नौजवानी के बारे में कुछ कविताएं व उद्धरण
नौजवानी के बारे में कुछ कविताएं व
उद्धरण
स्वतन्त्रता (शहीद भगतसिंह की जेल नोटबुक से)
वे मृत शरीर नवयुवकों के,
वे शहीद जो झूल गये फाँसी के फन्दे
से –
वे दिल जो छलनी हो गये भूरे सीसे से,
सर्द और निष्पन्द जो वे लगते हैं,
जीवित हैं और कहीं
अबाधित ओज के साथ।
वे जीवित हैं अन्य युवा-जन में,
ओ राजाओ।
वे जीवित हैं अन्य बन्धु-जन में,
फिर से तुम्हें चुनौती देने को तैयार।
वे पवित्र हो गये मृत्यु से –
शिक्षित और समुन्नत।
_________________________
ब्रेख्त की कविता छात्रों के प्रति
तुम वहाँ बैठते हो
पढ़ने के लिए।
और कितना खून बहा था
कि तुम वहाँ बैठ सको।
क्या ऐसी कहानियाँ तुम्हें बोर करती हैं?
लेकिन मत भूलो कि पहले
दूसरे बैठते थे तुम्हारी जगह
जो बैठ जाते थे बाद में
जनता की छाती पर।
होश में आओ!
तुम्हारा विज्ञान व्यर्थ होगा, तुम्हारे लिए
और अध्ययन बांझ, अगर पढ़ते रहे
बिना समर्पित किए अपनी बुद्धि को
लड़ने के लिए
सारी मानवता के सारे शत्रुओं के विरुद्ध
मत भूलो,
कि आहत हुए थे तुम जैसे आदमी
कि पढ़ सको तुम यहाँ,
न कि दुसरे कोई
और अब मत मूंदों अपनी आँखें, और
मत छोड़ो पढ़ाई
बल्कि पढ़ने के लिए पढ़ो
और पढ़ने की कोशिश करो कि क्यों पढ़ना है?
_________________________
क्या हम आज़ादी के बुनियादी
सिद्धान्तों से अनभिज्ञ हैं? “जिन्हें
आज़ाद होना है उन्हें स्वयं चोट करनी पड़ेगी।” नौजवानो जागो, उठो, हम काफ़ी देर सो चुके! हमने केवल नौजवानों से ही अपील की है
क्योंकि नौजवान बहादुर होते हैं, उदार
एवं भावुक होते हैं, क्योंकि नौजवान भीषण अमानवीय
यन्त्रणाओं को मुस्कुराते हुए बरदाश्त कर लेते हैं और बग़ैर किसी प्रकार की
हिचकिचाहट के मौत का सामना करते हैं, क्योंकि
मानव-प्रगति का सम्पूर्ण इतिहास नौजवान आदमियों तथा औरतों के ख़ून से लिखा है;
क्योंकि सुधार हमेशा नौजवानों की शक्ति, साहस, आत्मबलिदान
और भावात्मक विश्वास के बल पर ही प्राप्त हुए हैं – ऐसे नौजवान जो भय से परिचित
नहीं हैं और जो सोचने के बजाय दिल से महसूस कहीं अधिक करते हैं। क्या ये जापान के नौजवान नहीं थे
जिन्होंने पोर्ट आर्थर तक पहुँचने के लिए सूखा रास्ता बनाने के उद्देश्य से अपनेआप
को सैकड़ों की तादाद में खाइयों में झोंक दिया था? और जापान आज विश्व के सबसे आगे बढ़े हुए देशों में से एक है। क्या यह
पोलैण्ड के नौजवान नहीं थे जिन्होंने पिछली पूरी शताब्दीभर बार-बार संघर्ष किये,
पराजित हुए और फिर बहादुरी के साथ लड़े? और आज एक आज़ाद पोलैण्ड हमारे सामने है। इटली को
आस्ट्रिया के जुवे से किसने आज़ाद किया था? तरुण
इटली ने!
