कविता - दिलरुबा के सुर / शुभा


दिलरुबा के सुर

शुभा
कश्मीर के वर्तमान हालात पर एक कविता हाल ही में कवयित्री शुभा द्वारा लिखी गई है। वहां के दुखद हालात का जो चित्र शुभा ने उकेरा है है ऐसा हाल ही में कश्मीर पर किसी कविता में देखने में नजर नहीं आता। लेकिन चूंकि मुद्दा कश्मीर का है इसलिए लोग कविता पढ़ने से पहले ही कमेंट करना शुरू कर देंगे। इसलिए पहले थोड़ी बातें कश्मीर के बारे में ।
राज्य सत्ता और मीडिया द्वारा फैलाए गए पूर्वाग्रह कितने खतरनाक होते हैं यह भारत में कश्मीर मुद्दे को लेकर समझा जा सकता है। जब भी कश्मीर की बात होती है तो कश्मीर के अलावा देश के बाकी हिस्‍सों के ज्यादातर लोगों के लिए वह एक जमीन है जिसे भारत को कब्जा करके रखना है। वहां के लोगों के सपनों और आकांक्षाओं के बारे में कोई बात नहीं होती। इस पर भी कोई बात नहीं होती कि क्या कारण है की 1947-48 में जो कश्मीर पाकिस्तान के साथ ना जा कर भारत के निकट आया वह आज ऐसा क्यों हो गया है कि वह भारत के सत्ताधारियों से बेहद नफरत करने लगा। भारत की आज़ादी के वक़्त जम्मू एवं कश्मीर में लगभग 77 फ़ीसदी आबादी मुस्लिम थी। यदि सिर्फ़ कश्मीर घाटी की बात की जाये तो वहाँ 94 फ़ीसदी से भी ज़्यादा आबादी मुस्लिम थी। जो आज कश्‍मीर मुद्दे को हिन्‍दु-मुस्लिम मुद्दा बनाकर पेश करते हैं, वो इसका जवाब नहीं दे पाते कि अगर कश्‍मीर को पाकिस्‍तान के साथ मिलना होता तो वो 47 में ही मिल जाता। 
बहुत कम लोग हैं जो इस मुद्दे पर संवेदनशीलता के साथ सोचने को राजी होते हैं। सवाल यह उठता है कि कश्मीर के वर्तमान हालात जिसमें एक तरफ तो वहां की निर्दोष जनता मारी जा रही है तो दूसरी तरफ भारत के गरीब मेहनतकशों के बेटे आर्मी के माध्यम से जाकर वहां अपनी जान गवा रहे हैं, उन हालातों को बदलने का क्‍या रास्‍ता हो सकता है? इन सवालों पर पूर्वाग्रह से हटकर सोचने की जरूरत है। जो इस समस्‍या के इतिहास पर अध्‍ययन करना चाहते हैं उनसे कहेंगे कि ये लेख जरूर पढ़ें - http://www.mazdoorbigul.net/archives/6735

अब पढ़ें कवयित्री शुभा द्वारा लिखी गई कविता


हमारे कन्धे इस तरह बच्चों को उठाने के लिये नहीं बने हैं

क्या यह बच्चा इसलिये पैदा हुआ था
तेरह साल की उम्र में 
गोली खाने के लिये

क्या बच्चे अस्पताल जेल और क़ब्र के लिये बने हैं

क्या वे अन्धे होने के लिये बने हैं

अपने दरिया का पानी उनके लिये बहुत था

अपने पेड़ घास पत्तियां और साथ के बच्चे उनके लिये बहुत थे

छोटा-मोटा स्कूल उनके लिये 

बहुत था
ज़रा सा सालन और चावल उनके लिये बहुत था
आस-पास के बुज़ुर्ग और मामूली लोग उनके लिये बहुत थे
वे अपनी मां के साथ फूल पत्ते लकड़ियां चुनते
अपना जीवन बिता देते 
मेमनों के साथ हंसते खेलते

वे अपनी ज़मीन पर थे 

अपनों के दुख - सुख में थे 
तुम बीच में कौन हो

सारे क़रार तोड़ने वाले

शेख़ को जेल में डालने वाले 
गोलियां चलाने वाले
तुम बीच में कौन हो

हमारे बच्चे बाग़ी हो गए

न कोई ट्रेनिंग 
न हथियार
वे ख़ाली हाथ तुम्हारी ओर आए
तुमने उन पर छर्रे बरसाए

अन्धे होते हुए 

उन्होंने पत्थर उठाए जो
उनके ही ख़ून और आंसुओं से तर थे

सारे क़रार तोड़ने वालों

गोलियों और छर्रों की बरसात 
करने वालों
दरिया बच्चों की ओर है

चिनार और चीड़ बच्चों की ओर है

हिमाले की बर्फ़ बच्चों की ओर है

उगना और बढ़ना

हवायेंऔर पतझड़
जाड़ा और बारिश
सब बच्चों की ओर है
बच्चे अपनी कांगड़ी नहीं छोड़ेंगे
मां का दामन नहीं छोड़ेंगे
बच्चे सब इधर हैं

क़रार तोड़ने वालों

सारे क़रार बीच में रखे जाएंगे
बच्चों के नाम उनके खिलौने 
बीच में रखे जायेंगे
औरतों के फटे दामन
बीच में रखे जायेंगे
मारे गये लोगों की बेगुनाही
बीच में रखी जायेगी
हमें वजूद में लाने वाली
धरती बीच में रक्खी जायेगी

मुक़द्मा तो चलेगा 

शिनाख़्त तो होगी
हश्र तो यहां पर उट्ठेगा.

स्कूल बंद है

शादियों के शामियाने उखड़े पड़े हैं
ईद पर मातम है
बच्चों को क़ब्रिस्तान ले जाते लोग
गर्दन झुकाए हैं
उन पर छर्रों और गोलियों की बरसात है.



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