अतीतजीविता बनाम भविष्योन्मुखता - गांव किसको प्यारा लगता है?
अतीतजीविता बनाम भविष्योन्मुखता
गांव किसको प्यारा लगता है?
कात्यायनी ( https://m.facebook.com/katyayani.lko )
जिसका पुश्तैनी आम का बाग था, दालान और सहन वाला घर था, गायें-भैंसें थीं, खेत थे, तालाब था, वह महानगरीय कंक्रीट के जंगल में अलगाव, बेगानगी और प्रदूषण को झेलता हुआ 'नास्टैल्जिक' होकर गांव के सुरम्य शांत माहौल और रागात्मकता को याद करता है (अब यह अलग बात है कि केवल याद ही करता है और लिखकर कागद कारे करता है, गांव लौट जाने का फैसला कत्तई नहीं लेता)। लेकिन गांव को लेकर वह व्यक्ति भला अतीतमोह-ग्रस्त कैसे हो, जिसके मां-बाप दूसरों के खेतों में काम करते थे, 'बड़मनई' लोगों के दुआर पर गाय-बैल की सानी-पानी करते थे, लकड़ी चीरते थे, झाड़ू-बुहारू करते थे और कदम-कदम पर अपमान झेलते थे। रात के अंधेरे में ''बाबू लोगों'' बागों से टपके हुए आम यदि छिपकर वे ला पाते थे तो उनके बच्चे उसका स्वाद चख पाते थे।
ऐसे परिवारों की नयी पीढ़ी यदि शहर में किसी छोटी-मोटी बाबूगीरी-मास्टरी जैसी नौकरी या दिहाड़ी मज़दूरी में लगी हुई है, तो वह गांव लौटने की कल्पना तक नहीं कर पाती। वहां उसके लिए है ही क्या? जातिगत स्तर पर अपमान के विभिन्न रूप आज भी मौज़ूद हैं। सामंतों की ड्योढि़यों पर और खेतों में बेगारी तो आज नहीं करनी पड़ती, लेकिन नये पूंजीवादी भूस्वामियों (सवर्ण और मध्य जातियों-दोनों के) के खेतों में मज़दूरी की जिस दर पर काम मिलता है, उसके मुकाबले दिल्ली-नोएडा-गुड़गांव के कारखानों की दिहाड़ी और पंजाब के फार्मरों के वहां काम करना कई गुना बेहतर होता है। शहर एक ग़रीब के लिए लाख बुरा हो, गांव के मुकाबले वहां उसे जनवादी और नागरिक अधिकार अधिक मिल जाते हैं। उसे कदम-कदम पर ग़रीबी और जाति के अपमान को उतने नंगे रूप में नहीं झेलना पड़ता, जितना गांव में झेलना पड़ता है। हाड़तोड़ मेहनत और नसनिचोड़ शोषण के बावजूद शहर में रोजगार के विकल्प विविधीकृत हो जाते हैं और इस मायने में शहर गांव की अपेक्षा अधिक ग़रीबपरवर होते हैं। एक मध्यवर्गीय औरत हर हाल में गांव की अपेक्षा शहर में रहना पसन्द करती है, क्योंकि यहां उसे चूल्हे-चौकठ की नीरस-उबाऊ घरेलू दासता से, आंशिक ही सही, मुक्ति का अवसर मिलता है। वह बिना लोकलाज की चिन्ता किये बाहर सड़क पर निकल सकती है, काम कर सकती है और कभी-कभार पति के साथ बाज़ार या पार्क में भी जा सकती है। मर्दवाद शहर की सड़कों पर भी है और कभी-कभी उसके बर्बर रूप भी सामने आते हैं, लेकिन गांवों में तो मर्दवाद हर हाल में बर्बर है। व्यभिचार अधिक जघन्य है लेकिन छिपा हुआ है। ''गांव की बहन-बेटी'' वाली रागात्मकता केवल एक कपोल-कल्पना है, खाप पंचायतों से लेकर घरों के भीतर यौन-उत्पीड़न तक-- यही ''ग्रामीण रागात्मकता'' की असलियत है। ऐसे में औरत, हर हाल में, कुछ जोखिम और कुछ अधिक मेहनत की कीमत चुकाकर भी, अपने रोजमर्रे के जीवन में उस आज़ादी को जीना चाहती है, जो उसे शहर में मिलती है।