शहीद भगतसिंह (नौजवान भारत सभा, लाहौर
का घोषणापत्र)
_________________________
इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम
और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी महत्त्वपूर्ण काम है। नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश
देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्ट्री-कारखानों
के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर
झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी होगी जिससे
आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।
शहीद भगतसिंह
माओ त्से तुंग
यदि इन्सान के पास-पड़ोस की जिन्द़गी भयावह और उदास हो, तो वह अपने निजी सुख की शरण लेता है। उसकी खुशी सारी की सारी अपने परिवार में केन्द्रित रहती है – अर्थात् केवल व्यक्तिगत रुचियों के घेरे में रहती है। जब ऐसा हो, तो कोई भी निजी दुर्भाग्य (जैसे बीमारी, नौकरी छुट जाना इत्यादि) उसके जीवन में विषम संकट पैदा कर देता है। उस आदमी के लिए जीवन का कोई लक्ष्य नहीं रहता। वह एक मोमबत्ती की तरह बुझ जाता है। उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं जिसके लिये वह प्रयास करे, क्योंकि उसके लक्ष्य केवल निजी जिन्द़गी तक सीमित होते हैं। उसके बाहर, उसके घर की चारदीवारी के बाहर, एक क्रूर जगत बस रहा होता है। जिसमें सभी दुश्मन हैं। पूँजीवाद जान-बूझकर शत्रुता और विरोधाभाव का पोषण करता है। वह भयाकुल रहता है कि कहीं काम करने वाले लोक एकता न कर लें।
मैं अपने आस-पास के लोगों को देखता हूँ – बैलों की तरह हष्ट-पुष्ट मगर मछलियों की तरह उनकी रगों में ठण्डा खून बहता है – निद्राग्रस्त, उदासीन, शिथिल, ऊबे हुए। उनकी बातों से कब्र की मिट्टी की बू आती है। मैं उनसे घृणा करता हूँ। मैं समझ नहीं सकता कि किस तरह स्वस्थ और तगड़े लोग, आज के उत्तेजनापूर्ण ज़माने में ऊब सकते हैं।
शहीद भगतसिंह
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कोई नौजवान क्रान्तिकारी है अथवा नहीं, यह जानने की कसौटी क्या है? उसे कैसे पहचाना जाय ? इसकी कसौटी केवल एक है, यानी
यह देखना चाहिए कि वह व्यापक मजदूर-किसान जनता के साथ एकरूप हो जाना चाहता है अथवा
नहीं, तथा इस बात पर अमल करता है अथवा नहीं?
क्रान्तिकारी वह है जो मजदूरों व किसानों के साथ
एकरूप हो जाना चाहता हो, और
अपने अमल में मजदूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाता हो, वरना वह क्रान्तिकारी नहीं है या प्रतिक्रान्तिकारी है। अगर कोई आज
मजदूर-किसानों के जन-समुदाय के साथ एकरूप हो जाता है, तो आज वह क्रान्तिकारी है; लेकिन
अगर कल वह ऐसा नहीं करता या इसके उल्टे आम जनता का उत्पीड़न करने लगता है, तो वह क्रान्तिकारी नहीं रह जाता अथवा प्रति
क्रान्तिकारी बन जाता है।माओ त्से तुंग
