सआदत हसन मंटो की कहानी - टोबा टेकसिंह Story - Toba Tek Singh / Saadat Hasan Manto

सआदत हसन मंटो की कहानी - टोबा टेकसिंह
बंटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख्याल आया कि अख्लाकी कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिन्दुस्तान के पागलखानों में हैं उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाय और जो हिन्दू और सिख पाकिस्तान के पागलखानों में है उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाय।
मालूम नहीं यह बात माकूल थी या गैर-माकूल थी। बहरहाल, दानिशमंदों के फैसले के मुताबिक इधर-उधर ऊँची सतह की कांफ्रेंसें हुई और िदन आखिर एक दिन पागलों के तबादले के लिए मुकर्रर हो गया। अच्छी तरह छान बीन की गयी। वो मुसलमान पागल जिनके लवाहिकीन (सम्बन्धी ) हिन्दुस्तान ही में थे वहीं रहने दिये गये थे। बाकी जो थे उनको सरहद पर रवाना कर दिया गया। यहां पाकिस्तान में चूंकि करीब-करीब तमाम हिन्दु सिख जा चुके थे इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिन्दू-सिख पागल थे सबके सब पुलिस की हिफाजत में सरहद पर पहुंचा दिये गये।
उधर का मालूम नहीं। लेकिन इधर लाहौर के पागलखानों में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चीमेगोइयां होने लगी। एक मुसलमान पागल जो बारह बरस से हर रोज बाकायदगी के साथ जमींदार पढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा-
-- मोल्हीसाब। ये पाकिस्तान क्या होता है ?
तो उसने बड़े गौरो फिक्र के बाद जवाब दिया-
-- हिन्दुस्तान में एक ऐसी जगह है जहां उस्तरे बनते हैं।
ये जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया।
इसी तरह एक और सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा--
-- सरदार जी हमें हिन्दुस्तान क्यों भेजा जा रहा है - हमें तो वहां की बोली नहीं आती।
दूसरा मुस्कराया-
-- मुझे तो हिन्दुस्तान की बोली आती है - हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ -आकड़ फिरते हैं।
एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' का नारा इस जोर से बुलन्द किया कि फर्श पर फिसल कर गिरा और बेहोश हो गया।
बाज पागल ऐसे थे जो पागल नहीं थे। उनमें अकसरियत ऐसे कातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे- दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि फांसी के फंदे से बच जायें। ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्या तकसीम हुआ और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सही वाकेआत से ये भी बेखबर थे। अखबारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे। उनकी गुफ्तगू (बातचीत) से भी वो कोई नतीजा बरआमद नहीं कर सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है, जिसको कायदे आजम कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलाहेदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है। यह कहां है ?इसका महल-ए-वकू (स्थल) क्या है इसके मुतअल्लिक वह कुछ नहीं जानते थे। यही वजह है कि पागल खाने में वो सब पागल जिनका दिमाग पूरी तरह माउफ नहीं हुआ था, इस मखमसे में गिरफ्तार थे कि वो पाकिस्तान में हैं या हिन्दुस्तान में। अगर हिन्दुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है। अगर वो पाकिस्तान में है तो ये कैसे हो सकता है कि वो कुछ अरसा पहले यहां रहते हुए भी हिन्दुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान, और हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ्तार हुआ कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और टहनी पर बैठ कर दो घंटे मुस्तकिल तकरीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिन्दुस्तान के नाजुक मसअले पर थी। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने को कहा तो वो और ऊपर चढ़ गया। डराया, धमकाया गया तो उसने कहा-
-- मैं न हिन्दुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में। मैं इस दरख्त पर ही रहूंगा।
एक एम. एससी. पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिल्कुल अलग-थलग, बाग की एक खास रविश (क्यारी) पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नमूदार हुई कि उसने तमाम कपड़े उतारकर दफादार के हवाले कर दिये और नंगधंडंग़ सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।
