एंटीबायोटिक दवाएं खाने से पहले ये संदेश जरूर पढ़ लें
एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस: मुनाफ़े के भँवर में
फँसे फ़ार्मा उद्योग का विनाशकारी भस्मासुर
डॉ॰ पावेल पराशर
एंटीबायोटिक यानी प्रतिजैविक का जन्म चिकित्सा
विज्ञान की एक महान परिघटना थी । 1928 में ऐलेग्ज़ैंडर फ़्लेमिंग द्वारा पहली
एंटीबायोटिक की खोज ने विश्व चिकित्सा विज्ञान को बदलकर रख दिया । एंटीबायोटिक
बीमारी न फैलने देने वाले रसायनों का एक ऐसा समूह है जो सूक्ष्मदर्शी कीटाणुओं ,
जीवाणुओं, फफूँदी तथा अन्य परजीवियों के द्वारा होने वाले
संक्रमण का नाश करता है । एंटीबायोटिक की खोज के बाद कई लाइलाज मानी जाने वाली
घातक संक्रामक बीमारियाँ जैसे टीबी, कोलेरा, टायफ़ॉएड, प्लेग,
निमोनिया, आदि के इलाज में जादू की छड़ी की तरह इसका
इस्तेमाल होने लगा व उन बीमारियों का जड़ से इलाज सम्भव हो गया जो एक ज़माने में
महामारी का रूप लेकर गाँव के गाँव साफ़ कर देती थीं। जिन मामूली बीमारियों का इलाज
उपलब्ध था, उन बीमारियों से भी छुटकारा पाने में महीनों लग
जाते थे, एंटीबायोटिक के इस्तेमाल से उनका इलाज सप्ताह भर से
भी कम में संभव होने लगा। एंटीबायोटिक के अस्तित्व में आने के बाद इंसान की मृत्यु
दर में ऐतिहासिक तेज़ी से गिरावट आई, जिसने इंसान की औसत जीवन प्रत्याशा को भी
बड़ी तेज़ी से बढ़ा दिया।
लेकिन आज इसी एंटीबायोटिक से जुड़ा एक विकराल
संकट चिकित्सा विज्ञान और मानव स्वास्थ्य के सामने इस क़दर मुँह बाए खड़ा है जिसका
यदि जल्द समाधान नहीं ढूँढा गया तो यह आने वाले दशकों में भयंकर विनाशकारी रूप
अख़्तियार कर लेगा। इस संकट का नाम है "एंटीबायोटिक रेजिस्टेंस" यानी
"प्रतिजैविक प्रतिरोध”। यदि जीवाणु (बैक्टीरिया) पर किसी ख़ास क़िस्म
के एंटीबायोटिक का असर होना बंद हो जाए, तो इसे एंटीबायोटिक
रेजिस्टेंस कहा जाता है । यह प्रतिरोध जीवाणु द्वारा उसके जीन (अनुवांशिकी की मूल
इकाई) के स्तर पर विकसित होता है। किसी भी नए प्रकार के आक्रमण से बचने के लिए एक
अलग प्रकार का प्रतिरोध विकसित करना पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक जीव का
स्वाभाविक गुण है जो बैक्टीरिया में भी पाया जाता है। बैक्टीरिया को यह अवसर
मुहैया कराया है एंटीबायोटिक के अत्यधिक उपयोग ने। एंटीबायोटिक के अत्यधिक
इस्तेमाल से बैकटेरिया के जीन में कुछ स्थाई बदलाव आ जाते हैं जो बैकटेरिया के
अंदर उस एंटीबायोटिक के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर देते हैं। इन्हें “म्यूटेशन”
अथवा “उत्परिवर्तन” कहा जाता है।
प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के बाद उस बैक्टीरिया पर एंटीबायोटिक का प्रभाव तो
ख़त्म होता ही है, ऐसे प्रतिरोधक बैक्टीरिया जब किसी अन्य स्वस्थ
व्यक्ति को संक्रमित करते हैं तो उसके अंदर भी उस एंटीबायोटिक के प्रति अक्रियाशील
रोग पैदा कर देते हैं। धीरे धीरे यह प्रतिरोधी बैक्टीरिया हमारी आबादी के भीतर
व्यापक रूप धारण करने लगता है और गंभीर जन-स्वास्थ्य संकट खड़ा कर देता है। आज
"सुपरबग" के नाम से कुख्यात कुछ ऐसे बैक्टीरिया पैदा हो गए हैं जो हर
तरह की एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुके हैं। टीबी जैसी भयंकर
बीमारियाँ जिनका अबतक इलाज 6-8 महीनों में पहली पंक्ति की चंद एंटीबायोटिक से