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निकोलाई ऑस्त्रोवस्की के उद्धरणयदि इन्सान के पास-पड़ोस की जिन्द़गी भयावह और उदास हो, तो वह अपने निजी सुख की शरण लेता है। उसकी खुशी सारी की सारी अपने परिवार में केन्द्रित रहती है – अर्थात् केवल व्यक्तिगत रुचियों के घेरे में रहती है। जब ऐसा हो, तो कोई भी निजी दुर्भाग्य (जैसे बीमारी, नौकरी छुट जाना इत्यादि) उसके जीवन में विषम संकट पैदा कर देता है। उस आदमी के लिए जीवन का कोई लक्ष्य नहीं रहता। वह एक मोमबत्ती की तरह बुझ जाता है। उसके सामने कोई लक्ष्य नहीं जिसके लिये वह प्रयास करे, क्योंकि उसके लक्ष्य केवल निजी जिन्द़गी तक सीमित होते हैं। उसके बाहर, उसके घर की चारदीवारी के बाहर, एक क्रूर जगत बस रहा होता है। जिसमें सभी दुश्मन हैं। पूँजीवाद जान-बूझकर शत्रुता और विरोधाभाव का पोषण करता है। वह भयाकुल रहता है कि कहीं काम करने वाले लोक एकता न कर लें।
मैं अपने आस-पास के लोगों को देखता हूँ – बैलों की तरह हष्ट-पुष्ट मगर मछलियों की तरह उनकी रगों में ठण्डा खून बहता है – निद्राग्रस्त, उदासीन, शिथिल, ऊबे हुए। उनकी बातों से कब्र की मिट्टी की बू आती है। मैं उनसे घृणा करता हूँ। मैं समझ नहीं सकता कि किस तरह स्वस्थ और तगड़े लोग, आज के उत्तेजनापूर्ण ज़माने में ऊब सकते हैं।
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कात्यायनी की कविता - एक झरना, कुछ
नौजवान और एक गुमनाम क़ब्र
गुमनाम एक क़ब्र थी
पहाड़ी पर
उस पर लगा क्रॉस
दूर से दिखता हुआ।
वहॉं नीचे एक झरना गिरता था
सैलानियों की पहुँच से दूर।
बरसों-बरस बाद
पहुँचे वहॉं
उस दिन
कुछ नौजवान
हँसते-गाते।
खूब नहाये उस दिन वे
गाते रहे देर तक
वे सभी गीत
जो उन्हें याद थे।
उस दिन
वे बेफि़क्र थे
जैसे कि
सब जगह
सब कुछ
ठीक-ठाक हो गया था उस दिन।
यूँ
उन्होंने बिताया
अपनी जि़न्दगी का
एक दिन
उस झरने के साथ।
यूँ
उन्होंने
खुश रहने की चेष्टा की
उस दिन।
लौटते,
शाम ढले,
खोज न पाये
सही पगडण्डी
भूल गये राह।
अँधेरा बढ़ा। चॉंद उगा।
चमकते हुए उस क्रॉस ने
चॉंदनी रात में
बतायी उन्हें दिशा।
यूँ
वह क्रॉस बना
दिशा-संकेतक उस दिन।
गुमनाम उस क़ब्र को
नयी पहचान मिली
राह खोजते
नौजवानों को
दिशा देकर।
खिली वह
उनके चेहरों पर
चॉंदनी बनकर।
(मई, 1993)
बुरा है हमारा यह समय
क्योंकि
हमारे समय के सबसे सच्चे युवा लोग
हताश हैं,
निरुपाय महसूस कर रहे हैं खुद को
सबसे बहादुर युवा लोग
सबसे ज़िन्दादिल युवा लोगों के
चेहरे गुमसुम हैं
और
आँखें बुझी हुई।
एकदम चुप हैं
सबसे मज़ेदार किस्सागोई करने वाले
युवा लोग,
एकदम अनमने से।
बुरा है हमारा यह समय
एक कठिन अँधेरे से
भरा हुआ,
खड़ा है
सौन्दर्य, नैसर्गिक, गति और जीवन की
तमाम मानवीय परिभाषाओं के ख़िलाफ़,
रंगों और रागों का निषेध करता हुआ।
अच्छा है हमारा यह समय
उर्वर है
क्योंकि यह निर्णायक है
और इसने
एकदम खुली चुनौती दी है
हमारे समय के सबसे उम्दा युवा लोगों को,
उनकी उम्मीदों और सूझबूझ को,
बहादुरी और ज़िन्दादिली को,
स्वाभिमान और न्यायनिष्ठा को।
“खोज लो फ़िर से अपने लिए,
अपने लोगों के लिए
जिन्हें तुम बेइन्तहां प्यार करते हो,
और आने वाले समय के लिए
कोई नयी रौशनी”
-अन्धकार उगलते हुए
इसने एकदम खुली चुनौती दी है
जीवित, उष्ण ह्रदय वाले युवा लोगों को।
कुछ नया रचने और आने वाले समय को
बेहतर बनाने के लिए
यह एक बेहतर समय है,
या शायद, इतिहास का एक दुर्लभ समय।
बेजोड़ है यह समय
जीवन-मरण का एक नया,