यन्यूट के एक मौटे मुसलमान पागल ने, जो मुस्लिम लीग का एक सरगर्म कारकुन था और दिन में पन्द्रह-सोलह मरतबा नहाता था, यकलख्त (एकदम) यह आदत तर्क (छोड़)कर दी। उसका नाम मुहम्मद अली था। चुनांचे उसने एक दिन अपने जिंगले में ऐलान कर दिया कि वह कायदे आजम मोहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखादेखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। करीब था कि उस जिंगले में खून-खराबा हो जाय, मगर दोनों को खतरनाग पागल करार देकर अलहदा-अलहदा बन्द कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिन्दू वकील था जो मुहब्बत में मुब्तिला होकर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिन्दुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। इसी शहर की एक हिन्दू लड़की से उसे मुहब्बत हो गयी थी। गो उसने इस वकील को ठुकरा दिया था, मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको नहीं भूला था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था, जिन्होंने मिल मिलाकर हिन्दुस्तान के दो टुकड़े कर दिये-- उसकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गयी और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को कई पागलों ने समझाया कि वह दिल बुरा न करे,उसको हिन्दुस्तान वापस भेज दिया जायेगा। उस हिन्दुस्तान में जहां उसकी महबूबा रहती है। मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था-- इस ख्याल से कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी।
यूरोपियन वार्ड में दो एंग्लो-इण्डियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिन्दुस्तान को आजाद करके अंग्रेज चले गये हैं तो उनको बहुत रंज हुआ। वह छुप-छुप कर इस मसअले पर गुफ्तगू करते रहते कि पागलखने में उनकी हैसियत क्या होगी। यूरापियन वार्ड रहेगा या उड़ जायगा। ब्रेकफास्ट मिलेगा या नहीं। क्या उन्हें डबलरोटी के बजाय ब्लडी इण्डियन चपाती तो जहरमार नहीं करनी पड़ेगी ?
एक सिख था जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पन्द्रह बरस हो चुके थे। हर वक्त उसकी जबान पर अजीबोगरीब अल्फाज सुनने में आते थे, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी बाल आफ दी लालटेन।' वो न दिन में सोता था न रात में। पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह बरस के तवील अर्से में एक एक लम्हे के लिए भी नहीं सोया। लेटा भी नहीं था। अलबना किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था।
हर वक्त खड़ा रहने से उसके पांव सूज गये थे। पिंडलियां भी फूल गयीं थीं। मगर इस जिस्मानी तकलीफ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुतअिल्लक जब कभी पागलखाने में गुफ्तगू होती थी तो वह गौर से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या खयाल है तो बड़ी संजीदगी से जवाब देता, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।'
लेकिन बाद में आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट की जगह आफ दी टोबा टेकसिंह गवर्नमेंट ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है जहां का वो रहने वाला है। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम था कि वो पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में। जो यह बताने की कोशिश करते थे वो खुद इस उलझाव में गिरफ्तार हो जाते थे कि स्याल कोटा पहले हिन्दुस्तान में होता था, पर अब सुना है कि पाकिस्तान में है। क्या पता है कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है कल हिन्दुस्तान में चला जायगा या सारा हिन्दुस्तान हीं पाकिस्तान बन जायेगा। और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब नहीं हो जायेंगे।
उस सिख पागल के केस छिदरे होके बहुत मुख्तसर रह गये थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था इसलिए दाढ़ी और बाल आपस में जम गये थे जिनके बाइस (कारण) उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गयी थी। मगर आदमी बेजरर (अहानिकारक) था। पन्द्रह बरसों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने मुलाजिम थे वो उसके मुतअलिक इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांधकर लाये और पागलखाने में दाखिल करा गये।
महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी खैर-खैरियत दरयाफ्त करके चले जाते थे। एक मुप्त तक ये सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान हिन्दुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उनका आना बन्द हो गया।
