सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की चार कविताएं व एक कहानी
हिंदी के प्रसिद्ध प्रगतिशील कवि
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की चार कविताएं व एक कहानी
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कविता-1 हंजूरी
काम न मिलने पर
अपने तीन भूखे बच्चों को लेकर
कूद पड़ी हंजूरी कुएं में
कुएं का पानी ठण्डा था।
बच्चों की लाश के साथ
निकाल ली गयी हंजूरी कुंए से
बाहर की हवा ठण्डी थी।
हत्या और आत्महत्या के अभियोग में
खड़ी थी हंजूरी अदालत में
अदालत की दीवारें ठण्डी थीं।
फिर जेल में पड़ी रही हंजूरी
पेट पालती
जेल का आकाश ठण्डा था।
लेकिन आज जब वह जेल के बाहर है
तब पता चला है
कि सब कुछ ठण्डा ही नहीं था –
सड़ा हुआ था
सड़ा हुआ है
सड़ा हुआ रहेगा।
कबतक?
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कविता-2 लड़ाई
जारी है
जारी है-जारी है
अभी लड़ाई जारी है।
यह जो छापा तिलक लगाए और जनेऊंधारी
है
यह जो जात पांत पूजक है यह जो भ्रष्टाचारी है
यह जो भूपति कहलाता है जिसकी साहूकारी है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।
यह जो तिलक मांगता है, लडके की धौंस जमाता है
कम दहेज पाकर लड़की का जीवन नरक बनाता है
पैसे के बल पर यह जो अनमोल ब्याह रचाता है
यह जो अन्यायी है सब कुछ ताकत से हथियाता है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।
यह जो काला धन फैला है, यह जो चोरबाजारी हैं
सत्ता पाँव चूमती जिसके यह जो सरमाएदारी है
यह जो यम-सा नेता है, मतदाता की लाचारी है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।
जारी है-जारी है
अभी लड़ाई जारी है।
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कविता-3 देश
कागज पर बना नक्शा नहीं होता
यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।
देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।
ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।
आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।
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कविता-4 सूरज
को नही डूबने दूंगा
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।
देखो मैंने कंधे चौड़े कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है।
घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ।
सूरज ठीक जब पहाडी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूंगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को नही डूबने दूँगा।
मैंने सुना है उसके रथ में तुम हो
तुम्हें मैं उतार लाना चाहता हूं
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनी का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हें मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूं।
रथ के घोड़े
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नही होंगे
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिये है।
कौन रोकेगा तुम्हें
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हें सजाऊँगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतो में मैं तुम्हे गाऊँगा
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है
हर आँखों में तुम्हें सपनों सा फहराऊँगा।
सूरज जायेगा भी तो कहाँ
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारी रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगों में
तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को
नही डूबने दूंगा।
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कहानी - सफेद गुड़
दुकान पर सफेद गुड़ रखा था. दुर्लभ
था. उसे देखकर बार-बार उसके मुंह से पानी आ जाता था. आते-जाते वह ललचाई नजरों से
गुड़ की ओर देखता, फिर मन मसोसकर रह जाता.
आखिरकार उसने हिम्मत की और घर जाकर
मां से कहा. मां बैठी फटे कपड़े सिल रही थी. उसने आंख उठाकर कुछ देर दीन दृष्टि से
उसकी ओर देखा, फिर ऊपर आसमान की ओर देखने लगी और
बड़ी देर तक देखती रही. बोली कुछ नहीं. वह चुपचाप मां के पास से चला गया. जब मां
के पास पैसे नहीं होते तो वह इसी तरह देखती थी. वह यह जानता था.
वह बहुत देर गुमसुम बैठा रहा,
उसे अपने वे साथी याद आ रहे थे जो उसे
चिढ़-चिढ़ाकर गुड़ खा रहे थे. ज्यों-ज्यों उसे उनकी याद आती, उसके भीतर गुड़ खाने की लालसा और तेज होती जाती.
एकाध बार उसके मन में मां के बटुए से पैसे चुराने का भी ख्याल आया. यह ख्याल आते
ही वह अपने को धिक्कारने लगा और इस बुरे ख्याल के लिए ईश्वर से क्षमा मांगने लगा.