महाभीषण संघर्ष रचने की तैयारी के लिए,
अभूतपूर्व अनुकूल है
धारा के प्रतिकूल चलने के लिए।
एक युवा हेगेलपंथी के रूप में 18 वर्षीय मार्क्स के विचारों के लगातार ज्यादा से ज्यादा "वामपंथी " होते जाने से उनके पिता बहुत चिंतित थे। वे खुले दिमाग वाले उदार, जनवादी और भलेमानस किस्म के व्यक्ति थे। बेटे से उनके दोस्ताना संबंध थे और वे उसकी असामान्य प्रतिभा को भी पहचान चुके थे। वे चाहते थे कि मूर अपनी प्रतिभा का दर्शन आदि के क्षेत्र में इस्तेमाल तो करे, लेकिन सत्ता से बैर मोल लेने का जोखिम न ले और समाज में पद-प्रतिष्ठा हासिल करे।
चिंतित पिता ने 1836 में बेटे को एक पत्र लिखा, जिसके अंत में उन्होने लिखा था : "क़ानून के बारे में तुम्हारे विचार सत्यरहित तो नहीं हैं, लेकिन यदि उन्हे एक प्रणाली में रूपांतरित कर दिया जाए, तो संभव है कि वे तूफान खड़ा कर देंगे और क्या तुम्हें नहीं मालूम कि विद्वानों के बीच कितने प्रचंड तूफान उठते हैं? यदि इन विचारों में मौजूद आपत्तिजनक चीजों को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता, तो कम से कम उनका रूप नरम और सुग्राह्य होना चाहिए। "
पिता के लगातार ऐसे अनुनयों का उत्तर युवा मार्क्स ने एक कविता लिखकर दिया :
"कैसे मैं निष्क्रिय, बेपरवाह रहूँ उस चीज़ से
आत्मा की ख़ातिर जो बिजली सी बेचैन ।
चैन से और काहिली से भला क्या लेना मुझे
मैं वहाँ हूँ, जिसजगह यह यलगार है, तूफ़ान है...
रह न जाए आधी-अधूरी कोई तृष्णा
प्रकृति के वरदानों को समझने की है कोशिश मेरी।
ज्ञान की गहराइयों में कर रहा हूँ गवेषणा
कला और कविता में डूबा आत्मविभोर हूँ मैं ।
काश ज़ुर्रत और हिम्मत अब हमारा साथ दे
ये नहीं अपना मुक़द्दर, सुलहेकुल सबकी उम्मीद।
और कितने दिन रहेंगे बेज़ुबाँ बस रह लिए
बस हुआ बेअक्ल और बेकार जीना बस हुआ।
ये न हो हम बुज़दिलों की तरह से लाचार हों
ज़ब्र से हों दबे-डरे, कराहते जुए तले
कुव्वते हर आरज़ू और क़ुव्वते अफ़कारोकार
आप से शर्मिंदा होकर दिल की दिल में ही रहे।"
युवा मार्क्स के काव्यात्मक प्रयोग बेशक परिपक्व और मंजे हुए नहीं थे, लेकिन वे राह खोजने की बेचैनी, एक सार्थक जीवन जीने के दृढ़निश्चय और विद्रोहात्मक भावनाओं से ओतप्रोत थे।
क्या यह प्रसंग हमारे समय के युवाओं को साहसपूर्वक एक प्रयोगशील और न्याय के लिए संघर्षरत जीवन जीने का संकल्प लेने के लिए प्रेरित नहीं करता ?
अनुवाद व टिप्पणी - कविता कृष्णपल्लवी
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफ़ानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊँचा लक्ष्य
और, उसके लिए उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम।
ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल!
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं!
आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि –
छिछला, निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन
हमें स्वीकार नहीं।
हम, ऊँघते, क़लम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान में जियेंगे!
असली इन्सान की तरह जियेंगे।
ग़रीबों-मज़लूमों के नौजवान सपूतो !