उसका नाम बिशन सिंह था। मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसको ये मालूम नहीं था कि दिन कौन-सा है, महीना कौन-सा है या कितने दिन बीत चुके हैं। लेकिन हर महीने जब उसके अजीज व अकारिब (सम्बन्धी) उससे मिलने के लिए आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वो दफादार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघा करता। अपने कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवा के पहनता और यूं सज-बन कर मिलने वालों के पास आता। वो उससे कुछ पूछते तो वह खामोश रहता या कभी-कभार 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी वेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी लालटेन ' कह देता। उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक उंगली बढ़ती-बढ़ती पन्द्रह बरसों में जवान हो गयी थी। बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था। वह बच्ची थी जब भी आपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आंख में आंसू बहते थे।पाकिस्तान और हिन्दुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है। जब इत्मीनान बख्श (सन्तोषजनक) जवाब न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब- दिन बढ़ती गयी। अब मुलाकात नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलने वाले आ रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बन्द हो गयी थी जो उसे उनकी आमद की खबर दे दिया करती थी।
उसकी बड़ी ख्वाहिश थी कि वो लोग आयें जो उससे हमदर्दी का इजहार करते थे ओर उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वो उनसे अगर पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो यकीनन वो उसे बता देते कि पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में, क्योंकि उसका ख्याल था कि वो टोबा टेकसिंह ही से आते हैं जहां उसकी जमीनें हैं।
पागलखाने में एक पागल ऐसा भी था जो खुद को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिन्दुस्तान में तो उसने हस्बेआदत (आदत के अनुसार) कहकहा लगाया और कहा--
-- वो न पाकिस्तान में है न हिन्दुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म नहीं लगाया।
बिशन सिंह ने इस खुदा से कई मरतबा बड़ी मिन्नत समाजत से कहा कि वो हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो, मगर वो बहुत मसरूफ था, इसलिए कि उसे ओर बेशुमार हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा, 'ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ वाहे गुरूजी दा खलसा एन्ड वाहे गुरूजी की फतह। जो बोले सो निहाल सत सिरी अकाल।' उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमान के खुदा हो, सिखों के खुदा होते तो जरूर मेरी सुनते। तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान दोस्त मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हट गया और वापस आने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका-- -- ये तुमसे मिलने आया है - तुम्हारा दोस्त फजलदीन है।
बिशन सिंह ने फजलदीन को देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा।
-- मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं लेकिन फुर्सत ही न मिली। तुम्हारे सब आदमी खैरियत से चले गये थे मुझसे जितनी मदद हो सकी मैने की। तुम्हारी बेटी रूप कौर...। वह कुछ कहते कहते रूक गया । बिशन सिंह कुछ याद करने लगा --
-- बेटी रूप कौर ।
फजलदीन ने रूक कर कहा-
-- हां वह भी ठीक ठाक है। उनके साथ ही चली गयी थी।
बिशन सिंह खामोश रहा। फजलदीन ने कहना शुरू किया-
-- उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी खैर-खैरियत पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिन्दुस्तान जा रहे हो। भाई बलबीर सिंह और भाई बिधावा सिंह से सलाम कहना-- और बहन अमृत कौर से भी। भाई बलबीर से कहना फजलदीन राजी-खुशी है। वो भूरी भैंसे जो वो छोड़ गये थे उनमें से एक ने कट्टा दिया है दूसरी के कट्टी हुई थी पर वो छ: दिन की हो के मर गयी और और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना, मै। हर वक्त तैयार हूं और ये तुम्हारे लिए थोड़े से मरून्डे लाया हूं।
बिशन सिंह ने मरून्डे की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलदीन से पूछा- -- टोबा टेकसिंह कहां है?
--टोबा टेकसिंह... उसने कद्रे हैरत से कहा-- कहां है! वहीं है, जहां था।
बिशन सिंह ने पूछा-- पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में?