उसकी उम्र ग्यारह साल की थी. घर में
मां के सिवा कोई नहीं था. हालाँकि मां कहती थी कि वे अकेले नहीं हैं, उनके साथ ईश्वर है. वह चूँकि मां का कहना मानता
था इसलिए उसकी यह बात भी मान लेता था. लेकिन ईश्वर के होने का उसे पता नहीं चलता
था. मां उसे तरह-तरह से ईश्वर के होने का यकीन दिलाती. जब वह बीमार होती, तकलीफ में कराहती तो ईश्वर का नाम लेती और जब
अच्छी हो जाती तो ईश्वर को धन्यवाद देती. दोनों घंटों आंख बंद कर बैठते. बिना पूजा
किए हुए वे खाना नहीं खाते. वह रोज सुबह-शाम अपनी छोटी-सी घंटी लेकर, पालथी मारकर संध्या करता. उसे संध्या के सारे
मंत्र याद थे, उस समय से ही जब उसकी जबान तोतली थी.
अब तो यह साफ बोलने लगा था.
वे एक छोटे-से कस्बे में रहते थे. मां एक स्कूल
में अध्यापिका थी. बचपन से ही वह ऐसी कहानियाँ मां के सुनता था. जिनमें यह बताया
जाता था कि ईश्वर अपने भक्तों का कितना ख्याल रखते हैं. और हर बार ऐसी कहानी सुनकर
वह ईश्वर का सच्चा भक्त बनने की इच्छा से भर जाता. दूसरे भी उसके पीठ ठोंकते,
और कहते, ‘बड़ा शरीफ लड़का है. ईश्वर उसकी मदद करेगा.’ वह भी जानता कि ईश्वर
उसकी मदद करेगा. लेकिन कभी इसका कोई सबूत उसे नहीं मिला था.
उस दिन जब वह सफेद गुड़ खाने के लिए
बेचैन था तब उसे ईश्वर याद आया. उसने खुद को धिक्कारा, उसे मां से पैसे मांगकर मां को दुखी नहीं करना चाहिए था. ईश्वर किस
दिन के लिए है? ईश्वर का ख्याल आते ही वह खुश हो
गया. उसके अंदर एक विचित्र-सा उत्साह आ गया. क्योंकि वह जानता था कि ईश्वर सबसे
अधिक ताकतवर है. वह सब जगह है और सब कुछ कर सकता है. ऐसा कुछ भी नहीं जो वह न कर
सके. तो क्या वह थोड़ा-सा गुड़ नहीं दिला सकता? उसे जो कि बचपन से ही उसकी पूजा करता आ रहा है और जिसने कभी कोई बुरा
काम नहीं किया, कभी चोरी नहीं की, किसी को सताया नहीं. उसने सोचा और इस भाव से भर
उठा कि ईश्वर जरूर उसे गुड़ देगा.
वह तेजी से उठा और घर के अकेले कोने
में पूजा करने बैठ गया. तभी मां ने आवाज दी, ‘बेटा, पूजा से उठने के बाद बाजार से नमक ले
आना.’
उसे लगा जैसे ईश्वर ने उसकी पुकार
सुन ली है. वरना पूजा पर बैठते ही मां उसे बाजार जाने को क्यों कहती. उसने ध्यान
लगाकर पूजा की, फिर पैसे और झोला लेकर बाजार की ओर
चल दिया.
घर से निकलते ही उसे खेत पार करने
पड़ते थे, फिर गाँव की गली जो ईंटों की बनी हुई
हुई थी, फिर बाजार की ओर चल दिया.
उस समय शाम हो गई थी. सूरज डूब रहा
था. वह खेतों में चला जा रहा था, आंखें
आधी बंद किए, ईश्वर पर ध्यान लगाए और संध्या के
मंत्रो को बार-बार दोहराते हुए. उसे याद नहीं उसने कितनी देर में खेत पार किए,
लेकिन जब वह गाँव की ईंटों की गली में आया तब
सूरज डूब चुका था और अंधेरा छाने लगा था. लोग अपने-अपने घरों में थे. धुआँ उठ रहा
था. चौपाए खामोश खड़े थे. नीम सर्दी के दिन थे.