अब ज़रा हम वैज्ञानिक-ऐतिहासिक तर्क की, समाज-विकास के वस्तुगत नियमों की बात करें। आधुनिक शहर उद्योग, वित्त और सेवा-क्षेत्र के केन्द्र के रूप में विकसित हुए (ज्ञान-विज्ञान और व्यापार के केन्द्र तो मध्यकालीन शहर भी थे)। कृषि से दस्तकारी से मैन्यूफैक्चरिंग से मशीनोफैक्चरिंग और फिर मशीनोफैक्चरिंग के दायरे में ऑटोमेशन का बढ़ते जाना-- यह उत्पादक शक्तियों की विकास की स्वाभाविक गति का नतीज़ा है। अबतक उत्पादक शक्तियों का यह विकास पूंजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के दायरे में हुआ है, यानी उत्पादन के साधनों के मालिकों द्वारा श्रमशक्ति बेचने वाली बहुसंख्यक आबादी की श्रमशक्ति की कीमत की ''विधिसम्मत चोरी'' करके मुनाफा कमाने और पूंजी का अम्बार खड़ा करने की गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा ही पूंजीवादी समाज में प्रगति की चालक-प्रेरक शक्ति होती है। यह बुनियादी तर्क उद्योग में ही नहीं, खेती में भी काम करता है। लेकिन उद्योग के मुकाबले खेती की एक सीमा है। उद्योग में पूंजी और उन्नत तकनीक के बूते उत्पादन बढ़ाने की कोई सीमा नहीं है, जबकि कृषि-उत्पादन की, तमाम मशीनीकरण के बावजूद, एक सीमा है। आप ज़मीन के क्षेत्रफल को खींच-तानकर फैला नहीं सकते, रात को फसल लगाकर सुबह नहीं काट सकते। चूंकि पूंजीवादी समाज में उत्पादन बढ़ाकर और विविधीकृत करके मुनाफा कूटने की संभावना बहुत अधिक है, इसलिए पूंजीवादी विकास औद्योगिक विकास का पर्याय प्रतीत होता है और पूंजीवादी समाज व्यवस्था में अनिवार्य तार्किक परिणति के तौर पर कृषि और उद्योग के बीच का तथा गांव और शहर के बीच का अन्तर बढ़ता जाता है। खाने-पीने की चीज़ें और उद्योगों के लिए कच्चा माल मुहैया कराने वाले स्रोत के रूप में खेती का बुनियादी स्थान बना रहेगा, लेकिन कुल इंसानी ज़रूरत की चीज़ों के उत्पादन में खेती की हिस्सेदारी पूंजीवादी समाज में (और उसके आगे भी) लगातार कम होती जायेगी। लोग सामंती समाज में उत्पीड़न, अकाल, भुखमरी आदि के कारण गांव से उजड़ते थे। आज उत्पीड़न से बहुत अधिक पूंजी की मार से लोग जगह-ज़मीन से उजड़ रहे हैं। छोटे और निचले मझोले किसान लगातार उजड़कर सर्वहारा और अर्द्ध सर्वहारा की कतारों में शामिल हो रही हैं और चूंकि पिछड़े इलाकों की खेती फाजिल श्रमशक्ति की इतनी अधिक मात्रा को खपा नहीं सकती, इसलिए वे शहरों और उन्नत खेती के इलाकों की ओर रोजी कमाने भाग रहे हैं। आलम यह है कि सिर्फ 2003 से 2013 के बीच 40 लाख किसान परिवारों ने खेती छोड़ दी। एक सर्वे के हिसाब से किसानों की 40 फीसदी आबादी किसी भी किस्म की छोटी-मोटी नौकरी का विकल्प मिलने पर तुरत खेती छोड़ने के लिए तैयार हैं। यही वजह है कि एक कांस्टेबल, पोस्टमैन या चपरासी की नौकरी के लिए घूस देने के लिए एक छोटा किसान अपनी दो या तीन बीघे की पूरी खेती बेच देने के लिए तैयार मिलता है। पिछले 25 वर्षों के दौरान भूमिहीन खेत मज़दूरों की संख्या में 15 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई है। कृषि और सम्बद्ध क्षेत्र पर निर्भर आबादी का अनुपात अब घटकर 49 प्रतिशत रह गया है और इस घटोत्तरी की रफतार लगातार तेज़ होती जा रही है।