--हिन्दुस्तान में...। नहीं-नहीं पाकिस्तान में...।
फजलदीन बौखला-सा गया। बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया-- ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी पाकिस्तान एन्ड हिन्दुस्तान आफ दी हए फिटे मुंह।
तबादले की तैयारियां मुकम्मल हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की फेहरिस्तें (सूचियां) पहुंच गयी थीं, तबादले का दिन भी मुकरर्र हो गया था। सख्त सर्दियां थीं। जब लाहौर के पागलखाने से हिन्दू-सिख पागलों से भरी हुई लारियां पुलिस के मुहाफिज दस्ते के साथ् रवाना हुई तो मुतअल्लिका (संबंधित ) अफसर भी हमराह थे। वाहगा के बार्डर पर तरफैन के (दोनों तरफ से) सुपरिटेंडेंट एक दूसरे से मिले और इब्तेदाई कार्रवाई खत्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। बाज तो बाहर निकलते ही नहीं थे। जो निकलने पर रजामन्द होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे उनको कपड़े पहनाये जाते, तो वो फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते क़ोई गालियां बक रहा है, कोई गा रहा है। आपस में लड़-झगड़ रहे हैं, रो रहे हैं, बक रहे हैं। कान पड़ी आवाज सुनायी नही देती थी-- पागल औरतों का शेरोगोगा अलग था और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत बज रहे थे।
पागलों की अकसरियत इस तबादले के हक में नहीं थी। इसलिए कि उनकी समझ में आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है। चन्द जो कुछ सोच रहे थे-- 'पाकिस्तान जिन्दाबाद' के नारे लगा रहे थे। दो-तीन मरतबा फसाद होते-होते बचा, क्योंकि बाज मुसलमान और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया।
जब बिशन सिंह की बारी आयी ओर वाहगा के उस पार मुतअल्लका अफसर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा-- टोबा टेकसिंह कहां है? पाकिस्तान में या हिन्दुस्तान में? -मुतअल्लका अफसर हंसा--पाकिस्तान में।
यह सुनकर विशनसिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने बाकी मांदा साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे। मगर उसने चलने से इन्कार कर दिया, और जोर-जोर से चिल्लाने लगा--टोबा टेकसिंह कहां है ओपड़ी गुड़गुड़ दी एन्क्स दी बेध्याना विमन्ग दी वाल आफ दी टोबा टेकसिंह एन्ड पाकिस्तान।
उसे बहुत समझाया गया कि देखों अब टोबा टेकसिंह हिन्दुस्तान में चला गया है। अगर नहीं गया तो उसे फौरन वहां भेज दिया जायगा। मगर वो न माना। जब उसको जबरदस्ती दूसरी तरफ ले जाने की कोशिश की गयी तो वह दरम्यान में एक जगह इस अन्दाज में अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे वहां से कोई ताकत नहीं हटा सकेगी।
आदमी चूंकि बेजरर था इसलिए उससे मजीद जबरदस्ती न की गयी। उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और बाकी काम होता रहा। सूरज निकलने से पहले साकित व साकिन (शान्त) बिशनसिंह हलक से एक फलक शगाफ (आसमान को फाड़ देने वाली ) चीख निकली -- इधर-उधर से कई अफसर दौड़ आये और देखा कि वो आदमी जो पन्द्रह बरस तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा, औंधे मुंह लेटा था। उधर खारदार तारों के पीछे हिन्दुस्तान था-- इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान। दरमियान में जमीन के इस टुकड़े पर, जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेकसिंह पड़ा था।

Toba Tek Singh

Saadat Hasan Manto, Translated from Urdu by  Richard McGill Murphy

Two or three years after Partition, the governments of Pakistan and India decided to exchange lunatics in the same way that they had exchanged civilian prisoners. In other words, Muslim lunatics in Indian madhouses would be sent to Pakistan, while Hindu and Sikh lunatics in Pakistani madhouses would be handed over to India.