उन्हें कहने दो कि क्राँतियाँ मर गईं
जिनका स्वर्ग है इसी व्यवस्था के भीतर ।
तुम्हें तो इस नरक से बाहर
निकलने के लिए
बंद दरवाज़ों को तोड़ना ही होगा,
आवाज़ उठानी ही होगी
इस निज़ामे-कोहना के खिलाफ़ ।
यदि तुम चाहते हो
आज़ादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सुंदरता से भरी ज़िन्दगी
तो तुम्हें उठाना ही होगा
नए इन्क़लाब का परचम फिर से ।
उन्हें करने दो "इतिहास के अंत"
और "विचारधारा के अंत" की अंतहीन बकवास ।
उन्हें पीने दो पेप्सी और कोक और
थिरकने दो माइकल जैक्सन की
उन्मादी धुनों पर ।
तुम गाओ
प्रकृति की लय पर ज़िंदगी के गीत ।
तुम पसीने और खून और
मिट्टी और रौशनी की बातें करो ।
तुम बगावत की धुनें रचो ।
तुम इतिहास के रंगमंच पर
एक नए महाकाव्यात्मक नाटक की
तैयारी करो ।
तुम उठो,
एक प्रबल वेगवाही
प्रचंड झंझावात बन जाओ ।
की कविता हम
गुमनाम एक क़ब्र थी
पहाड़ी पर
उस पर लगा क्रॉस
दूर से दिखता हुआ।
वहॉं नीचे एक झरना गिरता था
सैलानियों की पहुँच से दूर।
बरसों-बरस बाद
पहुँचे वहॉं
उस दिन
कुछ नौजवान
हँसते-गाते।
खूब नहाये उस दिन वे
गाते रहे देर तक
वे सभी गीत
जो उन्हें याद थे।
उस दिन
वे बेफि़क्र थे
जैसे कि
सब जगह
सब कुछ
ठीक-ठाक हो गया था उस दिन।
यूँ
उन्होंने बिताया
अपनी जि़न्दगी का
एक दिन
उस झरने के साथ।
यूँ
उन्होंने
खुश रहने की चेष्टा की
उस दिन।
लौटते,
शाम ढले,
खोज न पाये
सही पगडण्डी
भूल गये राह।
अँधेरा बढ़ा। चॉंद उगा।
चमकते हुए उस क्रॉस ने
चॉंदनी रात में
बतायी उन्हें दिशा।
यूँ
वह क्रॉस बना
दिशा-संकेतक उस दिन।
गुमनाम उस क़ब्र को
नयी पहचान मिली
राह खोजते
नौजवानों को
दिशा देकर।
खिली वह
उनके चेहरों पर
चॉंदनी बनकर।
(मई, 1993)
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सत्यव्रत की कविता - हमारे समय के दो पहलूबुरा है हमारा यह समय
क्योंकि
हमारे समय के सबसे सच्चे युवा लोग
हताश हैं,
निरुपाय महसूस कर रहे हैं खुद को
सबसे बहादुर युवा लोग
सबसे ज़िन्दादिल युवा लोगों के
चेहरे गुमसुम हैं
और
आँखें बुझी हुई।
एकदम चुप हैं
सबसे मज़ेदार किस्सागोई करने वाले
युवा लोग,
एकदम अनमने से।
बुरा है हमारा यह समय
एक कठिन अँधेरे से
भरा हुआ,
खड़ा है
सौन्दर्य, नैसर्गिक, गति और जीवन की
तमाम मानवीय परिभाषाओं के ख़िलाफ़,
रंगों और रागों का निषेध करता हुआ।
अच्छा है हमारा यह समय
उर्वर है
क्योंकि यह निर्णायक है
और इसने
एकदम खुली चुनौती दी है
हमारे समय के सबसे उम्दा युवा लोगों को,
उनकी उम्मीदों और सूझबूझ को,
बहादुरी और ज़िन्दादिली को,
स्वाभिमान और न्यायनिष्ठा को।
“खोज लो फ़िर से अपने लिए,
अपने लोगों के लिए
जिन्हें तुम बेइन्तहां प्यार करते हो,
और आने वाले समय के लिए
कोई नयी रौशनी”
-अन्धकार उगलते हुए
इसने एकदम खुली चुनौती दी है
जीवित, उष्ण ह्रदय वाले युवा लोगों को।
कुछ नया रचने और आने वाले समय को
बेहतर बनाने के लिए
यह एक बेहतर समय है,
या शायद, इतिहास का एक दुर्लभ समय।
बेजोड़ है यह समय
जीवन-मरण का एक नया,
महाभीषण संघर्ष रचने की तैयारी के लिए,
अभूतपूर्व अनुकूल है
धारा के प्रतिकूल चलने के लिए।
_________________________
संघर्षरत जीवन जीने का संकल्प लेने के लिए