उसने पूरी आंख खोलकर बाहर का कुछ भी
देखने की कोशिश नहीं की. वह अपने भीतर देख रहा था जहाँ अँधेरे में एक झिलमिलाता
प्रकाश था. ईश्वर का प्रकाश और उस प्रकाश के आगे वह आंखें बंद किए मंत्रपाठ कर रहा
था.
अचानक उसे अजान की आवाज सुनाई दी.
गाँव के सिरे पर एक छोटी-सी मस्जिद थी. उसने थोड़ी-सी आंखें खोलकर देखा. अँधेरा
काफी गाढ़ा हो गया था. मस्जिद के एक कमरे बराबर दालान में लोग नमाज के लिए इकट्ठे
होने लगे थे. उसके भीतर एक लहर-सी आई. उसके पैर ठिठक गए. आंखें पूरी बंद हो गईं.
वह मन-ही-मन कह उठा, ‘ईश्वर यदि तुम हो और सच्चे मन से
तुम्हारी पूजा की है तो मुझे पैसे दो, यहीं
इसी वक्त.’
वह वहीं गली में बैठ गया. उसने जमीन पर हाथ रखा.
जमीन ठंडी थी. हाथों के नीचे कुछ चिकना-सा महसूस हुआ. उल्लास की बिजली-सी उसके
शरीर में दौड़ गई. उसने आंखें खोलकर देखा. अँधेरे में उसकी हथेली में अठन्नी दमक
रही थी. वह मन-ही-मन ईश्वर के चरणों में लोट गया. खुशी के समुद्र में झूलने लगा.
उसने उस अठन्नी को बार-बार निहारा, चूमा,
माथे से लगाया. क्योंकि वह एक अठन्नी ही नहीं था.
उस गरीब पर ईश्वर की कृपा थी. उसकी सारी पूजा और सच्चाई का ईश्वर की ओर से इनाम
था. ईश्वर जरूर है, उसका मन चिल्लाने लगा. भगवान मैं
तुम्हारा बहुत छोटा-सा सेवक हूँ. मैं सारा जीवन तुम्हारी भक्ति करूँगा. मुझे कभी
मत बिसराना. उलटे-सीधे शब्दों में उसने मन-ही-मन कहा और बाजार की तरफ दौड़ पड़ा.
अठन्नी उसने जोर से हथेली में दबा रखी थी.
जब वह दुकान पर पहुँचा तो लालटेन जल
चुकी थी. पंसारी उसके सामने हाथ जोड़े बैठा था. थोड़ी देर में उसने आंख खोली और
पूछा, ‘क्या चाहिए?’
उसने हथेली में चमकती अठन्नी देखी और
बोला, ‘आठ आने का सफेद गुड़.’
यह कहकर उसने गर्व से अठन्नी पंसारी
की तरफ गद्दी पर फेंकी. पर यह गद्दी पर न गिर उसके सामने रखे धनिए के डिब्बे में
गिर गई. पंसारी ने उसे डिब्बे में टटोला पर उसमें अठन्नी नहीं मिली. एक छोटा-सा
खपड़ा (चिकना पत्थर) जरूर था जिसे पंसारी ने निकाल कर फेंक दिया.
उसका चेहरा एकदम से काला पड़ गया.
सिर घूम गया. जैसे शरीर का खून निकाल गया हो. आंखें छलछला आईं.
‘कहाँ गई अठन्नी!’ पंसारी ने भी हैरत
से कहा.
उसे लगा जैसे वह रो पड़ेगा.
देखते-देखते सबसे ताकतवर ईश्वर की उसके सामने मौत हो गई थी. उसने मरे हाथों से जेब
से पैसे निकाले, नमक लिया और जाने लगा.
दुकानदार ने उसे उदास देखकर कहा,
‘गुड़ ले लो, पैसे फिर आ जाएँगे.’
‘नहीं.’ उसने कहा और रो पड़ा.
‘अच्छा पैसे मत देना. मेरी ओर से
थोड़ा-सा गुड़ ले लो.’ दुकानदार ने प्यार से कहा और एक टुकड़ा तोड़कर उसे देने
लगा. उसने मुंह फिरा लिया और चल दिया. उसने ईश्वर से मांगा था, दुकानदार से नहीं. दूसरों की दया उसे नहीं चाहिए.
लेकिन अब वह ईश्वर से कुछ नहीं
मांगता.
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