I can't say whether this decision made sense or not. In any event, a date for the lunatic exchange was fixed after high level conferences on both sides of the border. All the details were carefully worked out. On the Indian side, Muslim lunatics with relatives in India would be allowed to stay. The remainder would be sent to the frontier. Here in Pakistan nearly all the Hindus and Sikhs were gone, so the question of retaining non-Muslim lunatics did not arise. All the Hindu and Sikh lunatics would be sent to the frontier in police custody.
I don't know what happened over there. When news of the lunatic exchange reached the madhouse here in Lahore, however, it became an absorbing topic of discussion among the inmates. There was one Muslim lunatic who had read the newspaper Zamindar1 every day for twelve years. One of his friends asked him: "Maulvi Sahib! What is Pakistan?" After careful thought he replied: "It's a place in India where they make razors."
Hearing this, his friend was content.
One Sikh lunatic asked another Sikh: "Sardar ji, why are they sending us to India? We don't even speak the language."
"I understand the Indian language," the other replied, smiling. "Indians are devilish people who strut around haughtily," he added.
While bathing, a Muslim lunatic shouted "Long live Pakistan!" with such vigor that he slipped on the floor and knocked himself out.
There were also some lunatics who weren't really crazy. Most of these inmates were murderers whose families had bribed the madhouse officials to have them committed in order to save them from the hangman's noose. These inmates understood something of why India had been divided, and they had heard of Pakistan. But they weren't all that well informed. The newspapers didn't tell them a great deal, and the illiterate guards who looked after them weren't much help either. All they knew was that there was a man named Mohammed Ali Jinnah, whom people called the Qaid-e-Azem. He had made a separate country for the Muslims, called Pakistan. They had no idea where it was, or what its boundaries might be. This is why all the lunatics who hadn't entirely lost their senses were perplexed as to whether they were in Pakistan or India. If they were in India, then where was Pakistan? If they were in Pakistan, then how was it that the place where they lived had until recently been known as India?
One lunatic got so involved in this India/Pakistan question that he became even crazier. One day he climbed a tree and sat on one of its branches for two hours, lecturing without pause on the complex issues of Partition. When the guards told him to come down, he climbed higher. When they tried to frighten him with threats, he replied: "I will live neither in India nor in Pakistan. I'll live in this tree right here!" With much difficulty, they eventually coaxed him down. When he reached the ground he wept and embraced his Hindu and Sikh friends, distraught at the idea that they would leave him and go to India.
One man held an M.S. degree and had been a radio engineer. He kept apart from the other inmates, and spent all his time walking silently up and down a particular footpath in the garden. After hearing about the exchange, however, he turned in his clothes and ran naked all over the grounds.
There was one fat Muslim lunatic from Chiniot who had been an enthusiastic Muslim League activist. He used to wash fifteen or sixteen times a day, but abandoned the habit overnight. His name was Mohammed Ali. One day he announced that he was the Qaid-e-Azem, Mohammed Ali Jinnah. Seeing this, a Sikh lunatic declared himself to be Master Tara Singh. Blood would have flowed, except that both were reclassified as dangerous lunatics and confined to separate quarters.
There was also a young Hindu lawyer from Lahore who had gone mad over an unhappy love affair. He was distressed to hear that Amritsar was now in India, because his beloved was a Hindu girl from that city. Although she had rejected him, he had not forgotten her after losing his mind. For this reason he cursed the Muslim leaders who had split India into two parts, so that his beloved remained Indian while he became Pakistani.
When news of the exchange reached the madhouse, several lunatics tried to comfort the lawyer by telling him that he would be sent to India, where his beloved lived. But he didn't want to leave Lahore, fearing that his practice would not thrive in Amritsar.
In the European Ward there were two Anglo-Indian lunatics. They were very worried to hear that the English had left after granting independence to India. In hushed tones, they spent hours discussing how this would affect their situation in the madhouse. Would the European Ward remain, or would it disappear? Would they be served English breakfasts? What, would they be forced to eat poisonous bloody Indian chapattis instead of bread?