प्रेरित करती एक कविताएक युवा हेगेलपंथी के रूप में 18 वर्षीय मार्क्स के विचारों के लगातार ज्यादा से ज्यादा "वामपंथी " होते जाने से उनके पिता बहुत चिंतित थे। वे खुले दिमाग वाले उदार, जनवादी और भलेमानस किस्म के व्यक्ति थे। बेटे से उनके दोस्ताना संबंध थे और वे उसकी असामान्य प्रतिभा को भी पहचान चुके थे। वे चाहते थे कि मूर अपनी प्रतिभा का दर्शन आदि के क्षेत्र में इस्तेमाल तो करे, लेकिन सत्ता से बैर मोल लेने का जोखिम न ले और समाज में पद-प्रतिष्ठा हासिल करे।
चिंतित पिता ने 1836 में बेटे को एक पत्र लिखा, जिसके अंत में उन्होने लिखा था : "क़ानून के बारे में तुम्हारे विचार सत्यरहित तो नहीं हैं, लेकिन यदि उन्हे एक प्रणाली में रूपांतरित कर दिया जाए, तो संभव है कि वे तूफान खड़ा कर देंगे और क्या तुम्हें नहीं मालूम कि विद्वानों के बीच कितने प्रचंड तूफान उठते हैं? यदि इन विचारों में मौजूद आपत्तिजनक चीजों को पूरी तरह से समाप्त नहीं किया जा सकता, तो कम से कम उनका रूप नरम और सुग्राह्य होना चाहिए। "
पिता के लगातार ऐसे अनुनयों का उत्तर युवा मार्क्स ने एक कविता लिखकर दिया :
"कैसे मैं निष्क्रिय, बेपरवाह रहूँ उस चीज़ से
आत्मा की ख़ातिर जो बिजली सी बेचैन ।
चैन से और काहिली से भला क्या लेना मुझे
मैं वहाँ हूँ, जिसजगह यह यलगार है, तूफ़ान है...
रह न जाए आधी-अधूरी कोई तृष्णा
प्रकृति के वरदानों को समझने की है कोशिश मेरी।
ज्ञान की गहराइयों में कर रहा हूँ गवेषणा
कला और कविता में डूबा आत्मविभोर हूँ मैं ।
काश ज़ुर्रत और हिम्मत अब हमारा साथ दे
ये नहीं अपना मुक़द्दर, सुलहेकुल सबकी उम्मीद।
और कितने दिन रहेंगे बेज़ुबाँ बस रह लिए
बस हुआ बेअक्ल और बेकार जीना बस हुआ।
ये न हो हम बुज़दिलों की तरह से लाचार हों
ज़ब्र से हों दबे-डरे, कराहते जुए तले
कुव्वते हर आरज़ू और क़ुव्वते अफ़कारोकार
आप से शर्मिंदा होकर दिल की दिल में ही रहे।"
युवा मार्क्स के काव्यात्मक प्रयोग बेशक परिपक्व और मंजे हुए नहीं थे, लेकिन वे राह खोजने की बेचैनी, एक सार्थक जीवन जीने के दृढ़निश्चय और विद्रोहात्मक भावनाओं से ओतप्रोत थे।
क्या यह प्रसंग हमारे समय के युवाओं को साहसपूर्वक एक प्रयोगशील और न्याय के लिए संघर्षरत जीवन जीने का संकल्प लेने के लिए प्रेरित नहीं करता ?
अनुवाद व टिप्पणी - कविता कृष्णपल्लवी
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युवावस्था में लिखी मार्क्स की कविता - जीवन-लक्ष्यमेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफ़ानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊँचा लक्ष्य
और, उसके लिए उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम।
ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल!
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं!
आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि –
छिछला, निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन
हमें स्वीकार नहीं।
हम, ऊँघते, क़लम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान में जियेंगे!
असली इन्सान की तरह जियेंगे।
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शशिप्रकाश की कविता - अगर तुम युवा हो (एक)ग़रीबों-मज़लूमों के नौजवान सपूतो !
