गहराता बैंकिंग संकट और आने वाले आर्थिक संकट की आहट


गहराता बैंकिंग संकट और आने वाले आर्थिक संकट की आहट 

मुकेश असीम 

देश में इस समय भयंकर आर्थिक संकट चल रहा है और उसकी एक निशानी है - विभिन्न बैंकों का लगातार मर्जर। पहले एसबीआई के 5 सहायक बैंकों की हालत खराब होने पर उनको एसबीआई में मर्ज किया गया। अब तीन बैंकों का फिर मर्जर किया गया है ताकि सबसे कमजोर बैंक देना को बचाया जा सके। आगे आने वाले समय में यह संकट और गहराएगा। बैंकिंग सेक्टर के इस संकट पर हम आज साथी मुकेश असीम की कुछ पोस्ट शेयर कर रहे हैं जो इस मुद्दे के बेहद गंभीर पहलुओं पर हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। उनकी पांच पोस्ट को मिलाकर यह पोस्ट बनाई है। यह पूरी पोस्ट पढ़ें और जाने कि यह संकट क्यों आ रहा है।
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बैंकिंग इतिहास के कुछ तथ्य
1990 के दशक में जापानी बैंक दुनिया में छाए थे, शीर्ष 10 में से 6-7; फिर जो संकट आया आज तक कहीं दिखाई न देते।
फिर अमेरिकन बैंक ऊपर आए, सिटी बैंक नं1 पर; 2002 के संकट में ये भी डूबे, सिटी बैंक के टुकड़े करने पड़े।
इसके बाद यूरोप के बैंक छाए, पर 2008 के वित्तीय संकट के बाद यूरोप की मेहनतकश जनता का पेट काटकर वहाँ की पूंजीवादी सरकारों ने इन्हें बचाया।
अब चीनी बैंक शिखर पर हैं - शीर्ष 10 में से 5; एनपीए वहाँ तेजी से बढ़ रहे हैं, संकट करीब आ रहा है।
भारत की पूंजीवादी सरकार अब यहाँ के बैंकों को विलय कर विशाल बनाना चाहती है, मगर यहाँ तो संकट पहले ही आ चुका है - पहले ही यहाँ की मेहनतकश जनता उन्हें बचाने के लिए अपनी रोजी-रोटी खो चुकी है।
उधर बैंक तो अब खुद ही संकट में हैं, इसलिए बढ़ते एनपीए व वित्तीय संकट के चलते अब मोदी सरकार सबसे बड़े वित्तीय संस्थान एलआईसी की पूंजी पर हाथ साफ कर रही है जिसमें की गई बचत के सहारे बहुत से मध्यमवर्गीय लोग अपने रिटायरमेंट की ज़िंदगी का भरोसा किए बैठे हैं। पहले इसके जरिये डूबते आईडीबीआई बैंक को सहारा दिया गया, अब यह आईएल&एफ़एस को सहारा दे रहा है।
खुद मोदी की आर्थिक सलाहकार परिषद के एक सदस्य इस पर एक इंटरव्यू में सवाल का जवाब देने से ही इंकार कर गए - कहते हैं यह आर्थिक विषय नहीं, प्रशासनिक विषय है!
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अंग्रेजी मुहावरा है - Kick the can down the road. बैंकों के हो रहे विलय उसका बहुत सटीक उदाहरण है।
2 साल पहले एसबीआई के सहायक 5 बैंक डूबे कर्जों तले दिवालिया होने की हालत में आ गए तो इसे छिपाने के वास्ते उन्हें एसबीआई में विलय कर दिया गया। फिर आईडीबीआई बैंक डूबा तो एलआईसी का सहारा लिया गया। देना बैंक भी दिवालिया होने के कगार पर था, उसे बैंक ऑफ बड़ोदा में विलय कर बात टाल दी गई।
पहले भी बैंक डूबते और दूसरे बैंकों में विलय किए जाते रहे, पर पहले यह कुछ सालों में एक घटना होती थी, वहीं अब इसकी कतार लग गई है। और कुछ विलय आगे भी होने वाले हैं।
पर पूंजीवादी संकट अब कोई चक्रीय संकट के बजाय निरंतर गहराता संकट है और इस से पैदा होने वाले वित्तीय संकट में पहले डूबने वाले छोटे बैंकों को विलय कर संकट को कुछ वक्त तक छिपाया जा सकता है, हल नहीं किया जा सकता। संकट का अगला शिकार ये एसबीआई, एलआईसी, पीएनबी, बीओबी जैसे संस्थान ही होने वाले हैं।