One Sikh had been an inmate for fifteen years. He spoke a strange language of his own, constantly repeating this nonsensical phrase: "Upri gur gur di annexe di be-dhiyan o mung di daal of di lalteen."2 He never slept. According to the guards, he hadn't slept a wink in fifteen years. Occasionally, however, he would rest by propping himself against a wall.
His feet and ankles had become swollen from standing all the time, but in spite of these physical problems he refused to lie down and rest. He would listen with great concentration whenever there was discussion of India, Pakistan and the forthcoming lunatic exchange. Asked for his opinion, he would reply with great seriousness: "Upri gur gur di annexe di be-dhiyana di mung di daal of di Pakistan gornament."3
Later he replaced "of di Pakistan gornament" with "of di Toba Tek Singh gornament." He also started asking the other inmates where Toba Tek Singh was, and to which country it belonged. But nobody knew whether it was in Pakistan or India. When they argued the question they only became more confused. After all, Sialkot had once been in India, but was apparently now in Pakistan. Who knew whether Lahore, which was now in Pakistan, might not go over to India tomorrow? Or whether all of India might become Pakistan? And was there any guarantee that both Pakistan and India would not one day vanish altogether?
This Sikh lunatic's hair was unkempt and thin. Because he washed so rarely, his hair and beard had matted together, giving him a frightening appearance. But he was a harmless fellow. In fifteen years, he had never fought with anyone.
The attendants knew only that he owned land in Toba Tek Singh district. Having been a prosperous landlord, he suddenly lost his mind. So his relatives bound him with heavy chains and sent him off to the madhouse.
His family used to visit him once a month. After making sure that he was in good health, they would go away again. These family visits continued for many years, but they stopped when the India/Pakistan troubles began.
This lunatic's name was Bashan Singh, but everyone called him Toba Tek Singh. Although he had very little sense of time, he seemed to know when his relatives were coming to visit. He would tell the officer in charge that his visit was impending. On the day itself he would wash his body thoroughly and comb and oil his hair. Then he would put on his best clothes and go to meet his relatives.
If they asked him any question he would either remain silent or say: "Upri gur gur di annexe di be-dhiyana di mung di daal of di laaltein."
Bashan Singh had a fifteen-year-old daughter who grew by a finger's height every month. He didn't recognize her when she came to visit him. As a small child, she used to cry whenever she saw her father. She continued to cry now that she was older.
When the Partition problems began, Bashan Singh started asking the other lunatics about Toba Tek Singh. Since he never got a satisfactory answer, his concern deepened day by day.
Then his relatives stopped visiting him. Formerly he could predict their arrival, but now it was as though the voice inside him had been silenced. He very much wanted to see those people, who spoke to him sympathetically and brought gifts of flowers, sweets and clothing. Surely they could tell him whether Toba Tek Singh was in Pakistan or India. After all, he was under the impression that they came from Toba Tek Singh, where his land was.
There was another lunatic in that madhouse who thought he was God. One day, Bashan Singh asked him whether Toba Tek Singh was in Pakistan or India. Guffawing, he replied: "Neither, because I haven't yet decided where to put it!"
Bashan Singh begged this "God" to resolve the status of Toba Tek Singh and thus end his perplexity. But "God" was far too busy to deal with this matter because of all the other orders that he had to give. One day Bashan Singh lost his temper and shouted: "Upri gur gur di annexe di be-dhiyana di mung di daal of wahay Guru ji wa Khalsa and wahay Guru ji ki fatah. Jo bolay so nahal sat akal!"
By this he might have meant: "You are the God of the Muslims. If you were a Sikh God then you would certainly help me."
A few days before the day of the exchange, one of Bashan Singh's Muslim friends came to visit from Toba Tek Singh. This man had never visited the madhouse before. Seeing him, Bashan Singh turned abruptly and started walking away. But the guard stopped him.
"He's come to visit you. It's your friend Fazluddin," the guard said.