यहां हम शहरी बुर्जुआ समाज के जीवन की प्रशंसा नहीं कर रहे हैं, बल्कि ''स्वर्गिक ग्राम्य जीवन'' का जो ''मैथिलीशरणगुप्तीय'' चित्र शहरी मध्यवर्गीय कूपमण्डूकों के दिमाग में बसा होता है, उसके हवाईपन को उजागर करने की कोशिश कर रहे हैं। पूंजीवादी समाज के विकास के साथ, सामाजिक जीवन पर उद्योग और वित्त का वर्चस्व बढ़ते जाने के साथ ही शहरीकरण होगा ही। हम पीछे की ओर नहीं लौट सकते। प्राकृतिक अर्थव्यवस्था, स्वावलम्बी परिवार-आधारित अर्थतंत्र, बार्टर सिस्टम और सीमित मुद्रा-चलन वाले स्थानीय बाज़ार आदि-आदि की ग्राम-स्वराज्य, हिन्द-स्वराज्य, आदर्श पंचायती राज जैसी यूटोपिया उन्हीं कूपमण्डूकों के दिमाग में आती है, जो राजनीतिक अर्थशास्त्र का ककहरा भी नहीं जानते, अभी एडम स्मिथ और रिकार्डो के क्लासिकी बुर्जुआ राजनीतिक अर्थशास्त्र तक भी नहीं पहुंचे हैं और अपनी प्रोटोटाइप सिसमोंदीय, प्रूधोंवादी या नरोदवादी खयालों की हवाई उड़ान भरते रहते हैं।
आज का पूंजीवाद असाध्य ढांचागत संकट का शिकार है, वह मज़दूरों को बर्बर ढंग से निचोड़ रहा है, बुर्जुआ जनवाद क्षरित-विघटित होकर नानाविध निरंकुशताओं, बर्बरताओं और फासिस्ट प्रवृत्तियों को जन्म दे रहा है, बुर्जुआ संस्कृति रुग्णता, पागलपन, अवसाद, घनघोर आत्मकेन्द्रण, अलगाव और बर्बरता का समुच्चय मात्र बनकर रह गयी है, मुनाफे की अन्धी हवस मनुष्य के साथ ही प्रकृति को भी लूट और निचोड़कर पर्यावरणीय महाविनाश के संकट को जन्म दे रही है, लेकिन इन सबका विकल्प हम अतीत में जाकर नहीं ढूंढ़ सकते। हम पीछे की ओर वापस नहीं लौट सकते। वर्तमान की बुराइयों का प्रतिकार हमें अतीत की ज़मीन पर खड़ा होकर नहीं, बल्कि भविष्य की ज़मीन पर खड़ा होकर करना होगा। अतीतजीवी यूटोपिया एक प्रतिगामी यूटोपिया होती है जो अन्ततोगत्वा लोगों को निराश करती है और यथास्थिति को बनाये रखने में सत्ताधारियों की मदद करती है।
समाज किसी की चाहत या कल्पना के हिसाब से नहीं बदलता। सामाजिक बदलाव के ठोस वस्तुगत नियम होते हैं। पूंजीवाद का बुनियादी अन्तरविरोध यह है कि उसने उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को, अधिकतम सम्भव हद तक, विश्व स्तर पर, चंद हाथों में संकेन्द्रित कर दिया है, जबकि उत्पादन की प्रक्रिया का, अधिकतम सम्भव स्तर तक समाजीकरण कर दिया है। इस तीखे अन्तरविरोध का समाधान अन्ततोगत्वा इसी रूप में सामने आयेगा कि उत्पादन के साधनों के स्वामित्व का भी समाजीकरण हो जाये। यानी तब एक ऐसा सामाजिक-राजनीतिक ढांचा अस्तित्व में आयेगा जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज पर उत्पादन करने वाले लोग का़बिज़ होंगे और फैसले की ताकत वास्तव में उनके हाथों में होगी। यहां से असमानता और शोषण के विलोपीकरण की एक लम्बी यात्रा शुरू होगी जिस दौरान बुर्जुआ विशेषाधिकारों और उन्हें बल देने वाली संस्कृति एवं सामाजिक संस्थाओं का विलोपन होता जायेगा, मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के अन्तर का विलोपन होता जायेगा और कृषि और उद्योग के बीच के तथा गांव और शहर के बीच के अन्तर का विलोपन होता जायेगा। जाहिर है ऐसा अपने आप नहीं होगा, इसके लिए बहुसंख्यक आम आबादी की पहलकदमी जगानी होगी, उनकी सर्जनात्मकता को निर्बंध करना होगा, उनकी सामूहिकता की प्रचण्ड शक्ति को गोलबन्द और संगठित करना होगा तथा उनके भविष्य-स्वप्नों और मुक्ति-आकांक्षाओं को धूल-राख की ढेरी से बाहर निकालकर नयी उड़ानों के लिए सक्षम शक्तिशाली पंख देने होंगे। यह काम कूपमण्डूक अतीतजीवी, गगनविहारी और किताबी कीड़े नहीं कर सकते। इसे वे बौद्धिक क्षमता वाले लोग ही कर सकते हैं, जो घोंसलों में दुबकने के बजाय तूफानों के दौरान ऊंची उड़ानें भरने का कलेजे में दम रखते हों।
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