पूरा होकर रोग को जड़ से मिटा देता था, उस टीबी के लिए ज़िम्मेदार बैक्टीरिया के
भी ऐसे प्रतिरोधक प्रकार उत्पन्न हो गए हैं जो दूसरी और तीसरी पंक्ति के
एंटीबायोटिक दवाओं के इस्तेमाल से भी बेअसर हैं व भयंकर स्वास्थ्य संकट बनकर कई
देशों में मुँह बाए खड़े हैं। विदित हो कि थाईलैंड-कंबोडिया की सीमा पर एक प्रकार
का मलेरिया का कीटाणु पाया जाता है जिसने सभी दवाओं के विरुद्ध प्रतिरोधी क्षमता
विकसित कर ली है।
एंटीबायोटिक दवाओं का आज ज़रूरत से कहीं ज़्यादा मात्रा और व्यापकता
में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहा है। एंटीबायोटिक जिनका उत्पादन मुनाफ़ाख़ोर
फ़ार्मा कंपनियों के हाथों में है, अपने मुनाफ़े की हवस में इनकी खपत को
क़ानूनी-ग़ैरक़ानूनी हर हथकंडे अपनाकर बढ़ाने का काम कर रही हैं। मुनाफ़े के लिए
उत्पादित एंटीबायोटिक के बाज़ार में खपत को सुनिश्चित करने हेतु राजनीतिक व आर्थिक
रूप से बेहद ताक़तवर फ़ार्मा कंपनियों का इस क़दर दबाव है कि कई डॉक्टर और
फ़ार्मेसी वाले भी कमीशन के लिए एंटीबायोटिक को टॉफ़ी-चाकलेट की तरह बाँटने लगे
हैं। इसके अलावा आम जनता जानकारी के अभाव में साधारण अल्पकालिक सर्दी-ज़ुकाम,
डायरिया, वाइरल संक्रमण आदि के लिए भी बिना डॉक्टर की
पर्ची के यूँ ही एंटीबायोटिक लेकर इन प्रतिरोधक जीवाणुओं को फलने फूलने में अंजाने
में मदद कर रही है।
*बोलते आँकड़े, चीख़ती सच्चाइयाँ*:
एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2015 में भारत के
अस्पतालों में जन्म लेने वाले 55,000 शिशुओं की मौतें माँ से मिले एंटीबायोटिक
प्रतिरोधी बैक्टीरिया के संक्रमण की वजह से हुई। आज भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा
एंटीबायोटिक खपत करने वाला देश बन चुका है। पूरे विश्व की बात करें तो एक अनुमान
के अनुसार साल 2050 तक दुनिया में एक करोड़ से ज़्यादा मौतें
एंटीबायोटिक प्रतिरोध की वजह से होगी, यानी कैंसर से भी ज़्यादा।
*क्या करें*:
साधारण सर्दी ज़ुकाम, या अल्पकालिक
बीमारियों के लिए एंटीबायोटिक के इस्तेमाल से बचें
एंटीबायोटिक का इस्तेमाल डॉक्टर की पर्ची के
बग़ैर न करें
यदि एंटीबायोटिक लेना पड़ ही जाए तो डॉक्टर
द्वारा बताया गया डोज़ पूरा लें, न बीच में छोड़ें , न डोज़
कम करें
इन सबके अलावा सबसे ज़रूरी बात, फ़ार्मा
उद्योग और स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण व व्यापारीकरण जिसने फ़ार्मा कंपनियों के
मुनाफ़े की इस चूहा-दौड़ और अंधी हवस में नित नए और भयंकर होते जन-स्वास्थ्य
संकटों को जन्म दिया है, उस व्यवस्था पर प्रश्न उठाएँ, स्वास्थ्य
सेवाओं के निजीकरण के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करें। एंटीबायोटिक के नियंत्रित
इस्तेमाल हेतु फ़ार्मा कंपनियों और निजी अस्पतालों पर नकेल कसते कड़े नियम बनाने
के लिए सरकार पर दबाव डालें। मुफ़्त चिकित्सा और दवाएँ हर नागरिक का बुनियादी हक़
है और इसे सबको मुहैया कराती चिकित्सा व्यवस्था ही "सुपरबग" और “एंटीबायोटिक
रेजिस्टेंस” जैसे मुनाफ़ा-जनित जन-स्वास्थ्य संकटों और
महामारियों से हमें निजात दिला सकती है।
Absolutely true,without Doctors prescription enormous use of antibiotics can leads to long term harmful effect to human being.
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