उन्हें कहने दो कि क्राँतियाँ मर गईं
जिनका स्वर्ग है इसी व्यवस्था के भीतर ।
तुम्हें तो इस नरक से बाहर
निकलने के लिए
बंद दरवाज़ों को तोड़ना ही होगा,
आवाज़ उठानी ही होगी
इस निज़ामे-कोहना के खिलाफ़ ।
यदि तुम चाहते हो
आज़ादी, न्याय, सच्चाई, स्वाभिमान
और सुंदरता से भरी ज़िन्दगी
तो तुम्हें उठाना ही होगा
नए इन्क़लाब का परचम फिर से ।
उन्हें करने दो "इतिहास के अंत"
और "विचारधारा के अंत" की अंतहीन बकवास ।
उन्हें पीने दो पेप्सी और कोक और
थिरकने दो माइकल जैक्सन की
उन्मादी धुनों पर ।
तुम गाओ
प्रकृति की लय पर ज़िंदगी के गीत ।
तुम पसीने और खून और
मिट्टी और रौशनी की बातें करो ।
तुम बगावत की धुनें रचो ।
तुम इतिहास के रंगमंच पर
एक नए महाकाव्यात्मक नाटक की
तैयारी करो ।
तुम उठो,
एक प्रबल वेगवाही
प्रचंड झंझावात बन जाओ ।
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स्टीफेन स्पेण्डर सुनो युवको, सुनो युवा साथियो
बहुत देर हो चुकी है कि उन्हीं घरों में ठहरा जाये,
जिन्हें तुम्हारे पिताओं ने बनाया था कि जहां तुम
खूब नाम कमा सको, देर हो गयी बहुत
बनाने या गिनने के वास्ते कि क्या बनाया गया
गिनो अपने उन खूबसूरत स्वत्व को
जो शुरू होते हैं तुम्हारी देह और दहकती आत्मा से
तुम्हारी त्वचा के रोम, मांसपेशियों की श्रृंखला
झीलें तुम्हारे पांवों के आरपार गिनो अपनी आंखें जैसे
जवाहरात और सुनहरा यौवन
फिर गिनो सूर्य को और फिर अगणित प्रकाश को
चमचमाते हुए लहरों और धरती पर
बहुत देर हुई कि उन घरों में ठहरा जाये,
जहां भूतों का डेरा है,
महिलाएं हैं भिन-भिन मक्खियों की तरह कहरुबा में कैद
पूंजीपति जैसे कि भीत है मछलियों के जीवाश्म
कठोर चट्टान से कदम बढाओ साथी
पुनः सिरजने और पहाड़ी पर मीत के साथ सोने के वास्ते
बढो बगावत के लिए और याद रखो अपना स्वत्व
सभागार कभी नहीं बने भूतों का मकबरा।
अनुवाद : सुधीर सक्सेना
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शशिप्रकाश की कविता - अगर तुम युवा हो (छह)जब तुम्हें होना है
हमारे इस ऊर्जस्वी, सम्भावनासम्पन्न,
लेकिन अँधेरे, अभागे देश में
एक योद्धा शिल्पी की तरह
और रोशनी की एक चटाई बुननी है
और आग और पानी और फ़ूलों और पुरातन पत्थरों से
बच्चों का सपनाघर बनाना है,
तुम सुस्ता रहे हो
एक बूढ़े बरगद के नीचे
अपने सपनों के लिए एक गहरी कब्र खोदने के बाद।
तुम्हारे पिताओं को उनके बचपन में
नाजिम हिकमत ने भरोसा दिलाया था
धूप के उजले दिन देखने का,
अपनी तेज-रफ्तार नावें
चमकीले-नीले-खुले समन्दर में दौड़ाने का।
और सचमुच हमने देखे कुछ उजले दिन
और तेज-रफ्तार नावें लेकर
समन्दर की सैर पर भी निकले।
लेकिन वे थोड़े से उजले दिन
बस एक बानगी थे,
एक झलक-मात्र थे,
भविष्य के उन दिनों की
जो अभी दूर थे और जिन्हें तुम्हें लाना है
और सौंपना है अपने बच्चों को।
हमारे देखे हुए उजले दिन
