाल कर भूसे के कुप बनाता। बीजाई के दिनों में हल चलाता; क्यारियाँ बनाता; बिजाई करता। उन दिनों उसे पाँच आने से ले
कर आठ आने रोजाना तक मजदूरी मिल जाती। जब कोई काम न होता तो प्रातः उठ कर, आठ कोस की मंजिल मार
कर मंडी जा पहुँचता और आठ-दस आने की मजदूरी करके ही घर लौटता। उन दिनों से वह रोज
छह आने बचाता आ रहा था। इस नियम में उसने किसी तरह की ढील न होने दी थी। उसे जैसे
उन्माद-सा हो गया था। बहिन कहती - 'बाकर, अब तो तुम बिलकुल ही बदल गए हो। पहले तो तुमने
कभी ऐसा जी तोड़ मेहनत न की थी।'
बाकर हँसता और कहता - 'तुम चाहती हो, मैं आयु भर निठल्ला रहूँ?'
बहन कहती - 'निकम्मा बैठने को तो मैं नहीं कहती, पर सेहत गँवा कर
रुपया जमा करने की सलाह भी नहीं दे सकती।'
ऐसे अवसर पर सदैव बाकर के सामने उसकी मृत पत्नी का चित्र खिंच जाता,
उसकी अंतिम अभिलाषा
उसके कानों में गूँज जाती। वह आँगन में खेलती हुई रजिया पर एक स्नेहभरी दृष्टि
डालता और विषाद से मुस्करा कर फिर अपने काम में लग जाता था। और आज - डेढ़ वर्ष के
कड़े परिश्रम के बाद वह अपनी चिर-संचित अभिलाषा पूरी कर सका था। उसके एक हाथ में
साँड़नी की रस्सी थी और नहर के किनारे-किनारे वह चला जा रहा था।
साँझ की बेला थी। पश्चिम की ओर डूबते सूरज की किरणें धरती को सोने का
अंतिम दान कर रही थीं। वायु में ठंडक आ गई थी, और कहीं दूर खेतों में टटिहरी टीहूँ-टीहूँ
करती उड़ रही थी। बाकर के मन में अतीत की सब बातें एक-एक करके आ रही थीं। इधर-उधर,
कभी-कभी कोई किसान
अपने उँट पर सवार जैसे फुदकता हुआ निकल जाता था और कभी-कभी खेतों से वापस आने वाले
किसानों के लड़के बैलगाड़ी में रखे हुए घास पट्ठे के गट्ठों पर बैठे, बैलों को पुचकारते,
किसी गीत का एक-आध
बंद गाते, या
बैलगाड़ी के पीछे बँधे हुए चुपचाप चले आनेवाले ऊँटों को थूथनियों से खेलते चले
जाते थे।
बाकर ने, जैसे स्वप्न से जागते हुए, पश्चिम की ओर अस्त होते हुए अंशुमाली की ओर देखा,
फिर सामने की ओर
शून्य में नजर दौड़ाई। उसका गाँव अभी बड़ी दूर था। पीछे की ओर हर्ष से देख कर और
मौन रूप से चली आनेवाली साँड़नी को प्यार से पुचकार कर वह और भी तेजी से चलने लगा
- कहीं उसके पहुँचने से पहले रजिया सो न जाय, इसी विचार से।
मशीरमाल की काट नजर आने लगी। यहाँ से उसका गाँव समीप ही था। यही कोई
दो कोस। बाकर की चाल धीमी हो गई और इसके साथ ही कल्पना की देवी अपनी रंग-बिरंगी
तूलिका से उसके मस्तिष्क के चित्रपट पर तरह-तरह की तस्वीरें बनाने लगी। बाकर ने
देखा, उसके घर
पहुँचते ही नन्हीं रजिया आह्लाद से नाच कर उसकी टाँगों से लिपट गई है और फिर डाची
को देख कर उसकी बड़ी-बड़ी आँखें आश्चर्य और उल्लास से भर गई हैं। फिर उसने देखा,
वह रजिया को आगे
बैठाए सरकारी खाले (नहर) के किनारे-किनारे डाची पर भागा जा रहा है। शाम का वक्त है,
ठंडी-ठंडी हवा चल
रही है और कभी-कभी कोई पहाड़ी कौवा अपने बड़े-बड़े पंख फैला और अपनी मोटी आवाज से
दो-एक बार काँव-काँव करके ऊपर से उड़ता चला जाता है। रजिया की खुशी का वारापार
नहीं। वह जैसे हवाई-जहाज में उड़ी जा रही है; फिर उसके सामने आया कि वह रजिया को लिए