जब तक पूंजीवाद में संकट से निपटने की थोड़ी बहुत क्षमता थी, वो बैंकों को डूबने दे सकता था और कारोबार के विलय की प्रक्रिया सरकार द्वारा नहीं, बाजार प्रक्रिया द्वारा होती थी। इस तरह छोटे-कमजोर बैंक बंद होते गए और कुछ बैंक बड़े वित्तीय इजारेदार बन कर उभरे। 2008 में भी अमेरिका में लीमान ब्रदर्स और ब्रिटेन में नॉर्दर्न रॉक को ऐसे ही दिवालिया हो जाने दिया गया था। पर तब पाया गया कि इतने बड़े बैंक को ऐसे ही डूबने देने से पूरी पूंजीवादी व्यवस्था में ही संकट फैल जा सकता है। तब इन बड़े बैंकों को too big to fail घोषित कर दिया गया और इन बैंकों को बचाने के लिए सरकारों ने सैंकड़ों अरब डॉलर/पाउंड की पूंजी लगानी शुरू की, जो सरकारों द्वारा कर्ज लेकर और शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारों की मदद, गरीबों के लिए अन्य कार्यक्रमों पर खर्च की कटौती से जुटाई गई।
इस तरह इन बैंकों को डूबने से बचाने पर इनके द्वारा दिये गए कर्जों और इनके निवेश के डूबने के कारणों को छिपा लिया जाता है और इनके उच्च प्रबंधकों और पूँजीपतियों के मिलीभगत वाले अपराध भी छिप जाते हैं। इससे वहाँ कहावत चली - too big to fail, too big to jail!
बैंकों के विलयों के पीछे भारत में भी ऐसे ही कारण हैं और इन पर होने वाला लाखों करोड़ का बिल मेहनतकश जनता के नाम पर ही फाड़ा जाना है।
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4 लाख करोड़ के नए एनपीए
माल्या के पीछे जो खबर छिप रही है वो ये कि और 4 लाख करोड़ के कर्ज एनपीए होने की ओर हैं और इन्हें चुनाव तक किसी तरह खींचना है क्योंकि एनपीए का बढ़ता संकट पूरी बैंकिंग और आर्थिक व्यवस्था में संकट को ओर गहरा करेगा जिसका बोझ हमेशा की तरह मेहनतकश जनता पर ही डाला जाना है।
इनमें ढाई लाख करोड़ तो सिर्फ विद्युत उत्पादन क्षेत्र का है। पूंजीवाद के अतिउत्पादन के संकट की वजह से उद्योग पहले ही 70-72% क्षमता पर काम कर रहे हैं इससे बिजली की मांग अनुमान के मुक़ाबले कम है, बिजली बिक नहीं पा रही है (निर्यात के बावजूद भी फालतू है), इसलिए लगभग 40 संयंत्र संकट में हैं। रिजर्व बैंक के 12 फरवरी के सर्कुलर के मुताबिक बैंकों को अब तक इनके खिलाफ दिवालिया होने की कार्रवाई शुरू करनी थी, पर उसके बाद इन कर्जों को एनपीए दिखाना पड़ता जो नहीं किया गया है। पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट से इसको रुकवाने का प्रयास हुआ, मगर असफल। पर अब सुप्रीम कोर्ट ने एक 3 लाइन के आदेश से इसे रोक दिया है।
पर और भी बड़ा मामला है आईएल&एफ़एस समूह का जो भारत का लीमैन ब्रदर्स साबित होने की तरफ बढ़ रहा है और कहीं इसकी चर्चा तक नहीं हो रही है। इसमें सबसे ज्यादा 40% शेयर एलआईसी व सरकारी बैंको के हैं पर इसे निजी क्षेत्र की तरह चलाया जाता रहा है (दो महीने पहले इसे डुबाने वाला रवि पार्थसारथी सेहत के बहाने रिटायर हो गया है)। यह बैंकों, म्यूचुअल फंड, बीमा कंपनियों, आदि दे कर्ज लेकर सड़क, हवाई अड्डा, बांध, विद्युत संयंत्र, आदि जैसे ढांचागत उद्योगों को कर्ज देता है। जहां यह कर्ज देता है वहाँ इसके मूल्यांकन के बाद बैंक और भी कर्ज देते हैं। अब इसके प्रोजेक्ट कमाई नहीं कर पा रहे और नकदी तरलता के अभाव में यह डूबने के कगार