कविता - बाज़ार / कविता कृष्‍णपल्‍लवी


बाज़ार

कविता कृष्‍णपल्‍लवी 

बाज़ार हमें खुश रहने का आदेश देता हैI
मौतों, युद्धों, अभावों, भुखमरी, और संगीनों के साये तले
बाज़ार हमें खुशियाँ ख़रीदने के लिए उकसाता हैI
बाज़ार एक मसीहा का चोला पहनकर हमें हमारी ज़िंदगी के
अँधेरों से बाहर खींच लाने का भरोसा देता हैI
बाज़ार हमें शोर और चकाचौंध भरी रोशनी की ओर बुलाता हैI
बाज़ार हमें हमारी पसंद बताता है
और बताता है कि सबकुछ ख़रीदा और बेचा जा सकता हैI
.
हम बहुत सारी चमकदार और जादुई चीज़ें खरीदते हैं
और लालच, हिंसा, स्वार्थपरता, ईर्ष्या, प्रतिस्पर्द्धा
और ढेर सारी मानसिक और शारीरिक बीमारियाँ
उनके साथ-साथ घर चली आती हैंI
.
कुछ लोग बाज़ार में बेचते हैं अपना हुनर,
कुछ काम करने की क़ूव्वत,
कुछ अपनी ज़रूरी चीज़ें,
कुछ अपनी स्मृतियाँ, स्वप्न और कल्पनाएँ
और कुछ लोग अपनी आत्माI
.
बाज़ार पुरस्कृत करता है कवियों-कलाकारों-शिल्पियों को,
बाज़ार समाज-सेवियों को समाज-सेवा के लिए
मुक्त-हस्त मदद करता है और इसतरह
एक मानवीय चेहरा हासिल करता है
बाज़ार-विस्तार की नयी संभावनाओं के साथ-साथI
बाज़ार अपने जादू के जोर से कोई भी चीज़ कहीं
बेच सकता है जैसेकि कुत्ता-मंडी में कला
सूअरों के मेले में समाज-सेवा
और बैलों के हाट में बुद्धिमत्ता !
बाज़ार को जब दिखाना होता है कि वही है मानवता का भविष्य
और मुक्ति की सारी संभावनाएँ उसी की चौहद्दियों में क़ैद हैं
तो वह पूँजी की पतुरिया को
समाजवाद के परिधान पहनाकर उसके साथ
मधुयामिनी मनाने लगता हैI
.
हर रौशन बाज़ार के पीछे
गहन अँधेरे का एक विस्तार होता है
नीम उजाले के पैबन्दों से भरा हुआ
जहाँ बाज़ार में अपनी हड्डियाँ और खून बेचकर
लौटे हुए गुलाम पनाह लिए होते हैं,
जहाँ नदियाँ सूखती होती हैं,
धरती के नीचे पानी में ज़हर घुलता रहता है,
ग्लेशियर सिकुड़ते होते हैं ,
पशु-पक्षियों की अनगिन प्रजातियाँ विलुप्त होती रहती हैं,
जंगल कटते होते हैं और
खेत बंजर होते जाते हैंI
.
(17 दिसंबर, 2018)



Comments

  1. बाजारबाद-पूंजीवाद सटीक काव्यात्मक विश्लेषण।

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