बहावलनगर की मंडी में खड़ा है। नन्हीं रजिया मानो भौचक्की-सी है। हैरान और
आश्चर्यान्वित-सी चारों ओर अनाज के इन बड़े-बड़े ढेरों, अनगिनत छकड़ों और हैरान कर देनेवाली चीजों
को देख रही है। बाकर साह्लाद उसे सबकी कैफियत दे रहा है। एक दुकान पर ग्रामोफोन
बजने लगता है। बाकर रजिया को वहाँ ले जाता है। लकड़ी के इस डिब्बे से किस तरह गाना
निकल रहा है, कौन इसमें छिपा गा रहा है - यह सब बातें रजिया की समझ में नहीं आतीं,
और यह सब जानने के
लिए उसके मन में जो कुतूहल और जिज्ञासा है, वह उसकी आँखों से टपकी पड़ती है।
वह अपनी कल्पना में मस्त काट के पास से गुजरा जा रहा था कि सहसा कुछ
विचार आ जाने से रुका और काट में दाखिल हुआ।
मशीरमाल की काट भी कोई बड़ा गाँव न था। इधर के सब गाँव ऐसे ही हैं।
ज्यादा हुए तो तीस छप्पर हो गए। कड़ियों की छत का या पक्की ईंटों का मकान इस इलाके
में अभी नहीं। खुद बाकर की काट में पंद्रह घर थे, घर क्या झुग्गियाँ थी! सिरकियों के खेमे -
जिन्हें झोपड़ियों का नाम भी न दिया जा सकता था। मशीरमाल की काट भी ऐसे ही
बीस-पच्चीस झुग्गियों की बस्ती थी, केवल मशीरमाल का निवास-स्थान कच्ची ईंटों से बना
था; पर छत
उस पर भी छप्पर की ही थी। बाकर नानक बढ़ई की झुग्गी के सामने रुका। मंडी जाने से
पहले वह यहाँ डाची का गदरा (पलान) बनाने के लिए दे गया था। उसे ख्याल आया कि यदि
रजिया ने साँड़नी पर चढ़ने की जिद की, तो वह उसे कैसे टाल सकेगा, इसी विचार से वह पीछे मुड़ आया था। उसने
नानक को दो-एक आवाजें दीं। अंदर से शायद उसकी पत्नी ने उत्तर दिया - 'घर में नहीं हैं,
मंडी गए हैं।'
बाकर का दिल बैठ गया। वह क्या करे, यह न सोच सका। नानक यदि मंडी गया है,
तो गदरा क्या खाक
बना कर गया होगा! फिर उसने सोचा, शायद बना कर रख गया हो। इससे उसे कुछ सांत्वना
मिली। उसने फिर पूछा - 'मैं साँड़नी का पलान बनाने के लिए दे गया था, वह बना या नहीं।'
जवाब मिला - 'हमें मालूम नहीं।'
बाकर का आधा उल्लास जाता रहा। बिना गदरे के वह डाची को क्या ले कर
जाय। नानक होता तो उसका गदरा चाहे न बना सकता, कोई दूसरा ही उससे माँग कर ले जाता। यह
विचार आते ही उसने सोचा - 'चलो मशीरमाल से माँग लें। उनके तो इतने ऊँट रहते
हैं, कोई न
कोई पुराना पलान होगा ही। अभी उसी से काम चला लेंगे। तब तक नानक नया गदरा तैयार कर
देगा।' यह सोच
कर वह मशीरमाल के घर की ओर चल पड़ा।
अपनी मुलाजमात के दिनों में मशीरमाल साहब ने पर्याप्त धनोपार्जन किया था।
जब इधर नहर निकली, तो उन्होंने अपने पद और प्रभाव के बल पर रियासत में कौड़ियों के मोल
कई मुरब्बे जमीन ले ली थी। अब नौकरी से अवकाश ग्रहण कर यहीं रह रहे थे। राहक
(मुजारा) रखे हुए थे, आय खूब थी और मजे से जीवन व्यतीत हो रहा था। अपनी चौपाल में एक
तख्तपोश पर बैठे वे हुक्का पी रहे थे - सिर पर श्वेत साफा, गले में श्वेत कमीज, उस पर श्वेत जाकेट
और कमर में दूध जैसे रंग का तहमद। गर्द से अटे हुए बाकर को साँड़नी की रस्सी पकड़े
आते देख कर उन्होंने पूछा - 'कहो बाकर, किधर से आ रहे हो?'