पर है। कुछ दिन पहले भुगतान की तारीख पर यह कमर्शियल पेपर की किश्त नहीं चुका पाया, इस महीने और भुगतान की तारीख है। अगले 6 महीने में इसे 3600 करोड़ रु चुकाना है पर इसके पास कुल नकदी की संभावना 200 करोड़ रु ही है। इस पर कुल कर्ज लगभग साढ़े नौ हजार करोड़ रु है। पर इससे भी बड़ी बात ये कि इसके प्रोजेक्ट्स को सीधे बैंक कर्ज और भी बड़ी मात्रा में, संभवतः डेढ़ लाख करोड़ रु के फेर में हैं जिनको भी अंततः एनपीए वर्गीकृत करना पड़ेगा।
देखना है कि क्या मोदी सरकार इसे भी आईडीबीआई की तरह इसके सबसे बड़े शेयरधारक एलआईसी के ही गले बांधकर संकट को टालेगी, क्योंकि इस राह आखिर में संकट एलआईसी तक भी पहुंचेगा ही जिसमें मध्यमवर्गीय लोगों ने संकट के जोखिम से निपटने के लिए भारी पैसा लगाया हुआ है, और जो वास्तव में एसबीआई से भी बड़ा वित्तीय संस्थान है।
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जेटली कहते हैं कि सरकार सार्वजनिक सम्पत्तियों-उद्योगों में विनिवेश और उनकी बिक्री तेज करने पर विचार कर रही है क्योंकि बढ़ता वित्तीय घाटा संभालना है।
पर वित्तीय घाटा इतना तेजी से बढ़ा क्यों है? कुछ वजहें -
पूँजीपतियों-अमीरों को दी गई भारी टैक्स छूट और रियायतें
पूँजीपतियों को दी गई कई लाख करोड़ की कर्ज माफी (राइट ऑफ)
अस्त्र-शस्त्र खरीद में महंगे दामों के जरिये अंबानी, टाटा एवं अन्यों को पहुंचाया गया फायदा
सार्वजनिक संपत्ति - जमीन, जंगल, नदी, तलब, खान को औने-पौने दामों-शुल्कों पर अदानी, रामदेव, अंबानी, टाटा जैसों से लेकर संघी संगठनों, बीजेपी के करीबियों को सौंपा जाना
इसकी भरपाई वास्ते मोदी सरकार ने जनकल्याण कार्यों पर खर्च में भारी कटौती की (आज जावडेकर ने कहा स्कूल अपने खर्चे के लिए पूर्व छात्रों से मांगें), पर उससे भी काम नहीं चल रहा है
तो अब सार्वजनिक सम्पत्तियों की औने-पौने दामों बिक्री और पूँजीपतियों की संपत्ति में और इजाफे की योजना तैयार की जा रही है।
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आज रिजर्व बैंक ने यस बैंक के मुखिया राणा कपूर का कार्यकाल दो साल कम करने का आदेश दिया। वजह अनियमिततायें और नियमों का उल्लंघन बताया गया है मगर रिजर्व बैंक ने उनका खुलासा नहीं किया है। निजी पूँजीपतियों के पक्ष में रिजर्व बैंक और पूरे तंत्र की भूमिका को इस पर्देदारी से समझा जा सकता है।
इसके पहले एक्सिस बैंक की शिखा शर्मा को भी हटाने का आदेश ऐसी ही वजहों और एनपीए छिपाने के लिए दिया गया था।
आईसीआईसीआई बैंक की मुखिया के खिलाफ जांच चल ही रही है। खातों में एनपीए छिपाने का भी खुलासा आरबीआई कर चुका है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में गहराता संकट शुरू में सरकारी बैंकों में नजर आया है मगर वहाँ तक सीमित रहने वाला नहीं है, बड़े निजी बैंक भी इसकी जद में तेजी से आ रहे हैं।
संकट पूंजीवादी व्यवस्था में है - निजी या सरकारी मालिकाने या प्रबंधन से इसका चरित्र और असर बदल नहीं सकता।
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Comments

  1. जबरदस्त सर और लेख लिखे अच्छी जानकारी दी आपने!

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  2. Meaningful facts sir pls keep continue

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