Glancing at Fazluddin, Bashan Singh muttered a bit. Fazluddin advanced and took him by the elbow. "I've been planning to visit you for ages, but I haven't had the time until now," he said. "All your relatives have gone safely to India. I helped them as much as I could. Your daughter Rup Kur . . ."
Bashan Singh seemed to remember something. "Daughter Rup Kur," he said.
Fazluddin hesitated, and then replied: "Yes, she's . . . she's also fine. She left with them."
Bashan Singh said nothing. Fazluddin continued: "They asked me to make sure you were all right. Now I hear that you're going to India. Give my salaams to brother Balbir Singh and brother Wadhada Singh. And to sister Imrat Kur also . . . Tell brother Balbir Singh that I'm doing fine. One of the two brown cows that he left has calved. The other one calved also, but it died after six days. And . . . and say that if there's anything else I can do for them, I'm always ready. And I've brought you some sweets."
Bashan Singh handed the package over to the guard. "Where is Toba Tek Singh?" he asked.
Fazluddin was taken aback. "Toba Tek Singh? Where is it? It's where it's always been," he replied.
"In Pakistan or in India?" Bashan Singh persisted.
Fazluddin became flustered. "It's in India. No no, Pakistan."
Bashan Singh walked away, muttering: "Upar di gur gur di annexe di dhiyana di mung di daal of di Pakistan and Hindustan of di dar fatay mun!"
Finally all the preparations for the exchange were complete. The lists of all the lunatics to be transferred were finalized, and the date for the exchange itself was fixed.
The weather was very cold. The Hindu and Sikh lunatics from the Lahore madhouse were loaded into trucks under police supervision. At the Wahga border post, the Pakistani and Indian officials met each other and completed the necessary formalities. Then the exchange began. It continued all through the night.
It was not easy to unload the lunatics and send them across the border. Some of them didn't even want to leave the trucks. Those who did get out were hard to control because they started wandering all over the place. When the guards tried to clothe those lunatics who were naked, they immediately ripped the garments off their bodies. Some cursed, some sang, and others fought. They were crying and talking, but nothing could be understood. The madwomen were creating an uproar of their own. And it was cold enough to make your teeth chatter.
Most of the lunatics were opposed to the exchange. They didn't understand why they should be uprooted and sent to some unknown place. Some, only half-mad, started shouting "Long live Pakistan!" Two or three brawls erupted between Sikh and Muslim lunatics who became enraged when they heard the slogans.
When Bashan Singh's turn came to be entered in the register, he spoke to the official in charge. "Where is Toba Tek Singh?" he asked. "Is it in Pakistan or India?"
The official laughed. "It's in Pakistan," he replied.
Hearing this, Bashan Singh leapt back and ran to where his remaining companions stood waiting. The Pakistani guards caught him and tried to bring him back to the crossing point, but he refused to go.
"Toba Tek Singh is here!" he cried. Then he started raving at top volume: "Upar di gur gur di annexe di be-dhiyana mang di daal of di Toba Tek Singh and Pakistan!"
The officials tried to convince him that Toba Tek Singh was now in India. If by some chance it wasn't they would send it there directly, they said. But he wouldn't listen.
Because he was harmless, the guards let him stand right where he was while they got on with their work. He was quiet all night, but just before sunrise he screamed. Officials came running from all sides. After fifteen years on his feet, he was lying face down on the ground. India was on one side, behind a barbed wire fence. Pakistan was on the other side, behind another fence. Toba Tek Singh lay in the middle, on a piece of land that had no name.
1 "The Landowner" 2 Literally: "The lack of contemplation and lentils of the annexe of the above raw sugar of the lantern." 3 "Gornament": Punjabi pronunciation of the English "government."

Comments

Popular posts from this blog

केदारनाथ अग्रवाल की आठ कविताएँ

कहानी - आखिरी पत्ता / ओ हेनरी Story - The Last Leaf / O. Henry

अवतार सिंह पाश की सात कविताएं Seven Poems of Pash