बाकर ने झुक कर सलाम करते हुए कहा - 'मंडी से आ रहा हूँ, मालिक।'
'यह डाची किसकी है?'
'मेरी ही है मालिक, अभी मंडी से ला रहा हूँ।'
'कितने की लाए हो?'
बाकर ने चाहा, कह दे आठ बीसी की लाया हूँ। उसके ख्याल में ऐसी
सुंदर डाची 200 में भी सस्ती थी, पर मन न माना, बोला - 'हुजूर माँगता तो 160 था; पर साढ़े सात बीसी
ही में ले आया हूँ।
मशीरमाल ने एक नजर डाची पर डाली। वे स्वयं अर्से से एक सुंदर-सी डाची
अपनी सवारी के लिए लेना चाहते थे। उसके डाची तो थी, पर पिछले वर्ष उसे सीमक (ऊँटों की एक
बीमारी) हो गया था और यद्यपि नील इत्यादि देने से उसका रोग तो दूर हो गया था पर
उसकी चाल में वह मस्ती, वह लचक न रही थी। यह डाची उनकी नजरों में जँच गई। क्या सुंदर और सुडौल
अंग है; क्या
सफेदी मायल भूरा-भूरा रंग है, क्या लचलचाती लंबी गर्दन है! बोले - 'चलो हमसे आठ बीसी ले
लो, हमें एक
डाची की जरूरत है, दस तुम्हारी मेहनत के रहे।'
बाकर ने फीकी हँसी के साथ कहा - 'हुजूर, अभी तो मेरा चाव भी पूरा नहीं हुआ।'
मशीरमाल उठ कर डाची की गर्दन पर हाथ फेरने लगे - 'वाह, क्या असील जानवर है।'
प्रकट बोले - 'चलो, पाँच और ले लेना।'
और उन्होंने आवाज दी - 'नूरे, अरे ओ नूरे!'
नौकर भैंसों के लिए पट्ठे कतर रहा था, गँड़ासा हाथ ही में लिए भाग आया। मशीरमाल
ने कहा, 'यह डाची
ले जा कर बाँध दो! 165 में, कहो कैसी है?'
नूरे ने हतबुद्धि-से खड़े बाकर के हाथ से रस्सी ले ली और नख से शिख तक
एक नजर डाची पर डाल कर बोला, 'खूब जानवर है', और यह कह कर नौहरे (भूसा आदि रखने का
स्थान) की ओर चल पड़ा।
तब मशीरमाल ने अंटी से 60 रुपए के नोट निकाल कर बाकर के हाथ में देते
हुए मुस्करा कर कहा, 'अभी एक राहक दे कर गया है, शायद तुम्हारी ही किस्मत के थे। अभी यह रखो बाकी
भी एक-दो महीने तक पहुँचा दूँगा। हो सकता है, तुम्हारी किस्मत से पहले ही आ जाएँ।'
और बिना कोई जवाब
सुने वे नौहरे की ओर चल पड़े। नूरा फिर चारा कतरने लगा था। दूर ही से आवाज दे कर
उन्होंने कहा, 'भैंसे का चारा रहने दे, पहले डाची के लिए गवारे का नीरा कर डाल, भूखी मालूम होती है!'
और पास जा कर साँड़नी की गर्दन सहलाने लगे।
कृष्णपक्ष का चाँद अभी उदय नहीं हुआ था। विजन में चारों ओर कुहासा छा
रहा था। सिर पर दो-एक तारे निकल आए थे और दूर बबूल और ओकाँह के वृक्ष बड़े-बड़े
काले सियाह धब्बे बना रहे थे। फोग की एक झाड़ी की ओट में अपनी काट के बाहर बाकर
बैठा उस क्षीण प्रकाश को देख रहा था, जो सरकंडों से छिन-छिन कर उसके आँगन से आ रहा था।
जानता था रजिया जागती होगी, उसकी प्रतीक्षा कर रही होगी। वह इस इंतजार में था
कि दिया बुझ जाय, रजिया सो जाय तो वह चुपचाप अपने घर में दाखिल हो।
मशीरमाल ने बाकर को साँड़नी की पूरी कीमत भी नहीं दी।गरीब ऐसे ही अमीरों द्वारा छले जाते हैं।मर्मस्पर्शी कहानी है।
ReplyDeletebahoot hi satick garibi ki vivrn pesh kiya h hakikat m yahi hota h sb jagah
ReplyDelete