प्रतिक्रिया की काली आँधी में गुम हो गये दशकों पहले
और अब रात के दलदल में
पसरा है निचाट सन्नाटा,
बस जीवन के महावृत्तान्त के समापन की
कामना या घोषणा करती बौद्धिक तांत्रिकों की
आवाजें सुनायी दे रही हैं यहाँ-वहाँ
हम नहीं कहेंगे तुमसे
सूर्योदय और दूरस्थ सुखों और
सुनिश्चित विजय
और बसन्त के उत्तेजक चुम्बनों के बारे में
कुछ बेहद उम्मीद भरी बातें
हम तुम्हें भविष्य के प्रति आश्वस्त नहीं
बेचैन करना चाहते हैं।
हम तुम्हें किसी सोये हुए गाँव की
तन्द्रिलता की याद नहीं,
बस नायकों की स्मृतियाँ
विचारों की विरासत
और दिल तोड़ देने वाली पराजय का
बोझ सौंपना चाहते हैं
ताकि तुम नये प्रयोगों का धीरज सँजो सको,
आने वाली लड़ाइयों के लिए
नये-नये व्यूह रच सको,
ताकि तुम जल्दबाज योद्धा की गलतियाँ न करो।
बेशक थकान और उदासी भरे दिन
आयेंगे अपनी पूरी ताकत के साथ
तुम पर हल्ला बोलने और
थोड़ा जी लेने की चाहत भी
थोड़ा और, थोड़ा और जी लेने के लिए लुभायेगी,
लेकिन तब जरूर याद करना कि किस तरह
प्यार और संगीत को जलाते रहे
हथियारबन्द हत्यारों के गिरोह
और किस तरह भुखमरी और युद्धों और
पागलपन और आत्महत्याओं के बीच
नये-नये सिद्धान्त जनमते रहे
विवेक को दफ़नाते हुए
नयी-नयी सनक भरी विलासिताओं के साथ।
याद रखना फिलिस्तीन और इराक को
और लातिन अमेरिकी लोगों के
जीवन और जंगलों के महाविनाश को,
याद रखना सब कुछ राख कर देने वाली आग
और सबकुछ रातोरात बहा ले जाने वाली
बारिश को,
धरती में दबे खनिजों की शक्ति को,
गुमसुम उदास अपने देश के पहाड़ों के
निःश्वासों को,
जहर घोल दी गयी नदियों के रुदन को,
समन्दर किनारे की नमकीन उमस को
और प्रतीक्षारत प्यार को।
एक गीत अभी ख़त्म हुआ है,
रो-रोकर थक चुका बच्चा अभी सोया है,
विचारों को लगातार चलते रहना है
और अन्ततः लोगों के अन्तस्तल तक पहुँचकर
एक अनन्त कोलाहल रचना है
और तब तक,
तुम्हें स्वयं अनेकों विरूपताओं
और अधूरेपन के साथ
अपने हिस्से का जीवन जीना है
मानवीय चीजों की अर्थवत्ता की बहाली के लिए
लड़ते हुए
और एक नया सौन्दर्यशास्त्र रचना है।
तुम हो प्यार और सौन्दर्य और नैसर्गिकता की
निष्कपट कामना,
तुम हो स्मृतियों और स्वप्नों का द्वन्द्व,
तुम हो वीर शहीदों के जीवन के वे दिन
जिन्हें वे जी न सके।
इस अँधेरे, उमस भरे कारागृह में
तुम हो उजाले की खिड़कियाँ,
अगर तुम युवा हो!
बहुत ही अच्छे श्रीमान जी बहुत ही बढ़िया और अच्छा साहित्य प्रदान कर रहे हैं
ReplyDeleteआने वाले युवा पीढ़ी और देश के प्रत्येक नौजवान के लिए बहुत आवश्यक है कि वह सही रास्ते पर जाए व सही दिशा में ले जाने के लिए एक अच्छे साहित्य की जरूरत है और आप वह काम कर रहे हैं
आपको और आपकी पूरी टीम को बधाई हो और हमसे जो उम्मीद करते हैं हम आपके सहायता के लिए तत्पर हैं
रामू कवि किसान नचार खेड़ा जींद हरियाणा हिंदुस्तान